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Saturday, March 19, 2011

पशु और उनसे फैलती महामारियां

मैडकाउ, एन्थ्रौक्स, सार्स, बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू  जैसी संक्रामक बीमारियां समय-समय पर विश्व भर में आतंक फैलाती रही हैं। विगत कुछ वर्षों में ही पशुओं के जरिए इंसानों में बीमारी फैलने के पांच-छ: मामले सामने आ चुके हैं। जब ये बीमारियां फैलती हैं तो उन दिनों कुछ देशों में संकट-स्थिति(हाई-अलर्ट) घोषित कर दी जाती है, हवाई अड्डों पर बाहर से आने वालों की सघन जांच की जाती है। कुछ समय पहले जब मेक्सिको में स्वाइन फ्लू से 200 मौतें हुई तब वहां के राष्ट्रपति ने पूरे देश में पांच दिन का आर्थिक बंद घोषित कर दिया था और लोगों को घरों में रहने की सलाह दी। स्कूल-कॉलेज, सिनेमाघर, नाइट क्लब सब बंद कर दिए गए और यहां तक कि फुटबाल मैच भी रद्द कर दिए गए। मिस्र में बतौर सावधानी तीन लाख सुअरों को मारने के आदेश जारी कर दिए गए। इससे पहले एन्थ्रौक्स, सार्स, बर्ड फ्लू, मैडकाउ डिजीज़ आदि से भारी तबाही मची थी। बीमारियों से आंतकित इन्सान ने हज़ारों-लाखों मुर्गियों, गायों, सुअरों को महज शक की वजह से मार डालता है । बर्ड फ्लू के डर से भारत के असम, पं. बंगाल, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भी लाखों मुर्गियों को मौत के घाट उतारा गया। इंग्लैंड सहित अन्य देशों में मैड काउ रोग के कारण लाखों गायों को कत्ल कर दिया गया।
दरअसल इन रोगों और इनके फैलने का एक बड़ा कारण तो है मांस के लिए आधुनिक ढंग से औद्योगिक पशुपालन। मांसाहार बहुत पहले से ही मनुष्य के भोजन का हिस्सा रहा है और भोजन के लिए हजारों सालों से पशुपालन किया जाता रहा है। किंतु वर्तमान आधुनिक औद्योगिक पशुपालन बेहद अप्राकृतिक , बर्बरतापूर्ण, प्रदूषणकारी और विशुद्ध लाभ पर आधारित एक बिल्कुल ही अलग धन्धा है। आज इस व्यापार ने लालच और स्वार्थ की सारी सीमाएं लांघ ली हैं।  इस तरह का व्यापार करने वाले पशु-पालक न तो पशुओं को खुले चारागाहों या खेतों में चराते हैं और न ही उन्हें कुदरती भोजन देते हैं। इन फार्म हाउसिज में दड़बेनुमा बाड़ों में हजारों-लाखों पशुओं को एक साथ पाला जाता है, जहां उनके  घूमने-फिरने, उठने बैठने तक की जगह ढ़ंग से नहीं होती। यहां साफ-सफाई की भी उचित व्यवस्था भी नहीं होती। इन पशुओं को रसायनयुक्त आहार तथा दवाइयां एवं हार्मोन देकर, कम समय में ज्यादा से ज्यादा मोटा-ताजा करने की कौशिश की जाती है।  फैक्टरीनुमा पशुपालन पहले मुर्गियां से शुरू हुआ, उसके बाद सुअरों और गायों तथा भैंसों को भी ऐसे ही पाला जाने लगा। अमरीकी लेखक मिडिकिफ तो इस तरह की कंपनियों के आधुनिक मांस कारखानों को अपनी किताब में 'पीड़ा और गंदगी का निरंतर फैलता हुआ दायरा कहते हैं और एम.जे. वाट्स इनकी तुलना उच्च तकनीकी यातना गृहों से करते हैं ।
