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Thursday, March 24, 2011

क्यों चाहिए श्वेत क्रान्ति?

10.2 करोड़ टन वार्षिक दूध उत्पादन के साथ भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। फसल की तुलना में यह उत्पादन बहुत अधिक है और किसानों के लिए कमाई का एक अहम साधन भी है। मौसम की मार एवं फसलों की बर्बादी के बाद किसान को सुरक्षा देने में दुग्ध उत्पादन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। देश के कुछ क्षेत्रों में किसानों की आत्महत्या पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एम.एस.एस.ओ.) की रिपोर्ट के अनुसार उन क्षेत्रों में आत्महत्या की घटनाएं कम रही हैं, जहां दूध उत्पादन नियमित आय का साधन है। दूध उत्पादन का कार्य ज्यादातर छोटे किसानों और भूमिहीनों द्वारा किया जाता है तथा इसमें महिलाओं की भूमिका प्रमुख है।
उचित मूल्य
दुग्ध उत्पादन व्यवसाय में कुछ खामिंया भी हैं जो इसकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती हैं। पहली कमी तो दूध की कीमत है जिसका वास्तविक लाभ उसके हकदारों तक नहीं पहुंचता। जिस दूध की कीमत शहरों और महानगरों में 28 से 38 रूपए प्रति लीटर है, उसके लिए उत्पादकों को मात्र 15 से 20 रूपए प्रति लीटर ही मिलते हैं। दूध की कीमतों में अभी कुछ समय पहले ही वृद्धि हुई है, 16 फरवरी से दिल्ली में गाय का दूध 29 रू. तथा भैंस का 36 रूपए लीटर बिकेगा। डेअरी अधिकारियों के अनुसार संग्रहण, भण्डारण, प्रसंस्करण, विपणन, प्रबंधन और परिवहन की लागत बढ़ गई है जिसकी वजह से दूध के दाम बढाना जरूरी हो गया था। दूध उत्पादकों को मिलने वाली 15-20 रूपए लीटर कीमत का एक बड़ा हिस्सा चारे व पशु आहार, बीमारी एवं पशुओं के रखरखाव आदि में खर्च हो जाता है। इस तरह दोनों ही पक्षों को मिलने वाला लाभ लगातार घटता जा रहा है, जिससे  सकल प्रभाव प्रतिकूल हो जाता है।
दूध की उपलब्धता
यद्यपि भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता आज भी   252 मि.ली. प्रतिदिन है जो कि विश्व औसत 265 मि.ली. प्रतिदिन से कम है। दूसरी ओर ग्रामीणों द्वारा दूध बेचने की प्रवृति लगातार बढऩे के कारण उनका पारिवारिक कुपोषण भी बढ़ा है। हमारे दुधारू पशुओं की औसत क्षमता 1200 ली. प्रति वर्ष है जबकि विश्व औसत 2200 ली. का है। इजराइल में तो दुधारू पशुओं की उत्पादकता 12,000 ली. वार्षिक तक है। हमारे यहां दूध उत्पादन में उन्नत प्रजातियों का अभी भी अभाव है। संकर प्रजाति के विकास के लिए किए जा रहे प्रयास सिर्फ प्रयोगशालाओं तक सीमित हैं। पशुधन स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में दुधारू पशु संक्रामक रोगों के कारण मर जाते हैं।
लागत विसंगतियां
दूध संग्रह, परिरक्षण, पैकिंग, परिवहन, विपणन, प्रबंधन कार्य में वृद्धि होने से दूध की लागत क्यों बढती है, इसे कोलकाता की दूध आपूर्ति से समझा जा सकता है। आनंद (गुजरात) से कोलकाता तक प्रतिदिन रेफेरिजिरेटिड टैंकरों वाली रेलगाड़ी में दूध भेजा जाता है। दो हजार किलोमीटर तक ताजे दूध की नियमित आपूर्ति करना टेक्नालॉजी का कमाल है लेकिन यह बिजली, डीज़ल व रेलवे साधनों की बरबादी भी है। जब गुजरात, राजस्थान जैसे सूखे प्रदेशों में दूध पैदा किया जा सकता है तो हरे-भरे बंगाल में क्यों नहीं? असली श्वेत क्रांति तो तब मानी जाती जब दूध उत्पादन की विकेंद्रित, स्थानीय व मितव्ययी तकनीक प्रयोग में लाई जाती।
मांग-आपूर्ति अनुपात
