Thursday, December 22, 2011

राजस्थान हॉर्टीकल्चर एंड नर्सरी सोसायटी 'राजहंस'


राजस्थान में उद्यानिकी विकास को गति प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ष 1989-90 में उद्यानिकी विभाग की स्थापना की गयी। किन्तु सीमित बजट आंवटन एंव सरकारी नियमों की सीमाओं के कारण राज्य में उद्यानिकी का समूचित विकास नहीं हो सका। उद्यानिकी महत्वपूर्ण आदान अच्छी पौध का है। राज्य में 27 राजकीय नर्सरियां है, जिनका कुल क्षेत्रफल 325.44 हेक्टेअर है। राजस्थान में परम्परागत खेती अब व्यवसायिक खेती के रूप में परिवर्तित हो रही है। इसी के परिणाम स्वरूप राज्य में बेर, संतरा, किन्नू, आंवला, आदि फलों तथा जीरा, मेथी, धनियाँ, आदि मसालों के अतिरिक्त फूलों, सब्जियों तथा औषधिय फसलों ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है। राज्य में अब कृषकों का ध्यान कम पानी तथा कम लागत से अधिक मुनाफा देने वाली फसलें लेने में लगा है।
राजकीय नर्सरियों पर पर्याप्त बजट के अभाव में पौध तैयार करने में कठिनाई आ रही थी। तथा राजकीय नर्सरियों पर पौधे तैयार करनें में अधिक व्यय हो रहा था। ग्यारवी पंचवर्षीय योजना में फलों के अन्तर्गत 10 हजार हेक्टेअर क्षेत्र में प्रतिवर्ष नये बगीचों के रोपण की योजना रखी गयी थी, जिसके लिये प्रति वर्ष राज्य में औसतन 30 लाख पौधों की व्यवस्था करनी होती है, जबकि राजकीय नर्सरियों पर उपरोक्त कमियों से केवल मात्र 10 से 12 लाख पौधे ही तैयार हो रहे थे। राज्य के कृषकों की मांग की पुर्ती करने के लिये राज्य के बाहर से भी पौधे खरीदने करने पडते हैं। जिनमें 50 प्रतिशत से भी अधिक मृत्यु दर रहती है। तथा राज्य में इनकी अनुकुलनता कम होने से क्षेत्र विकास में आशातीत सफलता नहीं मिल पा रही थी। बाहर से क्रय किये गये पौधे अपेक्षाकृत महंगे भी होते थे।
राज्य में फल, मसालों, फूल, सब्जियाँ तथा औषधिय फसलों का क्षेत्रफल 168000 हेक्टेअर क्षेत्रफल है। जो कि कुल कृषि योग्य क्षेत्रफल 206.61 लाख हेक्टेअर का मात्र 4.00 प्रतिशत है जो कि कम से कम 10 प्रतिशत होना चाहिए। उक्त फसलों के लिये भी उन्नत बीजों व पौध रोपण सामग्री का अभाव रहता है। सब्जी, मसाले आदि फसलों हेतु औसतन एक लाख कंवटल बीजों की आवश्यकता होती है। जबकि राज्य में 5000 किवटल बीज ही उपलब्ध हो पाता हैं। राजकीय नर्सरियों पर खाली जगह रहने के बावजूद भी इन बीज का उत्पादन बजट अभाव व वर्तमान सामान्य वित्तीय एंव लेखा नियमों के अन्तर्गत नहीं लिया जा सकता है। यह कार्य नर्सरियों को स्वायत्तता प्रदान करने के बगैर नहीं किये जा सकते थे। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि राजकीय नर्सरियों के व्यवसायिक रूप से पौधे उत्पादन हेतु स्वायत्तता प्रदान की जाए इसके लिये इन नर्सरियों को राजस्थान हॉर्टीकल्चर एण्ड नर्सरी सोसायटी (राजहंस) के रूप से कार्य करने हेतु स्वायत्तता प्रदान की गई है।
उद्देश्य
1. राज्य में उद्यानिकी विकास से संबंधित समस्त विषयों पर कार्य करना।
2. राज्य में उन्नत किस्मों के गुणवत्ता युक्त स्वस्थ बीजू, ग्राफ्टेड, बडेड एंव अन्य प्रकार से तैयार किये जाने वाले पौधे को कृषकों की मांग आपूर्ति हेतु उद्यानिकी किस्मों के अनुरूप तैयार करवाना।
3. राज्य में उद्यान विभाग के अधीन समस्त पौधशालाओं को सुदृढ करना, पौध उत्पादन एंव अन्य उद्यानिकी आदानों के कार्य में आत्मनिर्भर बनाकर उनकी भौतिक व वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु व्यवस्था एंव संचालन।
4. जैव तकनीकि आधार पर पौधे उत्पादन हेतु नवीन पौधशालाओं की स्थापना एंव विकास तथा जैविक खेती को बढावा देने का कार्य करना।
5. मान्ट उद्यानों का विकास, रखरखाव तथा प्राचीन मान्ट उद्यानों में प्रतातियों का पुनरुद्धार एंव नवीन प्रजातियों के रोपण हेतु प्रोत्साहन।
6. अनुबन्ध पद्धति पर निजी क्षेत्र के कृषकों के यहां पर विभिन्न प्रकार के पौधे उत्पादन कर राज्य की मांग राज्य से पूर्ति करना।
7. राज्य में विभिन्न स्तर की आधुनिक एंव उच्च तकनीकि पर आधारित व्यापारिक स्तर पर पौधे तैयार करने वाली पौधशालाओं की स्थापना करवाना तथा उन्हें पंजिकृत करना।
8. कृषकों, अन्य विभागों, स्वयंसेवी संस्थाओं, बोर्ड निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम आदि को सलाह- मशविरा देना एंव अन्य प्रचार-प्रसार माध्यम से व्यापारिक उद्यानिकी तकनीकी को कृषकों, अधिकारियों व जन सामान्य को प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, प्रदर्शन, दक्ष विशेषज्ञों एंव श्रमिकों की सेवायें आदि देकर रोजगार के अवसर बढाना।
9. उद्यान उद्योग विकास हेतु फसलोत्तर प्रबंधन, परिरक्षण प्रयोगशालाओं, पैकिंग, ग्रेडिंग, वैल्यू एडिशन यूनिट स्थापना आदि कार्यक्रम आयोजित करना।
10. राज्य में एंव राज्य के बाहर से गुणवत्ता के पौधे व अन्य आवश्यक सामग्री क्रय कर कृषकों, जन सामान्य, विभिन्न संस्थाओं/विभागों आदि को आपूर्ति करना तथा राज्य में उपलब्ध उत्पाद एंव सेवाओं को अधिक मूल्य दिलाने हेतु कार्य करना।
11. राज्य में समस्त उद्यानिकी फसलों जैसे फल, सब्जी, मसाला, औषधीय एंव सुगंधित फसलों फूल सजावटी आदि का पौध उत्पादन सामग्री उत्पादन एंव अन्य प्रचार प्रसार के कार्यक्रम लेकर विभिन्न विभागों व कृषकों/ संस्थाओं आदि को उपलब्ध कराना।
12. विभिन्न संस्थाओं/निजी क्षेत्र से पौधे, मशीनरी, परिरक्षण पदार्थ, समस्त आदान (बीज, खाद, रसायन आदि), प्लास्टिकल्चर आदि को क्रय करना एंव इनको अन्य को उपलब्ध कराने हेतु एकीकृत संस्था के रूप में कार्य व आपूर्ति करना।

