आजकल सबसे ज्यादा चर्चा में है उत्तर प्रदेश का कृषि भूमि अधिग्रहण विवाद। इस से विवाद में प्रभावित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले गौतमबुद्धनगर और अलीगढ़ में हुए एक जनमत सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि 48 प्रतिशत किसान अपनी जमीन बेचने के इच्छुक हैं। वे खेती-बाड़ी छोड़ कोई भी और व्यवसाय करना चाहते हैं, उन्हें बस इंतजार है अच्छे दाम देने वाले खरीदार का। इस सर्वेक्षण से पूर्व में हुए नेशनल साम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के सर्वेक्षण को और बल मिलता है, जिसमें 42 प्रतिशत से ज्यादा किसानों ने बेहतर विकल्प मिलने पर खेती-बाड़ी छोडऩे की इच्छा जाहिर की थी। इसका प्रमाण यह भी है कि देश की आय में कृषि का हिस्सा घटकर 14.5 प्रतिशत से भी कम हो गया है। एनएसएसओ के अनुसार खेती से जुड़े एक परिवार की मासिक आय मात्र 2400 रूपए है, ऐसे में यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि इतनी कम आदमनी के बदले किसान अपनी जमीन सुरक्षित रखेंगे।
महज यही एक कारण नहीं है कि किसानों खेतों से दूर हो रहा है। एक और शक्ति भी है जो इस कार्य में किसानों की इच्छा-अनिच्छा के बावजूद इसे बढ़ावा दे रही है। बिल्डर-उद्योगपतियों-राजनेताओं और भूमाफियाओं का जो गठजोड़ हमेशा जमीन हथियाने के अवसरों की तलाश में रहता है। दूसरे रीयल इस्टेट कंपनियां और उनके लाखों दलाल अधिकतम सम्भव भूमि हथियाने के प्रबंध में जुटे हुए हैं। अब उन्हें तीसरे सहयोगी के रूप में अर्थशास्त्री भी मिल गए हैं, जो ग्रामीण आबादी को शहरी इलाकों में स्थानान्तरित करने पर जोर दे रहे हैं। उनका तर्क है कि भूमि लाभ कमाने वाली एक आर्थिक सम्पत्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से वह असक्षम लोगों के हाथ में है। उनके आर्थिक विकास विश्लेषन का सार यह है कि किसानों के पास जो थोड़ी-बहुत जमीन बची है, उन्हें उससे भी वंचित कर दिया जाए। हमारी सरकारें भी उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर इस षडय़ंत्र में शामिल हैं, जो कहती हैं भूमि का अधिग्रहण अपरिहार्य और अवश्यम्भावी है, क्योंकि आर्थिक विकास के लिए भूमि की जरूरत है। इस सारी अव्यवस्था के बीच एक नया भूमि अधिग्रहण विधेयक लाया जा रहा है। जिसमें शायद पुनर्वास से सम्बंधित उपयुक्त और उन्नतिशील प्रावधानों का समावेश होगा, हो सकता है वह किसानों की चिन्ताओं को दूर करने में कामयाब हो। आर्थिक क्षतिपूर्ति का पैकेज क्या हो, कैसा हो, इसे लेकर आन्तरिक रूप से विचार-मंथन का दौर शुरू हो गया है।
कुछ बातें हैं जिन पर चर्चा किए बिना प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक हमें समझ ही नहीं आएगा। जैसे (1)अच्छी उपजाऊ जमीन, जिसे गैर कृषि उद्देश्यों के लिए परिवर्तित करने से पूर्व इस बात का कोई ध्यान ही नहीं रखा गया कि इसका परिणाम क्या होगा? (2)आजतक कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया गया जिससे यह पता लगे कि उद्योगों के लिए कितनी कृषि भूमि की जरूरत है और अब तक कितनी भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है। (3)देश में कुकरमुत्तों की तरह उगी छोटी-छोटी कॉलोनियों का जिक्र छोड़ भी दें तो उत्तर प्रदेश में प्रस्तावित यमुना एक्सप्रेस वे के तहत 44 हजार हेक्टेयर उपजाऊ कृषि