Tuesday, January 17, 2012

बीटी कपास के दस वर्ष


कपास की खेती मानव सभ्यता के इतिहास में सात हजार सालों से होती आई है, लेकिन इसमें पिछली सदी के अंतिम दशक में एक नया अध्याय तब लिखा गया जब महाराष्ट्र स्थित माहिको हायब्रिड सीड कंपनी और अमेरिकन कंपनी मोनसेंटो से साझेदारी की। सन 1999 में मोनसेंटो बीटी कॉटन लेकर भारत आई। भारत में पहले से मौजूद कई संकर किस्मों से बीटी कपास का बीज तैयार किया गया। माहिको ने बीटी का छोटे पैमाने पर पहला खेत परीक्षण 1999 में किया और 2000 में बड़े स्तर पर। विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय द्वारा डॉ. तुली के नेतृत्व में नैशनल बॅटैनिकॅल रिसर्च इंस्टीट्यूट को विषय शोध करने के लिए 5 करोड़ रुपये का कोष भी मुहैया करवाया गया। जिस पर सरकार के  खर्च हो हुए, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। मोनसेंटो भी इस तकनीक पर 1990 तक दो करोड़ रुपये खर्च कर चुकी थी। आखिर में तमाम असहमतियों के बावजूद जीईएसी (जिनेटिक इंजीनिअरिंग अप्रूवल कमेटी) द्वारा 2002 में हरी झंडी दे दी गई।
उस समय इसकी अनगिनत खूबियां गिनवाई गईं थी जैसे- इसकी खेती लागत सामान्य कपास के मुकाबले आधी होगी और उपज दोगुनी। कीटनाशकों पर होने वाला खर्च भी नाममात्र ही रह जाएगा। जमीनी हकीकत किसान जानता है या बीटी बीज बनाने-बेचने वाली कंपनियां। हालांकि जो वायदे किए गए और फायदे गिनाए गए, आज उनमें अंतर आ रहा है। अंग्रेजी पत्रिका 'फ्रंटलाइन' में प्रकाशित एक लेख में दिए गए आंकड़े कहते हैं- वर्ष 2007 में जहां बीटी कपास का उत्पादन 560 किलो प्रति हेक्टेअर होता था, वह 2009 में घटकर 512 किलो रह गया। वर्ष 2002 में बीटी कपास के उत्पादन पर देशभर में कीटनाशकों का उपयोग 597 करोड़ रुपये का था, वह भी बढ़कर 2009 में 791 करोड़ रुपये सालाना हो गया। अब यह बहस का विषय हो सकता है कि लोहा कितना खोटा है और लोहार कितना। फिलहाल कुछ बातें बीटी के बारे में-
क्या है बीटी कपास?
हालांकि इन दस सालों में आप जान गए होंगे कि बीटी क्या है, फिर भी दोहरा लेते हैं। दरअसल, इस कपास को मिट्टी में पाए जाने वाले जीवाणु बैसिलस थुरिजैन्सिस (जिसके पहले अंग्रेजी बी और टी हैं।)से जीन निकालकर तैयार किया है। मोनसेंटो ने अपने पहले प्रयोग बोलगार्ड-1 में एक ही जीन डाला जिससे अमेरिकन सुंडी, पिंक और स्पोटेड बॉलवर्म की प्रतिरोधी क्षमता विकसित हुई जो मात्र 120 दिन तक ही असरदार थी। उसके बाद ये कीड़े फसल को नुकसान पहुंचा सकते थे। बाद में इसमें दो जीन डालकर बोलगार्ड-2 विकसित किया गया जो इन तीन कीड़ों के साथ-साथ तम्बाकू लट का भी प्रतिरोधी बनाया गया तथा समय भी 120 दिन से बढ़ा कर 150 से 160 दिन हो गया। अब बोलगार्ड-3 का अभी खेत परीक्षण चल रहा है, संभवत: इस साल के अंत तक यह बीज भी बाजार में आ जाएगा।
बीटी कितना सस्ता?
बीजी-1 के 450 ग्राम बीज पैकेट की कीमत है 750-850 रुपये और बीजी-2 की कीमत प्रति पैकेट 950-1,050 रुपये है। एक एकड़ जमीन के लिए कम-से-कम तीन पैकेट बीज यानी औसतन 2400 से 3000 रूपए की जरूरत प्रति एकड़ पड़ती है। कोढ़ में खाज यह है कि हर साल कालाबाजारी में यह 1700 से 2,500 रुपये प्रति पैकेट तक खुलेआम बिकता है। कंपनी और सरकार के कम लागत के दावे पता नहीं क्या हुए? इसके साथ एक अबूझ पहेली यह भी है कि गुजरात में यही बीज शेष भारत से आधी कीमत पर बिकते हैं। पड़ौसी राज्यों के किसान सस्ते के लालच में गुजरात से बीज खरीदना पंसद करते हैं। इस कालाबाजारी में एक और ठगी भी होती है नकली बीज की। गुजरात में हर कंपनी का बीटी बीज जितना चाहिए उतना नकली आसानी से मिल जाता है।
इसके पक्ष में एक और दावा किया गया था कि इस पर कीटनाशक साधारण कपास के मुकाबले बहुत कम डाला जाता है पर एक किसान एक मौसम में 7-8 बार रसायन का छिड़काव करते हैं जिसकी लागत प्रति एकड़ तीन-चार हजार रुपये पड़ती है। आंकड़ों के अनुसार भारत में सभी फसलों के लिए कुल 28 अरब रुपये के कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है, जिसमें केवल कपास की खेती के लिए 16 अरब रुपये के कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है।
बीटी कितना कीट प्रतिरोधी?
