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Thursday, March 24, 2011

गौशालाओं के बहाने से

हिन्दुस्तान में श्वेत क्रान्ति के विषय पर बात हो और गौशालाओं का जिक्र न आए यह संभव नहीं। सवाल उठ सकता है कि कुछ गौशालाएं को छोड़कर बाकी के पास दूधारू पशुओं की गिनती ढ़ाई पर आकर खत्म हो जाती है। अपने यहां उत्पादित दूध वे अपने ट्रस्टीज और कर्मचारियों के अतिरिक्त किसी को नहीं देती, भला उनका श्वेत क्रान्ति क्या संबंध? इसके जवाब में दो सवाल हैं, पहला- जो गायें दूध नहीं देती, अपंग है, वृद्ध हैं, लाचार, लावारिस और बीमार हैं वे कहां पाई जाती हैं? दूसरा सवाल है- डेअरी फार्मों से निकाले गए बछड़े शहर की सड़कों और बूचडख़ानों के अलावा और कहां पाए जाते हैं? इन दोनों सवालों का एक ही जवाब है-गौशाला। जब तक गायें दूध दे रहीं हैं, उत्पादक हैं, तब तक इस वे उद्योग का हिस्सा हैं उसके बाद वे अन्य औद्योगिक कचरे की तरह यूं ही फैंक दी जाती हैं। यानी शुद्ध व्यापारिक व्यवहार। अफसोस इस बात का है कि यह सब उस देश में हो रहा हैं जिसमें गाय को मां का दर्जा दिया जाता है। जहां गाय को इतना पवित्र माना गया है कि उसके शरीर में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास बताया गया है। उस धार्मिक देश में इन कामधेनुओं के लिए छोटी-बड़ी मिलाकर कुल 6000 हजार गौशालाएं सरकारी मदद और दानवीरों के चन्दे से चल रही हैं। एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि इन गौशालाओं में जितनी संख्या में  गाय और बछड़े हैं उनसे छ: गुणा ज्यादा देश के सभी शहरों में सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं। यह सब तब हो रहा है जब गोवंश की एक बड़ी संख्याकी तस्करी भी हो रही है और उसे बूचडख़ानों में बेरहमी से काटा जा रहा है।
गाय से ही अन्याय क्यों?
हमारे देश में गाय को सब प्रणियों से ज्यादा पूजनीय माना गया है; गाय के पंच तत्व- पंचगव्यों (दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र) का धर्मिक कर्मकांड और आयुर्वेदिक चिकित्सा में इतना महत्त्व है, फिर उस गाय गाय की इस दुदर्शा कारण क्या है? 6 हजार गौशालाओं के बावजूद भी शहर में कचरा खाकर क्यों मर रहा है हमारा पवित्रतम गौवंश? गाय पर यह अत्याचार योरोपीय मलेच्छ और विधर्मी मुसलमान नहीं कर रहे हैं।  यह काम स्वयं धर्मपारायण हिन्दू वर्ग कर रहा है जिसे इस गाय से मरणोरांत वैतरणी पार कराने का विश्वास है। इसके उल्ट हिन्दुस्तान में बहुत सारे मुस्लिम गोपालक आज गोधन को बचाए हुए हैं।
गाय पर अन्याय के मुख्य तीन कारण समझ में आते हैं- पहला इसका धर्म से जुड़ा होना और दूसरा हमारा उससे शुद्ध व्यापारिक जुड़ाव और, तीसरा तकनीक का अन्धा अनुसरण करना। पहले इस तीसरे कारण को थोड़ा विस्तार से समझ लेते हैं। आज हमारे गांवों में रहट, कोल्हू, हल और बैलगाड़ी नहीं रहे उनकी जगह डीज़ल या बिजली से चलने वाले ट्यूबवैल, ट्रैक्टर, एक्सपेलर और टेम्पो या ट्रैक्टर चलित ट्रॉली आ चुके हैं। आज गावं के घरों में भी उपले (थेपड़ी) नहीं जलाए जाते। किसान गोबर खाद की जगह रासायनिक खाद प्रयोग में ले रहे हैं। फलत: कृषि की लागत विगत 10 वर्षों में कई गुना बढ़ चुकी है और कीमती विदेशी मुद्रा खनिज तेल व रासायनिक खाद के आयात पर खर्च हो रही है।
अर्थ पक्ष बचाएगा गौधन
