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Friday, November 16, 2012

क्या होंगे राजस्थान में किसान आयोग की कवायद के नतीजे

कृषि वैज्ञानिक डॉ. हनुमान प्रसाद, जैव कृषि विशेषज्ञ एन. एस. राठौड़, डेअरी विशेषज्ञ प्रो. (कर्नल) ए. के. गहलोत, डा. ओ.पी.पारीक, डा. गोपाललाल, बी.एम.दीक्षित,  प्रगतिशील कृषक सुंडाराम वर्मा एवं प्रगतिशील महिला कृषक श्रीमती सुचित्रा आर्य पर आधारित राजस्थान किसान आयोग के मनोनीत अध्यक्ष नारायण सिंह ने 26 नवंबर 2011 को अपना कार्यभार ग्रहण करते समय कहा था कि राज्य में किसानों की दशा, उनके ऋण और ऋण व्यवस्था, उपज का मूल्य निर्धारण, मण्डी व्यवस्था, कृषि उत्पाद निर्यात, कृषि आधारित उद्योग आदि विषयों पर सरकार के समक्ष सिफारिशें प्रस्तुत करेंगे इसमें कृषि अधिकारियों कृषि विशेषज्ञों और प्रगतिशील किसानों का पूरा सहयोग लिया जाएगा।
आयोग ने अपनी घोषणा के अनुसार विगत महीनों में बीकानेर, उदयपुर और भरतपुर में संभाग स्तर पर कृषक संवाद कार्यक्रम आयोजित किए, जिनमें किसानों से उनकी समस्याओं की जानकारी और सुझाव प्राप्त किए गए। प्राप्त समस्याओं पर कृषि एवं अन्य 15 संबंधित विभागों के विभागाध्यक्षों तथा अन्य उच्च अधिकारियों की बैठक में चर्चा के फलस्वरूप राज्य सरकार को एक अंतरिम रिपोर्ट भिजवाई गई जिसमें काश्तकारों की आर्थिक स्थिति में बदलाव लाने के रचनात्मक सुझाव दिए गए थे। इस रिर्पोट में शीत लहर (पाले) से होने वाले नुकसान को भी आपदा में शामिल करने की सिफारिश की गई, जिसे केन्द्र सरकार ने मान लिया। इसके अलावा किसानों की फसल को रोझडों (नील गाय)से होने वाले नुकसान से छुटकारा दिलाने के लिए महात्मा गांधी नरेगा योजना के तहत रोझों के विचरण स्थल के क्षेत्र में चार दीवारी बनाने की सिफारिश भी की गई है, जिससे रोझ भी सुरक्षित रहेंगे और किसानों की फसलें भी नुकसान से बचेंगी। इसके अतिरिक्त इस अंतरिम रिपोर्ट में कृषि विपणन, उर्वरकों एवं बीज से संबंधित कृषि आदान व्यवस्था, फसल बीमा एवं कृषक बीमा, पशुधन बीमा, कृषि ऋण, भू-संसाधन, जल संसाधन, जैविक कृषि, कृषि तकनीकी का त्वरित प्रसार एवं अनुसरण, पशुधन स्वास्थ्य, बागवानी विकास, जनजाति क्षेत्र के कृषकों की समस्याओं सहित 16 विषयों पर बिन्दुवार अनुशंसाएं की गई हैं।
इसी क्रम में आयोग के सदस्य कृषि संभाग गंगानगर-हनुमानगढ़ के दौरे पर भी आए। कार्यक्रम में दोनों जिलों के प्रगतिशील किसानों ने सिंचाई पानी, नहरों, बीज, कीटनाशकों, फसल मूल्य, भंडारण, विपणन सहित किसानों को दिए जा रहे ऋण में पारदर्शिता बरतने और कृषि विश्वविद्यालय खोलने की मांग भी रखी। राज्य के प्रत्येक जिले में नंदीशाला खोलने, नहरों में पंजाब से आ रहे केमिकलयुक्त पानी से कैंसर जैसे जानलेवा रोगों की रोकथाम के लिए जल प्रदूषण पर कठोर कार्रवाई करने तथा मनरेगा में मजदूरों को किसानों के खेतों में काम करने की रणनीति तैयार करने की मांग रखी। कुल मिलाकर दोनों जिलों