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Thursday, April 28, 2011

ये सेंट कॉन्वॅन्ट, इन्टॅरनैशनल, ग्लोबल, एकेडमी, पब्लिक स्कूल!

शिक्षा में धन खूब है, जितना चाहे लूट, अंत काल पछताएगा, प्राण जाएंगे छूट... की भावना से रातों रात बनाए गए कथित पब्लिक स्कूलों में से 98 प्रतिशत अपने बढ़ा चढ़ा कर किए गए दावों पर किसी भी लिहाज से खरे नहीं उतरते। न तो उनके पास पर्याप्त भौतिक संसाधन होते हैं और न ही वांछित शैक्षिक मानसिकता।  इंग्लिश मीडिअम से पढ़ाई करवाने वाले ये स्कूल अकसर दो-चार गलतियों के साथ अंग्रेजी में इश्तिहार छपवाते हैं या चौराहों पर बड़े बड़े हॉर्डिंग्ज लगवाते हैं। हालांकि पढ़ाई इन स्कूलों में हिन्दी, पंजाबी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में ही होती है। कुछ अति उत्साही स्कूलों द्वारा छात्रों से हिन्दी में बोलने पर जुर्माना वसूला जाता है जबकि इनके अध्यापक कक्षा के बाहर हिन्दी या अन्य स्थानीय भाषा का प्रयोग धडल्ले से करते देखे जा सकते हैं। ये अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल अकसर किराए पर लिए गए ढ़ाई कमरों के विशाल भवन में चलते हैं। कुछ मामलों में, दूरदर्शी उत्साही धनपति शहर से थोड़ा दूर मुख्यत: राजमार्गों पर, 5 से 10 बीघा जमीन लेकर उस पर शानदार इमारत इसलिए खड़ी करते हैं कि उसे दिखा कर मोटा लाभ कमा सकें। किन्तु जैसाकि $कैद के दौरान अंग्रेज कवि रिचॅर्ड लवलेइस ने अपनी प्रेमिका को संबोधित एक कविता में लिखा है: (Stone walls do not a prison make,/Nor iron bars a cage/Minds innocent and quiet take/That for an hermitage.) पत्थर की दीवारें कारागार नहीं बनातीं, और न ही लोहे सींखचों से कोई पिंजरा बनता है। उसी तरह सिर्फ ऊँची और ठोस इमारतों से ही स्कूल तामीर नहीं होते, एक अच्छे स्कूल की बुनियाद में और भी बहुत कुछ चाहिए।
इंगलैण्ड की ऑक्सफॅर्ड यूनिवर्सिटी हो या कैम्ब्रिज, ईटन स्कूल हो या हैरो, भारत का  दून स्कूल हो या लोरेटो या शेरवुड आप अपने शहर-कस्बे के छोटे-छोटे से स्कूलों पर इन नामों को साइन बोर्डों पर देख सकते हैं। ऐसे स्कूल चलाने वाले सेंट, कॉन्वेंट, ब्लॉसम, जेनेसिस, अकेडमी, यहां तक कि पब्लिक स्कूल जैसे शब्दों के अर्थ तक भी नहीं जानते, जो सेंट कबीर, होली ड्रीम्स, कॉन्वेंट, गंगा ब्लॉसम, गुरूनानक जेनेसिस, सेंन्टरल अकेडमी, लाल पब्लिक स्कूल आदि से स्पष्ट हो जाता है। फिर भी यदि कोई कसर रह जाए तो शब्द विशेष का अशुद्ध उच्चारण उसे पूरा कर देता है। कोई भी अंग्रेज जैसा लगने वाला व्यक्ति नाम, जाति नाम या पशु पक्षी का नाम, इन के हिसाब से लोगो में इंग्लिश मीडिअम स्कूल का आकर्षण पैदा करने के लिए काफी है। सौफीअ को सोफिया तथा मेअरी (Mary) ज्यादातर मेरी (Merry) या मैरी (Marry) ही लिखा बोला जाता है, होपकिन्स या डोलफिन जैसे शब्द कथित अंग्रेजी माध्यम स्कूल के नाम का हिस्सा हो सकते हैं। एनी बेसेन्ट, टैगोर, विवेकानन्द, नेहरू, गांधी, कस्तूरबा, सुभाष, भगतसिंह, मौलाना आजाद, जाकिर हुसैन, लालबहादूर शास्त्री, ललिता शास्त्री, दीनदयाल उपाध्याय, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, आदि किसी भी राष्ट्रीय स्तर की शख्सियत से हमारी राष्ट्र प्रेम भावनाओं का न केवल शोषण करते हैं बल्कि अपने माता पिता या पितामह के नाम को भी हमारे सामान्य ज्ञान का हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। बेशक किसी महापुरुष या शिक्षाविद के नाम पर किसी स्कूल के नामकरण में कोई बुराई नहीं है लेकिन इन स्कूलों का इन महापुरूषों के आदर्शों या सिद्धांतों से कोई वास्ता नहीं होता। क्या यह उचित है कि एक तरफ तो अपने किसी पूर्वज का नाम रौशन करने के लिए उसके नाम पर स्कूल खोला जाता और दूसरी ओर उसी स्कूल को बेहिसाब काली कमाई का धंधा बना लिया जाए?