शहरीकरण, औद्योगिकरण, प्रति व्यक्ति आय में बढोतरी, खान-पान की आदतों में बदलाव जैसे कारणों से दूध व दूध से बने पदार्थों की मांग तेजी से बढ रही है। वर्तमान में दूध का तरल रूप में उपयोग मात्र 46 प्रतिशत ही होता है शेष दूध का उपयोग दूध उत्पादों के रूप में होता है। आइसक्रीम, चॉकलेट और मिठाइयों का बढ़ता प्रचलन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, और आने वाले समय में दूध उत्पादों के उपयोग का अनुपात बढना तय है। ऐसी स्थिति में उत्पादन में तीव्र वृद्धि अति आवश्यक है।
चारा व पशु आहार
एक अनुमान के अनुसार देश में इस समय 65 करोड़ टन सूखा चारा, 76 करोड़ टन हरा चारा और 7.94 करोड़ टन पशु आहार उपलब्ध है। यह मात्रा पशुओं की मौजूदा संख्या की केवल 40 प्रतिशत जरूरत को पूरा करने में सक्षम है। दुधारू पशुओं के लिए मोटे अनाज, खली और अन्य पौष्टिक तत्वों की भारी कमी है। स्पष्ट है भूखे पशुओं से न दूध उत्पादन की अपेक्षा की जा सकती है और न ही अन्य अत्पादों की। अत: पशुचारा विकास की ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। चारे के उत्पादन पर एक मार नए किस्म के बीजों से पड़ी है। आजकल के बीज कम समय में पकते हैं और फसल भी अधिक देते हैं पर उनसे उपलब्ध चारा दिनो-दिन कम होता जा रहा है। पहले गेहूं के पौधे की सामान्य उँचाई चार फुट होती थी और पकने में समय लगता था पांच से छ: माह। जबकि आज के नए बीज से फसल तैयार हो जाती है 90 से 120 दिनों में और पौधे का कद घट कर रह गया है दो से अढ़ाई फुट। जाहिर है मार चारे पर ही पड़ी है न कि मुख्य फसल पर। पंजाब क्षेत्र में गेहूँ के तुरंत बाद मूंग की एक फसल ली जा रही है। यह फसल मात्र साठ ही दिन में पक तैयार हो जाती है इसलिए ही इसे 'साठी’  कहते हैं। कोढ़ मे खाज का काम यह है कि चारा उगाने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है जिसका दुष्प्रभाव पशु और मनुष्य दोंनों के स्वास्थ्य पर देखा जा सकता है।
जानकारी का अभाव  
हमारे देश में दूध उत्पादन का जिम्मा जिन सवा करोड़ लघु व सीमांत किसानों पर है उनमें पशुपालन की वैज्ञानिक जानकारी का अभाव है। हमारी शिक्षा-प्रणाली में कहीं भी पशु-पालन के लिए औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा का कोई स्थान नहीं है। जरूरी है कि प्रौढ़ शिक्षा की तर्ज पर पशु-पालन की शिक्षा भी शुरू की जानी चाहिए, जिसके पाठ्यक्रम में दूध उत्पादन, वितरण एवं पशु रोगों जैसे आधारभूत विषय शामिल हों।
नस्ल सुधार कार्यक्रम
श्वेत क्रांति के नाम पर गाय-भैसों की देसी नस्लों की भी घोर उपेक्षा हुई और विदेशी नस्लों का प्रचलन बढ़ा। यह स्थिति और भी भयानक हो गई जब कृत्रिम गर्भाधान के अधकचरे ज्ञान के कारण हमने अजीब सी संकर नस्लें पैदा करलीं। ये संकर प्रजातियां न तो दूध देती हैं और न ही खेती के अन्य कामों के लिए उपयोगी हैं। चारे का अभाव और इस तरह की नाकारा नस्लें हमारे भविष्य पर एक बडा प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं।
लालच की हद
दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए नुकसानदेह हारमोन युक्त इंजेक्शनों का प्रचलन बढ़ा, जिससे दूध में हानिकारक रसायनों की मात्रा ख्रतरनाक हद तक बढ़ी हैं। ऑक्सीटोसिन के प्रयोग से निकाला गया दूध महिलाओं में बांझपन और पुरूषों में नपुंसकता बढ़ा रहा है। हमारा लालच यहीं नहीं रुका, हम इससे भी एक कदम आगे जाकर अब यूरिया और डिटरजेंट तक का प्रयोग करते हुए सिंथेटिक दूध भी बनाने लगे हैं।
क्या इतने कारण कम हैं किसी भी क्रान्ति के लिए? श्वेत क्रान्ति का अर्थ यही है कि स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन और दूध उत्पादन के हर क्षेत्र में हम आत्म-निर्भर होते हुए दुग्ध उत्पाद निर्यातक देशों की श्रेणी में आएं।
- भू-मीत के फरवरी-मार्च अंक से