के किसानों की सारी समस्याएं पानी और अनुदान के चारों तरफ घूमती रही। एक भी किसान ने कृषि आधारित उद्योग की मांग नहीं की और न ही सरकारी योजनाओं की बदअमली के विषय को छुआ। आयोग के सदस्यों सहित अध्यक्ष नारायणसिंह का ध्यान जब उन योजनाओं और समस्याओं की ओर दिलवाया वे सभी औचक रह गए और यकीन करने को तैयार नहीं हुए। घोर आश्चर्य तो तब हुआ जब आयोग अध्यक्ष के कहा कि वे न तो इन योजनाओं के बारे में जानते हैं और न ही इनके असफल होने के बारे में। जब उन्हें बताया गया कि राज्य के कृषि विभाग के पास उपज के सही आंकड़े तक नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों जिलों का किसान समीपवर्ती राज्यों पंजाब और हरियाणा में अपनी फसल भावों में भारी अंतर के कारण बेच आता है, इस वजह से यहां की उपज का$गजी तौर कम होने के कारण केन्द्र और राज्स सरकार की बहुत सारी योजनाओं का लाभ यहां के किसानों को नहीं मिल पाता।
प्रदेश में 28 लाख रुपए मूल्य वाली 12 वातानुकूलित चल प्रयोगशालाएं हैं जिन्हें पीपीपी आधार पर निजी संस्थानों को संचालन के लिए दे रखा है। इनमें से एक भी वैन अपने लिखित अनुबंध के अनुसार कार्य नहीं कर रही है। इन चल प्रयोगशालाओं की जिम्मेदारी हर जिले में सहायक निदेशक, कृषि विस्तार के पास है। हद यह कि मुख्यमंत्री के गृह जिले की वैन पहले दिन से ही गंगानगर जिले की सूरतगढ़ तहसील में चल रही है जिसकी खबर न तो जोधपुर और न ही गंगानगर जिले के अधिकारियों पास है। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष के जिले की वैन एक साल खड़ी रहने के बाद वहां के संचालक एनजीओ से वापिस लेकर पाली, जैतारण क्षेत्र में भेज दिया गया है। यानी गलती सरकार और एनजीओ की और सजा चूरू, सीकर झुंझनू के किसानों को। इसी तरह किसानों को मौसम की सटीक जानकारी के लिए 25 करोड की लागत वाले आयातित डॉप्लर रडार लगाने की योजना विगत दो साल से महज इसलिए अटकी हुई है कि जिस भवन की छत पर इसे लगाया जाना है वह पुराना है और छ: टन वजन झेलने योग्य नहीं है। इससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह कि करीब दो वर्ष पहले इंडिअन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) ने गावं स्तर पर मौसम की सटीक जानकारी देने के लिए 300 अटमेटिक वेदर रडार राज्य को नि:शुल्क दिए थे किन्तु राज्य सरकार उनमें से अब तक मात्र 51 ही लगवा सकी है। कारण जानने पर पता लगा कि सरकार को तहसील और ब्लॉक स्तर एक भी ऐसा कार्यालय या स्थान नही मिल रहा है जहां इन रडार्ज को लगाया जा सके।