शिक्षा नहीं रही समाजसेवा
हालत यह है कि आज शिक्षा व्यापार बन गई है, कुछ शोहरतयाफ्ता संस्थानों ने अपनी सदिच्छा (गुडविल) को बेचना और गांठ के पूरे महत्वाकांक्षियों ने उसे फ्रैंचाइज (विशेषाधिकार) के रूप में खरीदना भी शुरू कर दिया है। देखते ही देखते चन्द ही सालों में कुछ स्कूलों ने किराए के एक दो कमरे वाले मकानों से दीन-हीन शुरुआत करके अपने निजी विशाल और भव्य शाला भवन खड़े कर लिए हैं उस से हर व्यापारी मानसिकता वाला व्यक्ति इस चोखे धंधे में कूद पडऩे को आतुर हो गया है। अडमिशन, री-अडमिशन, शाला विकास कोष आदि के नाम पर मनमानी फीस वसूल कर जिस तरीके से अनाप-शनाप कमाई के नैतिक व्यापार की श्रेणी में तो नहीं माना जा सकता। उस पर दादागिरी यह कि मनमर्जी की डिजाइन वाली स्कूल यूनीफॉम, जूते जुराब बैग टाई और कशीदाकारी वाले स्कूल मोनोग्रैम बिल्ले आदि को इनकी अधिकृत दुकान से ही खरीदना जरूरी होता है।-स्व-चयनित अ-स्तरीय पाठ्य पुस्तकें और स्कूल नाम छपी सजिल्द कापियां भी इन्हीं से खरीदनी पड़ती हैं। हर सत्रारंभ पर पुराने छात्रों का पुन: प्रवेश, री-अडमिशन यानी एक फर्जी मद के नाम पर अभिभावकों को दो-चार हजार रुपए की एक और चपत। छात्र ढोने वाले इनके निजी वाहन जिन्हें ये -’बाल वाहिनी’ कहते हैं समझ से परे हैं। शायद इन्हें पता ही नहीं कि वाहिनी का अर्थ सेना से होता है। वैसे इस पर ज्यादा अचरज करना भी बेकार है-भगवद् लीला की तरह इनकी भी अनेक बातें आम आदमी की समझ से परे हैं। जैसे जिला या राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में पुरस्कृत विजेता, उप विजेता टीमों को अपने पीछे खड़ा करके, आगे बैठे प्रबंधक मंडल बड़े-बड़े रंगीन चित्र क्यों छपवाते हैं? अपूर्ण पाठ्यक्रम आधारित सामयिक एवं वार्षिक गृह परीक्षाओं में छात्र लगभग शतप्रतिशत अंक कैसे लाते हैं? महीने में एक बार पी टी ए बैठक, जिसमें अभिभावकों की सुनी ही नहीं जाती का ढोंग भी क्यों करते हैं? आपत्ति यह नहीं है कि ये सब स्कूल दुकानों में तब्दील क्यों हो गए। विरोध इस बात का है कि ये दुकानें न तो पूरा तोलती हैं और न ही सामान ही असली देती हैं। कोई भी स्कूल अपनी प्रचारित सामग्री में किए गए दावों पर खरा नहीं है तो यह अभिभावक-उपभोक्ताओं के साथ धोखा ही है।
खेदपूर्ण तथ्य यह है कि आज अधिकांश स्कूलों द्वारा यही किया जा रहा है। इन छल-कपट की दुकानों में पैसे तो पूरे लिए जाता हैं मगर इश्तिहार या हॉर्डिंग्ज द्वारा प्रचारित सामान एक चौथाई भी नहीं देते, जैसे- समुचित अर्हताधारी प्रशिक्षित पूरा स्थायी स्टाफ, प्रभावी तार्किक शिक्षण और कारगर अधीक्षण (Supervision), पुस्तकालय और खेल मैदान, पुस्तकालयाध्यक्ष, खेल, चित्रकला और संगीत के विषय शिक्षक तथा साप्ताहिक बाल सभा जैसे कार्यक्रम इनके यहां होते ही नहीं। शानदार चिकने कागज पर स्कूल भवन की बहुरंगी फोटो सहित विवरणिका जिसमें होते हैं स्कूल में घुड़सवारी, स्विमिंग पूल, एसी रूम्ज और स्मार्ट क्लासिज वगैरह वगैरह के दावे जबकि असल में न तो घोड़ा होता है और न ही स्विमिंग पूल, और स्मार्ट क्लासिज का तो इन्हें अर्थ भी नहीं मालूम होता, अगर कहीं घोड़ा या स्विमिंग पूल हैं भी तो स्कूल मालिक के व्यक्तिगत उपयोग के लिए है या शाला विवरणिका के लिए अपने चहेते बच्चों के साथ फोटो खिचवाने के लिए होते हैं। इन सारी बातों की पोल तो इनके हर सत्रारंभ पर निकलने वाले "आवश्यकता है " के विज्ञापन ही खोल देते हैं जिसमें, प्रिंसीपल, आया, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर सभी विषयों के सभी ग्रेड्ज के अध्यापक चाहिए होते हैं, और लिखा होता है वेतन योग्यतानुसार (यानी प्रबंधकों द्वारा आंकी गई योग्यतानुसार)। सवाल उठता है कि जब सारा स्टाफ ही चाहिए तो फिर आपके पास था क्या?
फिर भी क्यों बढ़ रहें है ये स्कूल?
