राजस्थान में बरसात को लेकर काफी कहावतें है एक बानगी देखें- तितर पंखी बादळी, विधवा काजल रेख, आ बरसे बा घर करे, इ'मे मीन न मेख। मतलब यह कि अगर बादल तीतर के पंखों जैसे दिखें तो वे हर हाल में बरसेंगे ही और विधवा स्त्री अगर काजल लगाए तो वह दूसरी शादी हर हाल में करेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। एक और कहावत है- सावनिये सूरो चालै, भादुडे पुरवाई -आसोजां नाड़ा तांकण, तो भर-भर गाडा ल्याई। अर्थ यह कि सावन महीने में उत्तर-पश्चिमी हवाएं चलें और भादो में पुरवाई, अश्विन माह में पश्चिमी हवाएं चलें तो समझलें कि जबरदस्त पैदावार होगी। कहावतें ही नहीं राजस्थानी भाषा तो इतनी समृद्ध है कि प्रत्येक माह में बरसने वाली बरसात के नाम भी अलग-अलग हैं। हम अक्सर दिसम्बर-जनवरी या फरवरी माह में होने वाली बरसात को मावठ कहते हैं, जबकि केवल माघ महीने में होने वाली बरसात ही मावठ कहलाती है। आपका सवाल हो सकता है कि फिर पौष माह की बरसात को क्या कहेंगे? जाहिर है उसे पावठ कहेंगे।
राजस्थानी साहित्यकार और भाषाविद् भंवरसिंह सामौर के अनुसार पोष में पावठ, माघ में मावठ, फाल्गुन में फटकार, चैत में चड़पड़ाट, वैसाख में हळोतियो, जेठ में झपटो, आषाठ में सरवांत, सावन में लोर, भादो में झड़ी, असोज में मोती, कार्तिक में कटक और मिंगसर में होने वाली बरसात फांसरड़ो कहलाती है। इसके अलावा बरसात की गति, निरंतरता और कितनी देर बरसी इसके भी अलग-अलग नाम हैं। पहली बूंद या छांट को हरि कहते हैं, फिर छांटो, छांटां, छिड़को, छांट-छिड़को, छांटा-छोळ, छिछोहो, मेह, टपको, टीपो, टपूकलो, झिरमिर, झिरमिराट और गति तेज हो जाए तो झड़ी, रीठ, भोट और फैंटो कहलाती है। अगर यही बरसात लगातार तेज हो तो झड़मंडण, बरखवळ, हूलर, त्राट, त्रमझड़, त्राटकणों, धरहरण और अंत में मूसळधार हो जाती है। घटाटोप बरसती घटाओं को सहाड़ कहते हैं और अगर बरसात धरती आकाश एकमेक करदे तो धारोळा, धरोळां-बोछाड़ कहलाती है। इन लगातार और थम-थम कर औसरती बूंदों के कुछ और भी नाम हैं जैसे-बिरखा, घणसार, मेवळियो, बूलौ, सीकर, पुणंग, जिखौ और आणंद।
जब बरसात होती है तो हवा और पानी मिलकर कुछ आवाज भी पैदा करते हैं, इन आवाजों के भी अलग-अलग नाम हैं। तेज आवाज को सोकड़, सूंटो, धारोळा कहते हैं। धारोळों के साथ उठने वाली आवाज कहलाती है धमक-धोख और धमक के साथ चलने वाली तेज हवा को खरस या बावळ कहते हैं।
राजस्थान वालों के लिए चाहे बरसात तीज-त्योंहार की तरह आती हो पर वे इसे सैंकडों नामों से पुकारते हैं, दुलारते है। राजस्थानी भाषा में केवल बरसात और बूदों के ही कई नाम नहीं है, बादलों के उनके रंग-रूप, चाल-ढ़ाल अनुरूप सैंकडों नाम और पर्याय हैं। हर स्थिति के लिए अलग उपमा और नाम हैं, जैसे बारिस आरम्भ होने को बूठणूं और बंद होने को उद्धरेळो कहा जाता है। बरसात के बडे बादलों को शिखर और छोटी लहरदार बादळियों को छीतरी या तीतर पांखी कहते हैं। इधर-उधर छिटके छोटे बादलों को चूंखो या चंूखलो कहते है वहीं बरसते काले बादल काळायण और इन काले बादलों के आगे सफेद बादलों को उनकी स्थितियों के अनुसार कांठळ, कोरण और कागोलड़ कहते हैं। पतले और ऊँचे बादल कस या कसवाड़ और पश्चिम-दक्षिण कोण (नैऋत) से उठकर पूर्व-उत्तर कोण (ईशान) की और जाते बादल ऊँब कहलाते हैं। पश्चिम की ओर से तेज गति से आती बरसात को लोर और तेज होने पर लोरा-झाड़ कहलाती है। बरस कर थक चुके आराम करते बादलों को रींछी कहते हैं। बरस चुके बादलों से सूरज झांके तो उसे मोख-मांखणों