इसी तरह नरमा-कपास उत्पादन करने वाले जिलों की मण्डी कार्यालयों में टीएमसी(टैक्रालॅजी मिशन इन कॉटन) के तीसरे चरण में लाखों रुपए मूल्य के कुछ उपकरण दिए गए थे। इन उपकरणों की मदद से किसान को अपनी उपज के बारे में सारी जानकारी जिससे भाव तय होते हैं मात्र 20 मिनट में मिल जाती है। ये उपकरण आजतक उन मंडी कार्यालयों में पड़े जंग खा रहे हैं उन्हें महज इस वजह से नही लगवाया जा क्योंकि ऐसे तकनीकी कर्मचारी नहीं हैं जो इन्हें चला सके। मण्डी में कपास आने के बाद अकसर आगजनी की घटनाएं हो जाती हैं, जिससे करोडों रुपए मूल्य का कपास जल कर नष्ट हो जाती है। टीएमसी के तहत इन कृषि उपज मंडियों में आग बुझाने के लिए पाइप लाइन (फायर हायडे्रन्ट सिस्टम)बिछाकर संभावित खतरों को टालने की व्यवस्था की गई थी। मात्र छह माह में इन पाइपों और इसके साथ के सभी उपकरण सहित पूरे सिस्टम को लोग उखाड़कर ले गए, जिन्हें आजतक दोबारा नहीं लगावाया जा सका। बात जब कृषि उपज मंडी की आ गई है तो जानलें कि यह विभाग राजस्थान राज्य मार्केटिंग बोर्ड के अन्र्तगत आता है, जिसका काम है किसान की उपज सही कीमत पर बिके। तआज्जुब यह है कि इस विभाग में एक भी आदमी ऐगरिकल्चर मार्केटिंग का नहीं है। दरअसल यह एक कन्सटै्रक्शन बोर्ड है, जो मंडी बनाने उसमें पिड और शेड बनाने के अलावा कुछ नहीं करता। जबकि हिमाचल और कर्नाटक जैस राज्यों के मार्केटिंग बोर्ड में ऐगरिकल्चर मार्केटिंग के लोग काम कर रहे हैं।
इस इलाके की सबसे बड़ी समस्या है सिंचाई का पानी। नहरबंदी हर साल उस समय ली जाती है जब नरमा-कपास की बिजाई का मौसम होता है। जबकि मरम्मत के बहुत सारे काम ऐसे हैं जिनके लिए नहरबंदी की जरुरत नहीं पड़ती, जैसे पटरी से पेड़-पौधे काटने हों या अतिक्रमण हटाना हो। नहर के साइड की पटरियों पर मिट्टी डालनी हो या पुलों की मरम्मत करनी हो। नहरी महकमें की काहिली का यह आलम है कि नहर बंदी के बाद काम की निविदाएं आमंत्रित की जाती हैं। गत वर्ष 40 दिन की बंदी ले ली गई पर मरम्मत के नाम एक ईन्ट तक नहीं लगाई गई। सरकार को चाहिए कि ऐसा करने वाले अधिकारियों को आर्थिक दण्ड देते हुए तुरंत नौकरी से निकाल दे ताकि भविष्य में ये गलतियां दोहराई न जाएं।
कृषि आदानों में बीज की अहमियत किसी से छुपी हुई नहीं है। एक समय था जब जयपुर से गंगानगर जिले की पाकिस्तान सीमा तक बाजरा मुख्य फसल थी। आज उसी प्रदेश में जहां देश के छ: में से तीन सबसे बड़े बीज उत्पादक फार्म हैं, संकर बाजरे के 100 ग्राम बीज पैदा नहीं किया जाता। जबकि हर साल हमारे सरकारी अधिकारी बाजरे के बीजों की खरीददारी के लिए गुजरात और आंध्रप्रदेश जाते हैं। विडम्बना देखिए कि तीन से छ: हजार हेक्टेअर, (एक हेक्टेअर लगभग 4 बीधा) यानी 500 से 1000 मुरब्बा के क्षेत्र में फैले लगभग सारे ही फार्म आज अपने कर्मचारियों का वेतन तक नहीं निकाल पा रहे हैं। सूरतगढ़, सरदारगढ़ और जैतसर के तीनों फार्मों में कुल 16,238 हेक्टेअर यानी लगभग 65 हजार बीधा यानी 2600 मुरब्बे जमीन है, और देश के सारे फार्म मिला कर सवा 4 हजार मुरब्बे के विशालतम खेत हैं। सवाल उठता है कि जब थोड़ी सी जमीन के मालिक और पूर्णतया किसानों पर निर्भर रहने वाले निजी व्यापारी कुल बीज उत्पादन का 70 प्रतिशत पैदा कर रहे हैं तो पर्याप्त जल और आधुनिक मशीनों से युक्त ये विशाल संस्थान मात्र 12-14 प्रतिशत पर ही क्यों सिमटे बैठे हैं?
