वैसे तो हमारे देश के शहरी क्षेत्र में बीमा और हेलमेट दोनों ही जुर्माने या टैक्स से बचने के लिए मजबूरी में खरीदे जाते हैं। इन दोनों महत्त्व ही तब पता चलता है जब कोई दुर्घटना या मौत हो जाती है। जब यह हाल शहरी क्षेत्र में बीमे का है तो ग्रामीण क्षेत्र के बार में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बीमा क्षेत्र के दिग्गजों ने स्वीकार किया है कि ग्रामीण क्षेत्र और छोटे शहरों में बीमा कंपनियां अभी तक पैठ बनाने में नाकाम रही हैं। छोटी किस्त राशि, साप्ताहिक या मासिक भुगतान विकल्प और अनियमिता की वजह से इन इलाकों में कारोबार के लिए फिलहाल कंपनियां उत्साहित नजर नहीं आ रही हैं।
विभिन्न बीमा कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों ने माना है कि देश की 65 फीसदी से अधिक की आबादी वाले ग्रामीण इलाके बीमा के लिहाज से अबतक अनछुए हैं। इस बात की ताईद आइएलओ (इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाजेशन) भी करता है, जिसके अनुसार भारत में कु ल 51 माइक्रो इंश्युरैंस योजनाएं चल रही हैं, जिनमें से ज्यादातर पिछले पांच-सात साल में ही बनाई गई हैं। जारी आंकडों के मुताबिक 43 योजानाएं मात्र 52 लाख लोगों को ही सुरक्षा प्रदान कर रही हैं। इनमें से 33 प्रतिशत योजनाएं माइक्रो फाइनैंस व्यवसाय करने वाली संस्थाओं के हाथ में है, 31 प्रतिशत एनजीओ, 23 प्रतिशत समुदायिक संगठनों और 12 प्रतिशत स्वास्थ्य की देखभाल करने वाली संस्थाओं द्वारा चलाई जा रही हैं। देश की कुल 60.8 प्रतिशत योजनाएं ग्रामीण क्षेत्र पर आधारित हैं, 31.4 प्रतिशत ग्रामीण एवं शहरी दोनों पर तथा शेष 7.8 प्रतिशत विशुद्ध रूप से शहरी क्षेत्र को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। इसमें जीवन बीमा और स्वास्थ्य बीमा दो ही तरह की योजनाओं पर ज्यादा ध्यान दिया गया है, 59 प्रतिशत जीवन बीमा और 57 प्रतिशत स्वास्थ्य बीमा योजनाओं पर आधारित हैं।
एक रोचक तथ्य यह है कि इन सभी ग्रामीण बीमा आधारित योजनाओं का 75 प्रतिशत इस्तेमाल सिर्फ 4 दक्षिण भारतीय राज्यों में (आंध्र प्रदेश 27 प्रतिशत, तमिलनाडु-23 प्रतिशत, कर्नाटक-17 प्रतिशत और केरल 8 प्रतिशत) में हो रहा है। शेष का 18 प्रतिशत उत्तर भारतीय राज्यों जिसमें महाराष्ट्र में 12 प्रतिशत और गुजरात में 6 प्रतिशत तथा शेष भारत में बचा हुआ 7 प्रतिशत ही काम आ रहा है।
एक विरोधभास यह भी है कि एक कार्यक्रम के दौरान आइएनजी वैश्य इंश्योरेंस के चीफ रिप्रजेंटेटिव एनएन जोशी ने माना कि ग्रामीण क्षेत्रों में पैर जमाने की सारी कोशिशें अभी तक इसलिए बेकार रही हैं कि बीमा कंपनियों ने अपनी अधिकांश योजनाएं शहरी ग्राहकों को ध्यान में रखकर तैयार की है। उनके अनुसार कंपनियों को ग्रामीण उपभोक्ताओं के मुताबिक उत्पाद तैयार करने चाहिए जो अपेक्षाकृत छोटी किस्त राशि के हों। भारती एक्सा लाइफ इंश्योरेंस के सीइओ नितिन चोपड़ा के मुताबिक, बीमा कंपनियों को अब शहरों से दूर नए इलाकों की तलाश करनी चाहिए, इन क्षेत्रों में सफलता के लिए जरूरी है कि उनका उत्पाद सस्ता हो तथा लोगों तक यह सस्ते में पहुंचे भी। ये दोनों बयान संकेत करते हैं कि छोटी रकम की बीमा