 जैसाकि हम जानते हैं कि इन्सान हर वस्तु का आर्थिक पक्ष देखते हुए कहता है इससे मुझे क्या फायदा? अगर फायदा न हो तो वह बात भी नहीं करता। जानने की कौशिश करते हैं कि इस नाकारा गौधन के क्या हैं फायदे? आप जानते ही हैं कि फायदे दो तरह के होते हैं, पहला दूरगामी और दूसरा तात्कालिक। गौधन संवर्धन का फायदा दोनों तरह से है-तुरन्त तो यह कि जो तेल कभी 2 डालर(85 रूपए) प्रति बैरल था वो आज 140 डालर (रु. 6,000 रूपए) प्रति बैरल तक पहुच गया है और खाड़ी देशों के हालात देखते हुए कहा जा सकता है कि यह प्रति बैरल 250 डालर (11,250 रूपए) तक भी हो सकता है। यानी खर्चे डाल कर डीज़ल करीब 85 से 90 रूपए प्रति लीटर।
दूसरा फायदा भी देख लें। भारत में लगभग 48 करोड़ एकड़ कृषि योग्य तथा 15 करोड़ 80 लाख एकड़ बंजर भूमि है। उस बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए 340 करोड़ टन खाद की आवश्यकता है। हमारा यह नाकारा पशुधन वर्ष में 100 करोड़  टन प्राकृतिक खाद देने में सक्षम है । इस भूमि की जुताई, सिंचाई, गुडाई, परिवहन और भारवहन के लिए 5 करोड़ बैल जोडिय़ों की आवश्यकता है। धर्म की कृपा से आज भी हमारे देश में इतनी पशु शक्ति बची हुई है। उपरोक्त कार्यों में इसका उपयोग कर के कृषि तथा ग्रामीण जीवनयापन की लागत को कम किया जा सकता है। अब बात करते हैं एक दूरगामी फायदे की। गोबर जन्य प्राकृतिक खाद, गौमूत्र द्वारा निर्मित कीट नियंत्रक व औषधियों के प्रचलन और उपयोग से रसायनरहित पौष्टिक व नैसर्गिक आहार द्वारा मानव जाति को कई तरह की बीमारियों से बचाया जा सकता है, और इस तरह जो ईंधन और बिजली बचेगी उसका उपयोग अन्य उद्योग धन्धों में करके अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।
अब एक तीसरा फायदा भी है जो शायद आपको विचलित करदे पर यह हमारे देश में हमारी जानकारी के बगैर भी हो रहा है। हम बछड़े को आवारा छोडऩे के बाद सोचते भी नहीं हैं कि उसके साथ हुआ क्या? कल्पना करें- उस बछड़े को साल-सवा साल खिला-पिलाकर 250-300 किलो का कर लिया, या आपकी छोड़ी गई फंडर गाय या बैल लगभग इतने वजन का हो। कसाई के लिए यह नाकारा सामान 25-30 हजार का हो जाएगा। 250 किलो गोमांस दर 100 रूपए किलो, चमडा रु.1,000 रूपए, हड्डियाँ 20-25 किलो, दर 25 रूपए और खून जो दवा उत्पादकों और गैरकानूनी दारू बनाने के काम आता है 15 लीटर, दर 10 रूपए कुल हिसाब आप खुद ही लगा लें। यह चोरी का व्यापार एक आंकड़े के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग साढ़े 7 करोड़ पशुओं का इस तरह अन्तिम व्यापार होता है जो करीब 2125 अरब बैठता है। जबकि सरकार अपने बूचडख़ानों से महज 3799 करोड़ का ही गोमांस बेचती है। मजा देखिए ये दो नम्बर के कसाई इस व्यापार पर कोई टैक्स नहीं चुकाते है। कोई आश्चर्य नहीं कि इतने बड़े करोबार में हमारी कुछ गोशालाएं भी भागीदार हों।
कितनी चाहिएं गौशालाएं?
शहरों में इतना बीमार, लाचार और लावारिस पशुधन आता कहां से है? महानगरों और छोटे शहरों के आम घरों एक भी गाय नहीं है, फिर भी शहर के हर चौराहे और सड़कों पर आवारा पशुओं की भरमार है? हर शहर की गौशाला अपनी औकात से ज्यादा पशु भरे बैठी है। जाहिर है गांव के लोग अपनी बला टालने के लिए इन नुकसान पहुचाने वाले पशुओं को ट्रॉली में भरकर शहर में छोड़ जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इन सारे पशुओं को समायोजित करने के लिए देश भर में 25 हजार से ज्यादा ही गौशालाएं चाहिएं। इस नाकारा फौज के लिए खरबों रूपए का चारा और दवाइयां चाहिए। इस पशुधन को रखने के लिए और चारे के लिए जमीन कितनी चाहिए इसका अंदाजा आप खुद ही लगा लें। बेहतर होगा कि हम इस भयावह समस्या को एक चेतावनी मानें और इसके समाधान की दिशा में अभी से सोचना आरम्भ कर दें।

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