नरमे के मुकाबले देशी कपास की कीमत कम मिलने की वजह से देश के किसानों का देसी कपास की खेती से मोह पूरी तरह भंग होता जा रहा है। इतना ही नहीं, घरों में सूत की कताई कर कपड़े बुनने का रुझान भी कम होने की वजह से किसानों ने देसी कपास से दूरी बना ली है। हालात ये हैं कि मंडियों में कपास की आवक के ग्राफ में आश्चर्यजनक गिरावट दर्ज की जा रही है जो कि देसी कपास के प्रति किसानों के उदासीन रवैये का स्पष्ट संकेत है।
गौरतलब है कि इस बार पंजाब में करीब छह लाख हेक्टेअर क्षेत्रफल में नरमा की बिजाई की गई थी, लेकिन इसमें देसी कपास की बिजाई मात्र 60 हजार हेक्टेअर के करीब रही। घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल होने वाली इस देसी फसल से किसानों के किनारा करने के एक नहीं कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण नरमे के मुकाबले इसकी प्रति एकड़ उपज का कम होना माना जा रहा है। देसी कपास के विकल्प के रूप में पहले नरमा और अब ज्यादा उत्पादन देने वाली बीटी किस्मों के आ जाने से किसानों की इसकी खेती में रुचि और भी कम हो गई। एक एकड़ में बीटी नरमा से जहां 12 क्विंटल के आसपास झाड़ मिलता है, वहीं देसी कपास से मात्र 7-8 क्विंटल ही झाड़ मिल पाता है। इसके अलावा इसके भाव में भी काफी अंतर है। इन्हीं सब कारणों से किसानों का देसी कपास से मोहभंग होता जा रहा है। यही कारण है कि किसान ज्यादा उपज और मूल्य देने वाली नरमे की फसल को तरजीह देने लगा है। इसके अलावा हवा के झोके से इसकी रुई नीचे गिरने से इसकी बार-बार चुगाई की समस्या भी किसानों को परेशान करती है। इसके कारण वे इस फसल से दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझते हैं।
वर्ष 1996-97 में उत्तर भारत में जहां 16.25 लाख गाँठे (एक गाँठ 170 किलो) पैदा होती थी वहीं समस्त भारत में यह 169 लाख गाँठ पैदा होती जो कुल कपास उत्पादन का 9.6 प्रतिशत था। वर्ष 2011-12 में यह उत्पादन घटकर उत्तर भारत में मात्र 1.75 लाख गाँठ और समस्त भारत यह घटकर कुल कपास उत्पादन का मात्र 0.50 प्रतिशत रह गया। इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि देसी कपास का उत्पादन क्षेत्र उत्तरी क्षेत्र में जबरदस्त घटा है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य गुणवत्ता और जरूरत के आधार पर नहीं रेशे की लम्बाई के आधार पर तय होता है। जाहिर है देसी कपास का रेशा अमेरिकन और बीटी कपास के रेशे से छोटा होता है, इसलिए इसकी कीमत भी कम मिलती है। आंकडों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्ष 2011-12, में देसी कापस के एमएसपी 2500 प्रति क्विंटल था, जो वर्ष 2012-13 में यह 2800 है। भारत सरकार द्वारा घोषित कापस के न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल काल्पनिक मूल्य है क्योंकि एमएसपी निरपवाद रूप से प्रचलित बाजार मूल्य से नीचे हैं। देसी कापस के वर्तमान प्रचलित बाजार मूल्य रुपये है. 4000 प्रति क्वि. जो सरकारी घोषित मूल्य से 38 प्रतिशत अधिक है।
बीटी कपास उच्च गुणवत्ता वाला मध्यम और लम्बे रेशे की वजह से उद्योगों की पहली पसंद बन गया। वहीं दूसरी तरफ देशी कपास की कमी की वजह से छोटे पैमाने पर कताई करने वाले, हथकरघा क्षेत्र में, रजाई-चद्दर निर्माताओं और सर्जिकल कॉटन विनिर्माण आदि क्षेत्रों में लगभग 25 लाख श्रमिकों के रोजगार और सूती कपड़े के उत्पादन 25 प्रतिशत तक प्रभावित हो रहा है। ज्ञात रहे हथकरघा उद्योग पूरी तरह से मोटे सूत जो देशी कपास से निर्मित होता है पर निर्भर करता है। इतनी सारे बुरे समाचारों के बीच एक अच्छा समाचार यह है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आइसीएआर) के अधीन काम करने वाला केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआइसीआर) सर्जिकल में देशी कपास की खपत बढ़ाने के लिए निजी कंपनियों से गठजोड़ कर रहा है। याद रहे देश में सालाना अकेले सर्जिकल में ही करीब 20 लाख गांठ (एक गांठ 170 किलो) देशी कपास की खपत होती है।
सीआइसीआर के निदेशक डॉ. के. आर. क्रांति के अनुसार वे कई रुई निर्माता कंपनियों से इस बारे में बातचीत कर रहे हैं। ये कंपनियां किसानों को 4,000 रुपये प्रति क्विंटल का भाव देने को तैयार हैं। उन्होंने बताया कि संस्थान ने राठी केमिकल से करार भी कर लिया है। कई अन्य कंपनियों के साथ भी बातचीत चल रही है। संस्थान विदर्भ और मध्यप्रदेश के किसानों को देशी किस्म की जैविक कपास का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा हैं ताकि किसानों को फसल का उचित मूल्य मिल सके। सीआइसीआर के अंतर्गत काम करने वाले मुंबई स्थित केंद्रीय कपास टेक्नोलॉजी अनुसंधान संस्थान (सीआइआरसीओटी) का भी इसमें सहयोग भी लिया जा रहा है।
