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Monday, April 23, 2012

बरसात की भविष्यवाणी

आज भी हमारे देश में साठ प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर है। ऐसे में किसानों के लिए बरसात के बारे में सटीक भविष्यवाणी का महत्त्व असंदिग्ध है। इसी के मद्देनजर मौसम विभाग वर्ष भर प्रयास रत रहता है कि मानसून के बारे में समय पूर्व जानकरी संबंधित पक्षों को मिलती रहे। हालांकि ये भविष्यवाणियां कितनी सटीक और सही होती हैं यह एक अलग बहस का विषय है। इनके बारे में कहा तो यह भी जाता है कि अगर मौसम विभाग बरसात होने की जानकारी दे तो समझलें कि सूखा पडऩे वाला है। इन लतीफों को अलग रखकर फिलहाल बात करते हैं कि मानसून के बारे ये भविष्यवाणियां किस आधार पर की जाती हैं।
भारत में मानसून अवधि 1 जून से 30 सितंबर तक करीब चार महीने की होती है। इससे संबंधित भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है। तापमान, हवा, दबाव और बर्फबारी आदि कुल 16 तथ्यों के अध्ययन और विशलेषण को चार भागों में बांट कर बरसात के पूर्वानुमान किए  जाते हैं। समूचे भारत के तापमान का क्षेत्रानुसार अध्ययन किया जाता है। मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रेल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह के तापमान को आधार बनाया जाता है। तापमान के अलावा वातावरण में अलग-अलग महीनों में 6 से 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवाओं के रुख और गति का भी लेखा-जोखा रखा जाता है। चूंकि वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है, वसंत ऋ तु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव जबकि जनवरी से मई तक हिंद महासागर के विषुवतीय क्षेत्रों के दबाव को मापा जाता है। जनवरी से मार्च तक हिमालय के खास भागों में बर्फ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फबारी का अध्ययन किया जाता है जो मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाती हैं। इस अध्ययन के लिए आंकड़े उपग्रह द्वारा एकत्र किए जाते हैं। इन सारे तथ्यों की जांच पड़ताल में थोड़ी सी असावधानी या मौसम में किन्हीं अप्रत्याशित कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर पड़ता है। इसका एक उदाहरण है, 2004 में प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान का जून महीने के अंत में बढ़ जाने के कारण मानसून की भविष्यवाणी का पूरी तरह सही न होना।
अल-नीनो भी तय करता है बरसात
मानसून का समय तो पूर्वानुमान द्वारा जाना जा सकता है लेकिन मानसून कितना अच्छा होगा और सही-सही कब आएगा, यह हम नहीं जान सकते। अल नीनो और इसकी गतिविधियों को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक कुछ हद तक पता लगा सकते हैं। सच्चाई तो यह है कि गहरे समुद्र में घटने वाली एक हलचल यानी अल नीनों ही किसी मानसून का भविष्य तय करती है। अल-नीनो कहीं प्रकृति का उपहार बनकर आती है तो कहीं यह विनाश का कारण भी बनती है।
क्या है अल-नीनो?
अल-नीनो स्पैनिश भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है- छोटा बालक। इसे यह नाम पेरू के मछुआरों ने बाल ईसा के नाम पर दिया बताते हैं। क्योंकि इसका प्रभाव सामान्यत: क्रिसमस के आस-पास अनुभव किया जाता है। मौसम विज्ञान की भाषा में इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत के भूमध्यीय क्षेत्र के समुद्र के तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए बदलाव के लिए उत्तरदायी समुद्री घटना को अल-नीनो कहा जाता है। यह दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित ईक्वाडोर और पेरु देशों के तटीय समुद्री जल में कुछ सालों के अंतराल पर घटित होता है जिसके परिणाम स्वरूप समुद्र के सतही जल का तापमान सामान्य से अधिक हो जाता है। सामान्यत: व्यापारिक हवा समुद्र के गर्म सतही जल को दक्षिण अमेरिकी तट से दूर ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस की ओर धकेलते हुए प्रशांत महासागर के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर बहती है। पेरू का तटीय जल ठंडा तथा पोषक-तत्वों से समृद्ध है जो प्राथमिक उत्पादकों, विविध समुद्री पारिस्थिक तंत्रों एवं प्रमुख मछलियों को जीवन देता है। अल-नीनो के दौरान, व्यापारिक हवाएं मध्य एवं पश्चिमी प्रशांत महासागर में शांत होती है। इससे गर्म जल को सतह पर जमा होने में मदद मिलती है जिसके कारण ठंडे जल के जमाव के कारण पैदा हुए पोषक तत्वों को नीचे खिसकना पड़ता है और जलीय जीव मरने लगते हैं जिससे समुद्री पक्षियों को भोजन की कमी हो जाती है। यही अल-नीनो प्रभाव विश्वव्यापी मौसम पद्धतियों के विनाशकारी व्यवधानों के लिए जिम्मेदार है।
एक बार शुरू होने पर यह प्रक्रिया कई सप्ताह या महीनों चलती है। सामान्यत: अल-नीनो प्रभाव दस साल में दो बार और कभी-कभी तीन बार भी नजर आता है। अल-नीनो हवाओं के दिशा बदलने, कमजोर पडऩे तथा समुद्र के सतही जल के ताप में बढ़ोतरी की विशेष भूमिका निभाती है। चूंकि अल-नीनो से वर्षा के प्रमुख क्षेत्र बदल जाते हैं, परिणामस्वरूप विश्व के ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा वर्षा होने लगती है और कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है।

