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Sunday, June 12, 2011

अब खेती बचेगी डिजाइनर खाद से

नई खाद नीति आने के बाद अनुदान के बारे में सरकार की रणनीति साफ हो गई है। अब खाद पर अनुदान पोषक तत्वों के आधार पर मिलेगा वो भी सीधा किसान को न कि खाद निर्माताओं को। सरकार की तरह किसान को भी अपनी नीतियों के बारे में एकबार फिर से सोचना पड़ेगा कि उसे खेती कैसे करनी है। भविष्य में खेती महज खाद और कीटनाशकों से नहीं होने वाली। आज खेत की मिट्टी में पोषक तत्वों की मात्रा काफी कम हो गई है, जिसकी वजह से गेहूं, चावल और फल-सब्जियों के बूते शरीर को जरूरी और पूरे पोषक तत्वों मिलाना अब कठिन हो जाएगा। इस बात को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि अनाज, फल और सब्जियों से हमारे शरीर को पोषक तत्व मिलते हैं। इन तत्वों में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के साथ-साथ कैल्शियम, मैग्नीशियम और सल्फर होता है। इसके साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्वों की फेहरिस्त में जिंक, कॉपर, आयरन, मैग्नीज, मालवेंडेनम, बॉरान और क्लोरीन भी हैं। मिट्टी में खड़ी फसलें वातावरण से कार्बन, हाइड्रोजन और आक्सीजन लेकर पोषक तत्वों को और मजबूत बनाती हैं और ये सारे पोषक तत्व मिट्टी से हमारे खाद्य पदार्थों को, और वहां से हमें मिलते हैं।
ज्यादा से ज्यादा फसल लेने के हमारे पागलपन ने मिट्टी से ये सारे पोषक तत्व निचोड़ लिए हैं। खेती के लिए जरूरी मिट्टी में कम से कम .8 प्रतिशत कार्बन की मात्रा होनी चाहिए जबकि सारे प्रयासों के बाद भी .2 और .3 प्रतिशत से अधिक कार्बन नहीं मिल पाता। हमारे भोजन में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का ही नतीजा है कि सौ ग्राम दाल में आयरन की मात्रा छह ग्राम की जगह 2.7 ग्राम पाई जाती है। रोटी में भी जरूरी पोषक तत्व 4.9 की जगह 2.7 ही होते हैं। चावल में पोषक तत्वों की मात्रा 0.7 होनी चाहिए, लेकिन होती केवल 0.5 ही है। दाल में फास्फोरस की मात्रा 4 मिलिग्राम कम, रोटी में 49 मिलिग्राम और चावल में 10 मिलिग्राम कम पाई गई है। सिर्फ दाल की ही बात करें तो उसमें कैल्शियम की मात्रा 110 मिलिग्राम की जगह 73 मिलिग्राम पाई गई है। रोटी में 48 की जगह 41 मिग्रा कैल्शियम और चावल में 10 की जगह 9 मिग्रा कैल्शियम पाया गया। यही कमी फाइबर की मात्रा में भी देखी जा सकती है। दाल में 1.5 ग्राम फाइबर की जगह 1.3 ग्राम, रोटी में 1.9 की जगह 1.7 और चावल में मानक से दो ग्राम कम फाइबर मिला है। दाल में 33.5 की जगह 33.1, रोटी में 34.8 की जगह 33.8 तथा चावल में 345 की जगह 341 कैलोरी ऊर्जा ही मिल पाती है। शरीर के लिए सबसे जरूरी प्रोटीन की मात्रा भी हमारी दाल, रोटी और चावल में कम हुई है। दाल में यह कमी 1.6, रोटी में 1.1 और चावल में 6.8 प्रोटीन की मात्रा कम दर्ज हुई है। खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की कमी से चिकित्सक भी परेशान हैं। इसकी वजह से हमारे शरीर में रोगों से लडऩे की प्रतिरोधक क्षमता घटने के अलावा शरीर के विकास पर भी पड़ा है। आयरन की कमी से लीवर और हड्डियां, प्रोटीन से मांसपेशियां, कैल्शियम से महिलाओं के स्वास्थ्य और फाइबर की कमी से पाचन शक्ति प्रभावित हुई है। फास्फोरस की कमी ने हमारी याददाश्त पर असर डालना शुरू कर दिया है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो हमारी संतानों को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पडेंगे।