गौशालाओं के बहाने से

हिन्दुस्तान में श्वेत क्रान्ति के विषय पर बात हो और गौशालाओं का जिक्र न आए यह संभव नहीं। सवाल उठ सकता है कि कुछ गौशालाएं को छोड़कर बाकी के पास दूधारू पशुओं की गिनती ढ़ाई पर आकर खत्म हो जाती है। अपने यहां उत्पादित दूध वे अपने ट्रस्टीज और कर्मचारियों के अतिरिक्त किसी को नहीं देती, भला उनका श्वेत क्रान्ति क्या संबंध? इसके जवाब में दो सवाल हैं, पहला- जो गायें दूध नहीं देती, अपंग है, वृद्ध हैं, लाचार, लावारिस और बीमार हैं वे कहां पाई जाती हैं? दूसरा सवाल है- डेअरी फार्मों से निकाले गए बछड़े शहर की सड़कों और बूचडख़ानों के अलावा और कहां पाए जाते हैं? इन दोनों सवालों का एक ही जवाब है-गौशाला। जब तक गायें दूध दे रहीं हैं, उत्पादक हैं, तब तक इस वे उद्योग का हिस्सा हैं उसके बाद वे अन्य औद्योगिक कचरे की तरह यूं ही फैंक दी जाती हैं। यानी शुद्ध व्यापारिक व्यवहार। अफसोस इस बात का है कि यह सब उस देश में हो रहा हैं जिसमें गाय को मां का दर्जा दिया जाता है। जहां गाय को इतना पवित्र माना गया है कि उसके शरीर में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास बताया गया है। उस धार्मिक देश में इन कामधेनुओं के लिए छोटी-बड़ी मिलाकर कुल 6000 हजार गौशालाएं सरकारी मदद और दानवीरों के चन्दे से चल रही हैं। एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि इन गौशालाओं में जितनी संख्या में  गाय और बछड़े हैं उनसे छ: गुणा ज्यादा देश के सभी शहरों में सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं। यह सब तब हो रहा है जब गोवंश की एक बड़ी संख्याकी तस्करी भी हो रही है और उसे बूचडख़ानों में बेरहमी से काटा जा रहा है।
गाय से ही अन्याय क्यों?
हमारे देश में गाय को सब प्रणियों से ज्यादा पूजनीय माना गया है; गाय के पंच तत्व- पंचगव्यों (दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र) का धर्मिक कर्मकांड और आयुर्वेदिक चिकित्सा में इतना महत्त्व है, फिर उस गाय गाय की इस दुदर्शा कारण क्या है? 6 हजार गौशालाओं के बावजूद भी शहर में कचरा खाकर क्यों मर रहा है हमारा पवित्रतम गौवंश? गाय पर यह अत्याचार योरोपीय मलेच्छ और विधर्मी मुसलमान नहीं कर रहे हैं।  यह काम स्वयं धर्मपारायण हिन्दू वर्ग कर रहा है जिसे इस गाय से मरणोरांत वैतरणी पार कराने का विश्वास है। इसके उल्ट हिन्दुस्तान में बहुत सारे मुस्लिम गोपालक आज गोधन को बचाए हुए हैं।
गाय पर अन्याय के मुख्य तीन कारण समझ में आते हैं- पहला इसका धर्म से जुड़ा होना और दूसरा हमारा उससे शुद्ध व्यापारिक जुड़ाव और, तीसरा तकनीक का अन्धा अनुसरण करना। पहले इस तीसरे कारण को थोड़ा विस्तार से समझ लेते हैं। आज हमारे गांवों में रहट, कोल्हू, हल और बैलगाड़ी नहीं रहे उनकी जगह डीज़ल या बिजली से चलने वाले ट्यूबवैल, ट्रैक्टर, एक्सपेलर और टेम्पो या ट्रैक्टर चलित ट्रॉली आ चुके हैं। आज गावं के घरों में भी उपले (थेपड़ी) नहीं जलाए जाते। किसान गोबर खाद की जगह रासायनिक खाद प्रयोग में ले रहे हैं। फलत: कृषि की लागत विगत 10 वर्षों में कई गुना बढ़ चुकी है और कीमती विदेशी मुद्रा खनिज तेल व रासायनिक खाद के आयात पर खर्च हो रही है।
अर्थ पक्ष बचाएगा गौधन