सर्दी की सारी बरसातें नहीं होती मावठ

राजस्थान में बरसात को लेकर काफी कहावतें है एक बानगी देखें- तितर पंखी बादळी, विधवा काजल रेख, आ बरसे बा घर करे, इ'मे मीन न मेख। मतलब यह कि अगर बादल तीतर के पंखों जैसे दिखें तो वे हर हाल में बरसेंगे ही और विधवा स्त्री अगर काजल लगाए तो वह दूसरी शादी हर हाल में करेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। एक और कहावत है- सावनिये सूरो चालै, भादुडे पुरवाई -आसोजां नाड़ा तांकण, तो भर-भर गाडा ल्याई। अर्थ यह कि सावन महीने में उत्तर-पश्चिमी हवाएं चलें और भादो में पुरवाई, अश्विन माह में पश्चिमी हवाएं चलें तो समझलें कि जबरदस्त पैदावार होगी। कहावतें ही नहीं राजस्थानी भाषा तो इतनी समृद्ध है कि प्रत्येक माह में बरसने वाली बरसात के नाम भी अलग-अलग हैं। हम अक्सर दिसम्बर-जनवरी या फरवरी माह में होने वाली बरसात को मावठ कहते हैं, जबकि केवल माघ महीने में होने वाली बरसात ही मावठ कहलाती है। आपका सवाल हो सकता है कि फिर पौष माह की बरसात को क्या कहेंगे? जाहिर है उसे पावठ कहेंगे।
राजस्थानी साहित्यकार और भाषाविद् भंवरसिंह सामौर के अनुसार पोष में पावठ, माघ में मावठ, फाल्गुन में फटकार, चैत में चड़पड़ाट, वैसाख में हळोतियो, जेठ में झपटो, आषाठ में सरवांत, सावन में लोर, भादो में झड़ी, असोज में मोती, कार्तिक में कटक और मिंगसर में होने वाली बरसात फांसरड़ो कहलाती है। इसके अलावा बरसात की गति, निरंतरता और कितनी देर बरसी इसके भी अलग-अलग नाम हैं। पहली बूंद या छांट को हरि कहते हैं, फिर छांटो, छांटां, छिड़को, छांट-छिड़को, छांटा-छोळ, छिछोहो, मेह, टपको, टीपो, टपूकलो, झिरमिर, झिरमिराट और गति तेज हो जाए तो झड़ी, रीठ, भोट और फैंटो कहलाती है। अगर यही बरसात लगातार तेज हो तो झड़मंडण, बरखवळ, हूलर, त्राट, त्रमझड़, त्राटकणों, धरहरण और अंत में मूसळधार हो जाती है। घटाटोप बरसती घटाओं को सहाड़ कहते हैं और अगर बरसात धरती आकाश एकमेक करदे तो धारोळा, धरोळां-बोछाड़ कहलाती है। इन लगातार और थम-थम कर औसरती बूंदों के कुछ और भी नाम हैं जैसे-बिरखा, घणसार, मेवळियो, बूलौ, सीकर, पुणंग, जिखौ और आणंद।
जब बरसात होती है तो हवा और पानी मिलकर कुछ आवाज भी पैदा करते हैं, इन आवाजों के भी अलग-अलग नाम हैं। तेज आवाज को सोकड़, सूंटो, धारोळा कहते हैं। धारोळों के साथ उठने वाली आवाज कहलाती है धमक-धोख और धमक के साथ चलने वाली तेज हवा को खरस या बावळ कहते हैं।
राजस्थान वालों के लिए चाहे बरसात तीज-त्योंहार की तरह आती हो पर वे इसे सैंकडों नामों से पुकारते हैं, दुलारते है। राजस्थानी भाषा में केवल बरसात और बूदों के ही कई नाम नहीं है, बादलों के उनके रंग-रूप, चाल-ढ़ाल अनुरूप सैंकडों नाम और पर्याय हैं। हर स्थिति के लिए अलग उपमा और नाम हैं, जैसे बारिस आरम्भ होने को बूठणूं और बंद होने को उद्धरेळो कहा जाता है। बरसात के बडे बादलों को शिखर और छोटी लहरदार बादळियों को छीतरी या तीतर पांखी कहते हैं। इधर-उधर छिटके छोटे बादलों को चूंखो या चंूखलो कहते है वहीं बरसते काले बादल काळायण और इन काले बादलों के आगे सफेद बादलों को उनकी स्थितियों के अनुसार कांठळ, कोरण और कागोलड़ कहते हैं। पतले और ऊँचे बादल कस या कसवाड़ और पश्चिम-दक्षिण कोण (नैऋत) से उठकर पूर्व-उत्तर कोण (ईशान) की और जाते बादल ऊँब कहलाते हैं। पश्चिम की ओर से तेज गति से आती बरसात को लोर और तेज होने पर लोरा-झाड़ कहलाती है। बरस कर थक चुके आराम करते बादलों को रींछी कहते हैं। बरस चुके बादलों से सूरज झांके तो उसे मोख-मांखणों पुकारते हैं और जिस रात सबसे ज्यादा बरसात हो उसे महारैण कहते हैं। बादलों के कुछ और पर्याय भी हैं जैसे- सारंग, बोम, बोमचर, मेघ, जळज, जळधर, जळहर, जळजाळ, जळवाह, जळधरण, जळबाहण, जळमंड, जळमंडळ, जळमुक, महत, महिपाळ, महिमंडण, मेहाजळ, मेघाण, महाधण, महींरजण, तरत्र, निरझर, भरणनिवाण, रौरगंजण, पीथळ, पिरथीराज, पिरथीपाळ, पावस, पाथोद, डाबर, डंबर, दळबादळ, हब्र, मैंमट, मेहाजळ, बसु, अंब्र, इळम, पिंगळ, नीरद, पाळग, तडि़तवान, आकासी, सेहर, रामइयो, मुदिर, कारायण, कंद, घण, घणमंड, धरमंडण और भरणनंद। 
दुनिया की शायद ही किसी भाषा में बरसात के पानी के लिए कोई अलग से नाम है, पर राजस्थानी में इसे पालर पाणी कहते हैं, जिसका एक और अर्थ निकलता है स्वादहीन। राजस्थान और गुजरात के सेठ अपने गांव के लोगों की प्यास और उसकी कीमत समझते थे, इसलिए तो इन राज्यों में एक-दो कोस की दूरी पर बावडियां बनावाई गई हैं, जिनमें बरसात का पानी इकठा होता है।