अब एक बड़ा सवाल यह है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी हर साल इन स्कूलों की संख्या बढ़ क्यों रही है? जानने का प्रयास करते हैं कि वजह क्या है- इसकी एक बड़ा कारण तो है अधिकतर अभिभावकों में ज्ञान का अभाव और अंग्रेजी का दंभ मूल्य /टोर (Snob Value) तथा अंग्रेजी के प्रति उन्माद की हद तक आकर्षण। दूसरा मुख्य कारण है अपनी बिरादरी में यह प्रदर्शन भाव कि मेरा बच्चा फलां इंग्लिश मीडिअम स्कूल में पढ़ता है और यह गलत धारणा कि अखिल भारतीय या प्रांतीय प्रशासनिक पुलिस सेवाओं में चयनित ज्यादातर आइ.ए.एस. या आइ.पी.एस. अधिकारी इंग्लिश मीडिअम स्कूलों में पढ़े होते हैं। तीसरा कारण है मांग और आपूर्ति की मजबूरी। प्राथमिक स्तर पर न तो इतने सरकारी इंग्लिश मीडिअम स्कूल हैं और न ही निजी स्कूलों की तुलना में छात्रों की उपस्थिति, अध्यापन व गृहकार्य जैसे कर्मकांड में अपेक्षाकृत अधिक नियमितता और निरंतरता ही होती है।
इनका डंका बजने का सबसे बड़ा कारण है:
सही मायनों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कराने वाले गिनती के चंद स्कूल। हालांकि उत्तरी राजस्थान उससे सटे पंजाब व हरियाणा के जिलों में ऐसा एक भी इंग्लिश मीडिअम स्कूल नहीं है जहां नर्सरी कक्षा से लेकर 12वीं तक पढ़ाई सौ फीसदी अंग्रेजी में होती है, गिने-चुने स्कूल हैं जो इस लक्ष्य के निकटतम हैं या निकटतम बने रहने की ईमानदार कोशिश करते हैं। सेकण्डरी और प्लस टु 12वीं में उनके विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम और योग्यता सूची में उनकी श्रेणी (रैकिंग) के साथ साथ राज्य स्तरीय व  राष्ट्रीय खेल कूद और सह-शैक्षिक प्रतियोगिताओं में इनके सराहनीय प्रदर्शनों से प्रभावित माता-पिता अपने बच्चों को इन स्कूलों में दाखिल करवाने के लिए दौड़े आते हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं? जब इनकी सफलता का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोलता है तो इस लहराते परचम की आधी-अधूरी नकल (Cloning) करना तो भारतीयों का जन्मसिद्ध अधिकार है। एक असली और सौ नकली।
आखिर इसका इलाज क्या है?
अपने बच्चे की शिक्षा योजना बना कर चलें। जेब के अनुसार स्थानीय या बाहरी सही इंग्लिश मीडिअम स्कूल का चयन करें, अपने विश्वसनीय स्रोतों से उसके दावों का सत्यापन करवाएं और संतुष्ट होने पर उसकी अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए बच्चे को तैयारी करवाएं। इसके बावजूद अगर आप उसे प्रथम वरीयता के स्कूल में दाखिला नहीं दिला सकते तो नम्बर दो के  स्कूल का रुख करें। यह भी संभव न हो पाए तो बच्चे को किसी हिन्दी माघ्यम, अधिमानत: राजकीय, विद्यालय में प्रवेश दिला दें और उसकी अंग्रेजी की नींव  मजबूत करवाने के लिए किसी सक्षम समर्पित अंग्रेजी अध्यापक की सेवाएं लें। अंत में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह जरूरी नहीं है कि उपरोक्त सभी कमियां, सभी इंग्लिश मीडिअम स्कूलों में शत प्रतिशत रूप में मौजूद हों।

प्रो. अली मोहम्मद पडि़हार
भू- मीत के मार्च-अप्रैल के अंक से

3 comments:

  1. पढ लिख कर साहब बन कर खूब कमायेगा.( चाहे भ्रष्टाचार से सही)...की मानसिकता छोडनी होगी...

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  2. सटीक विश्लेषण ........दिखावे की होड़ भी एक वजह है......

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  3. is andhi doud me piste bachche hai ,kai bachche is english ke hauve ko jhel nahi pate aur unke vayktitva ka theek se vikas nahi ho pata..doosari aur teachers ka frustation bhi bachchon par nikalta hai...sach to ye hai shiksha aaj vyavsay ban gayee hai aur ek prayog shala bhi....

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