 जैसाकि हम जानते हैं कि इन्सान हर वस्तु का आर्थिक पक्ष देखते हुए कहता है इससे मुझे क्या फायदा? अगर फायदा न हो तो वह बात भी नहीं करता। जानने की कौशिश करते हैं कि इस नाकारा गौधन के क्या हैं फायदे? आप जानते ही हैं कि फायदे दो तरह के होते हैं, पहला दूरगामी और दूसरा तात्कालिक। गौधन संवर्धन का फायदा दोनों तरह से है-तुरन्त तो यह कि जो तेल कभी 2 डालर(85 रूपए) प्रति बैरल था वो आज 140 डालर (रु. 6,000 रूपए) प्रति बैरल तक पहुच गया है और खाड़ी देशों के हालात देखते हुए कहा जा सकता है कि यह प्रति बैरल 250 डालर (11,250 रूपए) तक भी हो सकता है। यानी खर्चे डाल कर डीज़ल करीब 85 से 90 रूपए प्रति लीटर।
दूसरा फायदा भी देख लें। भारत में लगभग 48 करोड़ एकड़ कृषि योग्य तथा 15 करोड़ 80 लाख एकड़ बंजर भूमि है। उस बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए 340 करोड़ टन खाद की आवश्यकता है। हमारा यह नाकारा पशुधन वर्ष में 100 करोड़  टन प्राकृतिक खाद देने में सक्षम है । इस भूमि की जुताई, सिंचाई, गुडाई, परिवहन और भारवहन के लिए 5 करोड़ बैल जोडिय़ों की आवश्यकता है। धर्म की कृपा से आज भी हमारे देश में इतनी पशु शक्ति बची हुई है। उपरोक्त कार्यों में इसका उपयोग कर के कृषि तथा ग्रामीण जीवनयापन की लागत को कम किया जा सकता है। अब बात करते हैं एक दूरगामी फायदे की। गोबर जन्य प्राकृतिक खाद, गौमूत्र द्वारा निर्मित कीट नियंत्रक व औषधियों के प्रचलन और उपयोग से रसायनरहित पौष्टिक व नैसर्गिक आहार द्वारा मानव जाति को कई तरह की बीमारियों से बचाया जा सकता है, और इस तरह जो ईंधन और बिजली बचेगी उसका उपयोग अन्य उद्योग धन्धों में करके अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।
अब एक तीसरा फायदा भी है जो शायद आपको विचलित करदे पर यह हमारे देश में हमारी जानकारी के बगैर भी हो रहा है। हम बछड़े को आवारा छोडऩे के बाद सोचते भी नहीं हैं कि उसके साथ हुआ क्या? कल्पना करें- उस बछड़े को साल-सवा साल खिला-पिलाकर 250-300 किलो का कर लिया, या आपकी छोड़ी गई फंडर गाय या बैल लगभग इतने वजन का हो। कसाई के लिए यह नाकारा सामान 25-30 हजार का हो जाएगा। 250 किलो गोमांस दर 100 रूपए किलो, चमडा रु.1,000 रूपए, हड्डियाँ 20-25 किलो, दर 25 रूपए और खून जो दवा उत्पादकों और गैरकानूनी दारू बनाने के काम आता है 15 लीटर, दर 10 रूपए कुल हिसाब आप खुद ही लगा लें। यह चोरी का व्यापार एक आंकड़े के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग साढ़े 7 करोड़ पशुओं का इस तरह अन्तिम व्यापार होता है जो करीब 2125 अरब बैठता है। जबकि सरकार अपने बूचडख़ानों से महज 3799 करोड़ का ही गोमांस बेचती है। मजा देखिए ये दो नम्बर के कसाई इस व्यापार पर कोई टैक्स नहीं चुकाते है। कोई आश्चर्य नहीं कि इतने बड़े करोबार में हमारी कुछ गोशालाएं भी भागीदार हों।
कितनी चाहिएं गौशालाएं?
शहरों में इतना बीमार, लाचार और लावारिस पशुधन आता कहां से है? महानगरों और छोटे शहरों के आम घरों एक भी गाय नहीं है, फिर भी शहर के हर चौराहे और सड़कों पर आवारा पशुओं की भरमार है? हर शहर की गौशाला अपनी औकात से ज्यादा पशु भरे बैठी है। जाहिर है गांव के लोग अपनी बला टालने के लिए इन नुकसान पहुचाने वाले पशुओं को ट्रॉली में भरकर शहर में छोड़ जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इन सारे पशुओं को समायोजित करने के लिए देश भर में 25 हजार से ज्यादा ही गौशालाएं चाहिएं। इस नाकारा फौज के लिए खरबों रूपए का चारा और दवाइयां चाहिए। इस पशुधन को रखने के लिए और चारे के लिए जमीन कितनी चाहिए इसका अंदाजा आप खुद ही लगा लें। बेहतर होगा कि हम इस भयावह समस्या को एक चेतावनी मानें और इसके समाधान की दिशा में अभी से सोचना आरम्भ कर दें।