हो सकता है बरसों पहले इंग्लैंड में फैला मैडकाउ रोग आपको याद हो। इस बीमारी (बीएसई) ने गायों के मानसिक संतुलन को पागलपन की हद तक बिगाड़ दिया था, इसलिये इसे पागल गाय रोग कहा गया है। इस रोग की वजह से लाखों गाय-बछड़ों का बेरहमी से मार डाला गया था। माना जाता है कि यह रोग इसलिए फैला कि गायों को उन्हीं की हड्डियों, खून और अन्य अवशेषों का बना हुआ आहार खिलाया गया। आधुनिक बूचडख़ानों में गायों आदि को काटने के बाद मांस को तो पैक करके बेच दिया जाता किन्तु बड़े पैमाने पर हड्डियां, अंतडिय़ां, खून आदि का जो कचरा बचा, उसको ठिकाने लगाना एक समस्या हो गया।  इस समस्या से निपटने का एक तरीका यह निकाला गया है कि इस कचरे का चूरा बना कर पुन: गायों के आहर में मिला दिया जाए। मैडकाउ से हुई भारी तबाही के बाद ब्रिटेन सरकार ने तो इस पर पाबंदी लगा दी मगर उत्तरी अमेरिका सहित कुछ देशों में आज भी यह तरीका जारी है।
स्वाइन फ्लू की वजह बताते हुए टोनी वैस ने अपनी किताब में सुअर फार्मों के बारे में लिखते हैं कि- 'इन यांत्रिक कारखानों में मादा सुअर अपना पूरा जीवन धातु या कांक्रीट के बने फर्श पर छोटे-छोटे खांचों में बच्चे जनते और पालते बिता देती है।  ये खांचे इतने छोटे होते हैं कि ये जानवर ढ़ंग से मुड़ भी नहीं पाते। शिशुओं को तीन-चार सप्ताह में ही मां से अलगकर दिया जाता है। मादा सुअरों को फिर से गर्भ धारण कराया जाता है। शिशुओं को अलग कोठरियों में रखकर एन्टी-बायोटिक दवाइयों और हारमोन युक्त जीन परिवर्तित आहार दिया जाता है ताकि उनका वजऩ जल्दी से जल्दी बढ़े सके। इस कैद के कारण होने वाले रोगों और अस्वाभाविक व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए भी दवाइयां दी जाती हैं। ए. कॉकबर्न ने दुनिया के मांस उद्योग पर अपने एक पर्चे में अमरीका के उत्तरी कैरोलिना राज्य में चल रहे एक प्रमुख सुअर मांस उत्पादक के बारे में भी ऐसे ही कुछ हालात बयान किए हैं।
पालतू मुर्गियों व बतखों में फैलने वाली बीमारी बर्ड फ्लू से तो आप परिचित हैं। इस रोग के फैलते ही आधा विश्व एकदम शाकाहारी हो गया था। यह रोग चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के मुर्गी फार्मों से फैलना आरम्भ हुआ। इसे भी तेज़ी से विस्तार और औद्योगीकरण से जोड़कर देखा जा रहा है क्योंकि विगत दस-पंद्रह वर्षों में चीन में मुर्गी उत्पादन दोगुना हो गया है तथा थाइलैण्ड, वियतनाम और इण्डोनेशिया में मुर्गी उत्पादन अस्सी के दशक की तुलना में चार गुना हो चुका है। ऐसे में बहुत संभव है कि बर्ड फ्लू का नया और पहले से ज्यादा ताकतवर रोगाणु एच5एन1 इंसान से इंसान को संक्रमित करने लगे और यह एक महामारी का रूप धारण करले। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इससे निबटने की व्यापक तैयारी की ज़रूरत बताई है।
बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू और मैडकाउ रोग दरअसल एक जिस बड़ी और गहरी बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं, वह भोग, अन्धे लालच व गैर बराबरी पर आधारित हमारी पूंजीवादी सभ्यता की, जिसमें शीर्ष पर बैठे थोड़े से लोगों ने अपने भोग-विलास और मुनाफे के लिए सारी दुनियां के लोगों, प्राणियों तथा प्रकृति पर अत्याचार करने को अपना करोबार मान लिया है। सुनने में तो यह भी आ रहा है कि एच1एन1 नामक नया वायरस जानबूझ कर एक दवा निर्माता कम्पनी ने बनाया है, जिसकी प्रतिरोधक शक्ति इंसानों के शरीर में नहीं है। इसके इलाज के लिए प्रचारित टैमिफ्लू नाम की एक ही दवाई है जो रातों-रात बिना किसी शोध के बाजार में आ गई, और दुनियाभर में धड़ल्ले से बिकने लगी।

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