भूमि टाउनशिप, औद्योगिक समूहों, गोल्फ कोर्सेज आदि के लिए अधिग्रहीत की जा रही हैं के बारे में क्या कहेंगे? (4) इस जैसी कितनी योजनाएं हमारी राज्य सरकारों के दिमाग में पनप रहीं है। (5)किसी विशेष उद्देश्य की खातिर कितनी जमीन की जरूरत है। जैसे एक विश्वविद्यालय, स्कूल या निजी हस्पताल स्थापित करने के लिए कितने हजार एकड़ भूमि की जरूरत होगी? यहां सवाल यह नहीं है कि कोई कितनी भी भूमि खरीद सकता है। सवाल यह है कि वह कितनी भूमि खरीद सकने में समर्थ हैं? ऐसा नहीं है कि किसान इस मामले में भोला-भाला है, वह भी बेहतर दाम मिलने पर अपनी भूमि को दोनों हाथों से बेचने के इच्छुक दिखाई देता हैं। उसका तर्क है कि अब जमीन से उसे परिवार पालने लायक आमदनी नहीं होती।
इस विवाद का एक संभावित हल यह हो सकता है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक से ज्यादा हमें किसान आय आयोग का गठन करने पर जोर देना चाहिए। यह आयोग प्रत्यक्ष आय तंत्र के जरिए किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में काम करे जिससे खेती को आगे बढऩे के लिए पीछे से वित्तीय समर्थन मिले और किसान बंजर जमीनों को खेती योग्य भूमि में विकसित कर सके। अमरीका में किसानों को अपनी भूमि के संरक्षण और विकास के लिए हर साल कुछ राशि का भुगतान किया जाता है। जिसके दो फायदे होते हैं। पहला खेती बची रहती है और दूसरा खाद्य सुरक्षा मामले में देश आत्मनिर्भर रहता है। हमें याद रखना होगा कि किसी भी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए खाद्य सुरक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक दूसरा उपाय यह भी है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आवास नीति एकरूपता लानी होगी, जैसे कालोनियों श आवासिय भवनों को लम्बे-चौड़े भूखण्डों में पसरने देने की बजाय बहुमंजिला भवनों को प्रोत्साहन देना हो सकता है। और तीसरा यह कि ग्रामीण क्षेत्र की अर्धशिक्षित भीड़ जो गांव में रहना नहीं चाहती और शहर में जिनके लिए मनचाहा काम नहीं है , के लिए गावं में मजदूरी के अतिरिक्त काम के अवसर पैदा किए जाएं, न उन्हें मुफ्त में रोटियां तोडऩे की आदत डाली जाए।
महज यही एक कारण नहीं है कि किसानों खेतों से दूर हो रहा है। एक और शक्ति भी है जो इस कार्य में किसानों की इच्छा-अनिच्छा के बावजूद इसे बढ़ावा दे रही है। बिल्डर-उद्योगपतियों-राजनेताओं और भूमाफियाओं का जो गठजोड़ हमेशा जमीन हथियाने के अवसरों की तलाश में रहता है। दूसरे रीयल इस्टेट कंपनियां और उनके लाखों दलाल अधिकतम सम्भव भूमि हथियाने के प्रबंध में जुटे हुए हैं। अब उन्हें तीसरे सहयोगी के रूप में अर्थशास्त्री भी मिल गए हैं, जो ग्रामीण आबादी को शहरी इलाकों में स्थानान्तरित करने पर जोर दे रहे हैं। उनका तर्क है कि भूमि लाभ कमाने वाली एक आर्थिक सम्पत्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से वह असक्षम लोगों के हाथ में है। उनके आर्थिक विकास विश्लेषन का सार यह है कि किसानों के पास जो थोड़ी-बहुत जमीन बची है, उन्हें उससे भी वंचित कर दिया जाए। हमारी सरकारें भी उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर इस षडय़ंत्र में शामिल हैं, जो कहती हैं भूमि का अधिग्रहण अपरिहार्य और अवश्यम्भावी है, क्योंकि आर्थिक विकास के लिए भूमि की जरूरत है। इस सारी अव्यवस्था के बीच एक नया भूमि अधिग्रहण विधेयक लाया जा रहा है। जिसमें शायद पुनर्वास से सम्बंधित उपयुक्त और उन्नतिशील प्रावधानों का समावेश होगा, हो सकता है वह किसानों की चिन्ताओं को दूर करने में कामयाब हो। आर्थिक क्षतिपूर्ति का पैकेज क्या हो, कैसा हो, इसे लेकर आन्तरिक रूप से विचार-मंथन का दौर शुरू हो गया है।