विवादास्पद बीज अनुसंधान करार रद्द


राजस्थान कृषि विभाग ने 27 जुलाई 2010 में बीज अनुसंधान के क्षेत्र में अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो सहित सात कंपनियों के साथ एक सहमती-पत्र (एमओयू) हस्ताक्षरित किया था, जिसके अनुसार बीजों पर अनुसंधान करने के लिए प्रदेश के दोनों कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विभाग और राज्य बीज निगम के पास मौजूद सुविधाओं और स्टाफ का पूरा उपयोग करने की छूट इन कंपनियों को देने का प्रावधान था। कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक भी इन कंपनियों की देखरेख में अनुसंधान करते लेकिन सरकारी सुविधाओं और स्टाफ का पूरा उपयोग करने के बाद विकसित किए गए बीजों पर पेटेंट अधिकार इन बीज कंपनियों का होता। रिसर्च सीड को इन कंपनियां को अपनी ही दरों पर बेचने की इजाजत भी थी। अगर यह समझौता लागू हो जाता तो बीज के मामले में किसान पूरी तरह इन कंपनियों पर निर्भर हो जाता। सरकार के पूरे संसाधन लगने के बावजूद बीज विपणन और अनुसंधान में निजी कंपनियों का एकाधिकार हो जाता।
इस तरह के अलाभकारी समझौतों का किसान और सामाजिक संगठनों ने भारी विरोध किया। मामला यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी तक पहुंचने के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय ने इसकी जांच करवाई। विवाद के बाद कृषि विभाग ने दिसंबर 2010 में इन विवादास्पद करारों के अमल पर रोक लगा दी और इनकी समीक्षा के लिए विशेषज्ञों की एक समिति भी बना दी।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर)द्वारा हाल ही में कृषि विभाग को लिखे एक पत्र में इन समझौतों पर सवाल उठाए। पत्र के अनुसार बीज अनुसंधान में निजी कंपनियों के साथ सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप- पीपीपी मॉडल) में भागीदारी के संबंध में आईसीएआर एक नीति बना रहा है जिसके घोषित होने तक कोई भी राज्य इस तरह के करार नहीं कर सकता। आईसीएआर के इस पत्र के बाद कृषि विभाग नें आनन-फानन इन विवादित करारों को रद्द करने का फैसला कर लिया है। आईसीएआर से मंजूरी के बिना किए इन समझौतों को कृषि विभाग के अफसरों ने रद्द करने के फैसले की पुष्टि हो चुकी है, केवल संबंधित कंपनियों को इसे रद्द करने की सूचना देना और आदेश जारी करने की औपचारिकता ही बाकी रह गई है।

यदि बाग ठेके पर देना हो


बाग मालिक किसान अकसर अपनी फल वाली फसलों को एकमुश्त बेचते हैं, इसे आम बोलचाल की भाषा में बाग ठेके पर देना कहते हैं। जो किसान अपने बाग ठेके पर देते हैं उनके लिए सबसे पहली सलाह तो यह है कि जो आदमी आपका बाग ठेके पर लेना चाहता है, उसके के बारे में पूरी जानकारी जरूर इक_ा करें। जैसे कि
(1) वह कहां का रहने वाला है?
(2) उसकी आर्थिक स्थिति कैसी है?
(3) उसका पूर्व अनुभव क्या है?
(4) पिछले बाग मालिक के साथ व्यवहार कैसा था?
(5) लेन-देन में उसका व्यवहार आदि।
बाग ठेके पर लेने वाले ठेकेदार और बाग मालिक किसान के बीच तय होने वाली सभी शर्तों एवं दशाओं को पहले मौखिक रूप से तैयार करें चूंकि मौखिक अनुबंध में हमेशा विवाद होने की संभावना बनी रहती है। अनावश्क विवादों से बचने के लिए सभी शर्तों पर सहमति होने के बाद उसे दो प्रतियों में लिख कर दोनों पक्ष उस पर अपनी सहमति के हस्ताक्षर जरूर करें, ताकि छोटी-मोटी बात पर भविष्य में विवाद न हो, अथवा विवाद की हालत में समझौते की शर्तों के अनुसार पंचाट करने में आसानी हो। यह लिखा-पढ़ी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ज्यादातर फलों की फसलें वर्ष में एक ही बार आती हैं और विवाद की सूरत में किसान को बड़ा आर्थिक नुकसान हो सकता है।
संभावित लिखित समझौते में निम्न बातों का आवश्यक रूप से उल्लेख करें-
* इसमें बाग मालिक का पूर्ण विवरण, बाग का क्षेत्रफल एवं पौधों की संख्या आदि।
* तय रकम का भुगतान एक मुश्त होगा अथवा किस्तों में होगा, यदि किस्तों में होगा तो कितने अंतराल में होगा।
* यदि भुगतान के संबंध में यदि किसी तीसरे पक्ष की जिम्मेवारी है तो उसकी हस्ताक्षयुक्त सहमती।
* सारा भुगतान फलों को तोडऩे से पूर्व ही मिल जाने की सुनिश्चितता, अन्यथा नुकसान होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
* फलों के तुड़ाई पैकिंग एवं परिवहन का खर्चा किसका होगा।
* फलों की तुड़ाई किस अवधि में किस प्रकार की जाएगी व बा$ग की सुरक्षा की जिम्मेवारी किसकी होगी आदि। (आम चलन में बाग की सुरक्षा की जिम्मेदारी ठेकेदारी की होती है।)
* आगामी वर्ष की फसल को सुनिश्चित करने के लिए समस्त फलों की तुड़ाई की आखिरी तारीख।
* बाग में कृषि संबंधी अन्य कार्य किसके द्वारा किए जाएंगे। (चलन यह है कि यह कार्य बाग मालिक करता है।)
* फलों की कितनी मात्रा बाग मालिक व्यक्तिगत उपभोग के लिए मिलेगी आदी।


राष्ट्रीय बागबानी मिशन

भारत सरकार ने राष्ट्रीय बागबानी मिशन की शुरुआत दसवीं योजना में वर्ष 2005-06 के दौरान केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के रूप में की जिसका उद्देश्य बागबानी क्षेत्र में वृद्घि के साथ उत्पादन में वृद्घि करना है। दसवीं योजना के दौरान राज्य मिशन को 100 प्रतिशत वित्त सहायता दी जा रही थी और 11वीं योजना के दौरान भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता 85 प्रतिशत तथा 15 प्रतिशत योगदान राज्य सरकारों का है। उत्तर पूर्व के आठ राज्यों को छोड़कर (इन राज्यों को 'उत्तर-पूर्व उद्यान विज्ञान के एकीकृत विकास हेतु चलाए जा रहे तकनीकी मिशन के तहत रखा गया है।) अन्य सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को इस मिशन के अंतर्गत लाया गया। इसके तहत नारियल को छोड़कर सभी फसलें सहायता पाने की पात्र हैं, नारियल के लिए नारियल विकास बोर्ड अलग से कार्य कर रहा है।
राज्य में कहां मिलती है सहायता?
राष्ट्रीय बागबानी मिशन के तहत सहायता राज्य बा$गबानी मिशन द्वारा दी जाती है तथा इसके लिए मिशन निदेशक जिम्मेदार होते हैं। जिला स्तर पर कार्यक्रम को कार्यान्वित करने की जिम्मेदारी जिला स्तरीय समिति(डी एल सी) की है, जिसके सदस्य सचिव के रूप में जिला बागबानी अधिकारी, काम करते हैं। सहायता प्राप्त करने के लिए इनसे सम्पर्क किया जा सकता है। यह योजना देश के 18 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के 367 जिलों में चलाई जा रही है।
क्या है सहायता?
राष्ट्रीय बागबानी मिशन के तहत अनेक घटकों के लिए सहायता दी जाती है। इसमें विशेष रूप से निजी क्षेत्र शामिल है। इसमें पौधशालाओं, प्रयोगशालाओं और क्लीनिक की स्थापना, शस्योत्तर प्रबंधन (पोस्ट हार्वेस्ट मैनेजमेंट) तथा विपणन पर बुनियादी ढांचे का विकास शामिल है जो क्रेडिट लिंक बैक एंडेड सब्सिडी के रूप में दी जाती है। इसमें राष्ट्रीयकृत बैंकों/वित्तीय संगठनों से लाभार्थी को ऋण प्राप्त करना शामिल है। इन राष्ट्रीयकृत बैंकों / वित्तीय संगठनों में नाबार्ड, आई.डी.बी.आई, सीबी, आइसीआइसीआई, राज्य वित्त निगम, राज्य औद्योगिक विकास निगम, एन.बी.एफ.सी, एन.ई.जी.एफ.आई, राष्ट्रीय एस.सी/एसटी/अल्पसंख्यक/ पिछड़े वर्ग वित्तीय विकास निगम, राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश के अन्य ऋण देने के लिए निर्धारित संस्थान, व्यावसायिक  तथा कॉपरेटिव बैंक शामिल हैं। सामानरूपी घटकों जैसे भंडारण, पैक हाउस आदि के लिए सहायता सिर्फ एक स्रोत से प्राप्त की जा सकती है। एनएचएम योजना के अंतर्गत, 24 लाख रुपए तक की प्राथमिक/मोबाइल खाद्य प्रसंस्करण इकाई लगाने के लिए सहयोग दिया जाता है। इससे बड़ी इकाइयों के लिए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय द्वारा सहयोग किया जाता है।
इस मिशन के तहत सिंचाई के लिए जल स्रोतों के सृजन के लिए सहायता उपलब्ध है। यह सहायता सिर्फ समुदाय आधारित परियोजनाओं/ पंचायती राज संस्थाओं/ किसान वर्गों को दी जाती है। विशिष्ट क्लस्टर (एक क्लस्टर में बागबानी फसल के तहत समग्र क्षेत्र 100 हेक्टेअर से ज्यादा नहीं होता)में फसल के समग्र विकास के लिए व्यापक अवधारणा पर काम किया जाता है, अत: किसानों को दो फसलों की बजाय मुख्य फसल के लिए सहायता दी जाती है। सन 2010-11 से, एकीकृत मशरूम इकाई के लिए अंडे, खाद उत्पादन और प्रशिक्षण, अंडे बनाने की इकाई, तथा खाद बनाने की इकाई जैसे कार्यों के लिए सहयोग उपलब्ध है। मधुमक्खी पालन गतिविधियों जैसे बी ब्रीड्स द्वारा मधुमक्खी कालोनियों का उत्पादन, मधुमक्खी कालोनियों का वितरण, छत्ते में शहद एकत्र करना और मधुमक्खी को पालने के औजार के लिए भी सहयोग उपलब्ध है।