इस बहुआयामी समस्या का एक ही समाधान है: डिजाइनर खाद। संभव है कि आज से पहले आपने इस खाद का नाम भी नहीं सुना। डिजाइनर खाद के बारे में जानने से पहले डिजाइनर शब्द का अर्थ जानना बेहद जरूरी है। आपने डिजायनर घड़ी, कमीज और कार के बारे में तो जरूर सुना होगा। यानी वह घड़ी, कमीज और कार जो सिर्फ आपके लिए डिजाइन की गई हो, दुनिया में वैसा पीस किसी और के पास न हो। उसी तर्ज पर डिजाइनर खाद का मतलब है जो खासतौर पर सिर्फ आपके खेत के लिए बनाई गई हो। यह तभी संभव है जब आप हर फसल से पहले मिट्टी में पोषक तत्वों की जांच करवा का खाद विक्रेता से जमीन की जरूरत के अनुरूप खाद बनवाएं। भविष्य में खाद की ऐसी दुकानें खुलें जहां किसान मिट्टी जांच की रिर्पोट लेकर जाएगा और बताएगा कि आगे उसे कौनसी फसल की बिजाई करनी है। खाद विक्रेता फसल की जरूरत और मिट्टी में मौजूद तत्वों के आधार पर उसे खाद तैयार करके दे देगा। सरकार जगह-जगह मिट्टी जांच की प्रयोगशालाएं खोल रही है और खेत पर चल जांच प्रयोगशालाएं भेज रही है ताकि किसान मिट्टी की जांच के बाद ही खाद का प्रयोग करे। सरकार अपना काम कर रही है अब बारी किसान की है कि वह कब डिजाइनर खाद का प्रयोग शुरू करेगा।

यहाँ वहां डोलती चल प्रयोगशालाएं

रासायनों के बेतरतीब इस्तेमाल से बंजर होती कृषि योग्य जमीन की थोड़ी सी चिन्ता अब केन्द्र सरकार को भी होने लगी है। तभी तो 2008 के केन्दीय बजट में रासायनिक खाद के इस्तेमाल से पहले मिट्टी जांच को महत्त्व दिया गया। बजट घोषणा के अनुसार देश भर में 500 मिट्टी जांच प्रयोगशालाएं पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) के आधार पर स्थापित की जाएंगी। फिलहाल 175 करोड़ रूपए खर्च कर देश के 200 जिलों में मिट्टी जांच की चलती-फिरती प्रयोगशालाएं (एम.एस.टी.वी.-मोबाइल सॉइल टेस्टिंग वैन) मार्च 2009 तक चलाई जाएंगी।
इस योजना के अन्र्तगत पिछले साल 23 राज्यों को 105 वैन दी जा चुकी हैं। जिसमें राजस्थान -12, हरियाणा-1, पंजाब-3, मध्यप्रदेश-6, तथा उत्तरप्रदेश के हिस्से में 18 चल प्रयोगशालाएं आयी हैं। इस तरह देश में निजी एवं सरकारी मिलाकर 120 चल प्रयोगशालाएं तथा 541 स्थाई प्रयोगशालएं कार्य कर रही हैं जो देश के 608 जिलों और जमीन के अनुपात में अभी बहुत कम हैं, पर किसानों की जागरूकता को देखते हुए ये भी ज्यादा ही हैं।
पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने इन चल प्रयोगशालाओं का संचालन खुद ही करने का निर्णय लिया है जबकि राजस्थान सरकार ने पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) को आधार मानते हुए गत वर्ष अगस्त में अपनी सभी 12 वैनज निजी खाद निर्माता कम्पनिओं एवं एन.जी.