सीआइआरसीओटी कच्ची कपास को तैयार माल का रूप देने में सहयोग करेगा। उन्होंने बताया कि इस समय सर्जिकल उद्योग में पूर्वोत्तर और राजस्थान में पैदा होने वाली देशी किस्म की बंगाल कपास का उपयोग किया जा रहा है लेकिन इस किस्म की कपास को उपयोग से पहले रसायनिक उपचारित करने की जरूरत होती है लेकिन देशी कपास की जैविक खेती करने पर इसमें रसायनिक उपचार की जरूरत नहीं पड़ेगी। सीआइसीआर की आगामी सीजन में 500 हेक्टेअर में देशी किस्म की कपास की खेती करवाने की योजना है। उन्होंने बताया कि संस्थान के पास देशी कपास के बीजों का अच्छा भंडार है। देशी किस्मों में लोहित, एलडी-133, आरजी-8, एलडी-327, डीएस-21, एलडी-491 हैं इनके रेशे और अन्य खूबियां सर्जिकल कपास के लिए एकदम उपयुक्त है।
वर्ष 1996-97 में उत्तर भारत में जहां 16.25 लाख गाँठे (एक गाँठ 170 किलो) पैदा होती थी वहीं समस्त भारत में यह 169 लाख गाँठ पैदा होती जो कुल कपास उत्पादन का 9.6 प्रतिशत था। वर्ष 2011-12 में यह उत्पादन घटकर उत्तर भारत में मात्र 1.75 लाख गाँठ और समस्त भारत यह घटकर कुल कपास उत्पादन का मात्र 0.50 प्रतिशत रह गया। इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि देसी कपास का उत्पादन क्षेत्र उत्तरी क्षेत्र में जबरदस्त घटा है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य गुणवत्ता और जरूरत के आधार पर नहीं रेशे की लम्बाई के आधार पर तय होता है। जाहिर है देसी कपास का रेशा अमेरिकन और बीटी कपास के रेशे से छोटा होता है, इसलिए इसकी कीमत भी कम मिलती है। आंकडों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्ष 2011-12, में देसी कापस के एमएसपी 2500 प्रति क्विंटल था, जो वर्ष 2012-13 में यह 2800 है। भारत सरकार द्वारा घोषित कापस के न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल काल्पनिक मूल्य है क्योंकि एमएसपी निरपवाद रूप से प्रचलित बाजार मूल्य से नीचे हैं। देसी कापस के वर्तमान प्रचलित बाजार मूल्य रुपये है. 4000 प्रति क्वि. जो सरकारी घोषित मूल्य से 38 प्रतिशत अधिक है।
बीटी कपास उच्च गुणवत्ता वाला मध्यम और लम्बे रेशे की वजह से उद्योगों की पहली पसंद बन गया। वहीं दूसरी तरफ देशी कपास की कमी की वजह से छोटे पैमाने पर कताई करने वाले, हथकरघा क्षेत्र में, रजाई-चद्दर निर्माताओं और सर्जिकल कॉटन विनिर्माण आदि क्षेत्रों में लगभग 25 लाख श्रमिकों के रोजगार और सूती कपड़े के उत्पादन 25 प्रतिशत तक प्रभावित हो रहा है। ज्ञात रहे हथकरघा उद्योग पूरी तरह से मोटे सूत जो देशी कपास से निर्मित होता है पर निर्भर करता है। इतनी सारे बुरे समाचारों के बीच एक अच्छा समाचार यह है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आइसीएआर) के अधीन काम करने वाला केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआइसीआर) सर्जिकल में देशी कपास की खपत बढ़ाने के लिए निजी कंपनियों से गठजोड़ कर रहा है। याद रहे देश में सालाना अकेले सर्जिकल में ही करीब 20 लाख गांठ (एक गांठ 170 किलो) देशी कपास की खपत होती है।
सीआइसीआर के निदेशक डॉ. के. आर. क्रांति के अनुसार वे कई रुई निर्माता कंपनियों से इस बारे में बातचीत कर रहे हैं। ये कंपनियां किसानों को 4,000 रुपये प्रति क्विंटल का भाव देने को तैयार हैं। उन्होंने बताया कि संस्थान ने राठी केमिकल से करार भी कर लिया है। कई अन्य कंपनियों के साथ भी बातचीत चल रही है। संस्थान विदर्भ और मध्यप्रदेश के किसानों को देशी किस्म की जैविक कपास का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा हैं ताकि किसानों को फसल का उचित मूल्य मिल सके। सीआइसीआर के अंतर्गत काम करने वाले मुंबई स्थित केंद्रीय कपास टेक्नोलॉजी अनुसंधान संस्थान (सीआइआरसीओटी) का भी इसमें सहयोग भी लिया जा रहा है।
सीआइआरसीओटी कच्ची कपास को तैयार माल का रूप देने में सहयोग करेगा। उन्होंने बताया कि इस समय सर्जिकल उद्योग में पूर्वोत्तर और राजस्थान में पैदा होने वाली देशी किस्म की बंगाल कपास का उपयोग किया जा रहा है लेकिन इस किस्म की कपास को उपयोग से पहले रसायनिक उपचारित करने की जरूरत होती है लेकिन देशी कपास की जैविक खेती करने पर इसमें रसायनिक उपचार की जरूरत नहीं पड़ेगी। सीआइसीआर की आगामी सीजन में 500 हेक्टेअर में देशी किस्म की कपास की खेती करवाने की योजना है। उन्होंने बताया कि संस्थान के पास देशी कपास के बीजों का अच्छा भंडार है। देशी किस्मों में लोहित, एलडी-133, आरजी-8, एलडी-327, डीएस-21, एलडी-491 हैं इनके रेशे और अन्य खूबियां सर्जिकल कपास के लिए एकदम उपयुक्त है।
