Saturday, April 14, 2012

जल-साधना

देश में भूजल स्तर का गिरना लगातार जारी है, विगत कुछ वर्षों से इसमें बहुत तेजी आई है। वजह हम सब जानते हैं भूजल का जबरदस्त दोहन और तुलनात्मक रूप से उसका संरक्षण न हो पाना। हमारे तालाब, जोहड़, झील, पोखर, बावड़ी ऐसे साधन रहे हैं जहां बरसात का पानी इकट्ठा  होता रहा है और धीरे-धीरे रिस-रिस कर भूजल के स्तर को ऊपर उठाने में सहायक भी। इसमें नदियां और कच्ची नहरें भी सहयोग देती थी। जल संरक्षण के ये परंपरागत स्रोत कुछ तो विकास के नाम पर और शेष अतिक्रमण की वजह से गायब हो गए हैं। अगर कुछ बच भी गए हैं तो उन्हें भी चंद दिनों के मेहमान मानें। नहरें लगभग सारी पक्की हो चुकी हैं रही-सही अगले पांच-सात साल में हो जाएंगी। इसका सीधा अर्थ यह होगा कि जमीन को रिर्चाज करने के सारे रास्ते हमने बंद कर दिए हैं और भूजल-दोहन के मामले में हम दुनिया में सबसे आगे हैं।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सालाना 230 क्यूबिक किलोलीटर भूजल का दोहन करता है जो पृथ्वी के कुल भूजल के दोहन के 25 प्रतिशत से भी अधिक है। दरअसल, भूजल पर हमारी निर्भरता बहुत ज्यादा है और जनसंख्या के बढऩे की वजह से इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। हमारी खेती का करीब 60 प्रतिशत और शहरी तथा ग्रामीण इलाकों में लगभग 80 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति कुओं, हैंडपंपों आदि से हो रही है। इस दोहन की वजह से भारत का 29 प्रतिशत भूजल का ब्लॉक अद्र्ध खतरनाक, खतरनाक या अति दोहन का शिकार हो चुका है। अनुमान है कि 2025 तक भारत का 60 फीसद भूजल ब्लॉक खतरे में पड़ जाएंगे। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान सालाना 109 क्यूबिक किलोलीटर सबसे ज्यादा भूजल का दोहन कर रहे हैं। अकेले पंजाब में सामान्य गहराई वाले 9 लाख ट्यूबवेल सूखे की चपेट में हैं। पंजाब के संपन्न किसान 300 फुट या इससे अधिक खुदाई कर और गहराई से पानी खींचने लग गए हैं। इसकी वजह से सामान्य गहराई वाले ट्यूबवेलों तक पानी पहुंच ही नहीं पाता। यही वजह है कि जो लोग इस तरह से भूजल का दोहन नहीं कर पा रहे हैं उनके अंदर असंतोष बढ़ रहा है। जाहिर है, इससे सामाजिक सौहार्द्र खत्म होगा, और पानी को लेकर तनाव भी बढ़ेगा। इसलिए जरूरी है कि हम इस ओर अभी से संजीदा हो जाएं।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि खेतों में सिंचाई के तरीकों को लेकर भी हमें गंभीरता से विचार करना होगा, क्योंकि भारत में उपलब्ध पानी का 80 प्रतिशत सिंचाई में चला जाता है, यह तब है जबकि हमारे यहां की 60 प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर करती है। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अस्थायी आंकड़े भी हमें चौंकाते हैं, जिनके अनुसार सन 91 से 2007 के बीच बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर करीब 1.3 लाख करोड़ रूपए खर्च किए गए, उसके बावजूद सिंचित क्षेत्र में कमी ही आई है। जहां 1991-92 में नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र करीब एक करोड़ सतहत्तर लाख इक्यान्नवे हजार हेक्टेअर था, से घटकर 2007-08 में एक करोड़ पैंसठ लाख इकत्तीस हजार हेक्टेअर ही रह गया।
इन समस्यओं का जो एकमात्र और फौरी हल नजर आ रहा है वह यह है कि जल को 'साध' ना भी पड़ेगा और उसकी 'साधना' भी करनी पड़ेगी। जल-संरक्षण के लिए परंपरागत स्रोतों पर ध्यान देना एक बेहतर विकल्प हो सकता है। हमें जोहड़, तालाब, पोखर, बावड़ी और टांकों पर फिर से ध्यान देना होगा जो बारिश के पानी को इकट्ठा  करने के बेहतर तरीके हैं। इससे नीचे जाते जल स्तर में भी सुधार होगा। इसके अलावा सिंचाई के परंपरागत तरीके में बदलाव भी लाना पड़ेगा, ताकि कम पानी में अधिक से अधिक सिंचाई संभव हो सके। इसके लिए आस्ट्रेलिया एक उदाहरण हो सकता जो पिछले 20 सालों में सिंचाई पानी की खपत में 30 प्रतिशत की कमी लाने सफल रहा है। अगर ऐसा दुनिया में कहीं भी हो सकता तो भारत में क्यों नहीं हो सकता?

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