रासायनों के बेतरतीब इस्तेमाल से बंजर होती कृषि योग्य जमीन की थोड़ी सी चिन्ता अब केन्द्र सरकार को भी होने लगी है। तभी तो 2008 के केन्दीय बजट में रासायनिक खाद के इस्तेमाल से पहले मिट्टी जांच को महत्त्व दिया गया। बजट घोषणा के अनुसार देश भर में 500 मिट्टी जांच प्रयोगशालाएं पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) के आधार पर स्थापित की जाएंगी। फिलहाल 175 करोड़ रूपए खर्च कर देश के 200 जिलों में मिट्टी जांच की चलती-फिरती प्रयोगशालाएं (एम.एस.टी.वी.-मोबाइल सॉइल टेस्टिंग वैन) मार्च 2009 तक चलाई जाएंगी।
इस योजना के अन्र्तगत पिछले साल 23 राज्यों को 105 वैन दी जा चुकी हैं। जिसमें राजस्थान -12, हरियाणा-1, पंजाब-3, मध्यप्रदेश-6, तथा उत्तरप्रदेश के हिस्से में 18 चल प्रयोगशालाएं आयी हैं। इस तरह देश में निजी एवं सरकारी मिलाकर 120 चल प्रयोगशालाएं तथा 541 स्थाई प्रयोगशालएं कार्य कर रही हैं जो देश के 608 जिलों और जमीन के अनुपात में अभी बहुत कम हैं, पर किसानों की जागरूकता को देखते हुए ये भी ज्यादा ही हैं।
पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने इन चल प्रयोगशालाओं का संचालन खुद ही करने का निर्णय लिया है जबकि राजस्थान सरकार ने पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) को आधार मानते हुए गत वर्ष अगस्त में अपनी सभी 12 वैनज निजी खाद निर्माता कम्पनिओं एवं एन.जी.ओ. के हवाले कर दी हैं। लगभग 28लाख की लागत से बनी इन चल प्रयोगशालाओं के रख-रखाव एवं संचालन के सारे खर्च और मिट्टी जांच करने वाले तकनीकी व अन्य कर्मचारियों का वेतन, केमिकल आदि पर होने सभी खर्चे वैन का संचालन करने वाले संस्थान उठाएंगे। इन खर्चों को ये संस्थान मिट्टी-पानी की जाचं से होने वाली आय से पूरा कर सकेंगे। हालांकि इन चल प्रयोगशालाओं में मिट्टी एवं पानी की सूक्ष्म जांच की सुविधा नहीं है पर खेत में ही pH, EC, OC, P2O5 और K2O जैसी जरूरी जांच हो जाती है और शुल्क भी मात्र 10 से 20 रूपए ही है। तीन साल के लिए किए गए अनुबंध-पत्र के अनुसार इन संसथानों को एक साल में कम से कम 5 हजार जांच तो करनी ही होंगी। वैसे भी 5000 या इससे कम जांच करने पर साल भर में होने वाले खर्च नहीं निकलता। पहली नजर में 25 बिन्दुओं वाला यह अनुबंध सरकार और किसान हित में लगता है, पर जमीनी हकीकत सभी सरकारी-निजी सहयोग से चलने वाली योजनाओं से कुछ ज्यादा अलग नहीं है। नजर डालते हैं अनुबंध के 25 में से कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं और उनकी जमीनी हकीकत पर।
अनुबंध के पैरा तीन के अनुसार सभी चल प्रयोगशालाओं के लिए आपसी सहमती से कार्य क्षेत्र तय किया जाएगा। संचालक कहते हैं कार्यक्षेत्र विधिवत तय नहीं किए गए। इसलिए संचालक अपनी मर्जी से बिना किसी सूचना के सुविधानुसार काम कर रहे हैं। जोधपुर-जैसलमेर क्षेत्र के संचालक अरावली जिप्सम एण्ड मिनरल्ज लि. अपनी वैन को गंगानगर जिले की सूरतगढ़ तहसील में बिना सरकार को सूचना दिए विगत छ: माह से चला रहे हैं। इस बारे में जोधपुर एवं गंगानगर के कृषि निदेशकों को कोई जानकारी भी नहीं है। इसी तरह चूरू, सीकर एवं झुझंनू क्षेत्र के लिए ग्रामीण अनुसंधान विकास संस्थान, नवलगढ़ की चल प्रयोगशाला महज सीकर में काम कर रही है। चूरू और झुझंनू के सहायक निदेशकों ने आज तक यह वैन देखी तक नहीं है। कुछ यही हाल उदयपुर का भी है, कहने को वहां दो वैन हैं लिबर्टी एवं देवियानी। जिनमें से देवियानी वाली तो चलती ही नहीं और लिबर्टी वाली वैन उदयपुर आती ही नहीं है। देवियानी फॉस्फेट के पास उदयपुर, बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर क्षेत्र हैं और होर्टिकल्चर कॉलेज के पास झालावाड़ और बांरा है। ये दोनो चल प्रयोगशालाएं पहले दिन से ही अचल खड़ी है।