ओ. के हवाले कर दी हैं। लगभग 28लाख की लागत से बनी इन चल प्रयोगशालाओं के रख-रखाव एवं संचालन के सारे खर्च और मिट्टी जांच करने वाले तकनीकी व अन्य कर्मचारियों का वेतन, केमिकल आदि पर होने सभी खर्चे वैन का संचालन करने वाले संस्थान उठाएंगे। इन खर्चों को ये संस्थान मिट्टी-पानी की जाचं से होने वाली आय से पूरा कर सकेंगे। हालांकि इन चल प्रयोगशालाओं में मिट्टी एवं पानी की सूक्ष्म जांच की सुविधा नहीं है पर खेत में ही pH, EC, OC, P2O5 और K2O जैसी जरूरी जांच हो जाती है और शुल्क भी मात्र 10 से 20 रूपए ही है। तीन साल के लिए किए गए अनुबंध-पत्र के अनुसार इन संसथानों को एक साल में कम से कम 5 हजार जांच तो करनी ही होंगी। वैसे भी 5000 या इससे कम जांच करने पर साल भर में होने वाले खर्च नहीं निकलता। पहली नजर में 25 बिन्दुओं वाला यह अनुबंध सरकार और किसान हित में लगता है, पर जमीनी हकीकत सभी सरकारी-निजी सहयोग से चलने वाली योजनाओं से कुछ ज्यादा अलग नहीं है। नजर डालते हैं अनुबंध के 25 में से कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं और उनकी जमीनी हकीकत पर।
अनुबंध के पैरा तीन के अनुसार सभी चल प्रयोगशालाओं के लिए आपसी सहमती से कार्य क्षेत्र तय किया जाएगा। संचालक कहते हैं कार्यक्षेत्र विधिवत तय नहीं किए गए। इसलिए संचालक अपनी मर्जी से बिना किसी सूचना के सुविधानुसार काम कर रहे हैं। जोधपुर-जैसलमेर क्षेत्र के संचालक अरावली जिप्सम एण्ड मिनरल्ज लि. अपनी वैन को गंगानगर जिले की सूरतगढ़ तहसील में बिना सरकार को सूचना दिए विगत छ: माह से चला रहे हैं। इस बारे में जोधपुर एवं गंगानगर के कृषि निदेशकों को कोई जानकारी भी नहीं है। इसी तरह चूरू, सीकर एवं झुझंनू क्षेत्र के लिए ग्रामीण अनुसंधान विकास संस्थान, नवलगढ़ की चल प्रयोगशाला महज सीकर में काम कर रही है। चूरू और झुझंनू के सहायक निदेशकों ने आज तक यह वैन देखी तक नहीं है। कुछ यही हाल उदयपुर का भी है, कहने को वहां दो वैन हैं लिबर्टी एवं देवियानी। जिनमें से देवियानी वाली तो चलती ही नहीं और लिबर्टी वाली वैन उदयपुर आती ही नहीं है। देवियानी फॉस्फेट के पास उदयपुर, बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर क्षेत्र हैं और होर्टिकल्चर कॉलेज के पास झालावाड़ और बांरा है। ये दोनो चल प्रयोगशालाएं पहले दिन से ही अचल खड़ी है।
पैरा चार के मुताबिक सभी वैन कार्य रिर्काड के लिए लॉगबुक भरेंगी जिन्हें क्षेत्र में नियुक्त कृषि निदेशक और नोडल अधिकारी प्रमाणित करेंगे। यह कानून भी अनुबंध तक ही सिमित है। आज के एक भी वैन ने लॉग बुक पर किसी अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं करवाए हैं। पैरा दस के अनुसार सभी संस्थान छमाही एवं वार्षिक रिर्पोट के अतिरिक्त किए गए कार्य की मासिक सूचना जिले के कृषि सहायक निदेशक या नोडल अधिकरी को देंगे। राजस्थान के किसी भी सहायक कृषि निदेशक के पास जितनी भी सूचनाएं है वे आधी-अधूरी और पुरानी हैं। पैरा 21 के अनुसार जाचं कार्यक्रमों की अग्रिम सूचना जिले में तैनात कृषि सहायक निदेशक विस्तार, सरपंच और गांव में नियुक्त कृषि परिवेक्ष को देनी होती है, और कार्यक्रम के बारे में प्रचार करना होता है ताकी ज्यादा से ज्याद किसान इस सुविधा का लाभ ले सकें। यहां सभी संचालकों का एक सा ही हाल है। सरपंच, कृषि परिवेक्षकों को सूचना तो दूर ये लोग कृषि अधिकारियों तक को कोई अग्रिम सूचना नहीं देते। चबंल गंगानगर इसका अपवाद है पर वे भी कृषि परिवेक्षक एवं सरपंच को अपने कार्यक्रमों में शामिल नही करते।