Wednesday, April 18, 2012

ग्वार के बुखार है

मात्र छ: माह में ग्वार के भाव 2500 से 25 हजार प्रति क्विण्टल तक पहुंच गए। दिन दुगने रात चौगुने बढ़ रहे ग्वार के भाव में अभूतपूर्व बढ़ोतरी को लेकर किसानों व आढ़तियों के साथ-साथ आम लोग भी हैरान हैं। भावों को लेकर अब यह चर्चा भी हो रही है कि ग्वार को अब सुखे मेवों में शामिल कर लिया जाए, क्योंकि किशमिश (150 से 250 रूपए प्रति किलो)और बादाम (200 से 300 रूपए प्र.कि.) की तरह ग्वार 250 प्रति किलो तक पहुंच चुका है और जल्द ही 350 रूपए प्र. कि. को पार करने वाला है। मजाक में तो यहां तक कहा जा रहा है कि भविष्य में ग्वार के गहने भी बनेगें। फरवरी की शुरुआत में जब ग्वार के भाव 10 हजार रूपए क्विण्टल के करीब चल रहे थे वही मार्च आते-आते दो गुणा बढ़कर 20 हजार से ऊपर निकल गए। मांग इसी तरह बनी रही तो यह भी संभावना है कि यह 30 हजार से भी पार कर जाएगा। आजकल दो प्रश्र हर तरफ हैं। पहला यह कि ग्वार के भाव एकदम से इतना बढ़ा कैसे? और दूसरा यह कि, क्या यह तेजी कब तक बनी रहेगी? जितने लोग, उतने ही तर्क। आइए पहले यह जानने का प्रयास करें कि ग्वार की मांग एकदम से इतनी क्यों बढ़ी? पर उससे पहले ग्वार के इस्तेमाल के बारे में प्रचलित लाल बुझक्कड़ी और तथ्य परक अनुमान।
पहला तथ्य तो यह है कि ग्वार के इस्तेमाल से पेट्रोल के कुओं में खुदाई में प्रयुक्त हाइड्रो-ड्रिल तकनीक में क्रांतिकारी बदलाव आया है। दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी और सौंवी कौड़ी यह कि, यह अब डीज़ल इंडस्ट्रीज में काम आने लगा। यह कच्चे तेल को साफ करने में मददगार है। यह पेपर इंडस्ट्रीज में पेपर को साफ-सुथरा और चमकदार बनाने में मददगार है। कि यह यूरेनियम को साफ करने में भी काम आता है। कि इसका इस्तेमाल दवाओं, कैप्सूल के खोल बनाने, बारूद व पटाखे तैयार करने में और आइसक्रीम में होता है। कि यह पेट्रोल, डीज़ल, मिट्टी तेल और काले तेल को साफ करता है। कि ग्वार के लेप से तेल के कुओं की पुताई की जाती है। इन कहानियों के पीछे की हकीकत की बात करें उससे पहले कुछ और कारण जिनकी वजह से ये भाव आसमान छूने लगे हैं।
चर्चा है कि विदेशों में पाकिस्तानी ग्वार की आवक नहीं होने के कारण भारतीय ग्वार की मांग बढ़ी है। इसका कारण पाकिस्तान की ओर से अन्य देशों को ग्वारा का निर्यात रोका जाना बताया जा रहा है। आंकड़े इस बात की पुष्टि भी करते हैं- अप्रैल-नवंबर 2010 में 2.28 लाख टन ग्वार गम का निर्यात जो अप्रैल-नवंबर 2011 में 194 फीसदी बढ़कर 6.7 लाख टन पर पहुंच गया। पिछले वित्त वर्ष के शुरुआती 8 महीनों में ही 6,24,877 लाख रुपए के ग्वार गम का निर्यात हुआ, जो अप्रैल-नवंबर 2010 के मुकाबले 331 फीसदी अधिक था। अकेले नवंबर 2011 में 3.3 लाख टन ग्वार गम निर्यात के कारण इसकी कीमतें हवा से बातें करने लगी थी।
ग्वार की बढ़ती कीमतों की दूसरी वजह सटोरियों की दिलचस्पी को बताया जा रहा है। एनसीडीईएक्स के तीन बार विशेष मार्जिन बढ़ाए जाने के बावजूद कीमतों में बढ़ोतरी जारी है। इस समय ग्वार और ग्वार गम के सौदों पर कुल 40 प्रतिशत लाभ है, जिसमें 10 प्रतिशत विनिमय लाभ और 30 प्रतिशत विशेष लाभ शामिल है। हालांकि ग्वार वायदा कारोबार में गड़बडी की आशंका और ग्वार वायदा पूरी तरह से सटोरियों के हाथ में जाने की आशंका के चलते सरकार ने एफएमसी (फारवर्ड मार्केट कमिशन)को जांच के आदेश दे दिए हैं। कंज्यूमर्ज अफेयर्ज सचिव राजीव अग्रवाल के मुताबिक एफएमसी ने पूरे मामले की जांच के लिए एक समिति का गठन भी किया है। इस समिति ने एक्सचेंज से ग्वार वायदा कारोबारियों का पूरा ब्यौरा मांगा है। माना जा रहा है सरकार और एफएमसी दोनों मिलकर ग्वार वायदा कारोबार पर कुछ कड़े कदम उठा सकते हैं।
इस बात को सीएनबीसी आवाज के एक मतदान सर्वेक्षण में शामिल सभी लोगों ने भी इसे सच माना है कि ग्वार में आई तेजी पूरी तरह सट्टेबाजी का नतीजा है। सर्वेक्षण में शामिल 90 फीसदी लोगों का कहना है कि ग्वार की तेजी को रोकने के लिए वायदा बाजार आयोग ने पर्याप्त कदम नहीं उठाए। 73 फीसदी लोगों का यह भी मानना है कि ग्वार वायदे के हालात ऐसे ही रहे तो भुगतान संकट गहराने की पूरी आशंका है तथा 82 प्रतिशत लोगों की राय थी कि ग्वार में कारोबार घटता जा रहा है, जो किसी भी कारोबार के लिहाज से चिंता का विषय है। एक तीसरे पक्ष का मानना है कि ग्वार में आई तेजी के लिए केवल वायदा बाजार ही जिम्मेदार नहीं है। इनके मुताबिक हाजिर बाजार में भी ग्वार पर सट्टेबाजी जारी है, जिसपर रोक लगाने की आवश्यकता है। ग्वार में लगातार तेजी और इसपर मचे वबाल को देखते हुए छोटे कारोबारी तो ग्वार निवेश से दूरी बना ही रहे हैं, बाजार के बड़े जानकार भी ग्वार की इस रफ्तार की वजह को पकडऩे में नाकाम होते दिखाई दे रहे हैं।
इस सबके बाद बात करते हैं उन तथ्यों की, जिन पर भरोसा किया जा सकता है। देश की सबसे बड़ी ग्वार गम निर्यातक कम्पनी विकास डब्ल्यू एस पी के वाइस प्रेजिडेंट डॉ. संजय पारीक विस्तार से समझाते हैं कि तेल कुओं को सामान्य गहराई तक खोदने में कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती पर गहराई में जाकर कुएं को तिरछा (होरिजेंटल)खोदना मुश्किल होता है। ये परेशानियां और बढ़ जाती हैं जब जमीन चट्टानी हो। पूर्व में अमेरिका के अधिकतर तेल कुओं में ऐसी चट्टानी भुमि को तेल, पानी या हवा के दबाव से काटा जाता था। बाद के सालों में ड्रिलिंग कंपनियों ने गैस से कटाई में ग्वार का प्रयोग कर एक नई तकनीक इजाद की है। एक जानकारी के अनुसार संघनित (कन्डेन्सड) तेल सबसे मंहगा माना गया है और उस क्षेत्र की खुदाई में गैस कटिंग तकनीक काम ली जाती है। गैस में ग्वार गम मिलाने के कटाई में दो मुख्य फायदे हैं। पहला तो कटाई के दौरान काम आने वाला ग्वार साइड की दीवारों पर एक फिल्म की तरह चिपक जाता है, जिससे दीवारें मजबूत हो जाती हैं। दूसरा लाभ यह है कि ग्वार बॉयोडीग्रेबल है अगर यह तेल में मिल भी जाए तो कोई नुकसान नहीं होता। ग्वार के पहले से भी कई इस्तेमाल थे पर इस उपयोग ने इस पशु चारे को बेहद कीमती बना दिया।
क्या भविष्य में भी यह मांग बनी रहेगी? के जवाब में डॉ. पारीक कहते हैं कि-अमेरिका के अलावा चीन में भी ऐसे कुएं हैं, और अब तक 42 देशों में 48 ऐसे कुएं चिन्हित किए जा चुके हैं। इन सबके लिए एक अनुमान के अनुसार इस समय 30 लाख टन ग्वार की जरूरत है और आपूर्ति हो रही है सिर्फ 15 लाख टन की। दूसरी मुख्य वजह है ग्वार बीज का मंहगा होना, जिससे बारानी क्षेत्र के काश्तकारों का आगामी भावों के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं होना। वे इस मंहगे भाव का बीज खरीदें और पर्याप्त बरसात न हो तो ऐसा जोखिम नहीं उठाना चाहेंगे, इससे पैदावार कम होगी। अगर सिंचित क्षेत्र के किसान इस कमी को दूर भी कर दें तो भी 25 लाख टन से ज्यादा उत्पादन नहीं हो सकता। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अगले 5 साल तक ग्वार सोना बनकर उगता रहेगा।
इन सारी अटकलों के बीच कुछ जानकार यह राय भी जाहिर कर रहे हैं कि ग्वार का यह इस्मेताल कई सालों से हो रहा था, भाव बढऩे का फौरी कारण, मांग ज्यादा- आपूर्ति कम, सट्टा और जमाखोरी हैं। इतने मंहगे भाव में एक ऐसी फसल का इंतजार करना जिसका सारा दारो-मदार मौसम पर निर्भर करता हो, किसी जुए से कम नहीं हैं। जल्द ही इसका इस्तेमाल करने वाले उद्यमी कोई और विकल्प ढूंढ़ ही लेंगे। इसके जवाब में कुछ आशावादी लोगों का तर्क है कि-भविष्य में चाहे कुछ भी पर इन भावों को जमीन पर आने अभी वक्त लगेगा।