क्षेत्र का कृषि अनुसंधान केंद्र वैज्ञानिकों की सेवानिवृति और स्थानातंरण के कारण खाली होता जा रहा है। हाल ही में जो नई नियुक्तियां हुई है उन्हें आरक्षित कोटे से भरा गया है और उनमें भी 11 में से 9 ने ही कार्यभार संभाला है। इन 9 में से भी 3 को प्रतिनियुक्ति (डेप्यूटेशन) पर अन्यंत्र भेज दिया गया।
इन केन्द्रों से मोटा वेतन लेने वाले वैज्ञानिक जरूरत के हिसाब से एक भी नया बीज तैयार नहीं कर रहे। अगर गंगानगर का ही उदाहरण ले तो यहां के अनुसंधान केंद्र ने विगत 12 साल से कपास का एक भी नया बीज नहीं दिया, जबकि यह इस क्षेत्र की मुख्य फसल है। देश में बीटी कॉटन आए दस वर्ष हो गए पर सरकार आज तक तय नहीं कर पाई है कि इस तकनीक को अपनाना है या नहीं। अगर जीएम तकनीक खतरनाक है तो इसे देशभर में प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए, अगर यह अच्छी है तो सरकारी स्तर पर इसके बीज तैयार किए जाने चाहिए? दस साल बाद भी बीटी कॉटन जिसकी बिजाई इस समय देशभर में सबसे ज्यादा हो रही है, सरकारी कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसंधान केन्द्रों में इस तकनीक से बीज तैयार नहीं किए जाते, ये बाजार पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले है।
बीज के बाद अगर बात करें खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित उद्योगों की तो राज्य भर भी सरकारी स्तर एक भी उद्योग नहीं है जो किसान की उपज को खपा सके या उसे बेहतर कीमत दिला सके। नए उद्योगों की तो छोडें बरसों के जमे-जमाए उद्योग लगातार बंद हो रहे हैं। राज्य का एकमात्र सरकारी चीनी कारखाना अरसे से बंद पड़ा है। कपास से सूत बनाने वाला कॉटन कॉम्पलेक्स बेचा जा चुका है और निजी क्षेत्र की कपड़ा मिल सरकारी लापरवाही की भेंट चढ़कर दम तोड़ चुकी है।
किसानों को अकसर यह शिकायत रहती है कि बैंक उन्हें जरूरत का पैसा पूरा और समय पर उपलब्ध नहीं करवाता। बैंक ऋण देते समय योजनाओं के बारे में किसानों को शिक्षित नहीं करते इससे उनमें और बैंको के बीच विवाद बढ़ रहे हैं। इस तरह के विवाद अदालतों में न जाएं और ग्रामीणों को सही व पूरी जानकारी मिल सके इसलिए रिजर्व बैंक ने हर जिले के लीड बैंक को वित्तिय साक्षरता और ऋण परामर्श केंद्र (एफ.एल.सी.सी.) खोलने के आदेश दिए। इसके तहत देश भर के 640 जिलों में से मात्र 210-15 जिलों में औपचारिक तौर पर यह केन्द्र स्थापित कर दिए गए। एक साल से ज्यादा अरसा होने के बाद भी इन केंद्रों पर किसान तो दूर, चिड़ी का बच्चा तक नहीं आया। कारण एक ही है इन्हें प्रचारित ही नहीं किया गया, किसानों की तो बात ही दूर जिले के अधिकारियों से लेकर राज्य सरकार के मंत्रियों तक को पता नहीं कि ऐसा कोई केंद्र भी है। यहां तक कि किसान आयोग के सदस्यों और अध्यक्ष महोदय के लिए यह जानकारी भूतों की कहानी थी।
राज्य का किसान आयोग किसानों की समस्याओं को उन्हीं के मुंह से सुनकर हल ढूंढ रहा है। जब किसान अपने लिए चल रही दर्जन भर ऐसी योजनाएं और संस्थाओं के बारे में जब जानता ही नहीं तो इनके बारे में आयोग के सामने बात भी कैसे करेगा? किसान आयोग को अगर वास्तव में किसानों की समस्याओं का हल करना है तो उसे अपनी जानकारी का दायरा बढ़ाना होगा, वरना उसकी यह सारी कवायद महज कागज़ों तक सिमट कर रह जाएगी।

Tuesday, November 6, 2012

मनरेगा का नफा-नुकसान

डॉ. भरत झुनझुनवाला