ऐसा नहीं है कि अकेले संचालक ही अनुबंध के कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ हैं, किसी भी कृषि अधिकारी को दिशा-निर्देशों के बारे में पूरी जानकरी नहीं है। एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि अनुबंध में सहायक निदेशक कूषि को कई सारी जिम्मेदारियां सौंप रखी हैं जैसे-लाग बुक चैक करना, जांच कार्यक्रमों की अग्रिम सूचना प्राप्त करना, वैन को अपनी देख-रेख में खड़ा करवाना और कभी भी कार्य स्थल पर जा कर वैन की कार्यप्रणली चैक करना आदि। पर इन सब जिम्मेदारियों के बारे में निदेशक को कोई दिशा-निर्देश नहीं दिए गए और न ही अनुबंध की प्रति ही उपलब्ध करवाई गई।
सार यह है कि केन्द्र सरकार की करोड़ों की लागत से किसान हित में बनाई गई यह महती योजना लापरवाही और गैरजिम्मेदारी की भेंट चढ़ रही है। अगले एक-दो सालों में पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) के आधार पर 500 और जांच प्रयोगशालाएं स्थापित होनी है, उनका भी हश्र अगर यही रहना है तो सही अर्थों में भारतीय खेती का ईश्वर ही मालिक है।

खतरनाक खाद है या हमारी अधकचरी सोच?

वैसे तो खेती का इतिहास लगभग दस हजार साल पुराना है पर भारत में आधुनिक खेती का दौर 1960 में हरित क्रांति की शुरूआत के साथ आया। आज देश में कृषि उत्पादकता की रफ्तार इतनी धीमी पड़ चुकी है कि यह दो फीसदी की सालाना दर से बढ़ रही जनसंख्या की मांग को पूरा करने में भी असमर्थ है। इन हालात में भारत सरकार दूसरी हरित क्रांति पर विचार कर रही है। हम जानते हैं कि लगातार रासायनिक कीटनाशक और सिंथेटिक उर्वरकों के इस्तेमाल ने हमारे खेतों की मृदा को बर्बादी की ओर धकेल दिया है। उर्वरकों के असंतुलित और अत्यधिक प्रयोग से हमारा प्राकृतिक आधार लगभग नष्ट हो चुका है। हरित क्रांति के बाद से रासायनिक खाद की खपत बेतहाशा बढ़ी है। जहां देश में उर्वरकों की कुल खपत 1950-51 तक मात्र 7,0000 टन थी वो 2008-09 में बढ़कर 2.3 करोड़ टन हो गई है। इसमें भी कोई कोई संदेह नहीं है कि भारत में रासायनिक खादों की औसत खपत बहुत से एशियाई देशों के मुकाबले काफी कम है। चीन में जहां यह आंकडा़ 290 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर है वहीं भारत में यह खपत 113.२६ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ही है।
अज्ञान और अनुदान की सरकारी नीति के कारण नाइट्रोजन उर्वरक का उपयोग हमेशा ज्यादा रहा है। सरकार यूरिया पर सबसे ज्यादा छूट देती है और किसान भी यूरिया ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल करता है। यही कारण है कि देश में बिकनेवाली समस्त रासायनिक खाद में से आधी मात्रा सिर्फ यूरिया की है। जिसकी वजह से मिट्टी की पोषकता और पर्यावरण को लगातार नुकसान हो रहा है। उदाहरण के लिए, 50 किलो वजन वाले यूरिया के एक थैले में मात्र 23 किलो ही नाइट्रोजन होता है शेष 27 किलो तो राख या फिलर होता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइ.सी.ए.आर.) के अध्ययन के अनुसार यूरिया के अकेले और लगातार इस्तेमाल के कारण उत्पादकता घटी है। मिट्टी के क्षरण के चलते न केवल इसमें अम्लीयता एवं लवणता बढ़ी है बल्कि भौतिक गुण जैसे पानी सोखने की क्षमता और मिट्टी की संरचना को भी नुकसान हुआ है, इसलिए जैविक खाद का उपयोग बढ़ाने पर जोर दिया गया है। और दूसरी तरफ रासायनिक खाद पर अनुदान  सन 2001-2002 से अब तक 12,000 करोड़ रुपये से बढ़कर एक लाख करोड़ रुपये सालाना हो गया है। यह उर्वरक अनुदान किसानों को सस्ती खाद मुहैया कराने के मकसद से दिया जा रहा है लेकिन इसका अधिकतम लाभ किसान को नहीं खाद निर्माताओं को मिल रहा है।