पैरा चार के मुताबिक सभी वैन कार्य रिर्काड के लिए लॉगबुक भरेंगी जिन्हें क्षेत्र में नियुक्त कृषि निदेशक और नोडल अधिकारी प्रमाणित करेंगे। यह कानून भी अनुबंध तक ही सिमित है। आज के एक भी वैन ने लॉग बुक पर किसी अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं करवाए हैं। पैरा दस के अनुसार सभी संस्थान छमाही एवं वार्षिक रिर्पोट के अतिरिक्त किए गए कार्य की मासिक सूचना जिले के कृषि सहायक निदेशक या नोडल अधिकरी को देंगे। राजस्थान के किसी भी सहायक कृषि निदेशक के पास जितनी भी सूचनाएं है वे आधी-अधूरी और पुरानी हैं। पैरा 21 के अनुसार जाचं कार्यक्रमों की अग्रिम सूचना जिले में तैनात कृषि सहायक निदेशक विस्तार, सरपंच और गांव में नियुक्त कृषि परिवेक्ष को देनी होती है, और कार्यक्रम के बारे में प्रचार करना होता है ताकी ज्यादा से ज्याद किसान इस सुविधा का लाभ ले सकें। यहां सभी संचालकों का एक सा ही हाल है। सरपंच, कृषि परिवेक्षकों को सूचना तो दूर ये लोग कृषि अधिकारियों तक को कोई अग्रिम सूचना नहीं देते। चबंल गंगानगर इसका अपवाद है पर वे भी कृषि परिवेक्षक एवं सरपंच को अपने कार्यक्रमों में शामिल नही करते।
ऐसा नहीं है कि अकेले संचालक ही अनुबंध के कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ हैं, किसी भी कृषि अधिकारी को दिशा-निर्देशों के बारे में पूरी जानकरी नहीं है। एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि अनुबंध में सहायक निदेशक कूषि को कई सारी जिम्मेदारियां सौंप रखी हैं जैसे-लाग बुक चैक करना, जांच कार्यक्रमों की अग्रिम सूचना प्राप्त करना, वैन को अपनी देख-रेख में खड़ा करवाना और कभी भी कार्य स्थल पर जा कर वैन की कार्यप्रणली चैक करना आदि। पर इन सब जिम्मेदारियों के बारे में निदेशक को कोई दिशा-निर्देश नहीं दिए गए और न ही अनुबंध की प्रति ही उपलब्ध करवाई गई।
सार यह है कि केन्द्र सरकार की करोड़ों की लागत से किसान हित में बनाई गई यह महती योजना लापरवाही और गैरजिम्मेदारी की भेंट चढ़ रही है। अगले एक-दो सालों में पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) के आधार पर 500 और जांच प्रयोगशालाएं स्थापित होनी है, उनका भी हश्र अगर यही रहना है तो सही अर्थों में भारतीय खेती का ईश्वर ही मालिक है।
इस योजना के अन्र्तगत पिछले साल 23 राज्यों को 105 वैन दी जा चुकी हैं। जिसमें राजस्थान -12, हरियाणा-1, पंजाब-3, मध्यप्रदेश-6, तथा उत्तरप्रदेश के हिस्से में 18 चल प्रयोगशालाएं आयी हैं। इस तरह देश में निजी एवं सरकारी मिलाकर 120 चल प्रयोगशालाएं तथा 541 स्थाई प्रयोगशालएं कार्य कर रही हैं जो देश के 608 जिलों और जमीन के अनुपात में अभी बहुत कम हैं, पर किसानों की जागरूकता को देखते हुए ये भी ज्यादा ही हैं।
पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने इन चल प्रयोगशालाओं का संचालन खुद ही करने का निर्णय लिया है जबकि राजस्थान सरकार ने पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) को आधार मानते हुए गत वर्ष अगस्त में अपनी सभी 12 वैनज निजी खाद निर्माता कम्पनिओं एवं एन.जी.ओ. के हवाले कर दी हैं। लगभग 28लाख की लागत से बनी इन चल प्रयोगशालाओं के रख-रखाव एवं संचालन के सारे खर्च और मिट्टी जांच करने वाले तकनीकी व अन्य कर्मचारियों का वेतन, केमिकल आदि पर होने सभी खर्चे वैन का संचालन करने वाले संस्थान उठाएंगे। इन खर्चों को ये संस्थान मिट्टी-पानी की जाचं से होने वाली आय से पूरा कर सकेंगे। हालांकि इन चल प्रयोगशालाओं में मिट्टी एवं पानी की सूक्ष्म जांच की सुविधा नहीं है पर खेत में ही pH, EC, OC, P2O5 और K2O जैसी जरूरी जांच हो जाती है और शुल्क भी मात्र 10 से 20 रूपए ही है। तीन साल के लिए किए गए अनुबंध-पत्र के अनुसार इन संसथानों को एक साल में कम से कम 5 हजार जांच तो करनी ही होंगी। वैसे भी 5000 या इससे कम जांच करने पर साल भर में होने वाले खर्च नहीं निकलता। पहली नजर में 25 बिन्दुओं वाला यह अनुबंध सरकार और किसान हित में लगता है, पर जमीनी हकीकत सभी सरकारी-निजी सहयोग से चलने वाली योजनाओं से कुछ ज्यादा अलग नहीं है। नजर डालते हैं अनुबंध के 25 में से कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं और उनकी जमीनी हकीकत पर।