यूपीए सरकार की महत्त्वकांक्षी योजना मनरेगा के सार्थक परिणाम सामने आ रहे हैं। श्रमिकों को रोज़गार अपने घर के पास उपलब्ध हो रहा है। परियोजना में 100 दिन के रोज़गार की व्यवस्था है जिसे अब बढ़ाकर 150 दिन किया जाना प्रस्तावित है। हालांकि 100 दिन के रोज़गार में भी योजना आयोग के अनुसार औसतन केवल 14 दिन का रोज़गार उपलब्ध हो पा रहा है। इस आंकड़े से उद्वेलित नहीं होना चाहिए। खबर है कि दक्षिण के कई राज्यों में श्रमिक 100 रुपए में मनरेगा में काम करने को राजी नहीं हैं क्योंकि क्षेत्र में सामान्य वेतन 200 रुपए है जबकि मनरेगा में 200 के स्थान पर 100 रुपए की ही कमायी होती है। तुलनात्मक रूप से पिछड़े राज्यों में मनरेगा का गहरा प्रभाव पड़ा है। मनरेगा का एक मात्र उजला और सार्थक पक्ष यह है कि बिहार, झारखण्ड और उड़ीसा के पिछड़े जिलों में जहां श्रमिकों की दिहाड़ी 50-60 रुपए थी, मनरेगा के कारण इसमें सहज ही वृद्धि हुई है। फलस्वरूप इन राज्यों से श्रमिक कम पलायन कर रहे हैं, और सम्पूर्ण देश में वेतन वृद्धि हो रही है।
किन्तु इस एकमात्र अच्छे और उजले पक्ष के साथ मनरेगा के तीन नकारात्मक बिन्दु भी सामने आए हैं। पहला यह है कि इसके अन्तर्गत गांवों में ही विकास कार्य कराए जाते हैं, जबकि गांव में उत्पादक कार्यों की संभावनाएं सीमित होती हैं। गांव में तालाब एक बार ही खोदा जा सकता है बार-बार खोदने का तो केवल स्वांग ही रचा जा सकता है। सड़क पर मिटटी डालने का काम भी ज्यादा हो जाए तो सड़क कमजोर हो जाती है। मतलब यह है कि मनरेगा में नदी के किनारे चेकडैम बनाने जैसे व्यर्थ के कार्य करवाए जाते हैं, जिससे हमारी अर्थशक्ति अनावश्यक कार्यों में क्षय हो रही है। मनरेगा में कमी का दूसरा बिन्दु यह है कि बिहार से मजदूरों के नहीं आने से उत्तरी राजस्थान और पंजाब जैसे क्षेत्रों में किसानों एवं उद्यमियों के लिए श्रमिकों की जबरदस्त कमी उत्पन्न हो रही है। एग्री-बिजनेस एण्ड मैनिजमेंट वेबसाइट पर बताया गया है कि मानव श्रमिकों की कमी के कारण किसानों द्वारा रासायनिक कीटनाशकों एवं मशीनों का उपयोग ज्यादा किया जाएगा। यानी किसान द्वारा निराई, गुड़ाई, कटाई, छंटाई के जो रोज़गार श्रम बाजार में सहज ही उत्पन्न किए जा रहे थे वे कार्य अब मशीनों द्वारा करवाए जाएंगे। दीर्घकाल में यह श्रमिकों के लिए हानिप्रद होगा क्योंकि उसकी श्रमशक्ति की मांग ही नहीं रह जाएगी। मनरेगा के अन्तर्गत काम करवाकर सरकार श्रमिक से अपने पैर पर कुल्हाड़ी चलवा रही है। निरीह श्रमिक 100 दिन काम करके आज प्रसन्न हैं परन्तु वे भूल रहे हैं कि आने वाले समय में उन्हे शेष 265 दिन बेकार बैठना पड़ेगा। मनरेगा की कृपा से वे गरीबी के कुएं से निकल कर मशीनीकरण की खाई में गिरने जा रहे हैं। श्रमिक की दिहाड़ी में तात्कालिक वृद्धि तो हो रही है परन्तु दीर्घकाल में उसके श्रम की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी।
तीसरी समस्या पलायन में रुकावट की है। तकनीकी बदलाव के साथ श्रम का पलायन होना अनिवार्य है। एक समय था जब सभी प्रमुख शहर जैसे दिल्ली, कानपुर, पटना एवं कोलकाता आदि नदियों और समुद्र के किनारे बसाए गए। क्योंकि यातायात प्रमुखत: जलमार्ग से होता था। आज रेल और वायुयान के विकास से हिसार, जयपुर और हैदराबाद जैसे शहर भी महानगर बने जा रहे हैं। आज यातायात और परिवहन साधनों पर जलमार्गों का एकाधिकार नहीं रह गया है, अत: नए शहरों की ओर श्रम का पलायन होना स्वाभाविक है। पटना, गया और भागलपुर की बढ़ती जनसंख्या को घर में रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है तथा नये कारखाने दूसरे स्थानों पर लग रहे हैं। इन शहरों के श्रमिकों के लिए कोलकाता, पंजाब, गुजरात