Sunday, March 20, 2011

अब पशु मेलों से जाते हैं सीधे बूचडख़ाने

आपको शायद यह जानकर आश्चर्य होगा कि 100 करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले इस देश में मात्र 16 करोड़ ही दुधारू पशु बचे हैं। पशु पालन विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 1951 में 40 करोड़  जनसंख्या पर 15 करोड़ 53 लाख पशु थे। 1992 में करीब 93 करोड़ की जनसंख्या पर पशुओं की संख्या थी 20 करोड़ 45 लाख और इसके बाद 1997 में यह अनुपात था 19 करोड़ 88 लाख जो सन 2003 में घटकर रह गया 18 करोड़ 52 लाख। यह गिरावट यहीं नहीं थमी सन 2008 में हमारे पास रह गए मात्र 16 करोड़ पशु। विभाग के सूत्रों के अनुसार 1951 में 3 लोगों के पर एक पशु था, जबकि 2006 में 7 लोगों के पर एक पशु रह गया। इन तथ्यों के बीच सरकार के जादूगरी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन दूध की उपलब्धता 132 ग्राम थी जो 2005-06 में 241 और 2009-09 में 258 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई? आप ही अंदाजा लगाएं कि यह क माल हमारी जीवनदायनी नदियों का है या गांव-देहात में बैंठे रसायनिक दूध ईजाद करने वाले 'वैज्ञानिकों का। 
पशुओं की लगातार गिरती संख्या के पीछे दो बड़े कारण सामने आये हैं। एक तो है रोजाना 40से 50 हजार पशुओं का तस्करी द्वारा बांग्लादेश जाना और दूसरा है देश में हर साल बढ़ रही कत्लगाहें। केंद्र सरकार की 11वीं पंचवर्षीय योजना में यांत्रिक कत्लगाहों के लिए 500 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं। इस योजना में सभी प्रदेशों को 25 करोड़ रूपए दिए जाएंगे, जिसमें प्रदेश सरकार अपनी तरफ से और 25 करोड़ मिलाकर 50 करोड़ में स्थापित करेगी एक आधुनिक पशु वधशाला। वैसे तो ये बूचडख़ाने भेड-बकरियां काटने के लिए लगाए जा रहें हैं, पर क्या देश में इतनी भेडें या बकरियां हैं जो इन कारखानों को साल भर चला सकें? सब जानते हैं कि इन बूचडख़ानों में भेड-बकरियों के नाम पर क्या कटने वाला है। इनमें अपंग या मरणासन्न पशु चिकित्सा अधिकारी की अनुमति से काटे जा सकते हैं। स्वस्थ नर पशुओं को अपंग और मरणासन्न बनाना या ऐसा किए बिना उन्हें मारने का अनुमति-पत्र लेना 'गांधीजी की मेहरबानी से बहुत आसान है हमारें देश में।
कैसे होती है तस्करी?
गोवंश के तस्करों के लिए उत्तरप्रदेश के बरेली जिले का रामगंगा नदी का रास्ता सबसे मुफीद साबित हो रहा है। इस काम के लिए कूरियर बने दिहाड़ी मजदूर मात्र 500-700 रुपए के लिए कोई भी जोखिम उठा सकते हैं। पुलिस और प्रशासन की नजर कभी इन लोगों पर नहीं पडती, इसलिए यह धंधा वर्षों से बेरोक-टोक जारी है। गैनी के मेले में पशु दूध और नस्ल देखकर नहीं, वजन देखकर खरीदे जाते हैं। ये पशु वध के लिए फतेहगंज के रास्ते से रामपुर ले जाए जाते हैं। तस्करों के कूरियर जब मेले से गोवंश लेकर पैदल गौतारा घाट से गंगा पार करते हुए फतेहगंज पश्चिमी तक जाते हैं तो वह किसी के भी पूछने पर रसीद दिखाकर निकल जाते हैं। मेले तक लाने वाले कूरियर की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। इसके बाद दूसरे कूरियर इसे अंजाम देते हैं। पीपल फॉर एनिमल्ज की राष्ट्रीय अध्यक्ष मेनका गांधी कहती हैं कि उनकी संस्था के लोग प्रशासन को सूचना देते हैं फिर भी पुलिस कार्रवाई नहीं करती है।
मेलों की आड़ में होता खेल
पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और देश के हर कोने में लगने वाले पशु मेलों का एकमात्र उद्देश्य है ऐसे बूचडख़ानों और तस्करी के लिए पशु जुटाना। इन मेलों में किसान दुधारू मवेशी खरीदने नहीं बल्कि अपना खराब, बीमार या फं डर पशु बेचने ज्यादा आते हैं। ये किसान पशु बेचान की कोई रसीद भी नहीं लेते। ये रसीदें तस्करों के बचाव में ढाल का काम करती हैं। इस 'धर्म के काम में कुछ गौशालाएं भी अपना सहयोग निरन्तर दे रही हैं।