फाइनैंशल लिटॅरॅसी एंड क्रेडिट काउंसॅलिंग

वर्तमान में देश के 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 640 जिले हैं। इन सभी जिलों में रिजर्व बैंक के एक आदेशानुसार वहां के लीड बैंकों द्वारा विदेशों की तर्ज पर फाइनैंशल लिटॅरॅसी एंड क्रेडिट काउन्सॅलिंग(एफएलसीसी) अथवा वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श केन्द्र खोले जाने हैं। आइए बांचते हैं कि इन केंद्रों की जनम-पतरी और जानते हैं कि इनकी जरूरत क्यों पड़ी तथा इनके उद्देश्य एवं कार्य क्या हैं?
आरम्भ
रिजर्व बैंक द्वारा नियुक्त कृषि ऋणों की प्रक्रियाओं की जांच हेतु कार्यसमूह के अध्यक्ष सी. पी. स्वर्णकार ने अपनी अप्रैल 2007 की रिपोर्ट में यह अनुशंसा की थी कि ऋण एवं तकनीकी परामर्श हेतु एकल रूप से अथवा सामूहिक संसाधनों के साथ बैंकों को परामर्श केन्द्र खोलने हेतु सक्रियतापूर्वक विचार करना चाहिए। इससे किसानों में अपने अधिकार एवं दायित्व के प्रति बहुत हद तक जागरूकता आएगी। बैंक शाखाओं को जितनी अधिक हो सके उतनी जानकारियां किसानों के लिए उपलब्ध करानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, आपदाग्रस्त किसानों की सहायता हेतु सुझाव के लिए रिजर्व बैंक द्वारा गठित एक अन्य कार्य समूह के अध्यक्ष एस. एस. जोल ने भी सुझाव दिया था कि ऋण की व्यवहार्यता को बढ़ाने के लिए वित्तीय एवं जीविका संबंधी परामर्श महत्वपूर्ण हैं। इन कार्यसमूहों के सुझावों पर आधारित तथा वर्ष 2007-08 के लिए वार्षिक नीति विवरण की घोषणा के रूप में रिजर्व बैंक ने सभी राज्यों में स्थित राज्य स्तरीय बैंक  समिति को जारी किए गए एक सर्कुलर द्वारा यह सलाह दी कि वे अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले राज्य अथवा केन्द्रशासित प्रदेश के सभी जिलों में वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श केन्द्र की स्थापना करें।
साख परामर्श- वैश्विक परिदृश्य
साख परामर्श जिसे युनाइटेड किंगडम में ऋण परामर्श अर्थात डेब्ट काउंसलिंग कहते हैं यह एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा ग्राहकों को ऐसे ऋणों से बचने के बारे में सलाह दी जाती है जिसे चुकाया नहीं जा सकता। साख परामर्श के अंतर्गत प्राय: ग्राहक के लिए ऋण प्रबन्धन योजना अर्थात डेट मैनेजमेंट प्लान बनाने हेतु ऋण लेने वाले व्यक्तियों के साथ वार्ता शामिल है। ऋणदाता के साथ ऋण चुकाने की योजना बनाकर ऋण लेने वाले व्यक्ति को ऋण चुकाने में मदद करता है। ऋण प्रबन्धन योजनाओं में ग्राहकों को भुगतानों अथवा ब्याज में दी जाने वाली छूट का निर्धारण करने हेतु साख परामर्शदाता ऋणदाताओं द्वारा दी गई शर्तों के हवाले से अपने ग्राहकों को उनकी समस्याओं का वास्तविक समाधान ढूंढने में मदद करता है और उन्हें ऋणों के संभव भुगतान के लिए राजी करता है। साख परामर्श को गोपनीय रखा जाता है।
पहली ज्ञात साख परामर्श एजेंसी की स्थापना वर्ष 1951 में, अमेरिका में की गई, जब साख देने वालों ने नैशनल फाउंडेशन फॉर क्रेडिट काउंसॅलिंग (एनएफसीसी) का गठन किया था। उनका उद्देश्य था वित्तीय शिक्षा को बढ़ावा देना तथा उपभोक्ताओं को दिवालिया होने से बचाना। वहीं वर्ष 1968 में हाउजिंग एंड अरबन डिवेलपमेंट अधिनियम के पास होने के बाद साख परामर्श को पहचान मिली। अमेरिका में ही वर्ष 1993 में असोसिएशन ऑफ इंडिपेंडेंट कंज्यूमर साख काउंसॅलिंग एजेंसीज की स्थापना तथा बैंकरप्सी एब्यूज प्रिवेंशन एंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट 2005 ने साख परामर्श को अमेरिका में दिवालियापन के लिए कंज्यूमर डेटर फाइलिंग के लिए जरूरी बना दिया। जल्द ही इस संकल्पना को अन्य देशों में भी चलाया जाने लगा, तथा पिछले कुछ वर्षों में बहुत सारे देशों ने साख परामर्श की दिशा में अहम कदम उठाए। वर्ष 1993 में ब्रिटेन में स्थापित कंज्यूमर साख काउंसलिंग सर्विस उपभोक्ताओं को बजट बनाने तथा धन के बेहतर प्रबंधन के लिए मदद करती है। साथ ही एक राष्ट्रीय ऋण रेखा भी है, जिसके जरिए बैंक का ग्राहक नि:शुल्क वित्तीय परामर्श प्राप्त कर सकता है। वर्ष 2000 में कनाडा में एक गैर-लाभ वाले परामर्श संगठन की स्थापना की गई। टम्र्ड क्रेडिट काउंसलिंग कनाडा का उद्देश्य अपने सभी नागरिकों के लिए गैर-लाभ वाले साख परामर्श की गुणवत्ता तथा उपलब्धता को बढ़ावा देना है। द बैंक नेगारा, मलेशिया ने क्रेडिट काउंसॅलिंग एंड डेट प्रबंधन एजेंसी की स्थापना की है, तथा वर्ष 2003 में सिंगापुर क्रेडिट काउंसॅलिंग की स्थापना हुई, जिसका लक्ष्य है वित्तीय रूप से मुसीबत में पड़े उपभोक्ताओं का मदद करना।
साख परामर्श की आवश्यकता
हाल के वर्षों में व्यावसायिक बैंकिंग क्षेत्र में खुदरा ऋणों का चलन काफी बढ़ गया है तथा खुदरा ऋण बैंकों का मुख्य व्यवसाय बन गया है। उपभोक्ता ऋणों, गृह ऋणों, क्रेडिट कार्ड तथा व्यक्तिगत ऋणों में तेजी से वृद्धि हुई है। वर्ष 2001 में शहरी एवं महानगरीय क्षेत्रों के अंतर्गत हाउजिंग, कंज्यूमर ड्यूरेबल्ज तथा व्यक्तिगत ऋणों (क्रेडिट कार्ड सहित) के अंतर्गत 87.1 लाख खाते थे जिनके तहत ऋण 42 हजार 700 करोड रूपए था, वर्ष 2006 में यह बढ़कर 255 लाख खाते तथा ऋण राशि कुल 2 लाख 58 हजार करोड़ रूपए हो गयी। यह वृद्धि अन्य क्षेत्रों की 23.4 प्रतिशत की तुलना में 43.3 प्रतिशत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर रही।
शहरी क्षेत्रों में बढ़ते हुए मध्यवर्ग और लोगों की बदलती जीवनशैली के कारण अधिक से अधिक लोग संपत्ति निर्माण के अतिरिक्त अपनी उपभोक्ता आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण लेने लगे हैं। बिना सही योजना के लिया गया ऋण और अचानक आई बीमारी, नौकरी छूट जाने जैसे कुछ आपात स्थितियों में उपलब्ध आय सीमा के अंतर्गत ऋण चुका पाना मुश्किल हो जाता है। व्यक्तिगत ऋणों के जबरदस्त विपणन एवं ऋण लेने वाले कमजोर वर्ग के हाथ में क्रेडिट कार्ड आने से ऋण ग्रस्तता एवं एनपीए (नॉन पर्फोमिंग असेट) में अच्छी-खासी वृद्धि हुई है। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में, खासकर वर्षा आधारित कृषि वाले क्षेत्रों में मानसून की अनियमितता और जोखिम कम करने की उचित नीतियों के अभाव में वर्षा आधारित कृषक वर्ग को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। बिना सोचे-समझे ऋण लेने के मामले में ग्रामीण क्षेत्र, शहरी क्षेत्र से एक कदम आगे ही है उसका मुख्य कारण शहरी एवं ग्रामीण जनसंख्या में साक्षरता स्तर में भारी अंतर होना भी है। वर्ष 2001 में देश भर की औसत साक्षरता दर केवल 65.4 प्रतिशत थी। किसानों पर किए गए परिस्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण (सिचुएशन असेसमेंट सर्वे) के अनुसार वर्ष 2003 में 893.3 लाख किसान परिवारों में से 434.2 लाख (48.6 प्रतिशत) किसान परिवार ऋण के बोझ तले दबे थे। औसत बकाया ऋण प्रति किसान परिवार 12,585 रु. था। राज्यवार विश्लेषण से स्पष्ट हुआ कि वर्ष 2003 में ऋणग्रस्तता की घटना ऐसे राज्यों में अधिक हुई जहां अधिक लागत वाली खेती की जाती थी अथवा जहां की कृषि विविधतापूर्ण थी। 2003 में किसान परिवारों के कुल ऋण की राशि 1.12 लाख करोड़ रु. थी; जिसमें से 65,000 करोड़ रु. संस्थागत स्रोतों से एवं 48,000 करोड़ रु. गैर-संस्थागत एजेंसियों से दिए गए थे। व्यक्तिगत महाजनों और सूद व्ययापारियों द्वारा 29,000 करोड़ रु. तथा मंडी में कारोबार करने वाले व्यापारियों द्वारा 6,000 करोड़ रु, दिए गए। गैर-संस्थागत स्रोतों से प्राप्त लगभग 18,000 करोड़ रु. के ऋण का एक बड़ा भाग ऐसे महाजनों द्वारा दिया गया था जिन्होंने 30 प्रतिशत से अधिक ब्याज दर रखी थी। जून 2004 के बाद से, यद्यपि कृषि क्षेत्र को बैंकिंग व्यवस्था से मिलने वाले ऋणों में अच्छी खासी वृद्धि हुई है, अनौपचारिक वित्त पौषण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आर. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित कृषि ऋणग्रस्तता पर विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट के अनुसार किसानों की ऋणग्रस्तता की स्थिति को आपदाकारी घटना के रूप में देखा गया है। अकसर ऐसा तब होता है जब लिए गए ऋण को उत्पादक कार्यों में इस्तेमाल न किया जाए। ऋण लेना उस स्थिति में भी आपदाकारी घटना बन जाती है जब ऋण लेने वाले किसान की फसल प्राकृतिक आपदाओं, कीटों, नकली बीजों, गैर-बुद्धिमत्तापूर्ण निवेशों अथवा अन्य अप्रत्याशित कारणों से बरबाद हो जाए या उच्च उत्पादन लागत, पिछड़ी हुई तकनीक के कारण उपज अलाभकारी हो जाए तथा बाजार में मिलने वाला मूल्य इतना अपर्याप्त हो कि किसान के लिए ऋण की मूल राशि और उसका ब्याज चुका पाना असंभव हो जाए।
इस संदर्भ में वित्तीय साक्षरता एवं साख परामर्श अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आपदाग्रस्त कर्जदारों को ऋण-बकाया की स्थिति से उबरने में सक्षम बनाने के लिए फॉलोअप सेवाओं को विकसित किए जाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। ऐसे में साख परामर्शदाता कर्जदार एवं संबंधित बैंक के बीच अस्थाई मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। अनेक स्थितियों में, खासकर अधिक कमजोर वर्गों के लोग बैंकों को अपनी वित्तीय स्थिति के बारे में साफ-साफ बताकर कोई समझौता कर पाने में सक्षम नहीं होते। इसलिए, यह खुद बैंकों के हित में होगा कि वे उचित वित्तीय शिक्षा एवं वित्तीय परामर्श के द्वारा अपने कर्जदारों की मदद करें। ज्ञात रहे ऋण परामर्श व्यक्तिगत कर्जदारों के लिए है, संस्थागत कर्जदारों के लिए नहीं।
भारतीय रिजर्व बैंक उठाए गए कदम
रिजर्व बैंक ने एक परियोजना अपने हाथ में ली है जिसका नाम 'परियोजना वित्तीय साक्षरताÓ है। इस परियोजना का उद्देश्य है केन्द्रीय बैंक तथा सामान्य बैंकिंग अवधारणाओं से संबंधित जानकारियों को विभिन्न लक्षित समूहों, जैसे स्कूल एवं कॉलेज जाने वाले छात्र-छात्राओं, महिलाओं, ग्रामीण एवं शहरी गरीबों, रक्षाकर्मियों तथा वरिष्ठ नागरिकों में प्रसारित करना। लक्षित समूहों तक जानकारियों का प्रसार अन्य माध्यमों के साथ-साथ बैंकों, स्थानीय सरकारी तंत्र, एनजीओ, स्कूलों तथा कॉलेजों द्वारा प्रस्तुतिकरणों, पर्चों, पुस्तिकाओं, फिल्मों तथा रिजर्व बैंक के वेबसाइट के जरिए किया गया है। रिजर्व बैंक ने इसके लिए अपनी वेबसाइट में एक लिंक आम लोगों के लिए बना रखा है जिसके माध्यम से उन्हें अंग्रेजी, हिन्दी तथा भारत की 12 अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में वित्तीय जानकारी प्राप्त हो सकती है। अभी हाल में रिजर्व बैंक ने अंतर-स्नातक छात्रों में बैंकिंग क्षेत्र तथा रिजर्व बैंक के बारे में जागरूकता एवं दिलचस्पी पैदा करने के लिए 'आरबीआई युवा विद्वत् पुरस्कार योजना आरंभ की है जिसके अंतर्गत 150 युवा विद्वानों का देशव्यापी प्रतियोगिता परीक्षा के जरिए चयन किया जाएगा और रिजर्व बैंक पर छोटी अवधि की परियोजनाओं पर कार्य करने के लिए उन्हें स्कॉलरशिप प्रदान की जाएगी
बैंकों द्वारा उठाए गए कदम
हाल ही में साख परामर्श पहल के अध्ययन हेतु रिजर्व बैंक द्वारा एक आंतरिक समूह के गठन के बाद कुछ राज्यों में कुछ परामर्श केन्द्रों स्थापित किए गए हैं जैसे- बैंक ऑफ इंडिया द्वारा 'अभय; इसीआइसीआइ का 'दिशा ट्रस्ट तथा बैंक ऑफ बड़ौदा की पहल ग्रामीण परामर्श केन्द्र 'सारथी के अतिरिक्त सभी लीड बैंकों द्वारा अपने-अपने जिलों में ऐसे केंद्र आरम्भ किए हैं। इन केन्द्रों पर परामर्शदाता लोगों को आमने-सामने की प्रत्यक्ष सलाह देकर तो मदद करते ही हैं, इसके अतिरिक्त लोगों की सहायता उनके द्वारा टेलीफोन, ई-मेल अथवा पत्राचार के जरिए भी की जाती है।
कार्य क्षेत्र
यद्यपि साख परामर्श सेवाएं बैंकों द्वारा ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रदान की जा सकती हैं, इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारतीय जनसंख्या का विशाल भाग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है जिनकी साक्षरता का स्तर शहरी जनसंख्या की साक्षरता स्तर से निम्न है। ग्रामीण जनसंख्या अपनी वित्तीय जरूरतों के लिए अनौपचारिक क्षेत्रों पर अधिक निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित केन्द्र कृषक समुदायों तथा कृषि से संबंधित व्यवसायों से जुड़े लोगों की वित्तीय साक्षरता एवं परामर्श पर केन्द्रित हो सकते हैं। महानगरों व शहरी क्षेत्रों में स्थापित केन्द्र ऐसे लोगों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं जिनपर क्रेडिट कार्ड, व्यक्तिगत ऋण, गृह ऋण इत्यादि बकाया हों। अपने नेटवर्क और पहुंच के अनुसार राजकीय क्षेत्र के बैंक ग्रामीण क्षेत्रों पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे जबकि निजी एवं विदेशी बैंक अपने परामर्श केन्द्र शहरी क्षेत्रों में स्थापित करेंगे।
केंद्रों का संचालन