बीटी कपास के दस वर्ष

कपास की खेती मानव सभ्यता के इतिहास में सात हजार सालों से होती आई है, लेकिन इसमें पिछली सदी के अंतिम दशक में एक नया अध्याय तब लिखा गया जब महाराष्ट्र स्थित माहिको हायब्रिड सीड कंपनी और अमेरिकन कंपनी मोनसेंटो से साझेदारी की। सन 1999 में मोनसेंटो बीटी कॉटन लेकर भारत आई। भारत में पहले से मौजूद कई संकर किस्मों से बीटी कपास का बीज तैयार किया गया। माहिको ने बीटी का छोटे पैमाने पर पहला खेत परीक्षण 1999 में किया और 2000 में बड़े स्तर पर। विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय द्वारा डॉ. तुली के नेतृत्व में नैशनल बॅटैनिकॅल रिसर्च इंस्टीट्यूट को विषय शोध करने के लिए 5 करोड़ रुपये का कोष भी मुहैया करवाया गया। जिस पर सरकार के  खर्च हो हुए, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। मोनसेंटो भी इस तकनीक पर 1990 तक दो करोड़ रुपये खर्च कर चुकी थी। आखिर में तमाम असहमतियों के बावजूद जीईएसी (जिनेटिक इंजीनिअरिंग अप्रूवल कमेटी) द्वारा 2002 में हरी झंडी दे दी गई।
उस समय इसकी अनगिनत खूबियां गिनवाई गईं थी जैसे- इसकी खेती लागत सामान्य कपास के मुकाबले आधी होगी और उपज दोगुनी। कीटनाशकों पर होने वाला खर्च भी नाममात्र ही रह जाएगा। जमीनी हकीकत किसान जानता है या बीटी बीज बनाने-बेचने वाली कंपनियां। हालांकि जो वायदे किए गए और फायदे गिनाए गए, आज उनमें अंतर आ रहा है। अंग्रेजी पत्रिका 'फ्रंटलाइनÓ में प्रकाशित एक लेख में दिए गए आंकड़े कहते हैं- वर्ष 2007 में जहां बीटी कपास का उत्पादन 560 किलो प्रति हेक्टेअर होता था, वह 2009 में घटकर 512 किलो रह गया। वर्ष 2002 में बीटी कपास के उत्पादन पर देशभर में कीटनाशकों का उपयोग 597 करोड़ रुपये का था, वह भी बढ़कर 2009 में 791 करोड़ रुपये सालाना हो गया। अब यह बहस का विषय हो सकता है कि लोहा कितना खोटा है और लोहार कितना। फिलहाल कुछ बातें बीटी के बारे में-
क्या है बीटी कपास?हालांकि इन दस सालों में आप जान गए होंगे कि बीटी क्या है, फिर भी दोहरा लेते हैं। दरअसल, इस कपास को मिट्टी में पाए जाने वाले जीवाणु बैसिलस थुरिजैन्सिस (जिसके पहले अंग्रेजी बी और टी हैं।)से जीन निकालकर तैयार किया है। मोनसेंटो ने अपने पहले प्रयोग बोलगार्ड-1 में एक ही जीन डाला जिससे अमेरिकन सुंडी, पिंक और स्पोटेड बॉलवर्म की प्रतिरोधी क्षमता विकसित हुई जो मात्र 120 दिन तक ही असरदार थी। उसके बाद ये कीड़े फसल को नुकसान पहुंचा सकते थे। बाद में इसमें दो जीन डालकर बोलगार्ड-2 विकसित किया गया जो इन तीन कीड़ों के साथ-साथ तम्बाकू लट का भी प्रतिरोधी बनाया गया तथा समय भी 120 दिन से बढ़ा कर 150 से 160 दिन हो गया। अब बोलगार्ड-3 का अभी खेत परीक्षण चल रहा है, संभवत: इस साल के अंत तक यह बीज भी बाजार में आ जाएगा।
बीटी कितना सस्ता?
बीजी-1 के 450 ग्राम बीज पैकेट की कीमत है 750-850 रुपये और बीजी-2 की कीमत प्रति पैकेट 950-1,050 रुपये है। एक एकड़ जमीन के लिए कम-से-कम तीन पैकेट बीज यानी औसतन 2400 से 3000 रूपए की जरूरत प्रति एकड़ पड़ती है। कोढ़ में खाज यह है कि हर साल कालाबाजारी में यह 1700 से 2,500 रुपये प्रति पैकेट तक खुलेआम बिकता है। कंपनी और सरकार के कम लागत के दावे पता नहीं क्या हुए? इसके साथ एक अबूझ पहेली यह भी है कि गुजरात में यही बीज शेष भारत से आधी कीमत पर बिकते हैं। पड़ौसी राज्यों के किसान सस्ते के लालच में गुजरात से बीज खरीदना पंसद करते हैं। इस कालाबाजारी में एक और ठगी भी होती है नकली बीज की। गुजरात में हर कंपनी का बीटी बीज जितना चाहिए उतना नकली आसानी से मिल जाता है।
इसके पक्ष में एक और दावा किया गया था कि इस पर कीटनाशक साधारण कपास के मुकाबले बहुत कम डाला जाता है पर एक किसान एक मौसम में 7-8 बार रसायन का छिड़काव करते हैं जिसकी लागत प्रति एकड़ तीन-चार हजार रुपये पड़ती है। आंकड़ों के अनुसार भारत में सभी फसलों के लिए कुल 28 अरब रुपये के कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है, जिसमें केवल कपास की खेती के लिए 16 अरब रुपये के कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है।
बीटी कितना कीट प्रतिरोधी?
 अभी तक भारत में कपास के बीज में बीटी जीन ही डाला गया है। इससे कपास की किस्में अमेरिकन सुंडी रोधी हो गई। पहले इस सुंडी को रोकने के लिए किसानों को कीटनाशी दवा के 10 से 12 छिड़काव करने पड़ते थे, जो अब रसचूसक कीड़ों को रोकने के लिए 2 से 3 ही करने पड़ते हैं। ज्ञात रहे बीटी जनित किस्में अमेरिकन सुंडी, चितकबरी लट और तम्बाकू लट रोधी होती हैं, इसलिए भारत के कुछ हिस्सों में इस बीटी बीज से उत्पन्न फसल पर कीट हमले के समाचार सुने जाते रहे हैं। हालांकि बीटी कपास की खेती भारत की अन्य सभी फसलों की खेती के पांच प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में होती है, लेकिन कीटनाशकों का उपयोग इस पर 55 प्रतिशत से भी ज्यादा होता है।
मोनसेंटो इसकी वजह 'रिफ्यूजिआ-सीड' यानी भारत में तैयार किए गए बीजों के उपयोग को मानती है, जो बीटी किस्मों के चारों तरफ तीन-चार पंक्तियों में लगाया जाता है। कंपनी का कहना है कि ज्यादातर किसान बीटी बीजों के साथ मिलने वाले नॉनबीटी रिफ्यूजिआ-बीजों को नहीं लगाते, इसमें कीटों की प्रतिरोधी क्षमता विकसित होना बहुत स्वाभाविक और उम्मीद के अनुरूप है। उनका तर्क है कि चूंकि क्राई वेन प्रोटीन एक शुरूआती जिनेटिक फसल है जो अभी थोड़ी अविकसित किस्म है इसलिए ऐसा होना लाजिमी है। मोनसेंटो ने किसानों को यह सलाह भी दी है कि जरूरत के हिसाब से रसायनों का इस्तेमाल किया जाए और कटाई के बाद खेत में अवशेषों और जो अनखुली गांठों और टिंडों का ठीक से प्रबंधन किया जाए। बोलगार्ड-2 के बारे में कंपनी का कहना है कि इस किस्म में हम वांछित कीट के प्रभाव को 150 से 160 दिनों तक ही रोक सकते हैं।
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का इस रवैये पर कहना है कि मोंनसेंटो ने अपने व्यापार का यही माडल दुनियाभर में अपना रखा है। जब पहला बीज असफल हो जाता है तब ये उसकी जगह लाए दूसरे बीज को बढ़ावा देने के साथ किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल की सलाह भी देने लगते हैं। 'खेती विरासत' संगठन की कविता करुंगति भी देविंदर शर्मा  से सहमत है, उनके मुताबिक अब प्रत्येक नई बीटी प्रजाति को अपनाने से पहले हर पहलू पर ध्यान देना जरूरी है। कृषि अर्थशास्त्री के. जयराम ने वर्ष 2007 में पंजाब के मालवा क्षेत्रों के कई गांवों के दौरे के बाद एक वेबसाइट 'काउंटर करेंट्स' पर 'बीटी कॉटन एंड इकॅनॉमिक ड्रेन इन पंजाब' नामक लिखे एक लेख के अनुसार- 2007 में पंजाब के कुल 12,729 गांवों में 10,249 उवर्रक वितरक एजेंसियां थीं। जो एक मौसम में 10 हजार लीटर तक कीटनाशक औसतन 300 रूपए प्रति लीटर तक बेच लेती थी, यानी 30 लाख रूपए प्रति मौसम।
 बीटी कपास का रकबा और किस्मेंअभी भारत के कुल 9 राज्यों- पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में बीटी कपास की खेती होती है। सन 2002-03 में जहां बीटी का क्षेत्रफल मात्र 0.29 लाख हेक्टेअर था जो कुल कपास के 73.90 लाख हेक्टेअर का मात्र 0.39 प्रतिशत ही था वह 2010-11 में बढ़कर 95.50 लाख हेक्टेअर हो गया जो कुल रकबे 111.61 का 85.57 प्रतिशत है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि 2002 में जहां बीटी जनित संकर किस्मों का संख्या मात्र 2 थी वो 2011 आते-आते बढ़कर 1090 हो गई।
बीटी जनित संकर किस्में केवल निजी कंपनियां ही विकसित कर बाज़ार में मंहगे भाव से बेच रही हैं, यह बीज दोबारा बोया जाए तो उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। किसान को अच्छी उपज के लिए हर बार नया बीज लेना ही पड़ता है, अत: कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि अनुसंधान केंद्रों के वैज्ञानिकों को इस विषय में नई किस्में विकसित करनी चाहिए, ताकि किसानों को उचित भाव पर बीज मिल सकें। सवाल यह है कि इन दस वर्षों में बीटी ने तो अपना कृषि रकबा तो आठ सौ प्रतिशत बढ़ा लिया है पर हमने क्या किया?