करे कोई-भरे कोई

वैसे तो हमारे प्राचीन ऋषियों एवं मनीषियों ने भी ब्रह्माण्ड की संकल्पना में पृथ्वी के पर्यावरण में जीवों की पारस्परिक निर्भरता का उल्लेख किया है, जिसके वैज्ञानिक प्रमाण जुटाने का श्रेय उन्नीसवां सदी के पश्चिम वैज्ञानिको को जाता है। ब्रिटिश जीव वैज्ञानी चाल्र्ज डॉर्विन योग्यतम की उत्तरजीविता (सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट ) का सिद्धांत हमारे शास्त्रोक्त, जीवो-जिवस्स भोजनम् की संवर्धित व्याख्या सा लगता है। विज्ञान की नवीनतम तकनीकी एवं नव सामाजिक चेतना के कारण आज बीबीसी के डिस्कवरी जैसे चैनल्ज की वजह से केवल वैज्ञानिक की विरासत समझा जानेवाला विशिष्ट ज्ञान जन-जन के सामान्य ज्ञान में शामिल हो गया है। फलस्वरूप हम जानते हैं कि प्रकृति का कोई भी प्राणी एकांतिक नहीं है, सब एक दूसरे से जुड़े हैं। निरपेक्ष भाव से देखें तो कोई भी कार्य न तो बेकार होता है, और  न ही गन्दा और हीन। जैसे सभ्य समाज ने आपने शरीर और शहर की सफाई की व्यवस्था कर रखी है वैसा ही इन्तजाम प्रकृति के अन्दर भी  मौजूद है। मरे हुए पशुओं को मुर्दाखोर जानवर और कीड़े खा जाते हैं और उनकी हड्डियां समय के साथ मिट्टी बन जाती हैं। हम अपने अज्ञान और लोभ के कारण खुद भी गन्दे हुए है और प्रकृति को भी उसके काम से रोका है, कम से गिद्धों के मामले में तो यह शत-प्रतिशत प्रमाणित हो चुका है कि करे कोई और भरे कोई।
भारत मे कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थी- बियर्डेड, इजिप्शयन, स्बैंडर बिल्ड, सिनेरियस, किंग, यूरेजिन, लोंगबिल्ड, हिमालियन ग्रिफिम और व्हाइट बैक्ड।  इनमें से मात्र चार ही प्रवासी किस्म की थी शेष सभी विशुद्ध इसी महाद्वीप की प्रजातियां थी। कभी राजस्थान, गुजरात व मध्यप्रदेश में कभी गिद्ध भारी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब बिरले ही कही दिखाई देते हैं। रेगिस्तानी इलाकों के मुख्यतया पाए जाने वाले गिद्धों की संख्या अकेले गुजरात में ही 2500 से घटकर 1400 रह गई है। ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियाँ चिंताजनक रूप से कम हुई हैं। संरक्षण कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में अविश्वसनीय रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है।
गिद्धों की इस कमी का एक कारण बताया जा रहा है: पशुओं को दर्दनाशक के रूप में दी जा रही दवा डायक्लोफ़ेनाक, और दूसरा, दूध निकालने लिए के लगातार दिए जा रहे ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इन दवाओं के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो ये रसायन उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। तीसरा है, शहरी क्षेत्रों में बढता प्रदूषण। लगातार कटते वृक्षों से गिद्धों के बसेरे की समस्या भी इस शानदार पक्षी को बड़ी तेजी से विलुप्ति की ओर धकेल रही है। भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफ़ेनाक और ऑक्सीटोसिन के अवशेषों की जानकारी करीब 18 साल पहले ही मिल गई थी, लेकिन आज तक गिद्धों में दवा के असर को कम करने का कोई तरीका ढूंढ़ा नहीं जा सका है। हालांकि भारत सरकार ने सर्वेक्षणों की रिपोर्ट, नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ़ द्वारा डायक्लोफ़ेनाक पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा और रॉयल सोसायटी के डेबी पेन द्वारा चिन्ता व्यक्त करने के बाद -डायक्लोफ़ेनाक और ऑक्सीटोसिन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन भोजन चक्र से इसका असर ख़त्म होने में काफ़ी समय लगेगा।
मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते है और सड़े हुए माँस से होने वाली अनेक बीमारियों की रोकथाम में सहायता कर प्राकृतिक संतुलन बिठाते है। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, एक गिद्ध जोड़ा साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देता है। सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए अन्य देशों के साथ भारत सरकार ने भी प्रयास शुरु कर दिए हैं। इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थी। सरकारी पाबंदी के बावजूद ये दोनों दवाएं गाँव-शहरो में पंसारी की दुकान तक पर आज भी सहज उपलब्ध हैं। हम भारतीयों का कानून के प्रति सम्मानभाव सारी दुनियां जानती है, जब हम अपने लालच के आगे भगवान की नहीं सुनते सरकार की क्या मानेंगे। हम अपने छोटे से फायदे के लिए रसायनिक दूध बनाकर आदमी की जान ले सकते हैं वहां गिद्ध की परवाह किसे है, वैसे भी भारतीय समाज में मरे हुए प्राणियों का माँस खाने वाले इस पक्षी को सम्मान या दया की दृष्टि से नहीं देखा जाता है।
अब बात करते हैं ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन के बढ़ते इस्तेमाल के प्रभाव की । नीदरलैंड में एम्सर्टडम विश्विद्यालय के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर दुधारू पशु से ज्यादा दूध लेने के लिए उसे ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन दिया जाए तो उस दूध का सेवन करनेवाले में कई विकार पैदा हो सकते हैं। शोध के मुताबिक़ इस तरह के दूध के सेवन से अपने समुदाय और जाति को दूसरे से श्रेष्ठ समझने का भाव बलवती होता है। ये शोध हाल में अमरीकन एसोसिएशन ऑफ़ एडवांसमेंट ऑफ़ साइंस की पत्रिका प्रोसीडिंग्स नेशनल अकेडमी ऑफ़ साइंस में प्रकाशित हुआ है। अब तक ऑक्सीटोसिन को ऐसा रसायन माना जाता था जो जानवरों में अपने बछड़े के प्रति प्रेम का भाव का पैदा करता है जिससे उसे ज़्यादा दूध उतरता था। लेकिन अब शोधकर्ताओं ने एक नई बात पाई है कि जहाँ ये अपने समुदाय के भीतर एक दूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास को बढ़ावा देता है वहीं दूसरे समुदायों और जातियों के प्रति अविश्वास का भाव का निर्माण करता है। शोध के अनुसार दूसरे समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह की धारणा उत्पन्न होने से जातीय झगड़े बढ़ सकते हैं।
भारत के हर राज्य में पशुपालक अपने मवेशियों में दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए नियमित तौर पर ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल करते हैं। जोधुपर, जेएनवी विश्विद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रमुख प्रोफ़ेसर नरपतसिंह शेखावत के अनुसार उससे हाल के वर्षो में जातीय विवाद और द्वंद जिस स्तर पर उभरा है उसमें इस तरह के दूध के इस्तेमाल ने मदद की होगी इस बात से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता है। वे कहते हैं कि ऐसी दवाइयों पर महज कागजों में रोक लगी है, इस रोक का सख्ती से पालन करवाना भी जरूरी है क्योंकि हम एक जाति समुदायों वाले विविधपूर्ण समाज का हिस्सा हैं। अब तो इस इन्जेक्शन का प्रयोग सब्जिय़ाँ पैदा करनेवाले किसान धड़ल्ले से कर रहे हैं। इसे लौकी या कद्दू में लगा दिया जाये तो शीघ्र ही वह बड़ी हो जाती है।
(इस आलेख में उद्धरण, बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल, ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ लंदन, रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ  बर्ड्स तथा भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 2008 की समीक्षा से लिए गये है। )