योजनाओं से देश में बीमा व्यवसाय बढ़ सकता है। पर सच्चाई कुछ और ही बयान कर रही है-तमाम सरकारी प्रवधानों और संरक्षणों के बावजूद बीमा कंपनियां ग्रामीण जनता व समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर पाने में नाकामयाब रही हैं। यह भी सच है कि टोटल इंश्योरेंस प्रीमियम के मामले में भारत एशिया का पांचवां बड़ा देश है, और यह भी कि 2008 में कुल इंश्योरेंस प्रीमियम 1 लाख करोड़ रुपए इक्कठा हुआ पर इसमें माइक्रो इंश्योरेंस का हिस्सा सिर्फ 125 करोड़ रुपए ही था। आइआरडीए के अनुसार बहुत सी साधारण बीमा कंपनियों- ओरियंटल, टाटा एआइजी व इफको-टोकियो ने ग्रामीण प्रतिबद्धता तथा न्यू इंडिया, नेशनल व एचडीएफसी एग्री ने सामाजिक प्रतिबद्धता का अपना लक्ष्य तक पूरा नहीं किया। इरडा द्वारा 2010 में जारी आंकड़ों के अनुसार 24 कम्पनियों में से 15 के पास लघु बीमा व्यवसाय के लिए ऐजेंट ही नहीं हैं। शेष 9 कम्पनियों में अविवा और श्रीराम के पास एक-एक, आइसीआइसीआइ प्रूडेंशिअल व सहारा के पास 14 व 15 ऐजेंट ही हैं कुलमिला कर कुल 8676 ऐजेंट्स में से निजी कम्पनियों के पास देशभर में मात्र 770 ऐजेंट ही हैं।
इस मामले में न्यू इंडिया इश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के पूर्व चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर बिमलेंदु चक्रवर्ती की राय अहमियत रखती है। उनके अनुसार योजनाओं का नफा नुकसान स्पष्ट नहीं होने के कारण अबतक देश में मात्र 0.6फीसदी लोग ही ये बीमा उत्पाद अपना सके हैं। ऐसे में अधिक आबादी वाले ग्रामीण बाजार के लिए अधिक सरल उत्पाद लाने चाहिए और उसकी प्रक्रिया को इतना सरल करने की जरूरत है कि यह किसी परचून की दुकान पर भी बेचे जा सकें। फिलहाल यहीं कहा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्र में बीमा उद्योग को खुद अपने लिए किसी अच्छी सी बीमा योजना की जरूरत है।
विभिन्न बीमा कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों ने माना है कि देश की 65 फीसदी से अधिक की आबादी वाले ग्रामीण इलाके बीमा के लिहाज से अबतक अनछुए हैं। इस बात की ताईद आइएलओ (इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाजेशन) भी करता है, जिसके अनुसार भारत में कु ल 51 माइक्रो इंश्युरैंस योजनाएं चल रही हैं, जिनमें से ज्यादातर पिछले पांच-सात साल में ही बनाई गई हैं। जारी आंकडों के मुताबिक 43 योजानाएं मात्र 52 लाख लोगों को ही सुरक्षा प्रदान कर रही हैं। इनमें से 33 प्रतिशत योजनाएं माइक्रो फाइनैंस व्यवसाय करने वाली संस्थाओं के हाथ में है, 31 प्रतिशत एनजीओ, 23 प्रतिशत समुदायिक संगठनों और 12 प्रतिशत स्वास्थ्य की देखभाल करने वाली संस्थाओं द्वारा चलाई जा रही हैं। देश की कुल 60.8 प्रतिशत योजनाएं ग्रामीण क्षेत्र पर आधारित हैं, 31.4 प्रतिशत ग्रामीण एवं शहरी दोनों पर तथा शेष 7.8 प्रतिशत विशुद्ध रूप से शहरी क्षेत्र को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। इसमें जीवन बीमा और स्वास्थ्य बीमा दो ही तरह की योजनाओं पर ज्यादा ध्यान दिया गया है, 59 प्रतिशत जीवन बीमा और 57 प्रतिशत स्वास्थ्य बीमा योजनाओं पर आधारित हैं।