और हरियाणा पलायन करना ही श्रेयस्कर है। जिस प्रकार मंडी से सेब और टमाटर उस शहर को भेजे जाते हैं जहां मांग अधिक होती है उसी प्रकार श्रम को भी उसी स्थान पर भेजा जाना चाहिए जहां उसकी मांग अधिक है। गयाना, फिजी, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भारत से बड़ी संख्या में श्रमिक इसी वजह से गए थे। नरेगा द्वारा इस पलायन को जबरन रोका जा रहा है अर्थात उत्पादक स्थान पर श्रम की कमी एवं अनुत्पादक स्थान पर श्रम की बर्बादी होने दी जा रही है।
मनरेगा के इस नकारात्मक पक्ष के प्रति सरकार की उदासीनता का कारण यही लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी का पहला उद्देश्य सत्ता पर बना रहना होता है। इसलिये सरकार मतदाता को उलझाए रखना चाहती है ताकि वह हमेशा सरकार के चारों ओर चक्कर लगाता रहे। दरअसल, सरकार की अंदरूनी मंशा गरीब को गरीबी से उबारने की नहीं है बल्कि उसे गरीब बनाये रखने की होती है। जैसे यदि सरकार लाभार्थी को सीधे 10,000 रुपये प्रति वर्ष दे दे तो लाभार्थी को सरपंच के चक्कर नहीं काटने होंगे बल्कि वह इस रकम से सरपंच की धांधली को उजागर करेगा। अत: सरकार ने युक्ति निकाली है कि नकद के स्थान पर रोज़गार दो ताकि लाभार्थी सरकारी तंत्र पर ही निर्भर रहे। दरअसल मनरेगा गरीब को परावलम्बी बनाने का एक नुस्खा है और सरकार इसमें कामयाब भी हो रही है।
इन समस्याओं के बावजूद मनरेगा की मूल सोच सही दिशा में है। श्रम को ऊंचा वेतन मिलना ही चाहिए परन्तु इस उद्देश्य को मनरेगा से सही मायने में हासिल नहीं किया जा रहा है। हमें ऐसे उपाय निकालने होंगे कि श्रम का मूल्य भी बढ़े और उसकी उत्पादकता भी बनी रहे। पहला उपाय है कि हर परिवार को मनरेगा के अन्तर्गत दी जाने वाली दस हज़ार रुपये की रकम सीधे वितरित कर दी जाए और इस रकम को प्राप्त करने के लिए दो-चार घंटे फर्जी काम करने का जो नाटक हो रहा है उसे भी समाप्त कर दिया जाए। इससे श्रमिक दूसरे उत्पादक कार्यों में लगे रहते हुए इस रकम को प्राप्त कर सकेंगे। इसे प्राप्त करने के लिए उसे निकम्मा नहीं बनना होगा। मनरेगा में तेजी से व्याप्त होती अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से भी देश को छुटकारा मिल जाएगा।
सुधार का दूसरा उपाय है कि सरकारी विभागों अथवा उनके ठेकेदारों द्वारा श्रमिक को दिया जा रहा भुगतान सरकार मनरेगा के बजट से दे दे। सार्वजनिक निर्माण विभाग को एक लम्बी-चौड़ी सड़क बनाने में जितने श्रमिकों का उपयोग करना हो उतनी रकम मनरेगा द्वारा सा.नि.वि. को उपलब्ध करा दी जाए। इससे सरकारी विभागों एवं ठेकेदारों के लिए कार्यों को मशीनों के स्थान पर श्रमिकों से कराना लाभप्रद हो जाएगा क्योंकि मशीनों का भुगतान उन्हें अपने बजट से करना होगा। इसी प्रकार निजी उद्योगों द्वारा उपयोग किये गये श्रम पर 50 रुपए प्रतिदिन का अनुदान दिया जा सकता है। ऐसा करने से बाज़ार में सहज ही रोज़गार उत्पन्न हो जाएंगे और मनरेगा की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। फिर भी यदि मनरेगा को जारी रखना ही हो तो इसमें निजी भूमि के सुधार की छूट दी जानी चाहिए। किसान अपने खेत पर मेड़बन्दी करे और वृक्ष लगाये तो मनरेगा उसे मजदूरी दे। इससे यह रकम उत्पादक हो जाएगी और उद्योगों को हो रहे नुकसान की आंशिक भरपायी भी हो जायेगी। सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए कि श्रमिक की दिहाड़ी में वृद्धि भी हो और उसके श्रम का सदुपयोग भी हो।