Saturday, March 19, 2011

पशु और उनसे फैलती महामारियां

मैडकाउ, एन्थ्रौक्स, सार्स, बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू  जैसी संक्रामक बीमारियां समय-समय पर विश्व भर में आतंक फैलाती रही हैं। विगत कुछ वर्षों में ही पशुओं के जरिए इंसानों में बीमारी फैलने के पांच-छ: मामले सामने आ चुके हैं। जब ये बीमारियां फैलती हैं तो उन दिनों कुछ देशों में संकट-स्थिति(हाई-अलर्ट) घोषित कर दी जाती है, हवाई अड्डों पर बाहर से आने वालों की सघन जांच की जाती है। कुछ समय पहले जब मेक्सिको में स्वाइन फ्लू से 200 मौतें हुई तब वहां के राष्ट्रपति ने पूरे देश में पांच दिन का आर्थिक बंद घोषित कर दिया था और लोगों को घरों में रहने की सलाह दी। स्कूल-कॉलेज, सिनेमाघर, नाइट क्लब सब बंद कर दिए गए और यहां तक कि फुटबाल मैच भी रद्द कर दिए गए। मिस्र में बतौर सावधानी तीन लाख सुअरों को मारने के आदेश जारी कर दिए गए। इससे पहले एन्थ्रौक्स, सार्स, बर्ड फ्लू, मैडकाउ डिजीज़ आदि से भारी तबाही मची थी। बीमारियों से आंतकित इन्सान ने हज़ारों-लाखों मुर्गियों, गायों, सुअरों को महज शक की वजह से मार डालता है । बर्ड फ्लू के डर से भारत के असम, पं. बंगाल, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भी लाखों मुर्गियों को मौत के घाट उतारा गया। इंग्लैंड सहित अन्य देशों में मैड काउ रोग के कारण लाखों गायों को कत्ल कर दिया गया।
दरअसल इन रोगों और इनके फैलने का एक बड़ा कारण तो है मांस के लिए आधुनिक ढंग से औद्योगिक पशुपालन। मांसाहार बहुत पहले से ही मनुष्य के भोजन का हिस्सा रहा है और भोजन के लिए हजारों सालों से पशुपालन किया जाता रहा है। किंतु वर्तमान आधुनिक औद्योगिक पशुपालन बेहद अप्राकृतिक , बर्बरतापूर्ण, प्रदूषणकारी और विशुद्ध लाभ पर आधारित एक बिल्कुल ही अलग धन्धा है। आज इस व्यापार ने लालच और स्वार्थ की सारी सीमाएं लांघ ली हैं।  इस तरह का व्यापार करने वाले पशु-पालक न तो पशुओं को खुले चारागाहों या खेतों में चराते हैं और न ही उन्हें कुदरती भोजन देते हैं। इन फार्म हाउसिज में दड़बेनुमा बाड़ों में हजारों-लाखों पशुओं को एक साथ पाला जाता है, जहां उनके  घूमने-फिरने, उठने बैठने तक की जगह ढ़ंग से नहीं होती। यहां साफ-सफाई की भी उचित व्यवस्था भी नहीं होती। इन पशुओं को रसायनयुक्त आहार तथा दवाइयां एवं हार्मोन देकर, कम समय में ज्यादा से ज्यादा मोटा-ताजा करने की कौशिश की जाती है।  फैक्टरीनुमा पशुपालन पहले मुर्गियां से शुरू हुआ, उसके बाद सुअरों और गायों तथा भैंसों को भी ऐसे ही पाला जाने लगा। अमरीकी लेखक मिडिकिफ तो इस तरह की कंपनियों के आधुनिक मांस कारखानों को अपनी किताब में 'पीड़ा और गंदगी का निरंतर फैलता हुआ दायरा कहते हैं और एम.जे. वाट्स इनकी तुलना उच्च तकनीकी यातना गृहों से करते हैं ।
हो सकता है बरसों पहले इंग्लैंड में फैला मैडकाउ रोग आपको याद हो। इस बीमारी (बीएसई) ने गायों के मानसिक संतुलन को पागलपन की हद तक बिगाड़ दिया था, इसलिये इसे पागल गाय रोग कहा गया है। इस रोग की वजह से लाखों गाय-बछड़ों का बेरहमी से मार डाला गया था। माना जाता है कि यह रोग इसलिए फैला कि गायों को उन्हीं की हड्डियों, खून और अन्य अवशेषों का बना हुआ आहार खिलाया गया। आधुनिक बूचडख़ानों में गायों आदि को काटने के बाद मांस को तो पैक करके बेच दिया जाता किन्तु बड़े पैमाने पर हड्डियां, अंतडिय़ां, खून आदि का जो कचरा बचा, उसको ठिकाने लगाना एक समस्या हो गया।  इस समस्या से निपटने का एक तरीका यह निकाला गया है कि इस कचरे का चूरा बना कर पुन: गायों के आहर में मिला दिया जाए। मैडकाउ से हुई भारी तबाही के बाद ब्रिटेन सरकार ने तो इस पर पाबंदी लगा दी मगर उत्तरी अमेरिका सहित कुछ देशों में आज भी यह तरीका जारी है।
स्वाइन फ्लू की वजह बताते हुए टोनी वैस ने अपनी किताब में सुअर फार्मों के बारे में लिखते हैं कि- 'इन यांत्रिक कारखानों में मादा सुअर अपना पूरा जीवन धातु या कांक्रीट के बने फर्श पर छोटे-छोटे खांचों में बच्चे जनते और पालते बिता देती है।  ये खांचे इतने छोटे होते हैं कि ये जानवर ढ़ंग से मुड़ भी नहीं पाते। शिशुओं को तीन-चार सप्ताह में ही मां से अलगकर दिया जाता है। मादा सुअरों को फिर से गर्भ धारण कराया जाता है। शिशुओं को अलग कोठरियों में रखकर एन्टी-बायोटिक दवाइयों और हारमोन युक्त जीन परिवर्तित आहार दिया जाता है ताकि उनका वजऩ जल्दी से जल्दी बढ़े सके। इस कैद के कारण होने वाले रोगों और अस्वाभाविक व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए भी दवाइयां दी जाती हैं। ए. कॉकबर्न ने दुनिया के मांस उद्योग पर अपने एक पर्चे में अमरीका के उत्तरी कैरोलिना राज्य में चल रहे एक प्रमुख सुअर मांस उत्पादक के बारे में भी ऐसे ही कुछ हालात बयान किए हैं।
पालतू मुर्गियों व बतखों में फैलने वाली बीमारी बर्ड फ्लू से तो आप परिचित हैं। इस रोग के फैलते ही आधा विश्व एकदम शाकाहारी हो गया था। यह रोग चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के मुर्गी फार्मों से फैलना आरम्भ हुआ। इसे भी तेज़ी से विस्तार और औद्योगीकरण से जोड़कर देखा जा रहा है क्योंकि विगत दस-पंद्रह वर्षों में चीन में मुर्गी उत्पादन दोगुना हो गया है तथा थाइलैण्ड, वियतनाम और इण्डोनेशिया में मुर्गी उत्पादन अस्सी के दशक की तुलना में चार गुना हो चुका है। ऐसे में बहुत संभव है कि बर्ड फ्लू का नया और पहले से ज्यादा ताकतवर रोगाणु एच5एन1 इंसान से इंसान को संक्रमित करने लगे और यह एक महामारी का रूप धारण करले। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इससे निबटने की व्यापक तैयारी की ज़रूरत बताई है।
बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू और मैडकाउ रोग दरअसल एक जिस बड़ी और गहरी बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं, वह भोग, अन्धे लालच व गैर बराबरी पर आधारित हमारी पूंजीवादी सभ्यता की, जिसमें शीर्ष पर बैठे थोड़े से लोगों ने अपने भोग-विलास और मुनाफे के लिए सारी दुनियां के लोगों, प्राणियों तथा प्रकृति पर अत्याचार करने को अपना करोबार मान लिया है। सुनने में तो यह भी आ रहा है कि एच1एन1 नामक नया वायरस जानबूझ कर एक दवा निर्माता कम्पनी ने बनाया है, जिसकी प्रतिरोधक शक्ति इंसानों के शरीर में नहीं है। इसके इलाज के लिए प्रचारित टैमिफ्लू नाम की एक ही दवाई है जो रातों-रात बिना किसी शोध के बाजार में आ गई, और दुनियाभर में धड़ल्ले से बिकने लगी।

क्या दूध नहीं पीना चाहिए ?