सेवानिवृत वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आर.पी. भारद्वाज और कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा से बातचीत पर आधारित।

Monday, April 16, 2012

जलवायु परिवर्तन: खतरे में खेती

शायद हम सभी को याद है कि गए साल सर्दी 15 दिसम्बर तक नहीं शुरू थी। जब ठण्ड ने अपना असर दिखाना आरम्भ किया तो देरी से आने की सारी कसर निकाल दी। जहां बर्फबारी होती है उन क्षेत्रों में मार्च के अंत तक बर्फ गिर रही है। आधा मार्च बीतने को है पर अब तक रातें बहुत ठण्डी हैं और दिन के मौसम में भी वो तल्खी नहीं आई जो अकसर इन दिनों में आ जाती है। आदमी और जानवर तो इस मौसमी बदलाव को किसी तरह झेल जाते हैं मगर खेत और फसलों के लिए यह बदलाव बर्दाश्त के बाहर होता है। बात केवल सर्दी और गर्मी के तापमान पर आकर ही खत्म नहीं हो जाती इस साल जनवरी-फरवरी महीनों में होने वाली बरसात भी नहीं हुई। मावठ फसलों के लिए अमृत का काम करती इस साल यह अमृत कहीं-कहीं दो चार बूंद भले ही गिरा हो, कमोबेश फसलें प्यासी ही रहीं हैं। इस विषय पर चर्चा करें कि बदलती जलवायु का हमारी खेती पर कितना असर पड़ेगा, उससे पहले थोड़ी सी जानकारी मौसम और जलवायु के बारे में-
क्या फर्क है मौसम और जलवायु में?
अकसर लोग मौसम और जलवायु को एक ही मान लेते हैं। किसी भू-क्षेत्र विशेष की जलवायु का निर्धारण सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए इस गोलाकार पृथ्वी मध्य भाग में जिसे विषुवतीय क्षेत्र कहा जाता है। यहां वर्ष भर सूर्य अपना प्रकाश सीधा डालता है, इसलिए वहां गर्मी ज्यादा पड़ती है। (इसे उष्ण कटिबंध क्षेत्र कहते हैं।) विषुवत रेखा से उत्तर और दक्षिण की ओर सूर्य ताप क्रमश: घटता जाता है। क्योंकि इन क्षेत्रों तक आते-आते सूरज की किरणे तिरछी हो जाती हैं, इसलिए यहां की जलवायु को शीतोषण कहा जाता है। विषुवत रेखा से दोनों ओर अधिकतम दूरी पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों (गोल पृथ्वी के एकदम उपर और एकदम नीचे वाले हिस्सों में।) पर सूर्य ताप बहुत कम पहुंचता इसलिए वहां बर्फ जमी रहती है। इस स्थिति को वहां की जलवायु माना जाता है। इसके विपरीत मौसम में दैनिक या साप्ताहिक या ऋतु के दो-तीन महिनों के लिए हुए परिर्वतन को कहा जाता है। इंग्लैण्ड का मौसम अपनी तुनकमिजाजी के लिए बदनाम है।  वहां का मौसम 24 घंटे में तीन-चार बार बदल जाता है। सुबह धूप है, दोपहर तक बादल हो जाते हैं, शाम को यो तो बरसात हो जाती है या हवा तेज चलती जिससे बादल छितरा जाते हैं। हमारे यहां भी मौसम की ये शरारतें कभी-कभार देखने को मिल जाती हैं। मतलब यह कि मौसम में बदलाव काफी जल्दी होता है लेकिन जलवायु में बदलाव आने में बहुत समय लगता है और इसीलिये यह एकदम दिखाई नहीं देता। बहर-हाल इस आलेख में वैश्विक जलवायु की बात की जा रही है, जो हजारों वर्षों से अपने आदि स्वरूप में चली आ रही है। इसके लाभ किसी से, विशेष रूप से किसानों से छिपे हुए नहीं हैं। साल-दर-साल के अवलोकन के आधार पर किसान को अपने खेती कार्यों के लिए पूर्वानुमान में मदद मिलती थी, और वह उस समय अपनी फसल लेने के प्रयास भी करता था। विगत 150-200 वर्षों में वैज्ञानिक प्रगति की वजह से मौसम विज्ञानी जलवायु के गहन अध्यन में सफल हो कर सटीक भविष्यवाणियां भी करने लगे थे। उसके बावजूद भी यह विषय इतना बड़ा है कि हमारे छोटे से दिमाग की पकड़ में पूरी तरह न तो आया था और न ही निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना है।
हम जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य से ताप ग्रहण करती है जिस वजह से धरती की सतह गर्म हो जाती है। धरती की सतह तथा समुद्र के जरिए परावर्तित होकर इस ताप की कुछ मात्रा पुन: वातावरण में मिल जाती है। जब यह ताप वातावरण से होकर गुज़रता है, तो लगभग 30 प्रतिशत वातावरण में ही रह जाता है। वातावरण की कुछ गैसों से पृथ्वी के चारों ओर एक परत बन जाती है तथा वह इस ताप का कुछ भाग सोख भी लेती है। ये गैसें हैं- कार्बन डाइ-ऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व जलकण, जो वातावरण के 1 प्रतिशत से भी कम होते है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें भी कहते हैं। जिस प्रकार एक हरे रंग का कांच ताप को अन्दर आने से रोकता है, कुछ उसी प्रकार से ये गैसें, पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसकी रक्षा करती है। इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है। 
वैसे तो ग्रीन हाउस गैसों की परत पृथ्वी पर उत्पत्ति के समय से है। लेकिन विगत अर्द्धशती से हमारे कथित विकास कारनामों से इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में जा रही है जिससे यह परत मोटी होती जा रही है इससे प्राकृतिक ग्रीन हाउस का प्रभाव समाप्त हो रहा है। एक ओर तो कार्बन डाइ-ऑक्साइड जो कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि के जलने पर बनती है, की मात्रा दिन प्रति दिन बढ़ती जा रहा है और दूसरी तरफ इन गैसों को अवशोषित करने वाले वृक्षों यानी वनों को हम नष्ट करते जा रहे है। तीसरे खेती में रासायनिक खाद और उर्वरकों में वृद्धि तथा ज़मीन के उपयोग में विविधता व अन्य कई कारणों से वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में होता है। चौथे औद्योगिक प्रदूषण से भी ग्रीन हाउस प्रभाव को नष्ट करने वाली नई गैसें जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन वातावरण में स्रावित हो रही है। और पांचवा ऑ:टॅमबील वाहनों से निकलने वाले धुंए और प्लास्टिक के अधिकाधिक उपयोग से हमारी पृथ्वी का ग्रीन हाउस प्रभाव कम होता जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
वैसे जलवायु में परिवर्तन अचानक और इतना अधिक नहीं होता कि सबको प्रत्यक्ष दिखाई देकर चौंका दे। किन्तु विगत 40-50 वर्षों से सूक्ष्म परिर्वतन के लक्षणों एवं आंकड़ो के अध्ययन से यह लगभग प्रमाणित माना जा रहा है कि सकल वैश्विक तापमान में 03 से 06 डिग्री की वृद्धि हुई है। तापमान में यह वृद्धि हमें मामूली लग सकती हैं लेकिन यह भविष्य में महाविनाश का कारण बन सकती है। वैश्विक ताप का मानवीय स्वास्थ्य पर भी सीधा असर होगा, इससे गर्मी, निर्जलीकरण, कुपोषण और संक्रामक बीमारियां बढ़ेंगी। तमाम वन्य तथा जलीय जीव-जन्तु एवं पक्षी जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, भी समाप्ति के कगार पर पहुंच जाएंगे। मौसम गर्म होने से वर्षा का चक्र भी प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे के खतरे के साथ ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि हो जाती है, जिसकी वजह से तटीय क्षेत्रों की बर्बादी और नदियों के मुहानों वाले क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। पिछले वर्ष के तूफानों व बवंडरों ने इसके अप्रत्यक्ष संकेत दे दिए हैं।
ये सारे खतरे एक तरफ, पर जलवायु में परिवर्तन का सीधा असर खेती पर होगा, क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता, कीटाणु और फैलने वाली बीमारियां अपने सामान्य तरीके से अलग बर्ताव करेगी, जिनका फौरी इलाज हमारी कल्पना में भी नहीं है। सेवा निवृत वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आरपी भारद्वाज कहते हैं कि- 'मौसम में बदलाव के बाद हमारे पास उतनी गर्मी या सर्दी में बीजाई करने के लिए एक भी बीज वैरायटी नहीं होगी। बीज कोई ऐसी चीज भी नहीं है जिसका आयात करके काम चला लिया जाए या रातों-रात कारखानों में तैयार कर लिया जाए। एक क्षेत्र विशेष के लिए मौसम के अनुकूल बीज तैयार करने में कम से कम 12-13 साल लगते हैं, इतने साल हम क्या भूखे-नंगे रहेंगे?' डॉ. भारद्वाज कहते हैं कि- 'हमारे कृषि वैज्ञानिकों को अभी से बदलते मौसम पर निगाह रखते हुए आगामी बीजों के बारे में काम करना आरम्भ कर देना चाहिए क्योंकि यह बदलाव का बहुत साफ संकेत है कि पिछेती बिजाई के लिए तैयार बीज मौसम में तबदीली की वजह से अब समय पर बीजने लायक हो गया है।'
हमारे देश में नया बीज तैयार करते समय मौसम संबंधित आंकडे और जानकारी, पानी के बारे में राय देने वाले वैज्ञानिक ही देते हैं। इस बारे में कृषि अनुसंधान के निदेशक और जल प्रबंधन वैज्ञानिक डॉ. बीएस यादव का कहना है कि-'यह खतरे की घंटी हमें भी सुनाई दे रही है, अत: वैज्ञानिकों ने इस पर काम करना आरम्भ कर दिया है। इस साल के मौसम और बरसात को देखते हुए वातावरण में बदलाव के उपयुक्त बीज तैयार करना हमारी प्राथमिकता बन गया है।' मौसम में बदलाव की वजह से पौधों में प्रभाव के बारे में क्या कदम उठाए जा रहे है के बारे में वरिष्ठ शस्य वैज्ञानिक डॉ. पीएल नेहरा का कहना है कि- 'मौसम के बदलाव को रोका नहीं जा सकता पर किसान द्वारा गहरी जुताई और गहरा पानी लगा कर नुकसान को कम जरूर किया जा सकता है।' जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलों के होने वाले रोग और नए आने वाले कीटों का क्या असर रहेगा? के जवाब में कीट विशेषज्ञ डॉ. विचित्रसिंह का कहना है कि-'बीमारी और कीडों के बारे वैसे तो कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, पर यह तय है कि गर्मी बढ़ेगी तो इन दोनों का ही प्रकोप कम होगा और अगर बरसात हुई तो बीमारियां और कीड़े बढ़ जाएंगे। अब यह तो समय बताएगा कि किस तरह की परेशानियां उस समय आएंगी। 'इस संबंध में हनुमानगढ़ जिले की संगरिया तहसील के ढाबां गावं के प्रगतिशील किसान कृष्णकुमार जाखड़ की सलाह यह है कि 'किसान पारम्परिक बीजों का इस्तेमाल करे, क्योंकि वही प्रकृतिक रूप से इस आपदा को झेलने में सर्वाधिक सक्षम हैं।'