एफएलसीसी के संचालन के लिए, बैंकों द्वारा एकल रूप से अथवा अन्य बैंकों के साथ संयुक्त रूप से ट्रस्टों अथवा सोसाइटियों की स्थापना की गई है। बैंक ऐसे ट्रस्ट अथवा सोसाइटी के बोर्ड में स्थानीय सम्मानित नागरिकों को शामिल कर सकता है तथापि, कार्यरत बैंककर्मी बोर्ड में शामिल नहीं किए जा सकते। आरंभ में लीड बैंकों द्वारा जिला मुख्यालयों में एफएलसीसी की स्थापना के लिए कदम उठाए गए हैं अधिकाधिक विस्तार हेतु एफएलसीसीज की स्थापना सभी स्तरों अर्थात प्रखंड, जिला, शहर तथा महानगर स्तरों पर की जा सकती है। परामर्श केन्द्रों को बैंक के साथ नजदीकी संबंध बनाए रखना चाहिए और यथासंभव इन्हें बैंक परिसरों में स्थित नहीं होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में यदि लागत कम करने की दृष्टि से बैंक शाखा के परिसर का उपयोग किया जाता है तो इसे पूरी तरह अलग होना चाहिए। इसके पीछे यह धारणा है कि इन केन्द्रों को संबद्ध बैंकों के वसूली अथवा विपणन एजेंटों के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए और बैंक के ग्राहक वर्ग, यहां तक कि दूसरे बैंकों के ग्राहक वर्ग भी स्वयं अपनी इच्छा से इन केन्द्रों से संपर्क करने में सुविधा अनुभव कर सके। परामर्श एवं ऋण प्रबन्धन सेवाएं ग्राहकों को नि:शुल्क उपलब्ध कराई जाएंगी ताकि उन पर कोई अतिरिक्त बोझ न पड़े।
साख परामर्श तथा ऋण निपटारे की प्रणाली
बैंकों को मुसीबत में पड़े अपने ग्राहकों को या किसी भी बैंक के ग्राहकों को एफएलसीसी में संपर्क करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। एफएलसीसी समूह परामर्श के लिए खुले सेमिनार का आयोजन कर सकता है, जिन्हें या तो केंद्र पर या जिले के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जा सकता है। सिंगल क्रेडिटर-डेट के लिए एफएलसीसी उधारकर्ता को संबंधित बैंक से साथ मोल-भाव करने में मदद कर सकता है। व्यक्तियों द्वारा उपलब्ध बहु-प्रायोजन ऋण की स्थिति में खुद भी  बैंक/बैंकों के साथ मोल-भाव कर सकता है, जो उधार राशि को पुनर्गठित करने के लिए व्यापक फैलाव वाले हों, तथा पुन: वसूली को यथा अनुपात (प्रो-रेटा) आधार पर साझा किया जाए। हालांकि एफएलसीसी स्वयं को धन की वसूली तथा वितरण में शामिल नहीं करेगा। यह कार्य संबंधित बैंक का होगा या उस व्यक्ति या संस्था का जिसे बैंकों की तरफ से नियुक्त किया गया हो।
शिक्षा तथा प्रशिक्षण- परामर्शदाता
चूंकि परामर्श केंद्र परेशान उधारकर्ता को मदद करने तथा मार्गदर्शन देने में अहम और जिम्मेदार भूमिका निभाता है, अत: यह आवश्यक है कि केवल सुशिक्षित/सुप्रशिक्षित परामर्शदाताओं का ही चयन इन केंद्रों पर फुल टाइम कर्मचारी के रूप में किया जाए। वर्ष 2008-09 के अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री ने यह संकेत दिया कि ऐसे व्यक्ति जो सेवा-निवृत बैंक अधिकारी, या पूर्व सेवाकर्मी इत्यादि हैं, भी प्रमाणित परामर्शदाता के रूप में नियुक्त किए जाएंगे। साख परामर्शदाता को बैंकिंग, कानून, वित्त के अनुभव होने चाहिए तथा वे बातचीत के बेहतरीन हुनर तथा टीम बनाने की क्षमता वाले होने चाहिए। वर्तमान में व्यक्तिगत परामर्शदाता के लिए क्षमता तथा ज्ञान को अद्यतन करना काफी अहम हो गया है। इस कार्य के लिए बैंकों द्वारा कुछ प्रशिक्षण भी दिया जाता है, पर यह वित्तीय प्रबंधन पर समग्र कोर्स न होकर केवल दी जाने वाली सेवाओं पर ही केंद्रित होता है। परामर्शदाताओं को बैंकिंग उद्योग की हालिया प्रगति के बारे में अद्यतन जानकारियां होनी जरूरी हैं। निरंतर रूप से अपने ज्ञान में इज़ाफा करने के लिए भी परामर्शदाताओं को अपडेट रहने की जरूरत होती है। प्रशिक्षित परामर्शदाता की नियमित आपूर्ति के लिए इंडिअन इंस्ट्यिूट ऑफ बैंकिंग एवं फिनैंस द्वारा साख परामर्श और ऋण प्रबंधन पर विशेष कोर्स का आयोजन किया जाना तथा व्यावसायिक संस्थानों द्वारा बैंकिंग तथा वित्त से जुड़े कोर्सिज किए हुए लोगों को लेना भी उपयोगी हो सकता है।
प्रचार
सभी संस्थानों लोगों को विभिन्न योजनाओं/सुविधाओं के बारे में जागरूक बनाने पर जोर देने के लिए प्रचार के सभी रूपों, जैसे प्रेस कॉन्फे्रंस, वर्कशॉप, प्रकाशन, वेबसाइट, रोड शो, मोबाइल यूनिट, ग्राम मेला इत्यादि का इस्तेमाल करेंगे। योजनाबद्ध तरीके से आगे बढऩे के लिए वित्तीय साक्षरता तथा परामर्श पर एक स्थायी समिति का गठन रिजर्व बैंक द्वारा किया गया है, जिसमें रिजर्व बैंक के सदस्य, नाबार्ड, आइबीए, बीसीएसबीआइ, सीआइबीआइएल, तथा उस क्षेत्र में कार्य करने वाले एनजीओ तथा अन्य उपभोक्ता संगठन शामिल हैं। बैंक के विभिन्न उत्पादों एवं सेवाओं के लिए ग्राहकों में जागरूकता लाने हेतु कृषि अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है तथा बचत एवं क्रेडिट कार्ड की अवधारणा, न्यूनतम शुल्कों का प्रभाव इत्यादि से लोगों को परिचित कराने हेतु उन्हें शिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण एवं जागरूकता कैम्पों का आयोजन किया जाता है। ये परामर्श केन्द्र मुख्य रूप से बैंकों के परिसरों न होकर वहां होने चाहिए जहां किसानों एवं व्यापारियों को पहुंचने में सुविधा हो।
साख परामर्श केन्द्रों से जुड़ी परेशानियां
हालांकि यह प्रयास बहुत अच्छा है, इन केंद्रों के साथ कुछ व्यवहारिक अड़चने भी हैं। पहली और बड़ी परेशानी तो इन केंद्रों के पास किसी तरह का अधिकार न होना है। बैंक या ग्राहक दोनों ही इनकी सलाह मानने इंकार कर दें तो ये केंद्र कुछ नहीं कर सकते। एक ऐसे ही केंद्र में लम्बे समय से काम करने वाले एक अधिकारी के अनुसार 'भारत जैसे देश में नि:शुल्क सलाह किसी को नहीं चाहिए, इन परेशान लोगों को और पैसा या सौ प्रतिशत ऋण माफी चाहिए हमारी सलाह नहीं। इन प्रयासों को लोकप्रिय बनाने हेतु भी कोई प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है, कुछ केंद्रों को खुले तीन से चार माह हो चुका है मगर वहां आज तक एक-दो लोग ही बहुत मुश्किल से पहूंचे हैं। इन केंद्रों में ऐसे सेवा-निवृत अधिकारियों को बैठा रखा है जिनमें न तो ज्यादा भाग-दौड़ करना उत्साह है और न ही समस्या को सुलझाने की बेहतर समझ। खुद लीड बैंकों की भी ये प्रथमिकता में नहीं है, इसलिए ही तीन साल में 640 केंद्रों की बजाए देशभर में 100 से भी कम केंद्र ही खोले गए हैं। बेहतर होता कि इन केंद्रों में राजस्व विभाग का भी एक अधिकारी बैठाया जाता जो किसानों के विवादों और विभाग की कार्रवाही को समझकर उचित समाधान दे सकता था।