ये आंकडे इस बात के द्योतक हैं कि हमारी कथनी और करनी में भारी अंतर है। एक तरफ हम रासायनिक खाद के अवगुण गिनवा रहे हैं तो दूसरी ओर उसके इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए अनुदान की राशि बढ़ा रहे हैं। देश बड़े भ्रम की स्थिति में है कि किस बात को सच माने। खबर आती है कि कृषि योग्य जमीन और उत्पादकता दोनों निरंतर घट रही है साथ ही ये समाचार भी मिलते हैं कि बम्पर पैदावार के कारण सरकार के पास उसे रखने की जगह तक नहीं है। यही वजह है कि कृषि विषेशज्ञों की इस चेतावनी को कि- यूरिया का असंतुलित प्रयोग खेती व स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है को कोई नहीं सुनता। देश के तीन चौथाई किसान छोटी जोत वाले हैं। ये किसान अपनी उपलब्ध जमीन से हर हाल में अधिकतम पैदावार लेना चाहेंगें, इस बात की परवाह किए बगैर कि उनके द्वारा प्रयोग की जा रही रासायनिक खाद और कीटनाशक जमीन या पर्यावरण पर कितना बुरा असर डालेंगें। सच्चाई तो यह है कि किसान की जमीन लगातार घटती जा रही है, और वह कम जमीन से अधिकतम पैदावार लेने के लिए आंख मूंदकर रासायनिक खादों का प्रयोग करेगा। ऐसे में हमें कुछ प्रश्नों पर विचार करना पड़ेगा कि (1) क्या खेत में रसायनों का प्रयोग खतरनाक है?  (2) यह भय कि हमारी जरूरत देसी परम्परागत बीजों और ढ़ेर सारे जानवरों के गोबर से बनी खाद से पूरी हो पाएगी? (3) यह चिन्ता कि क्या देसी बीज और तकनीक के भरोसे विशाल सवा अरब आबादी का पेट भरा जा सकता है? (4 )क्या यह संभव है कि नीम की खली और पत्तियों का इस्तेमाल कर फसलों को कीटों के प्रकोप से बचाया जा सकता है? (5)क्या इतनी संख्या में नीम के पेड़ हैं देश में? हकीकत यह है कि छोटी जोत के चलते गोबर खाद और अन्य कृषि कार्यों के लिए जानवर रखना वैसे ही असंभव हो चुका है। रासायनिक खाद के अंधाधुंधा इस्तेमाल को रोकना इसलिए भी संभव नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाऐं विकासशील देशों की सरकारों को कृषि पर अनुदान देने से मना कर सकती हैं। दरअसल उनका पहला लक्ष्य अपने देश की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों फायदा पहुंचाने का है न कि हमें सहयोग देने का।
इसलिए अब समय आ गया है कि हम पहले यह तय करें कि रासायनिक खाद ज्यादा खतरनाक है या हमारी अधकचरी नीतियां? हमें एक बार फिर अपनी कृषि योजनाओं को पुन: परिभाषित करना होगा क्योंकि इन हालातों में हम अपनी संतानों के लिए शायद ही हम कृषि योग्य जमीन छोड़े ही नहीं पाएंगे। जैसा कि स्पेनिश दार्शनिक होमे आर्तिगा ई गामेत कहते हैं कि- 'हमारी देशभक्ति भी अब दावं पर लगी हुई है, आज देशभक्ति का अर्थ अपने पुरखों की भूमि की रक्षा करना ही नहीं अपितु अपनी संतानों के लिए भूमि संरक्षण भी है।'