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Monday, April 23, 2012

बरसात की भविष्यवाणी

आज भी हमारे देश में साठ प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर है। ऐसे में किसानों के लिए बरसात के बारे में सटीक भविष्यवाणी का महत्त्व असंदिग्ध है। इसी के मद्देनजर मौसम विभाग वर्ष भर प्रयास रत रहता है कि मानसून के बारे में समय पूर्व जानकरी संबंधित पक्षों को मिलती रहे। हालांकि ये भविष्यवाणियां कितनी सटीक और सही होती हैं यह एक अलग बहस का विषय है। इनके बारे में कहा तो यह भी जाता है कि अगर मौसम विभाग बरसात होने की जानकारी दे तो समझलें कि सूखा पडऩे वाला है। इन लतीफों को अलग रखकर फिलहाल बात करते हैं कि मानसून के बारे ये भविष्यवाणियां किस आधार पर की जाती हैं।
भारत में मानसून अवधि 1 जून से 30 सितंबर तक करीब चार महीने की होती है। इससे संबंधित भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है। तापमान, हवा, दबाव और बर्फबारी आदि कुल 16 तथ्यों के अध्ययन और विशलेषण को चार भागों में बांट कर बरसात के पूर्वानुमान किए  जाते हैं। समूचे भारत के तापमान का क्षेत्रानुसार अध्ययन किया जाता है। मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रेल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह के तापमान को आधार बनाया जाता है। तापमान के अलावा वातावरण में अलग-अलग महीनों में 6 से 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवाओं के रुख और गति का भी लेखा-जोखा रखा जाता है। चूंकि वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है, वसंत ऋ तु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव जबकि जनवरी से मई तक हिंद महासागर के विषुवतीय क्षेत्रों के दबाव को मापा जाता है। जनवरी से मार्च तक हिमालय के खास भागों में बर्फ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फबारी का अध्ययन किया जाता है जो मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाती हैं। इस अध्ययन के लिए आंकड़े उपग्रह द्वारा एकत्र किए जाते हैं। इन सारे तथ्यों की जांच पड़ताल में थोड़ी सी असावधानी या मौसम में किन्हीं अप्रत्याशित कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर पड़ता है। इसका एक उदाहरण है, 2004 में प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान का जून महीने के अंत में बढ़ जाने के कारण मानसून की भविष्यवाणी का पूरी तरह सही न होना।
अल-नीनो भी तय करता है बरसात
मानसून का समय तो पूर्वानुमान द्वारा जाना जा सकता है लेकिन मानसून कितना अच्छा होगा और सही-सही कब आएगा, यह हम नहीं जान सकते। अल नीनो और इसकी गतिविधियों को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक कुछ हद तक पता लगा सकते हैं। सच्चाई तो यह है कि गहरे समुद्र में घटने वाली एक हलचल यानी अल नीनों ही किसी मानसून का भविष्य तय करती है। अल-नीनो कहीं प्रकृति का उपहार बनकर आती है तो कहीं यह विनाश का कारण भी बनती है।
क्या है अल-नीनो?
अल-नीनो स्पैनिश भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है- छोटा बालक। इसे यह नाम पेरू के मछुआरों ने बाल ईसा के नाम पर दिया बताते हैं। क्योंकि इसका प्रभाव सामान्यत: क्रिसमस के आस-पास अनुभव किया जाता है। मौसम विज्ञान की भाषा में इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत के भूमध्यीय क्षेत्र के समुद्र के तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए बदलाव के लिए उत्तरदायी समुद्री घटना को अल-नीनो कहा जाता है। यह दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित ईक्वाडोर और पेरु देशों के तटीय समुद्री जल में कुछ सालों के अंतराल पर घटित होता है जिसके परिणाम स्वरूप समुद्र के सतही जल का तापमान सामान्य से अधिक हो जाता है। सामान्यत: व्यापारिक हवा समुद्र के गर्म सतही जल को दक्षिण अमेरिकी तट से दूर ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस की ओर धकेलते हुए प्रशांत महासागर के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर बहती है। पेरू का तटीय जल ठंडा तथा पोषक-तत्वों से समृद्ध है जो प्राथमिक उत्पादकों, विविध समुद्री पारिस्थिक तंत्रों एवं प्रमुख मछलियों को जीवन देता है। अल-नीनो के दौरान, व्यापारिक हवाएं मध्य एवं पश्चिमी प्रशांत महासागर में शांत होती है। इससे गर्म जल को सतह पर जमा होने में मदद मिलती है जिसके कारण ठंडे जल के जमाव के कारण पैदा हुए पोषक तत्वों को नीचे खिसकना पड़ता है और जलीय जीव मरने लगते हैं जिससे समुद्री पक्षियों को भोजन की कमी हो जाती है। यही अल-नीनो प्रभाव विश्वव्यापी मौसम पद्धतियों के विनाशकारी व्यवधानों के लिए जिम्मेदार है।
एक बार शुरू होने पर यह प्रक्रिया कई सप्ताह या महीनों चलती है। सामान्यत: अल-नीनो प्रभाव दस साल में दो बार और कभी-कभी तीन बार भी नजर आता है। अल-नीनो हवाओं के दिशा बदलने, कमजोर पडऩे तथा समुद्र के सतही जल के ताप में बढ़ोतरी की विशेष भूमिका निभाती है। चूंकि अल-नीनो से वर्षा के प्रमुख क्षेत्र बदल जाते हैं, परिणामस्वरूप विश्व के ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा वर्षा होने लगती है और कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है।

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