Monday, December 5, 2011

हल्का-फुल्का बाट-माप विभाग

भू-मीत के पिछले अंक में सावधान स्तंभ के लिए बाट-माप विभाग से कुछ जानकारी चाहिए थी। मकसद था पाठकों को नाप-तौल के बारे में सही जानकारी और कानूनी अधिकार के बारे में बताना। दो-तीन कोशिशों के बाद आखिर जिले के एकमात्र निरीक्षक बी आर जांगिड़ से बात हुई। वांछित जानकारी मिल गई और पाठकों तक पहुंच भी गई। इन सब में बातों में एक ही परेशानी आई, बाट-माप अधिकारी से बात करने में। देरी का कारण निरीक्षक जांगिड़ ने बताया कि उनके पास इस जिले के अलावा हनुमानगढ़ का भी अतिरिक्त कार्यभार है। इतने बड़े क्षेत्र में मात्र एक निरीक्षक से सारा काम व्यवस्थित नहीं हो पाता इसलिए मुख्यालय पर कम ही रह पाता हूं।
इससे पहले कि हम गोरखबाबा की पहेली में उलझ जाएं जानते हैं कि इस विभाग का काम और अधिकार क्या हैं? हर वह वस्तु जो तौलकर या नापकर बेची जाती है वो खरीददार तक सही व पूरी पहुंचे इसके लिए सरकार ने यह विभाग बनाया है। इस विभाग का काम है उन सब व्यापारियों को जो वस्तुएं तौल या नाप कर बेचते हैं को साल में एक बार उनके नाप-तौल के उपकरणों का निर्धारित शुल्क लेकर सत्यापन करना। यह शुल्क साल भर का सौ-दो सौ रूपए से लेकर दो-तीन हजार तक हो सकता है। जो व्यापारी ऐसा नहीं करते उन्हें 500 से 25 हजार तक जुर्माना तथा 5 साल तक की जेल भी हो सकती है। सत्यापन के अलावा इनका काम है शिकायत मिलने पर या स्वयं अचानक जांच करने की और यह देखने की, कि विक्रेता पूरा नाप या तौल रहा है। इसमें चूक होने पर भी जुर्माने और सजा का प्रावधान है।
इसमें गौरखधंधा क्या हो सकता है, सिवाए छोटी-मोटी रिश्वत और कामचोरी के? सवाल यहां रिश्वत या कामचोरी का नहीं है, इस गोरखधंधे में यह समस्या तो बहुत ही छोटी और आखिरी है। बड़ी समस्या तो यह है कि 16लाख की आबादी वाले इन दोनों जिलों में सब्जी बेचने वालों से लेकर शॉपिंग मॉल, सुनार, पेट्रोल पंप, किराना व कपड़े की दुकानें, कृषि उपज मंडियां आदि मिलाकर करीब तीन लाख संस्थान हैं। इन सबके उपकरणों का सत्यापन तो दूर उन्हें देखने भर के लिए एक आदमी को सात जन्म कम पड़ जाएं। यह हाल अकेले इस जिले और राज्य का ही नहीं सीमावर्ती राज्यों हरियाणा और पंजाब का भी है। होना यह चाहिए कि वे सभी संस्थान जो नापने-तौलने का काम करते हैं, या नाप-तौल के उपकरण बेचते या ठीक भी करते हैं उन्हें इस विभाग के पास निर्धारित समय पर जाकर स्वंय ही अपने उपकरणों का सत्यापन करवाना होता है, और मजे की बात यह कि 80 प्रतिशत दुकानदार इस विभाग और कानून के बारे में जानते तक नहीं।
राजस्व उगाहने वाले इस विभाग में इतना कम स्टाफ क्यों है? के जवाब में राज्य के बाट-माप विभाग के संयुक्त निदेशक पी एन पांडे का जवाब था कि- हमारे विभाग का पहला उद्देश्य राजस्व कमाना नहीं है, फिर भी इस स्टाफ के साथ हमने गत वर्ष 5 करोड़ रूपए का राजस्व जमा किया है। जब उनसे पूछा गया कि राजस्व कमाना न सही पर खरीददार को पूरा सामान मिले, उसके हितों की रक्षा के लिए क्या स्टाफ पूरा है? का जवाब था-नई भर्ती करना राज्य सरकार का काम है, फिलहाल हमारे पास 34 निरीक्षक हैं और 30 नई भर्तियां हो चुकी हैं।
गोरखबाबा की पहेली यह है कि राजस्थान की 6करोड़ 86लाख की आबादी, लाखों तौल-माप कर बेचने वाले संस्थान और मात्र 60 से 65 निरीक्षक। एक अनुमान के अनुसार राजस्थान में इस विभाग के नीचे आने वाले व्यापारियों की संख्या लगभग 90 लाख है। आदर्श स्थिति के अनुसार 15 सौ संस्थानों पर एक निरीक्षक होना चाहिए, इस हिसाब से विभाग को 6हजार तो निरीक्षक ही चाहिएं। छोटे-बड़ों से विभिन्न दरों के अनुसार होने वाली मासिक आय होनी चाहिए करीब 45 करोड़ और सालना 540 करोड़। अगर वेतन और अन्य खर्च निकाल कर साल के 2 सौ करोड़ भी बच जाएं तो फायदा किसका है और नहीं हो रहा तो नुकसान किसका है?
अप्रेल 2011 से लागू विधिक माप विज्ञान अधिनियम 2009 के अनुसार, पहले जो सत्यापन साल में एक बार होता था अब वह दो साल में एक बार हुआ करेगा। इसके अलावा इस कानून में नाप-तोल के उपकरण जांचने से रोकने पर या जांच न करवाने पर बड़े जुर्माने और लम्बी सजा का प्रावधान है। जब 90 प्रतिशत लोग कानून तोडऩे वालें हों तो जुर्माना होता ही रहता है, लेकिन इक्के-दुक्के अपवाद को छोड़कर आज तक किसी एक भी व्यापारी सजा नहीं हुई। जबकि नए कानून में प्रावधान यह है कि लगातार कानून तोडऩे वाले को जेल तो होनी ही चाहिए। खैर यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि आम भारतीय की नजर में कानून तोडऩा भोजन करने जैसा जरूरी काम है।
पहेली का यह पेच समझ नहीं आ रहा कि राजस्थान सरकार एक तरफ बेरोज़गारों को नौकरी देने का वादा करती है और दूसरी तरफ अपने वेतन से सौ गुणा ज्यादा कमाकर देने वाले पद खाली पड़े हैं। जहां दक्षिणी राज्यों में इस विभाग के पास पूरा स्टाफ ही नहीं, वाहन आदि की भी सुविधाएं हैं, वहीं हमारे यहां साइकिल तक का तोड़ा है। हालांकि इस विभाग में भर्ती करने पर सरकार को तिहरा फायदा है- बेरोज़गारी कम होगी, राज्य को अतिरिक्त आय होगी और ग्राहक हितों की रक्षा होगी। ऐसा कब तक हो पाएगा का जवाब शायद गोरख बाबा ही दे सकते हैं।

