एक खबर के अनुसार घरेलू और निर्यात मांग में कमी तथा भारी कर्ज के बोझ तले दबे कपड़ा उद्योग को 2011 के दौरान कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। साल की शुरूआत ही मुश्किलों से हुई, जनवरी में कपास की कीमत घरेलू बाजार में 65,000 रुपये प्रति कैंडी (356 किलो) पर पहुंच गई। इसके बाद धागे के निर्यात पर लगे प्रतिबंध से इसके निर्यात पर निर्भर इकाइयों के पास भंडार इतना बढ़ गया कि उनकी वित्तीय मुश्किलें बढ़ गई। श्रम मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस उद्योग में 3.5 करोड़ लोग काम करते हैं और इस संकट की वजह से साल 2011 की पहली तिमाही के दौरान 1.23 लाख कामगारों को और पूरे साल भर में 2.23 लाख लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा। इस से भी बुरी खबर यह थी कि देश में सब तरह के कपड़ों के दाम यहां तक बढ़ गए कि 30 से 40 रूपए में बिकने वाले अंडरवीयर-बनियान 75 से 90 रूपए के हो गए।
अब एक नजर सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं। पिछले साल कपास बिकी थी औसत 6000 रूपए प्रति क्विंटल यानी 60 रूपए किलो और कपड़ा मिलों ने रूई खरीदी 180 से 185 रूपए किलो। सोचना पड़ता है कि किसान से कारखाना मालिकों तक आते-आते ऐसा क्या हुआ कि भाव एकदम तीन गुणा हो गए? क्या आढ़तियों और बिचौलियों का लाभ इतना ज्यादा है? सच्चाई जानने के लिए एकबार यह हिसाब-किताब भी करके देख लेते हैं- सौ किलो कपास में कचरा और छीजत होती है औसतन 5 प्रतिशत, रूई निकलती है औसत 33 किलो और बिनौला का औसत बैठता है 62 किलो। अगर 62 किलो बिनौलों को 17 रूपए किलो के हिसाब से 1054 रूपए में बेच दिया जाए तो बची हुई 33 किलो रूई की कीमत रह जाएगी 4646 रूपए, यानी करीब 141 रूपए किलो। अब इसमें जोड़ते हैं मजदूरी, ढुलाई, भाड़ा, प्रसंस्करण खर्च और जिनर का लाभ आदि सब मिलाकर लगभग 25 प्रतिशत के हिसाब से 35 रूपए जो कुलमिला कर हो गया 175 रूपए किलो। हमारे तथाकथित किसान हितैषी अर्थशास्त्री अक्सर किसानों को यह कह कर वरगलाते हैं कि, जब आपने बिनौलों सहित कपास बेची तो 60 रूपए किलो और रजाई भरवाने के लिए 5 किलो वापिस खरीदी तो भाव 200 रूपए किलो, यह आप पर जुल्म है, यह सरासर नाइंसाफी क्या लूट है।
बहरहाल, उपरोक्त गणित से आपकी समझ में आ गया होगा कि कैसे 60 रूपए किलो वाली कपास तीन गुणा कीमती कैसे हो जाती है। अब एक अहम बात रह जाती है कि कपास का भाव बढऩे पर उससे बनने वाली हर वस्तु के भाव दो से चार गुणा तक बढ़ जाते हैं, पर जब कपास के भाव गिर जाते हैं तो उन वस्तुओं के भाव वहीं अटके रह जाते हैं, एक रूपया भी नीचे नहीं आते। आपने देखा ही होगा कि गत वर्ष के मुकाबले कपास के भाव तो 45 प्रतिशत तक कम हो गए, पर कपड़े और अंडरवीयर-बनियान के भाव आज भी वहीं है, दस प्रतिशत भी कम नहीं हुए। क्या यह लूट अकेले किसानों के साथ ही हो रही है? क्या देश की बाकी जनता को यह सामान सस्ता मिलता है? किसानों उनकी उपज का अच्छा भाव मिले इससे किसी को भी एतराज नहीं हो सकता, सरकार इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी तय करती है, पर किसान की उसी उपज से बनने वाले सामान की कीमत पर नियंत्रण का काम क्या सरकार का नहीं है?
अब एक नजर सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं। पिछले साल कपास बिकी थी औसत 6000 रूपए प्रति क्विंटल यानी 60 रूपए किलो और कपड़ा मिलों ने रूई खरीदी 180 से 185 रूपए किलो। सोचना पड़ता है कि किसान से कारखाना मालिकों तक आते-आते ऐसा क्या हुआ कि भाव एकदम तीन गुणा हो गए? क्या आढ़तियों और बिचौलियों का लाभ इतना ज्यादा है? सच्चाई जानने के लिए एकबार यह हिसाब-किताब भी करके देख लेते हैं- सौ किलो कपास में कचरा और छीजत होती है औसतन 5 प्रतिशत, रूई निकलती है औसत 33 किलो और बिनौला का औसत बैठता है 62 किलो। अगर 62 किलो बिनौलों को 17 रूपए किलो के हिसाब से 1054 रूपए में बेच दिया जाए तो बची हुई 33 किलो रूई की कीमत रह जाएगी 4646 रूपए, यानी करीब 141 रूपए किलो। अब इसमें जोड़ते हैं मजदूरी, ढुलाई, भाड़ा, प्रसंस्करण खर्च और जिनर का लाभ आदि सब मिलाकर लगभग 25 प्रतिशत के हिसाब से 35 रूपए जो कुलमिला कर हो गया 175 रूपए किलो। हमारे तथाकथित किसान हितैषी अर्थशास्त्री अक्सर किसानों को यह कह कर वरगलाते हैं कि, जब आपने बिनौलों सहित कपास बेची तो 60 रूपए किलो और रजाई भरवाने के लिए 5 किलो वापिस खरीदी तो भाव 200 रूपए किलो, यह आप पर जुल्म है, यह सरासर नाइंसाफी क्या लूट है।
बहरहाल, उपरोक्त गणित से आपकी समझ में आ गया होगा कि कैसे 60 रूपए किलो वाली कपास तीन गुणा कीमती कैसे हो जाती है। अब एक अहम बात रह जाती है कि कपास का भाव बढऩे पर उससे बनने वाली हर वस्तु के भाव दो से चार गुणा तक बढ़ जाते हैं, पर जब कपास के भाव गिर जाते हैं तो उन वस्तुओं के भाव वहीं अटके रह जाते हैं, एक रूपया भी नीचे नहीं आते। आपने देखा ही होगा कि गत वर्ष के मुकाबले कपास के भाव तो 45 प्रतिशत तक कम हो गए, पर कपड़े और अंडरवीयर-बनियान के भाव आज भी वहीं है, दस प्रतिशत भी कम नहीं हुए। क्या यह लूट अकेले किसानों के साथ ही हो रही है? क्या देश की बाकी जनता को यह सामान सस्ता मिलता है? किसानों उनकी उपज का अच्छा भाव मिले इससे किसी को भी एतराज नहीं हो सकता, सरकार इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी तय करती है, पर किसान की उसी उपज से बनने वाले सामान की कीमत पर नियंत्रण का काम क्या सरकार का नहीं है?
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