-प्रवीण दत्ता, जयपुर- राजस्थान ।

Saturday, April 14, 2012

जल-साधना

देश में भूजल स्तर का गिरना लगातार जारी है, विगत कुछ वर्षों से इसमें बहुत तेजी आई है। वजह हम सब जानते हैं भूजल का जबरदस्त दोहन और तुलनात्मक रूप से उसका संरक्षण न हो पाना। हमारे तालाब, जोहड़, झील, पोखर, बावड़ी ऐसे साधन रहे हैं जहां बरसात का पानी इकट्ठा  होता रहा है और धीरे-धीरे रिस-रिस कर भूजल के स्तर को ऊपर उठाने में सहायक भी। इसमें नदियां और कच्ची नहरें भी सहयोग देती थी। जल संरक्षण के ये परंपरागत स्रोत कुछ तो विकास के नाम पर और शेष अतिक्रमण की वजह से गायब हो गए हैं। अगर कुछ बच भी गए हैं तो उन्हें भी चंद दिनों के मेहमान मानें। नहरें लगभग सारी पक्की हो चुकी हैं रही-सही अगले पांच-सात साल में हो जाएंगी। इसका सीधा अर्थ यह होगा कि जमीन को रिर्चाज करने के सारे रास्ते हमने बंद कर दिए हैं और भूजल-दोहन के मामले में हम दुनिया में सबसे आगे हैं।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सालाना 230 क्यूबिक किलोलीटर भूजल का दोहन करता है जो पृथ्वी के कुल भूजल के दोहन के 25 प्रतिशत से भी अधिक है। दरअसल, भूजल पर हमारी निर्भरता बहुत ज्यादा है और जनसंख्या के बढऩे की वजह से इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। हमारी खेती का करीब 60 प्रतिशत और शहरी तथा ग्रामीण इलाकों में लगभग 80 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति कुओं, हैंडपंपों आदि से हो रही है। इस दोहन की वजह से भारत का 29 प्रतिशत भूजल का ब्लॉक अद्र्ध खतरनाक, खतरनाक या अति दोहन का शिकार हो चुका है। अनुमान है कि 2025 तक भारत का 60 फीसद भूजल ब्लॉक खतरे में पड़ जाएंगे। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान सालाना 109 क्यूबिक किलोलीटर सबसे ज्यादा भूजल का दोहन कर रहे हैं। अकेले पंजाब में सामान्य गहराई वाले 9 लाख ट्यूबवेल सूखे की चपेट में हैं। पंजाब के संपन्न किसान 300 फुट या इससे अधिक खुदाई कर और गहराई से पानी खींचने लग गए हैं। इसकी वजह से सामान्य गहराई वाले ट्यूबवेलों तक पानी पहुंच ही नहीं पाता। यही वजह है कि जो लोग इस तरह से भूजल का दोहन नहीं कर पा रहे हैं उनके अंदर असंतोष बढ़ रहा है। जाहिर है, इससे सामाजिक सौहार्द्र खत्म होगा, और पानी को लेकर तनाव भी बढ़ेगा। इसलिए जरूरी है कि हम इस ओर अभी से संजीदा हो जाएं।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि खेतों में सिंचाई के तरीकों को लेकर भी हमें गंभीरता से विचार करना होगा, क्योंकि भारत में उपलब्ध पानी का 80 प्रतिशत सिंचाई में चला जाता है, यह तब है जबकि हमारे यहां की 60 प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर करती है। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अस्थायी आंकड़े भी हमें चौंकाते हैं, जिनके अनुसार सन 91 से 2007 के बीच बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर करीब 1.3 लाख करोड़ रूपए खर्च किए गए, उसके बावजूद सिंचित क्षेत्र में कमी ही आई है। जहां 1991-92 में नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र करीब एक करोड़ सतहत्तर लाख इक्यान्नवे हजार हेक्टेअर था, से घटकर 2007-08 में एक करोड़ पैंसठ लाख इकत्तीस हजार हेक्टेअर ही रह गया।
इन समस्यओं का जो एकमात्र और फौरी हल नजर आ रहा है वह यह है कि जल को 'साध' ना भी पड़ेगा और उसकी 'साधना' भी करनी पड़ेगी। जल-संरक्षण के लिए परंपरागत स्रोतों पर ध्यान देना एक बेहतर विकल्प हो सकता है। हमें जोहड़, तालाब, पोखर, बावड़ी और टांकों पर फिर से ध्यान देना होगा जो बारिश के पानी को इकट्ठा  करने के बेहतर तरीके हैं। इससे नीचे जाते जल स्तर में भी सुधार होगा। इसके अलावा सिंचाई के परंपरागत तरीके में बदलाव भी लाना पड़ेगा, ताकि कम पानी में अधिक से अधिक सिंचाई संभव हो सके। इसके लिए आस्ट्रेलिया एक उदाहरण हो सकता जो पिछले 20 सालों में सिंचाई पानी की खपत में 30 प्रतिशत की कमी लाने सफल रहा है। अगर ऐसा दुनिया में कहीं भी हो सकता तो भारत में क्यों नहीं हो सकता?