Friday, December 2, 2011

बाग की बारहखड़ी

हमारे देश के आम किसानों की धारणा है कि फलों की खेती फायदे का सौदा नहीं है, तभी तो हमारे देश में कुल खेती में बागबानी 4 प्रतिशत से भी कम है। इस उदासीनता का कारण जानने से पहले इन दो प्रश्नों का उत्तर जानने का कौशिश करें: 1-क्या बाग लगाना वास्तव में घाटे का घर है? 2-या बाग लगाने वालों में ही कुछ कमियां हैं?
पहले खोजते हैं दूसरे सवाल का जवाब। बाग लगाने से पहले अकसर लोग इस बात पर विचार ही नहीं करते कि किस मिट्टी, किस जलवायु और किस पानी के साथ किस किस्म के फलदार पेड़ लगाने चाहिए। वे यह भी ध्यान नहीं देते कि फल विशेष के पौधों में दूरी कितनी होनी चाहिए। बिना भूमि को सुधारे, मिट्टी की जांच करवाए फलों के पेड़-पौघे लगा दिए जाते हैं। एक बार बाग लगा देने के बाद वे उसकी देखभाल पर ध्यान भी नहीं देते। समय पर खाद और दवा पानी नहीं दिया जाता। इन्हीं सब कारणों से एक बाग घाटे का सौदा बन जाता है, दूसरी तरफ इन बातों को ध्यान में रखते हुए उचित ढंग से बाग लगाया जाए और ठीक से उसकी देखभाल करने वाले किसान को कभी नुकसान नहीं होता। अत: हमारा पहला सवाल ही गलत है। इस गलत सवाल का सही जवाब यह है कि बाग लगाना कभी घाटे का घर नहीं होता। आइए जानते हैं एक कामयाब और लाभदायक बाग लगाने के लिए किन बातों का ध्यान रखा जाना जरूरी है।
स्थान चुनते समय
हमेशा ऐसी ज़मीन बाग लगाने के लिए चुनें जो उपजाऊ हो। कंकड़ पत्थरवाली और ऊँची-नीची उबड़-खाबड़ ज़मीन बाग लगाने के लिए उपयुक्त नहीं होती। क्षारवाली, जिसमें नमक ज्यादा हों, और रेतीली ज़मीन भी बाग लगाने के लिए उचित नहीं होती। हल्की दोमट मिट्टी, जिसमें पानी का निकास अच्छा हो, सब प्रकार की फसलों के लिए उत्तम होती है।
सिंचाई का समुचित प्रबंध होना भी जरूरी है केवल नहर के भरोसे बड़ा बाग लगाना सही निर्णय नहीं है। जरूरत के समय अगर नहर से पानी न मिले तो बड़ा नुकसान हो सकता है। इसलिए बाग में कम से कम मीठे पानी का एक कुआँ होना बेहद जरूरी है। यदि 15 एकड़ का बाग लगाना हो और सिंचाई का प्रबंध केवल छ: एकड़ का हो तो पाँच पाँच एकड़ करके तीन या चार बार में पानी लगाना चाहिए, क्योंकि जब पेड़-पौधे बड़े और पुराने हो जाते हैं, तब उन्हें धरातली सिंचाई की ज्यादा जरूरत नहीं होती, वे भूमिगत जल भंडार से अपनी जरूरत का अधिकांश पानी खुद-ब-खुद खींच लेते हैं।
बाग हमेशा सड़क, परिवहन के लिए सुविधाजनक स्थान या रेलवे स्टेशन के पास लगाना चाहिए, ताकि उसकी उपज समय पर बाजार या मंडी में बिकने के लिए पहुँच सके। शहर से बहुत दूर गाँव के अंदर बाग लगाने से फसलों को मंडी तक पहुँचाने में बहुत परेशानी होती है और खर्चा तथा समय भी अधिक लगता है। अधिक समय लगने के कारण फल बाजार तक पहुंचते पहुंचते खराब होने लगते हैं। जहाँ तक हो, बाग किसी जंगल के पास नहीं लगाना चाहिए क्योंकि जंगल पास में होने के कारण नील गाय, सुअर, हिरन और चिडिय़ों आदि फसल को नष्ट करते हैं। इससे बाग की रखवाली पर अधिक खर्चा भी होता है। बाग लगाने से पहले एक बात और ध्यान में रखें कि समय पर स्थानीय मजदूर भी मिल सकें।
किस्म चुनते समय

बाग में लगाए जाने वाले वाली फसल की किस्मों का चुनाव करने के लिए निम्र बातों को ध्यान रखना चाहिए।
(1) फसल की किस्मों का चुनाव हमेशा भूमि के अनुसार होना चाहिए। कम उपजाऊ और पत्थरीली भूमि में आम नहीं लगाना चाहिए, वहां अमरूद जैसी कठोर किस्में ही लगानी चाहिए। इसी प्रकार थोड़ी रेह वाली और खराब ज़मीन में लसूड़ा, बेर, आँवला आदि के पेड़ ही लगाए जा सकते हैं। पानी ठहरनेवाले स्थान पर संतरा, माल्टा, नींबू आदि नहीं लगाने चाहिए, क्योंकि पानी के ठहरने से पेड़ों की जड़ें गलकर खराब हो जाती हैं। ऐसी जगह पर भी अमरूद किसी हद तक कामयाब हो सकता है।
(2) किस्मों का चुनाव करते समय उस स्थान की जलवायु को भी ध्यान में रखना चाहिए। ठडें इलाकों में सेब, खूबानी, नाशपाती आदि, और गर्म मैदानी भाग में केला, पपीता, आम, अमरूद, संतरा आदि लगाए जाते हैं तथा अधिक वर्षावाले क्षेत्रों में अंगूर नहीं लगता।
(3) फल की वे ही किस्में लगानी चाहिएं जिसकी माँग बाजार में हो और भाव भी अच्छे मिलने की उम्मीद हो। सस्ते और हर जगह लगाए जा सकने वाली किस्में ज्यादा फायदा नहीं देती। किस्म का चुनाव करते समय उद्यान विभाग के अधिकारियों से भी सलाह लेनी फायदेमंद रहती है।
बाग की तैयारी करते समय
जिस ज़मीन पर बाग लगाना है यदि उसमें पहले से खेती हो रही है, तो उसे ठीक करने में अधिक कठिनाई नहीं होती। भूमि कैसी है, यह जानने के लिए मिट्टी की जांच करवा लेनी चाहिए। उसके बाद ज़मीन उगे फालतू झाड़-झंखाड़ की सफाई करनी चाहिए। बबूल आदि जंगली पेड़ों और झाडिय़ों को जड़ सहित उखाड़ देना चाहिए, केवल ऊपरी हिस्सा काट देने से ये दोबारा बढ़ जाती हैं। एक दो छायादार पेड़ रहने-बैठने के स्थान पर, छोड़े भी जा सकते हैं। इस सफाई के बाद भूमि की सतह को समतल करें। यदि सतह समतल नहीं हो तो सिंचाई करने में असुविधा भी होती है और सब पेड़ों-पौघों को समान मात्रा में पानी नहीं पहुंचता। बरसात का पानी भी नीचे स्थानों में भर जाता है और बा$ग को नुकसान होता है। अत: भूमि का स्तर सिंचाई की सुविधा के अनुसार करना चाहिए।
यदि सारी ज़मीन को एक सा चौरस करना संभव न हो, तो उसे दो या अधिक भागों में बाँटकर हर भाग को अलग-अलग समतल कर लेना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों में, जहाँ बड़े समतल मैदान नहीं होते वहा इसीलिए सीढ़ीदार खेत बनाए जाते हैं। इसके बाद पूरे खेते की एक गहरी जुताई कर दें जिससे ज़मीन भुरभुरी हो जाए और वर्षा का पानी भी ज़मीन में भली प्रकार पहुंच सके। सपाट ज़मीन में अधिकतर वर्षा का पानी बह जाता है। यदि संभव हो तो पूरे खत में हरी खादवाली फसल, जैसे सनई आदि, बोकर जोत देने से भूमि को अच्छी खाद मिल जाती है। इसके बाद पूरी भूमि में पेड़-पौधे लगाने के स्थानों पर निशान लगाने से पहले, कागज पर उसका नक्शा बना लें जिससे वांछित जगहों पर आसानी से सही-सही निशान लग सकें। यह रेखांकन या ले-आडट वर्गाकार, षट्भुजाकार, आयताकार आदि कैसा भी हो सकता है किन्तु वर्गाकार रेखांकन सुगम और सबसे अधिक प्रचलित है। इस विधि में एक पेड़ से दूसरे पेड़ के बीच का फासला और लाइन से लाइन के बीच का फासला एक समान होता है और आसपास के चार पेड़ों को सीधी रेखा से मिलाने पर एक वर्ग बन जाता है। निशान लगाना शुरू करने से पहले एक सीधी आधारभुजा डाल लेनी चाहिए। यह आधारभुजा पास की पक्की सड़क, अथवा इमारत या पास लगे हुए बाग, के समांतर डाली जा सकती है, अथवा भूमि का आकार देखकर उसके अनुसार डाली जा सकती है।
पेड़ों के बीच की दूरी
पेड़ों को उचित फासले पर लगाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राय: भूमि में अधिक से अधिक पेड़ लगाने के लालच में लोग पेड़ पास-पास लगा देते हैं जबकि सच्चाई यह है कि निर्धारित दूर से कम दूरी पर पेड़ लगाने से उनको फैलने की जगह पूरी नहीं मिलती, और बढऩे पर वे आपस में मिल जाते हैं। घने बाग में पेड़ों को उपयुक्त मात्रा में धूप और हवा भी नहीं मिलती जो उनके उचित विकास और फलन के लिए जरूरी होती है। फलत: पेड़ों से अच्छी फसल नहीं मिलती। केवल चोटीवाले भाग में, जहाँ थोड़ी धूप तथा हवा पहुँचती है, वहां थोड़े-बहुत फल लगते हैं, जिनकी रखवाली करना और तोडऩा दोनों कठिन होता है। जानते हैं कुछ फलदार पेड़-पौधों के बीच कितना फासला होना चाहिए-
देशी आम                    40 फुट
कलमी आम                35 फुट
अमरूद                       25 फुट
नीबू/संतरा/किन्नू        20 फुट
लीची                           30 फुट
लुकाट                         25 फुट
पपीता                          8 फुट
कैसे लगाएं पेड़-पौधे?
पेड़ों लगाने के निशान ज़मीन पर लगा देने के बाद वहाँ तीन फुट चौड़े तथा तीन फुट गहरे गोल गड्ढे खोदने का काम जून तक कर लें, ताकि बरसात होने से पहले गड्ढों की मिट्टी को कम से कम 15-20 दिन हवा लग जाए। गड्ढों की मिट्टी में से कंकड़ पत्थर आदि निकाल कर उसमें लगभग 2 भाग सड़े गोबर की खाद मिला दें। गड्ढों में पानी भरने से मिट्टी बैठ जाती है, इसलिए गड्ढों को भरते समय मिट्टी को ज़मीन की सतह से लगभग दो इंच ऊँचा रखें। एक दो बार जब अच्छी वर्षा हो जाए, तब गड्ढों के बीचोबीच पौधे लगा दें। पौधे लगाते समय यह ध्यान रखें कि वे उसी गहराई तक लगे, जितना वह पहले क्यारी या गमले में लगा था। अधिक गहरा लगा देने से तना मिट्टी में दब जाता है और उसके सडऩे का अंदेशा रहता है। इसी प्रकार धरातल से ज्यादा ऊपर लगाने से पौधे की जड़ें खुली रह जाती हैं और उसे हानि पहुँचती है। यदि वर्षा न हो रही हो तो पौधे लगाने के बाद तुंरत पानी दें।
एक विशेष बात का हमेशा ख्याल रखें कि पौधे हमेशा किसी विश्वसनीय और प्रमाणिक नर्सरी या सरकारी पौधशाला से ही लें, चाहे उनका मूल्य कुछ अधिक देना पड़े। यदि शुरूआत ही गलत किस्मों से हो जाए तो नुकसान होना लाजमी है। फल आने पर जब मालूम पड़ता है कि खराब और गलत किस्मों के पेड़ लग गए हैं उस समय सिवा उन पेड़ों को निकालकर नए पेड़ लगाने के और कोई उपाय नहीं रहता और तब तक काफी समय और रुपया बेकार हो चुका होता है।
कैसे करें बाग की देखभाल
बाग लगाने के साथ आपका काम खत्म नहीं बल्कि शुरू होता है। इतनी मेहनत से लगाए गए बाग को एक छोटे बच्चे की परवरिश जितनी सार-संभाल चाहिए। जानते हैं बाग की देखभाल के तरीके।
लू एवं पाले से बचाव