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और देश के कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए इस विषय पर लिखते हैं।)

Thursday, November 1, 2012

हिंदी भाषी राज्य और सहकारिता

देश में सहकारिता के कुछ जानकारों का मानना है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से चल रहा सहकारिता आंदोलन बिखरने के कगार पर है। हालांकि यह आज विराट रूप धारण कर चुका है और एक अनुमान के अनुसार इस समय देशभर में करीब 5 लाख से अधिक सहकारी समितियां सक्रिय हैं। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि वर्तमान मेंइस क्षेत्र में करोड़ों लोगों को रोज़गार भी मिल हुआ है। सहकारी समितियां समाज के अनेक क्षेत्रों में काम कर रही हैं, और बैंकिग, कृषि, उर्वरक और दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में इनकी भागीदारी सर्वाधिक है। वैसे तो आज देश का सहकारी आंदोलन राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बनकर अनेक विसंगतियों के जाल में फंसा दिया गया है। लेकिन हिंदी-भाषी राज्यों सहकारिता का प्रदर्शन अब तक बहुत खराब रहा है इन राज्यों में सहकारिता आंदोलन को असफल और लूट-खसोट का जरिया मान लिया गया है। 
निराशा के इस माहौल में हिंदी भाषी राज्यों के लिए एक अच्छी खबर भी है। हाल ही में उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ व हरियाणा ने अच्छे परिणाम दिए हैं। देश के 60 सर्वोत्तम जिला सहकारी बैंकों में यूपी के 4, बिहार के 5, उत्तराखंड के 8, पंजाब के 6, छत्तीसगढ़ के 4 और हरियाणा के 3 बैंकों ने अपना स्थान दर्ज कराया है। सहकारिता आंदोलन को गुजरात में जहां सबसे ज्यादा सफल माना जाता है वहां से सिर्फ 1 और महाराष्ट्र में 12 जिला सहकारी बैंक सर्वोत्तम प्रदर्शन करने वालों में शामिल हुए हैं। सहकारिता आंदोलन को जांचने के लिए देश की सबसे अच्छे 60 जिला सहकारी बैंक चयनित हुए जिनमें सबसे अच्छा महाराष्ट्र रहा जहां के 12 सहकारी बैंक तो प.बंगाल जिसकी केवल 1 जिला सहकारी समिति का चयन हो सका और राजस्थान सबसे फिसड्डी राज्य साबित हुआ जिसकी एक भी सहकारी संस्था इसमें शामिल नहीं है।
पहले स्थान पर ओडिशा की बालासोर, दूसरे स्थान पर तमिलनाडु की विलुपुरम्म और तीसरा स्थान महाराष्ट्र के मुम्बई को मिला। सर्वोच्च दस में उत्तरप्रदेश का भी नम्बर आया, यहां के इटावा जिला सहकारी बैंक की प्रति शाखा व्यवसाय 11.16 करोड़ रुपए रहा जबकि देश की सर्वोच्च शाखा ओडिशा की बालासोर रही जहां 29.98 करोड़ का व्यवसाय प्रति शाखा रहा। गुजरात की तरह प. बंगाल की एकमात्र शाखा इन परिणामों पर खरी उतरी है। बहरहाल, सहकारिता में उत्तर भारत भले ही पिछड़ा नजर आए फिर भी कर्ज बांटने के मामले में यहां 2006-07 में 23872 करोड़ रुपए कृषि क्षेत्र में दिए गए जो कि 51 प्रतिशत था जबकि 49 प्रतिशत यानी 47069 करोड़ रुपए का कर्ज गैर कृषि क्षेत्र को दिया गया। वर्ष 2008-09 में कृषि क्षेत्र में 53 प्रतिशत कर्ज बांटा गया तो 47 प्रतिशत धन गैर कृषि क्षेत्र को दिया गया। ग्रामीण क्षेत्र में हुए ताजा अध्य्यन में कहा गया है कि किसान को साहूकार के कर्ज पर निर्भर रहना पड़ता है जो 36 प्रतिशत से लेकर 120 प्रतिशत तक ब्याज वसूलते हैं। आंकड़ों के अनुसार 79 फीसदी किसान लघु श्रेणी के हैं जिनके 367 जिला सहकारी समितियों में 4401 करोड़ रुपए फंसे हैं जो कि बड़े लोगों के पास हैं। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि सहकारिता के तहत चलने वाले मिनी बैंकों के पास आज भी बहुत मौके हैं, जरूरत है तो सिर्फ ईमानदारी से काम करने की।