आम आदमी दूध की उपयोगिता को लेकर भले ही आश्वस्त हो पर आजकल चिकित्सा विशेषज्ञों में इस बारे में आम सहमति नहीं है। अब तक सिर्फ दूध की शुद्धता को लेकर ही सवाल उठते रहे हैं, पर अब तो दूध से होने वाले नुकसान भी चर्चा का विषय हैं। बेशक यह कहना मुश्किल है कि दूध हर उम्र, हर आदमी के लिए फायदेमंद ही होगा। दूध कितना पीया जाए, कौन सा पीया जाए, या पीया ही नहीं जाए इस बारे में मतभेद हैं। एक बहस इस बात पर भी है कि दूध शाकाहरी (वैज)खाद्यों में आता है या मासाहार (नॉनवैज)में। एक पश्चिमी अवधारणा के अनुसार लोग चार प्रकार के शाकाहारी होते हैं। पहले वे जो अण्डे और दूग्ध-उत्पाद खाते हैं लेकिन मास-मच्छी आदि नहीं खाते। (Lacto-ovo vegetarians) दूसरे वे हैं जो दूध-उत्पाद खाते हैं जिन्हें सनातन धर्मी शाकाहारी मानते हैं, यह लोग मास-मच्छी तथा अण्डे नहीं खाते। (Lacto vegetarians) तीसरे वे हैं जो वह लोग जो अण्डे तो खाते हैं मगर मास-मच्छी और दूध व उससे बने उत्पाद नहीं खाते। ( Ovo vegetarians) तथा चौथी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो शुद्ध शाकाहारी होते हैं, यह लोग दूध तो क्या शहद भी नहीं खाते। (Vegetanism) इस अवधारणा के अनुसार हिन्दू जिस शाकाहार में विश्वास रखते हैं लेक्टो-वेज़ेटेरियनिज़्म (Lacto vegetarians) के अंतरगत आता है। हिन्दू  शहद, दूध और दूध से बने पदार्थों का सेवन करते हैं  इसलिए इन्हें शुद्ध शाकाहारी नहीं माना जाता। क्या दूध मांसाहार है? यह अलग बहस का विषय है कुछ लोग इसे धर्म नहीं बल्कि भाषा की समस्या मानते हैं। जैसे कि वेजेटेरियन को हिन्दी में शाकाहारी कहते हैं यह सही है, लेकिन नॉनवेज को हिन्दी में मांसाहार कहते हैं यह गलत है। नॉनवेज का अर्थ मांसाहार नहीं बल्कि अशाकाहार है,  इस हिसाब से दूध शुद्ध शाकाहार नहीं है। अँग्रेजी के हिसाब से तो हर वह वस्तु जो वनस्पति/शाक नहीं है नॉनवेज है, मांसाहार है, क्योंकि वह मां के खून और मांस से निर्मित होता है।

अब इससे एक कदम आगे की बात करें, ओशो कहते हैं- दूध असल में अत्यंत कामोत्तेजक आहार है और मनुष्य को छोड़कर पृथ्वी पर कोई पशु कामवासना से इतना भरा हुआ नहीं है। क्योंकि मनुष्य के अलावा अन्य कोई भी प्राणी या पशु बचपन के कु छ समय के बाद दूध नहीं पीता। किसी पशु को जरूरत भी नहीं है क्योंकि शरीर में दूध का काम पूरा हो जाता है। सभी पशु अपनी मां का दूध पीते है, लेकिन दूसरों की माओं का दूध सिर्फ आदमी पीता है और वह भी आदमी की माताओं का नहीं जानवरों की माओं का। बच्चा एक उम्र तक दूध पीये, यह नैसर्गिक है। इसके बाद प्राकृतिक रूप से मां के दूध आना बंद हो जाता है। जब तक मां के स्तन से बच्चे को दूध मिल सके, बस तब तक ठीक है, उसके बाद दूध की आवश्यकता नैसर्गिक नहीं है। बच्चे का शरीर बन गया, निर्माण हो गया—दूध की जरूरत थी, हड्डी, खून और मांस बनाने के लिए—ढ़ांचा पूरा हो गया, अब सामान्य भोजन काफी है। अब भी अगर दूध दिया जाता है तो यह सार दूध कामवासना का निर्माण करता है। मनुष्य फिर भी सारी उम्र दूध पीता है वह भी पशुओं का, जो निश्चित ही पशुओं के लिए ही उपयुक्त था।

आदमी का आहार क्या है? यह अभी तक ठीक से तय नहीं हो पाया है, लेकिन वैज्ञानिक जांच के हिसाब से आदमी का आहार शाकाहार ही हो सकता है। क्योंकि शाकाहारी पशुओं के पेट में जितना बड़ी आंत की जरूरत होती है, उतनी बड़ी आंत आदमी के भीतर है। मांसाहारी जानवरों की आंत छोटी और मोटी होती है, जैसे शेर की। चूंकि मांस पचा हुआ आहार है, उसे बड़ी आंत की जरूरत नहीं है। शेर चौबीस घंटे में एक बार भोजन करता है जबकि शाकाहारी बंदर दिन भर चबाता रहता है। उसकी आंत बहुत लंबी है और उसे दिनभर भोजन चाहिए। इसलिए तो कहा जाता है कि आदमी को एक बार ही ज्यादा मात्रा में खाने की बजाएं, दिन में कई बार थोड़ा-थोडा करके खाना चाहिए। दूध तो दरअसल पशु आहार है, और इसका सेवन अप्राकृतिक है। सादा दूध ही पचाना भारी था तिस पर मनुष्य ने दूध को मलाई, खोये और घी में बदल कर अपने लिए और भी मुश्किलें खड़ी करली हैं। अब भी आप वयस्क मानव के रूप में दूध पीना जारी रखते हैं तो फैसला आपका।