Wednesday, October 19, 2011

संविदा खेती या कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग


शुरू-शुरू में संविदा खेती तथा कारपोरेट कृषि केवल वृक्षारोपण कार्यक्रम और बेकार पड़ी जमीन के विकास तक ही सीमित थी, लेकिन सन 2000 में जारी पहली नई कृषि नीति की घोषणा के बाद बुनियादी क्षेत्र में भी इसे अमल में लाया जा रहा है। कृषि क्षेत्र से जुड़ी निजी कंपनियों के सामने पैदावार की गुणवत्ता बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि इसका निर्धारण खरीदार करते हैं। इसके अलावा दूसरा महत्त्वपूर्ण मामला है समय पर माल की आपूर्ति करना।
इस ओर पहला कदम पंजाब ने बढ़ाया जब पेप्सी फूड्स लि. ने वहां बाईस करोड़ रूपयों की लागत से टमाटर से विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए कारखाना लगाया। चूंकि टमाटर पूरी मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहे थे इसलिए पेप्सीको ने अनुबंध-खेती की शुरूआत की। पेप्सीको ने इस सिलसिले में कई महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए अनुबंध कृषि को नए आयाम दिए। इस कंपनी ने पंजाब के संगरूर जिले में संसाधनों पर आधारित अनुबंध के तहत कृषि समझौते किए तथा किसानों को बाजार मुहैया कराने के साथ पैदावार में सुधार के उपाय भी सुझाए, जिससे किसानों को अच्छे खरीदार भी मिले और उन्हें अपनी पैदावार का उचित मूल्य भी मिलने लगा। बाद में कुछ और कम्पनियों ने बासमती चावल, मिर्च, मूंगफली, धनिया और आलू भी इसी आधार पर देश के विभिन्न प्रदेशों में उगाने आरम्भ किए। इसी तरह टै्रक्टर निर्माण करने वाली प्रमुख कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने भारतीय किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए शुभ-लाभ सेवा आरम्भ की। जिसमें सामुदायिक कृषि को बढ़ावा दिया गया तथा एक ही केन्द्र पर किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप जरूरी सभी सुविधाएं भी उपलब्ध करवाई गईं।
हमारे देश में खेती हमेशा जीविका चलाने और जीवन का एक हिस्सा जरूर थी, पर कभी वस्तु, बाजार या व्यवसाय नहीं थी। आज की कंपनियों की पहली शर्त खेती को वस्तु बनाकर व्यवसाय के लिए बाजार तक पहुंचाना है। इसलिए आज की संविदा खेती का मूल आधार ही लाभ है। इसके लिए हमारी सरकार ने डब्लू.टी.ओ. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय दवाब में नई-नई कृषि नीतियों की घोषणा की है। प्रचारित किया जा रहा है कि अनुबंध या ठेका-खेती अपनाने से ही भारतीय गांव और किसान सुखी होंगे। भारत की नई राष्ट्रीय कृषि नीति के मसौदे में फसलों के विभिन्नीकरण (डायवर्सीफिकेशन) की वकालत की गई है। इसके तहत किसान खाद्यान्न फसलों को पैदा करने के स्थान पर नकद फसलों का उत्पादन करेंगे तथा उनके उत्पादित माल का निर्यात होगा। लिहाजा विदेशी मुद्रा में इजाफा होगा, साथ ही किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। फसल विभिन्नीकरण के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत होगी जिसकी आपूर्ति निजी क्षेत्र से की जाएगी, इसलिए बड़ी-बड़ी कंपनियां और बैंक तथा विशेषज्ञों के गठजोड़ संविदा खेती के सहायक बनेंगे।
सिक्के के इस उजले पहलू के बाद अब एक नजर सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं, जिसके अनुसार संविदा खेती में किसानों के साथ एक अनुबंध किया जाएगा जिसके तहत पहले से तय कीमतों पर उन्हें अपनी फसलें कंपनियों को बेचनी पड़ेगी। इस अनुबंध में एक शर्त गुणवत्ता की भी होती है, जिसका निर्धारण खरीदने वाली कम्पनी ही करती है। बहुत बार कम्पनी उपज को गुणवत्ता के अनुरूप नहीं है कह कर नहीं भी खरीदती या बहुत कम भाव में खरीदने का प्रयास करती है। इसमें दिक्कत यह है कि संविदा खेती का अभी कोई नया कानून नहीं बनाया गया है, जिससे किसान व अन्य पक्षों को अदालत से न्याय प्राप्त करने में परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इन मुकद्दमों का परिणाम क्या होगा जिनमें एक तरफ संसाधन विहीन गरीब किसान होगें और दूसरी तरफ धन/सुविधा संपन्न कंपनियां। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के चाल्र्स ईटन और एंडयू डब्लू शेफर्ड ने 'कांट्रेक्ट फार्मिंग पार्टनरशिप्स फॉर ग्रोथ नामक पुस्तक में विस्तार से समझाया है कि किसानों और ठेके पर खेती करने की इच्छुक कंपनियों के बीच हुए करार के अनुसार किसान अपनी जमीन उन्हें बेच देंगे या लगान की तय दर पर दे देंगे, फिर चाहें तो वे किसान कंपनियों के इन खेतों पर मजदूर के रूप में काम करें। इस प्रकार कृषि पारिवारिक न होकर पूरी तरह पूंजीवादी हो जाएगी। पैदावार संबंधी सारे फैसले जैसे- क्या उगाएं? कैसे उगाएं? और किनके लिए उगाएं? आदि कंपनियां तय करेंगी। जाहिर है इन सब निर्णयों का आधार मुनाफा बढ़ाना ही होगा।
आदि काल में भी इस तरह की खेती की शर्तें और तौर-तरीके शोषणकारी और अमानवीय होते थे और भविष्य में भी लाभ कमाने के लिए शायद वही तरीके अपनाए जाएं, बस फर्क इतना होगा कि पहले शोषण स्थानीय और स्वदेशी जमींदार करते थे अब यह काम स्थानीय लोगों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियां करवाएंगी। संविदा खेती को बढ़ावा देने के लिये कृषि सुधार प्रस्ताव 2004 में केन्द्रीय कृषि मंत्री के नेतृत्व में सभी प्रदेशों के कृषि मंत्रियों के बीच हुई बैठक के नतीजे के अनुसार कृषि सुधार प्रस्ताव में तीन प्रमुख बातें हैं, पहला, कार्य मंडियों का निजीकरण, दूसरा, अनुबंध खेती या लीज खेती में मौजूद भूमि हदबंदी कानून को खत्म करना और तीसरा, भूमि साझा करने वाली कंपनियों का उदय। इस कानून से भारत में लगभग पचास करोड़ से ज्यादा छोटे किसानों यानी 1 से 5 एकड़ खेती वाले किसानों को अपने पुश्तैनी धन्धे से बेदखल होना पड़ेगा।

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