अनुबंध के पैरा तीन के अनुसार सभी चल प्रयोगशालाओं के लिए आपसी सहमती से कार्य क्षेत्र तय किया जाएगा। संचालक कहते हैं कार्यक्षेत्र विधिवत तय नहीं किए गए। इसलिए संचालक अपनी मर्जी से बिना किसी सूचना के सुविधानुसार काम कर रहे हैं। जोधपुर-जैसलमेर क्षेत्र के संचालक अरावली जिप्सम एण्ड मिनरल्ज लि. अपनी वैन को गंगानगर जिले की सूरतगढ़ तहसील में बिना सरकार को सूचना दिए विगत छ: माह से चला रहे हैं। इस बारे में जोधपुर एवं गंगानगर के कृषि निदेशकों को कोई जानकारी भी नहीं है। इसी तरह चूरू, सीकर एवं झुझंनू क्षेत्र के लिए ग्रामीण अनुसंधान विकास संस्थान, नवलगढ़ की चल प्रयोगशाला महज सीकर में काम कर रही है। चूरू और झुझंनू के सहायक निदेशकों ने आज तक यह वैन देखी तक नहीं है। कुछ यही हाल उदयपुर का भी है, कहने को वहां दो वैन हैं लिबर्टी एवं देवियानी। जिनमें से देवियानी वाली तो चलती ही नहीं और लिबर्टी वाली वैन उदयपुर आती ही नहीं है। देवियानी फॉस्फेट के पास उदयपुर, बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर क्षेत्र हैं और होर्टिकल्चर कॉलेज के पास झालावाड़ और बांरा है। ये दोनो चल प्रयोगशालाएं पहले दिन से ही अचल खड़ी है।
पैरा चार के मुताबिक सभी वैन कार्य रिर्काड के लिए लॉगबुक भरेंगी जिन्हें क्षेत्र में नियुक्त कृषि निदेशक और नोडल अधिकारी प्रमाणित करेंगे। यह कानून भी अनुबंध तक ही सिमित है। आज के एक भी वैन ने लॉग बुक पर किसी अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं करवाए हैं। पैरा दस के अनुसार सभी संस्थान छमाही एवं वार्षिक रिर्पोट के अतिरिक्त किए गए कार्य की मासिक सूचना जिले के कृषि सहायक निदेशक या नोडल अधिकरी को देंगे। राजस्थान के किसी भी सहायक कृषि निदेशक के पास जितनी भी सूचनाएं है वे आधी-अधूरी और पुरानी हैं। पैरा 21 के अनुसार जाचं कार्यक्रमों की अग्रिम सूचना जिले में तैनात कृषि सहायक निदेशक विस्तार, सरपंच और गांव में नियुक्त कृषि परिवेक्ष को देनी होती है, और कार्यक्रम के बारे में प्रचार करना होता है ताकी ज्यादा से ज्याद किसान इस सुविधा का लाभ ले सकें। यहां सभी संचालकों का एक सा ही हाल है। सरपंच, कृषि परिवेक्षकों को सूचना तो दूर ये लोग कृषि अधिकारियों तक को कोई अग्रिम सूचना नहीं देते। चबंल गंगानगर इसका अपवाद है पर वे भी कृषि परिवेक्षक एवं सरपंच को अपने कार्यक्रमों में शामिल नही करते।
ऐसा नहीं है कि अकेले संचालक ही अनुबंध के कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ हैं, किसी भी कृषि अधिकारी को दिशा-निर्देशों के बारे में पूरी जानकरी नहीं है। एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि अनुबंध में सहायक निदेशक कूषि को कई सारी जिम्मेदारियां सौंप रखी हैं जैसे-लाग बुक चैक करना, जांच कार्यक्रमों की अग्रिम सूचना प्राप्त करना, वैन को अपनी देख-रेख में खड़ा करवाना और कभी भी कार्य स्थल पर जा कर वैन की कार्यप्रणली चैक करना आदि। पर इन सब जिम्मेदारियों के बारे में निदेशक को कोई दिशा-निर्देश नहीं दिए गए और न ही अनुबंध की प्रति ही उपलब्ध करवाई गई।
सार यह है कि केन्द्र सरकार की करोड़ों की लागत से किसान हित में बनाई गई यह महती योजना लापरवाही और गैरजिम्मेदारी की भेंट चढ़ रही है। अगले एक-दो सालों में पीपीपी (पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप) के आधार पर 500 और जांच प्रयोगशालाएं स्थापित होनी है, उनका भी हश्र अगर यही रहना है तो सही अर्थों में भारतीय खेती का ईश्वर ही मालिक है।
No comments:
Post a Comment