Monday, March 19, 2012

जल प्रबंधन किसानों के हाथ में: कितना सार्थक?

हमेशा की तरह विदेश से कुछ साल पहले एक विचार आया कि नदियों से पानी खेतों और गावों तक लाने के लिए तकनीकी लोगों और पैसे की जरूरत पड़ती है, उसके बाद तो केवल साफ-सफाई और मरम्मत का काम रहता है जिसके लिए इंजीनिअरों की फौज की क्या जरूरत है? दूसरा एक इल्जाम था, जो सिंचाई विभाग पर हमेशा से लगता आया है कि वहां कदम-कदम पर भ्रष्टाचार है। इन दोनों बातों का एक ही हल सूझा कि नहर के रख-रखाव का जिम्मा क्यों न उसके इस्तेमाल करने वालों को ही सौंप दिया जाए? वह भी तब, जब विश्व बैंक इसके लिए करोडों रूपए की वित्तिय सहायता दे रहा हो।
देशभर में एक कानून बना कर सिंचाई प्रणाली के प्रबन्धन में कृषकों की भी सहभागिता तय करदी गई। इस नए और अभिनव प्रयोग का क्या हश्र हो रहा है यह जानने से पहले यह जानना बेहद जरूरी है कि जरा से अधिकार मिलते ही आम आदमी भी उसी रंग में रंगा जाता है जिससे उसे अब तक नफरत थी। इसलिए सारे देश की बात करने की बजाय, उदाहरण के लिए केवल राजस्थान की ही बात कर लेते हैं, थोड़ा-बहुत कम-ज्यादा करके सारे देश का हाल सामने आ ही जाएगा।
किसान किस तरह नहरों और सिंचाई व्यवस्था सभांलने वाला बनेगा इस पर बात करने से पहले एक छोटी सी जानकारी विश्व बैंक से मिली सहायता राशि की। राजस्थान में 13 परियोजनाओं को विश्व बैंक द्वारा 157.97 लाख रूपये धनराशि उपलब्ध करायी जाकर माईनरों के पुनरूद्धार का कार्य कराया जा चुका है। इसी प्रकार रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर डिवलपमेंट फण्ड की एक योजना के अन्तर्गत 19 माइनरों हेतु 235.74 लाख रूपए नाबार्ड तथा एक को राजाद परियोजना के अन्तर्गत 89.62 लाख रूपए धनराशि उपलब्ध करवायी गई। इसके अतिरिक्त 219 नव गठित जल प्रबन्धन समितियों को सन 2000-2001 में 260.61 लाख रूपए विश्व बैंक की सहायता से उपलब्ध करवाये गए, जिससे समितियों ने माइनर्स पर अति आवश्यक कार्य जैसे जंगल सफाई, सिल्ट सफाई, नहर के किनारों के कटाव को भरने के अतिरिक्त कुछ निर्माण और मरम्मत कार्य करवाए।
अब बात करते हैं जल प्रबंध समितियों की। राजस्थान में सबसे पहले यह प्रयोग चम्बल सिंचाई क्षेत्र में किया गया। सिंचाई प्रणाली प्रबन्धन, नहरी तंत्र, रख-रखाव एवं जल वितरण किसान संगठनों के माध्यम से करवाने हेतु वर्ष 1992 में 354 जल प्रबन्धन समितियों का गठन किया गया। इनमें से 82 समितियां राजस्थान सहकारी संस्था अधिनियम 1965 एवं 272 समितियां राजस्थान संस्था अधिनियम 1958 के तहत गठित की गई। वर्तमान में देश के 300 से ज्यादा जिलों में 56 हजार से ज्यादा जल उपयोक्ता संघ काम कर रहे हैं। सिंचाई प्रणाली के प्रबंधन में किसानों की सहभागिता लागू करने, वाटर यूजर एसोसिएशन गठित करने, एसोसिएशन के चुनाव करवाने, नहरों एवं वितरिकाओं के हेड से टेल तक पानी पहुंचाने का कार्य जल उपभोक्ता संगम के माध्यम से करवाने के लिए राज्य में राजस्थान सिंचाई प्रणाली के प्रबंध में किसानों की सहभागिता अधिनियम 2000 तथा नियम 2002 के तहत किस तरह काम होता है, के बारे में संक्षेप में जानकारी ऐसे है-
मोघे से शुरूआत
यह तो ज्ञात ही है कि एक चक के लिए केवल एक ही मोघा होता है अत: प्रत्येक तीन-चार मोघों पर एक समिति का गठन किया जाता है जिसमें उन सभी चकों के सारे किसान सदस्य होते हैं। अगर एक किसान की जमीन कई मोघों  के नीचे आती है तो वह उन सभी समितियों का सदस्य होगा। सभी सदस्य मिलकर एक अध्यक्ष चुनेंगे, जिसका कार्यकाल तीन वर्ष होता है। यह चुनाव आम चुनावों की तरह ही होता है, तथा किसी पदाधिकारी के पुन: निर्वाचन पर कोई प्रतिबंध नही है। अध्यक्ष तथा कार्यकारिणी के छह सदस्य आपसी सहमति से एक सचिव का चयन करते हैं।
इन समितियों का मुख्य काम है सहकारिता की भावना को प्रोत्साहित करते हुए क्षेत्र के अन्तिम छोर तक समान जल वितरण को सुनिश्चित करना तथा इस संबंध में उत्पन्न होने वाले विवादों का समाधान करना। अपने क्षेत्र के सिंचाई साधनों का रख-रखाव और बकाया तथा जुर्माने की वसूली का काम भी इसी समिति को करना होता है।
अपनी नहर स्तर पर
एक छोटी नहर (माइनर) से पर कई मोघे होते हैं। मोधा स्तर के सारे अध्यक्ष मिलकर उस माइनर के संचालन व देख-रेख के लिए एक और समिति का गठन करते हैं। इस समिति के गठन में सिंचाई विभाग, इस नहर के सभी मोघा अध्यक्ष, ग्राम पंचायतों की जल प्रबंधन समिति के अध्यक्ष, इस माइनर क्षेत्र के दो प्रगतिशील किसान, जिन्हें जिलाधिकारी द्वारा नामित किया जाता है आदि मिलकर करते हैं।
इस जल उपभोक्ता संगम का काम है पैतृक नहर से जल प्राप्त करके कमाण्ड क्षेत्र में समान रूप से वितरण करना तथा माइनर निर्माण कार्यो के रख-रखाव, अभिलेखन, आदि। इसके अतिरिक्त जल उपभोक्ता समितियाँ उपभोग किये गये जल का जल शुल्क स्वयं निर्धारित कर उसकी वसूली एवं अनुरक्षण संबंधी कार्य करने के लिए भी उत्तरदायी होती हैं।
हैड या मुख्य नहर स्तर पर 
माइनर जिस मुख्य नहर से निकलती है उसके रख-रखाव के लिए भी एक समिति बनाई जाती है जिसके अध्यक्ष का चुनाव सभी छोटी नहरों के अध्यक्ष मिलकर करते हैं। यह अध्यक्ष उस मुख्य नहर का प्रोजेक्ट चेअरमैन कहलाते हैं, जैसे गंग कैनाल प्रोजेक्ट चेअरमैन। यह प्रबंधन समिति की कार्यकारिणी में माइनर स्तर की जल उपभोक्ता समितियों के अध्यक्ष, जिलाधिकारी द्वारा नामित कमाण्ड क्षेत्र के दो प्रगतिशील किसान और अधिशासी अभियन्ता द्वारा नामित एक विभागीय कर्मचारी।
क्या रहेगी व्यवस्था?