एक रोचक तथ्य यह है कि इन सभी ग्रामीण बीमा आधारित योजनाओं का 75 प्रतिशत इस्तेमाल सिर्फ 4 दक्षिण भारतीय राज्यों में (आंध्र प्रदेश 27 प्रतिशत, तमिलनाडु-23 प्रतिशत, कर्नाटक-17 प्रतिशत और केरल 8 प्रतिशत) में हो रहा है। शेष का 18 प्रतिशत उत्तर भारतीय राज्यों जिसमें महाराष्ट्र में 12 प्रतिशत और गुजरात में 6 प्रतिशत तथा शेष भारत में बचा हुआ 7 प्रतिशत ही काम आ रहा है।
एक विरोधभास यह भी है कि एक कार्यक्रम के दौरान आइएनजी वैश्य इंश्योरेंस के चीफ रिप्रजेंटेटिव एनएन जोशी ने माना कि ग्रामीण क्षेत्रों में पैर जमाने की सारी कोशिशें अभी तक इसलिए बेकार रही हैं कि बीमा कंपनियों ने अपनी अधिकांश योजनाएं शहरी ग्राहकों को ध्यान में रखकर तैयार की है। उनके अनुसार कंपनियों को ग्रामीण उपभोक्ताओं के मुताबिक उत्पाद तैयार करने चाहिए जो अपेक्षाकृत छोटी किस्त राशि के हों। भारती एक्सा लाइफ इंश्योरेंस के सीइओ नितिन चोपड़ा के मुताबिक, बीमा कंपनियों को अब शहरों से दूर नए इलाकों की तलाश करनी चाहिए, इन क्षेत्रों में सफलता के लिए जरूरी है कि उनका उत्पाद सस्ता हो तथा लोगों तक यह सस्ते में पहुंचे भी। ये दोनों बयान संकेत करते हैं कि छोटी रकम की बीमा योजनाओं से देश में बीमा व्यवसाय बढ़ सकता है। पर सच्चाई कुछ और ही बयान कर रही है-तमाम सरकारी प्रवधानों और संरक्षणों के बावजूद बीमा कंपनियां ग्रामीण जनता व समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर पाने में नाकामयाब रही हैं। यह भी सच है कि टोटल इंश्योरेंस प्रीमियम के मामले में भारत एशिया का पांचवां बड़ा देश है, और यह भी कि 2008 में कुल इंश्योरेंस प्रीमियम 1 लाख करोड़ रुपए इक्कठा हुआ पर इसमें माइक्रो इंश्योरेंस का हिस्सा सिर्फ 125 करोड़ रुपए ही था। आइआरडीए के अनुसार बहुत सी साधारण बीमा कंपनियों- ओरियंटल, टाटा एआइजी व इफको-टोकियो ने ग्रामीण प्रतिबद्धता तथा न्यू इंडिया, नेशनल व एचडीएफसी एग्री ने सामाजिक प्रतिबद्धता का अपना लक्ष्य तक पूरा नहीं किया। इरडा द्वारा 2010 में जारी आंकड़ों के अनुसार 24 कम्पनियों में से 15 के पास लघु बीमा व्यवसाय के लिए ऐजेंट ही नहीं हैं। शेष 9 कम्पनियों में अविवा और श्रीराम के पास एक-एक, आइसीआइसीआइ प्रूडेंशिअल व सहारा के पास 14 व 15 ऐजेंट ही हैं कुलमिला कर कुल 8676 ऐजेंट्स में से निजी कम्पनियों के पास देशभर में मात्र 770 ऐजेंट ही हैं।
इस मामले में न्यू इंडिया इश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के पूर्व चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर बिमलेंदु चक्रवर्ती की राय अहमियत रखती है। उनके अनुसार योजनाओं का नफा नुकसान स्पष्ट नहीं होने के कारण अबतक देश में मात्र 0.6फीसदी लोग ही ये बीमा उत्पाद अपना सके हैं। ऐसे में अधिक आबादी वाले ग्रामीण बाजार के लिए अधिक सरल उत्पाद लाने चाहिए और उसकी प्रक्रिया को इतना सरल करने की जरूरत है कि यह किसी परचून की दुकान पर भी बेचे जा सकें। फिलहाल यहीं कहा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्र में बीमा उद्योग को खुद अपने लिए किसी अच्छी सी बीमा योजना की जरूरत है।
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