Advertisement

Monday, October 29, 2012

सत्ता का सोपान बनी सहकारिता

माना जाता है कि सहकारिता देश में सदियों से चली आ रही संयुक्त परिवार प्रणाली के सिद्धातों पर आधारित है। चाहे वर्तमान में सहकारिता की नींव रहे संयुक्त परिवार न रहे हों पर सहकारिता अभी जिन्दा है। यह अलग बात है कि आज सहकारिता के अर्थ और संदर्भ दोनों बदल चुके हैं।  आजादी के बाद से ही देश में सहकारिता का स्थान व्यक्तिवादिता लेने लगी। जिसका परिणाम यह हुआ कि सहयोग का स्थान प्रतिस्पर्धा ले लिया, जिसका असर किसानों एवं गरीब लोगों की स्थिति पर भी साफ नजर आने लगा।
हो सकता है 19 वीं सदी के आरंभ में जब सहकारिता की नींव रखी गई तब शायद व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक क्षेत्रों की आर्थिक प्रणालियों में पाए जाने वाले दोषों का निवारण करने का उपाय इसमें शामिल रहे हों। दरअसल सहकारिता इन दोनों के बीच की स्थिति है। 1915 में गठित मैकलगेन समिति के अनुसार, सहकारिता का सिद्धांत यह है कि- एक अकेला साधनहीन व्यक्ति भी अपने स्तर के व्यक्तियों का संगठन बनाकर, एक दूसरे के सहयोग, नैतिक विकास व पारस्परिक समर्थन से अपनी कार्यक्षमता के अनुसार, धनवान, शक्तिशाली व साधन संपन्न व्यक्तियों को उपलब्ध सभी भौतिक लाभ समान स्तर पर प्राप्त कर सकता है। लेकिन, सहकारिता के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए कहा जा सकता है कि इसके मूल स्वरूप के सिद्धांत में नैतिक विकास और परस्पर सहयोग की भावना सिरे से गायब हैं। 
अकसर ऐसे समाचार मिल जाते हैं कि अमुक सहकारी बैंक या सहकारी मिल बंदरबांट या घोटाले की वजह से बंद हो रही है। सहकारी समितियों के कामकाज, उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और राजनीतिक घुसपैठ के कारण सहकारिता के मूल स्वरूप पर मंडराते खतरे पर निरंतर उठते सवालों से जाहिर होता है कि किस तरह से प्रभावशाली लोगों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इन जनसंस्थाओं पर तानाशाहीपूर्वक कब्जा कर जनता को उनके अधिकारों से बेदखल कर रखा है। महाराष्ट्र में शरद पवार और गोपीनाथ मुंडे जैसे राजनीतिज्ञ चीनी सहकारी मिलों के जरिए अपनी राजनीति चमकाने में सफल हुए हैं।
एक समय था सहकारिता के कारण गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के किसानों को एक नई दिशा मिली और उनके लिए तरक्की की राह प्रशस्त हो सकी। किन्तु धीरे-धीरे महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के कारण बड़ी जोत वाले किसानों का दबदबा सहकारी मिलों पर बढ़ता चला गया और उनके नियंत्रात्मक ढांचों में बदलाव आने लगे। अब शुगर फैक्ट्रियों के संचालक मंडल के चुनावों में धन महत्त्वपूर्ण कारक बनता जा रहा है। धनाढय़ एवं शक्तिशाली किसान अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष जैसे पदों को हथियाने लगे हैं और अधिसंख्यक आम सदस्य किसानों के अधिकार नाममात्र के रह गए हैं। अगर कोई इनके सामने खड़ा होने की जुरअत कर भी ले तो उन्हें प्रबंधकों के गुस्से का शिकार बनना पड़ता है। ऐसे किसानों को सबक सिखाने के लिए उनके खेतों से गन्ना नहीं खरीदा जाता, पानी एवं बिजली के कनेक्शन कटवा दिये जाते हैं, उधार पर रोक लगा दी जाती है। सवाल उठता है कि इन हालात में सहकारी संस्थानों की क्या प्रासंगिकता रह जाती है? आधिकारिक जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र में कोई भी ऐसा सहकारी संस्थान नहीं है, जिस पर राजनीतिज्ञों का नियंत्रण न हो। वहां की 5 प्रतिशत चीनी मिलों पर भारतीय जनता पार्टी, 35 प्रतिशत पर कांग्रेस और शेष 60 प्रतिशत पर राष्ट्रवादी कांग्रेस का कब्जा है। 
कुल मिला कर देश के सभी राज्यों में सहकारी संस्थान राजनेताओं की सत्ता की सीढ़ी बने हुए हैं। यह अलग बात है कि उत्तर भारत में ये संस्थाएं तीसरे-चौथे दर्जे के नेताओं की शरण-स्थली बनी हुई हैं। भारत सरकार के पूर्व गृह सचिव माधव गोडबोले और अर्थशास्त्री डा. प्रदीप आपटे जैसे लोग इस तरह के सहकारी संस्थानों की दशा में सुधार हेतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि आम लोग सहकारी संस्थाओं के सदस्य तो हैं, लेकिन सिवाय मताधिकार के उनके पास कोई और अधिकार नहीं है। व्यावसायिक तथ्यों की यहां हमेशा अवहेलना हुई है। बैकुण्ठ मेहता नैशनल कोऑपरेटिव इंस्टीट्यूट, पुणे से सम्बद्ध एस.पी. भोंसले कहते हैं कि सहकारी संस्थानों में होने वाले चुनाव कामकाज में बाधा पहुंचाते हैं और उन पर जमकर दलगत राजनीति (पार्टी पॉलीटिक्स) बुरी तरह हावी रहती है। वे कहते हैं कि महाराष्ट्र विधानसभा में 80 प्रतिशत लोग ऐसे मंत्री हैं, जो किसी न किसी रूप में सहकारी समितियों से जुड़े हुए हैं। जबकि गोआ विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति डा. पद्माकर दुभाषी कहते हैं कि- सहकारी संस्थाओं में लोकतंत्र की जगह परिवारतंत्र का दौर है।

1 comment:

  1. सहकारिता का मतलब ही यह है कि- सब मिल कर लूटो..

    ReplyDelete