कुछ बातें हैं जिन पर चर्चा किए बिना प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक हमें समझ ही नहीं आएगा। जैसे (1)अच्छी उपजाऊ जमीन, जिसे गैर कृषि उद्देश्यों के लिए परिवर्तित करने से पूर्व इस बात का कोई ध्यान ही नहीं रखा गया कि इसका परिणाम क्या होगा? (2)आजतक कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया गया जिससे यह पता लगे कि उद्योगों के लिए कितनी कृषि भूमि की जरूरत है और अब तक कितनी भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है। (3)देश में कुकरमुत्तों की तरह उगी छोटी-छोटी कॉलोनियों का जिक्र छोड़ भी दें तो उत्तर प्रदेश में प्रस्तावित यमुना एक्सप्रेस वे के तहत 44 हजार हेक्टेयर उपजाऊ कृषि भूमि टाउनशिप, औद्योगिक समूहों, गोल्फ कोर्सेज आदि के लिए अधिग्रहीत की जा रही हैं के बारे में क्या कहेंगे? (4) इस जैसी कितनी योजनाएं हमारी राज्य सरकारों के दिमाग में पनप रहीं है। (5)किसी विशेष उद्देश्य की खातिर कितनी जमीन की जरूरत है। जैसे एक विश्वविद्यालय, स्कूल या निजी हस्पताल स्थापित करने के लिए कितने हजार एकड़ भूमि की जरूरत होगी? यहां सवाल यह नहीं है कि कोई कितनी भी भूमि खरीद सकता है। सवाल यह है कि वह कितनी भूमि खरीद सकने में समर्थ हैं? ऐसा नहीं है कि किसान इस मामले में भोला-भाला है, वह भी बेहतर दाम मिलने पर अपनी भूमि को दोनों हाथों से बेचने के इच्छुक दिखाई देता हैं। उसका तर्क है कि अब जमीन से उसे परिवार पालने लायक आमदनी नहीं होती।
इस विवाद का एक संभावित हल यह हो सकता है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक से ज्यादा हमें किसान आय आयोग का गठन करने पर जोर देना चाहिए। यह आयोग प्रत्यक्ष आय तंत्र के जरिए किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में काम करे जिससे खेती को आगे बढऩे के लिए पीछे से वित्तीय समर्थन मिले और किसान बंजर जमीनों को खेती योग्य भूमि में विकसित कर सके। अमरीका में किसानों को अपनी भूमि के संरक्षण और विकास के लिए हर साल कुछ राशि का भुगतान किया जाता है। जिसके दो फायदे होते हैं। पहला खेती बची रहती है और दूसरा खाद्य सुरक्षा मामले में देश आत्मनिर्भर रहता है। हमें याद रखना होगा कि किसी भी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए खाद्य सुरक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक दूसरा उपाय यह भी है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आवास नीति एकरूपता लानी होगी, जैसे कालोनियों श आवासिय भवनों को लम्बे-चौड़े भूखण्डों में पसरने देने की बजाय बहुमंजिला भवनों को प्रोत्साहन देना हो सकता है। और तीसरा यह कि ग्रामीण क्षेत्र की अर्धशिक्षित भीड़ जो गांव में रहना नहीं चाहती और शहर में जिनके लिए मनचाहा काम नहीं है , के लिए गावं में मजदूरी के अतिरिक्त काम के अवसर पैदा किए जाएं, न उन्हें मुफ्त में रोटियां तोडऩे की आदत डाली जाए।
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