अभी तक भारत में कपास के बीज में बीटी जीन ही डाला गया है। इससे कपास की किस्में अमेरिकन सुंडी रोधी हो गई। पहले इस सुंडी को रोकने के लिए किसानों को कीटनाशी दवा के 10 से 12 छिड़काव करने पड़ते थे, जो अब रसचूसक कीड़ों को रोकने के लिए 2 से 3 ही करने पड़ते हैं। ज्ञात रहे बीटी जनित किस्में अमेरिकन सुंडी, चितकबरी लट और तम्बाकू लट रोधी होती हैं, इसलिए भारत के कुछ हिस्सों में इस बीटी बीज से उत्पन्न फसल पर कीट हमले के समाचार सुने जाते रहे हैं। हालांकि बीटी कपास की खेती भारत की अन्य सभी फसलों की खेती के पांच प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में होती है, लेकिन कीटनाशकों का उपयोग इस पर 55 प्रतिशत से भी ज्यादा होता है।
मोनसेंटो इसकी वजह 'रिफ्यूजिआ-सीड' यानी भारत में तैयार किए गए बीजों के उपयोग को मानती है, जो बीटी किस्मों के चारों तरफ तीन-चार पंक्तियों में लगाया जाता है। कंपनी का कहना है कि ज्यादातर किसान बीटी बीजों के साथ मिलने वाले नॉनबीटी रिफ्यूजिआ-बीजों को नहीं लगाते, इसमें कीटों की प्रतिरोधी क्षमता विकसित होना बहुत स्वाभाविक और उम्मीद के अनुरूप है। उनका तर्क है कि चूंकि क्राई वेन प्रोटीन एक शुरूआती जिनेटिक फसल है जो अभी थोड़ी अविकसित किस्म है इसलिए ऐसा होना लाजिमी है। मोनसेंटो ने किसानों को यह सलाह भी दी है कि जरूरत के हिसाब से रसायनों का इस्तेमाल किया जाए और कटाई के बाद खेत में अवशेषों और जो अनखुली गांठों और टिंडों का ठीक से प्रबंधन किया जाए। बोलगार्ड-2 के बारे में कंपनी का कहना है कि इस किस्म में हम वांछित कीट के प्रभाव को 150 से 160 दिनों तक ही रोक सकते हैं।
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का इस रवैये पर कहना है कि मोंनसेंटो ने अपने व्यापार का यही माडल दुनियाभर में अपना रखा है। जब पहला बीज असफल हो जाता है तब ये उसकी जगह लाए दूसरे बीज को बढ़ावा देने के साथ किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल की सलाह भी देने लगते हैं। 'खेती विरासत' संगठन की कविता करुंगति भी देविंदर शर्मा  से सहमत है, उनके मुताबिक अब प्रत्येक नई बीटी प्रजाति को अपनाने से पहले हर पहलू पर ध्यान देना जरूरी है। कृषि अर्थशास्त्री के. जयराम ने वर्ष 2007 में पंजाब के मालवा क्षेत्रों के कई गांवों के दौरे के बाद एक वेबसाइट 'काउंटर करेंट्स' पर 'बीटी कॉटन एंड इकॅनॉमिक ड्रेन इन पंजाब' नामक लिखे एक लेख के अनुसार- 2007 में पंजाब के कुल 12,729 गांवों में 10,249 उवर्रक वितरक एजेंसियां थीं। जो एक मौसम में 10 हजार लीटर तक कीटनाशक औसतन 300 रूपए प्रति लीटर तक बेच लेती थी, यानी 30 लाख रूपए प्रति मौसम।
 बीटी कपास का रकबा और किस्में
अभी भारत के कुल 9 राज्यों- पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में बीटी कपास की खेती होती है। सन 2002-03 में जहां बीटी का क्षेत्रफल मात्र 0.29 लाख हेक्टेअर था जो कुल कपास के 73.90 लाख हेक्टेअर का मात्र 0.39 प्रतिशत ही था वह 2010-11 में बढ़कर 95.50 लाख हेक्टेअर हो गया जो कुल रकबे 111.61 का 85.57 प्रतिशत है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि 2002 में जहां बीटी जनित संकर किस्मों का संख्या मात्र 2 थी वो 2011 आते-आते बढ़कर 1090 हो गई।
बीटी जनित संकर किस्में केवल निजी कंपनियां ही विकसित कर बाज़ार में मंहगे भाव से बेच रही हैं, यह बीज दोबारा बोया जाए तो उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। किसान को अच्छी उपज के लिए हर बार नया बीज लेना ही पड़ता है, अत: कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि अनुसंधान केंद्रों के वैज्ञानिकों को इस विषय में नई किस्में विकसित करनी चाहिए, ताकि किसानों को उचित भाव पर बीज मिल सकें। सवाल यह है कि इन दस वर्षों में बीटी ने तो अपना कृषि रकबा तो आठ सौ प्रतिशत बढ़ा लिया है पर हमने क्या किया?
सेवानिवृत वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आर.पी. भारद्वाज और कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा से बातचीत पर आधारित।

1 comment:

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