पहली नजर में यह व्यवस्था कितनी अच्छी लगती है, हैड से टेल तक सारे किसान अपने-अपने क्षेत्रों का ध्यान रखेंगे, पानी बांटेगे, मोघों, माइनरों, नहरों और हैडों के साथ मुख्य नहर परियोजना तक को सभालेंगे, उनकी मरम्मत करवाएंगे, आबीयाना वसूलेंगे। साथ ही सरकारी कर्मचारियों की मनमानी और भ्रष्टाचार से छुटकारा मिल जाएगा।
इतना ही नहीं इन जल उपभोक्ता समितियों को केवल पानी व नहर से सम्बन्धित बिन्दुओं तक ही सीमित न रखा गया, बल्कि इन्हें विकास तथा गरीबी उन्मूलन की विभिन्न योजनाओं से भी जोड़ा गया। कृषि विभाग, उद्यान विभाग, पशुपालन विभाग, भूमि विकास एवं जल संसाधन विभाग, लघु सिंचाई विभाग, सहकारिता विभाग, ग्रामीण विकास विभाग तथा मत्स्य पालन विभाग आदि को भी इस योजना में शामिल किया गया।
राजस्थान सरकार ने हाल ही में एक अधिसूचना जारी कर राजस्थान सिंचाई प्रणाली के प्रबंध में कृषकों की सहभागिता नियम-2002 को संशोधित किया है। ये नियम राजपत्र में प्रकाशन की तिथि से प्रवृत्त होंगे तथा इन नियमों का अब नाम होगा-राजस्थान सिंचाई प्रणाली के प्रबंध में कृषकों की सहभागिता (संशोधन) नियम 2010। इस नए संसोधन से संग्रहित जल प्रभार कर में कृषकों के संगठन का अंश संग्रहित जल प्रभार या कर का 50 प्रतिशत हो जाएगा।
परेशानी क्या है?

किसान तो हमेशा से यही चाहते थे कि जल वितरण और नहरों की सारी जिम्मेदारी उनके हाथ में आ जाए। ऐसा हुआ भी, फिर अब परेशानी क्या है? हेड से टेल तक का सारा नियंत्रण एक कानून के साथ किसानों के हाथ में आने के बाद सरकारी कारिंदों और उन किसानों में कोई ज्यादा फर्क नहीं रह गया। कुछ जगहों पर तो हालात और ज्यादा बदतर हो गए। इन समितियों और संघों के माध्यम से छुटभइया नेताओं को अपनी राजनैतिक दुकान चलाने के अवसर मिल गए। गंगनहर के पूर्व प्रोजेक्ट चेअरमैन गुरबलपाल सिंह का मानना है कि ये समितियां अब राजनीति का अखाड़ा बन चुकी हैं। वे बताते हैं कि मोघे स्तर पर चल रही राजनीति व्यक्तिगत स्तर पर उतर आई है। गुरबलपाल को यह श्रेय जाता है कि गंगनहर पर चुनाव और समितियां उनके प्रयासों से 2002 में ही बन गई जबकि भाखड़ा नहर पर दस साल बाद भी अध्यक्ष नहीं बना है। नोहर से भाजपा विधायक अभिषेक मटोरिया ने इन समितियों के बारे में अनभिज्ञता प्रकट की तो पीलीबंगा से कांग्रेस के विधायक आदराम मेघवाल का कहना है कि देश का किसान अभी तक परिपक्व नहीं हुआ, अगर वह नहर सभांले तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? पर आज के किसान से अपना घर ही नहीं सभंल रहा वो गांव की नहर क्या संभालेगा। भादरा से निर्दलिय विधायक और संसदीय सचिव जयदीप डूडी का कहना है कि किसान मूलत: अशिक्षित है, उसे यह सारी व्यवस्था समझने में समय लगेगा। अभी सभी अध्यक्षों के पास कार्यालय और सहायक नहीं है, समय जरूर लगेगा पर अंत में यही होना है कि किसान अपनी नहरों की जिम्मेदारी खुद संभाले।
सिंचाई विभाग के पूर्व मुख्य अभियंता दर्शनसिंह भी इस स्थिति से सहमत हैं, उनका कहना है कि-स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है, उल्टा हालात ज्यादा बिगड़े हैं। सादुलशहर तहसील के भागसर गावं में गंगनहर और भाखड़ा नहर दोनों से पानी लगता है पर वहां के सरपंच नंदलाल इस तरह किसी समिति के बारे कुछ नहीं जानते, कुछ ऐसा ही हाल पदमपुर तहसील के 11 ईईए गावं के सरपंच बृजपाल का है। घड़साना जहां कुछ साल पहले पानी की समस्या के लिए आवाज उठाने वाले किसानों पर सरकार को गोलियां चलानी पड़ी, कई दिनों तक क्षेत्र में कफ्र्यू लगा रहा, वहां के जनप्रतिनिधी भी इन समितियों के बारे में उतने ही अनभिज्ञ हैं, जितने बाकी क्षेत्रों के। इस अंदोलन के हीरो रहे क्षेत्र के विधायक पवन दुग्गल स्वीकार करते हैं कि किसानों में जागरूकता की कमी है। दुग्गल का सुझाव है कि सरकार का इसके लिए और ज्यादा प्रयास करने चाहिए। दुग्गल के क्षेत्र की पंचायत 17 केएनडी के सरपंच सूरजपाल, 10 डीओएल के केवलसिंह, 2 आरकेएम के अली शेर से हुई बात का परिणाम भी वही है जो बाकी क्षेत्रों का है।
सरकारी स्तर कुछ प्रयास हो रहे हैं, जो समितियां बन जाती हैं उन्हें काम करने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जहां चुनाव नहीं हुए वहां करवाने के प्रयास किए जा रहे हैं। सिंचाई राज्य मंत्री गुरमीतसिंह कुन्नर जब इस पूछा गया कि अब तक सभी नहरों पर समितियां क्यों नहीं बनी? के जवाब में उन्होंने कहा हर चीज में समय लगता है। गंग नहर का प्रोजेक्ट चेअरमैन बने दस साल हो गए पर अब तक भाखड़ा नहर पर यह व्यवस्था अब तक क्यों नहीं है? के उत्तर में उनका कहना था कि यह काम किसानों का है, वे प्रयास करें। जिस क्षेत्र में नहरों की देख-रेख का काम किसानों के हाथ में आ गया है वहां से भी अव्यवस्था की शिकायतें आ रही है, क्या वजह है? इस पर मंत्री जी का कहना था कि किसान सही लोगों का चुनाव करे। अब तो किसानों के लिए वसूली का कानून भी बना दिया गया है, किसान वसूली करके आधा पैसा नहरों की मरम्मत पर लगाए। अपने अधिकरों के प्रति सचेत रहे।