गर्म हवाएं सदा पश्चिम से और ठंढी हवाएँ हमेशा उत्तर से चलती हैं। इन तेज, गर्म और ठंढी हवाओं को रोकने के लिए बाग की उत्तर और पश्चिम दिशा में ऊँचे बढऩे वाले पेड़ों की घनी पंक्ति लगा देनी चाहिए। इस पंक्ति को विंड ब्रेकर कहते हैं। हवा रोकने के लिए शीशम, देशी आम, जामुन आदि भी लगाए जा सकते हैं। इन पेड़ों का फासला लगभग 10-15 फुट तक रखा जाता है, जिससे वे घने होकर सीधे और लंबे बढ़ते रहें। लू एवं पाले से छोटे पेड़ों को बचाने के लिए गर्मी और सर्दी के मौसम में प्रत्येक पेड़ के चारों ओर फूस की छोटी टाट पूर्व दिशा में खुली लगाएं, जिससे पेड़ को धूप और हवा मिलती रहे। टाट्टियाँ केवल उन्हीं पेड़ों को बाँधते हैं जिन्हें लू एवं पाले से मरने का अंदेशा रहता है, जैसे आम, पपीता, लुकाट आदि। गरमी और जाड़ों में गहरी सिंचाई करने से भी लू और पाले से बचाव होता है।
जंगली जानवरों से रक्षा
बाग में जंगली जानवर, चौपाए आदि को रोकने के लिए बाग के चारों ओर कांटेदार बाढ़ लगाना आवश्यक है। इसका एक तरीका यह है कि चारों ओर लगभग तीन फुट गहरी एक खाई खोदें और उसकी मिट्टी बाग के अंदर की ओर खाई के किनारे एक चौड़ी और ऊँची मेड़ के रूप में जमा दें। यह खाई और ऊँची मेड़ अच्छी रोक का काम करती है। आजकल काँटेदार तार लगाने का भी प्रचलन है, पर यह जरा मंहगा सौदा है। यदि इस मेड़ के ऊपर थूहर या नागफनी आदि लगा दें तो यह ज्यादा रक्षात्मक है। इसके अलावा बाग के चारों और काँटेदार घनी झाड़ी जैसे खट्टी, बबूल आदि भी लगा सकते हैं। बाग की बाड़ से आप अतिरिक्त कमाई भी कर सकते हैं जैसे करौंदा या सागरगोटा जिसे कट-करंज भी कहते हैं लगा कर। करौंदा आचार आदी डालने के काम आता है तथा सागर गोटे के बीज दो-अढ़ाई सौ रूपए किलों तक बिक जाता है।
फलों को हानि पहुँचाने वाले जीव-जतुंओं, पक्षी एवं बंदर आदि से रक्षा के लिए आदमी ही रखना पड़ता है, जो पटाखे, गुलेल आदि चलाकर फसल की रक्षा करता है।
पेड़ों की कटाई छँटाई
जाड़े में पत्ती गिरानेवाले कुछ पेड़ों, जैसे फालसा, अंजीर, शहतूत आदि की सालाना कटाई-छँटाई करनी पड़ती है। इनकी छँटाई करने से नई शाखाएँ खूब फूटकर निकलती हैं और फल भी अच्छे लगते हैं। सालाना कटाई न करने से इनमें केवल गिनी चुनी शाखाएँ निकलती हैं, जिनमें थोड़े से फल लगते हैं। इनकी कटाई-छँटाई उस समय करते हैं, जब जाड़ों में ये पत्ती गिरा देते हैं।
पेड़ लगाने के बाद प्रारंभ के दो तीन साल तक सभी पेड़ों को सुंदर और सुदृढ़ बनाने के लिए कटाई-छँटाई की आवश्यकता होती है। भूमि से लगभग दो तीन फुट की ऊँचाई तक तने को साफ कर लेना चाहिए। तने के ऊपरी भाग में तीन या चार मजबूत भिन्न भिन्न दिशाओं में बढ़ती हुई शाखाओं को चुन लेना चाहिए और केवल उनको ही बढऩे देना चाहिए अन्य शाखाओं को तने के पास से काट देना चाहिए।
जैसे-जैसे पेड़ बढ़ते जाएँ, उनके थाले बढ़ाते जाना चाहिए। प्रति वर्ष थालों की गोड़ाई करके उनमें खाद देनी चाहिए। यह कार्य अक्टूबर तथा नवंबर के महीने में करें। बाग की सफाई का सदा ध्यान रखें। जंगली घास फूस साफ करते रहें। उचित सिंचाई का विशेष ध्यान रखें विशेषकर ग्रीष्म काल और फल लगने के बाद। किसी भी बीमारी अथवा कीड़ों के लगते ही उनको रोकने के लिए किसी अनुभवी बाग मालिक या फल-वैज्ञानिक की सलाह से उचित दवा का छिड़काव करें।