पुकारते हैं और जिस रात सबसे ज्यादा बरसात हो उसे महारैण कहते हैं। बादलों के कुछ और पर्याय भी हैं जैसे- सारंग, बोम, बोमचर, मेघ, जळज, जळधर, जळहर, जळजाळ, जळवाह, जळधरण, जळबाहण, जळमंड, जळमंडळ, जळमुक, महत, महिपाळ, महिमंडण, मेहाजळ, मेघाण, महाधण, महींरजण, तरत्र, निरझर, भरणनिवाण, रौरगंजण, पीथळ, पिरथीराज, पिरथीपाळ, पावस, पाथोद, डाबर, डंबर, दळबादळ, हब्र, मैंमट, मेहाजळ, बसु, अंब्र, इळम, पिंगळ, नीरद, पाळग, तडि़तवान, आकासी, सेहर, रामइयो, मुदिर, कारायण, कंद, घण, घणमंड, धरमंडण और भरणनंद।
दुनिया की शायद ही किसी भाषा में बरसात के पानी के लिए कोई अलग से नाम है, पर राजस्थानी में इसे पालर पाणी कहते हैं, जिसका एक और अर्थ निकलता है स्वादहीन। राजस्थान और गुजरात के सेठ अपने गांव के लोगों की प्यास और उसकी कीमत समझते थे, इसलिए तो इन राज्यों में एक-दो कोस की दूरी पर बावडियां बनावाई गई हैं, जिनमें बरसात का पानी इकठा होता है।
राजस्थानी साहित्यकार और भाषाविद् भंवरसिंह सामौर के अनुसार पोष में पावठ, माघ में मावठ, फाल्गुन में फटकार, चैत में चड़पड़ाट, वैसाख में हळोतियो, जेठ में झपटो, आषाठ में सरवांत, सावन में लोर, भादो में झड़ी, असोज में मोती, कार्तिक में कटक और मिंगसर में होने वाली बरसात फांसरड़ो कहलाती है। इसके अलावा बरसात की गति, निरंतरता और कितनी देर बरसी इसके भी अलग-अलग नाम हैं। पहली बूंद या छांट को हरि कहते हैं, फिर छांटो, छांटां, छिड़को, छांट-छिड़को, छांटा-छोळ, छिछोहो, मेह, टपको, टीपो, टपूकलो, झिरमिर, झिरमिराट और गति तेज हो जाए तो झड़ी, रीठ, भोट और फैंटो कहलाती है। अगर यही बरसात लगातार तेज हो तो झड़मंडण, बरखवळ, हूलर, त्राट, त्रमझड़, त्राटकणों, धरहरण और अंत में मूसळधार हो जाती है। घटाटोप बरसती घटाओं को सहाड़ कहते हैं और अगर बरसात धरती आकाश एकमेक करदे तो धारोळा, धरोळां-बोछाड़ कहलाती है। इन लगातार और थम-थम कर औसरती बूंदों के कुछ और भी नाम हैं जैसे-बिरखा, घणसार, मेवळियो, बूलौ, सीकर, पुणंग, जिखौ और आणंद।
जब बरसात होती है तो हवा और पानी मिलकर कुछ आवाज भी पैदा करते हैं, इन आवाजों के भी अलग-अलग नाम हैं। तेज आवाज को सोकड़, सूंटो, धारोळा कहते हैं। धारोळों के साथ उठने वाली आवाज कहलाती है धमक-धोख और धमक के साथ चलने वाली तेज हवा को खरस या बावळ कहते हैं।
राजस्थान वालों के लिए चाहे बरसात तीज-त्योंहार की तरह आती हो पर वे इसे सैंकडों नामों से पुकारते हैं, दुलारते है। राजस्थानी भाषा में केवल बरसात और बूदों के ही कई नाम नहीं है, बादलों के उनके रंग-रूप, चाल-ढ़ाल अनुरूप सैंकडों नाम और पर्याय हैं। हर स्थिति के लिए अलग उपमा और नाम हैं, जैसे बारिस आरम्भ होने को बूठणूं और बंद होने को उद्धरेळो कहा जाता है। बरसात के बडे बादलों को शिखर और छोटी लहरदार बादळियों को छीतरी या तीतर पांखी कहते हैं। इधर-उधर छिटके छोटे बादलों को चूंखो या चंूखलो कहते है वहीं बरसते काले बादल काळायण और इन काले बादलों के आगे सफेद बादलों को उनकी स्थितियों के अनुसार कांठळ, कोरण और कागोलड़ कहते हैं। पतले और ऊँचे बादल कस या कसवाड़ और पश्चिम-दक्षिण कोण (नैऋत) से उठकर पूर्व-उत्तर कोण (ईशान) की और जाते बादल ऊँब कहलाते हैं। पश्चिम की ओर से तेज गति से आती बरसात को लोर और तेज होने पर लोरा-झाड़ कहलाती है। बरस कर थक चुके आराम करते बादलों को रींछी कहते हैं। बरस चुके बादलों से सूरज झांके तो उसे मोख-मांखणों पुकारते हैं और जिस रात सबसे ज्यादा बरसात हो उसे महारैण कहते हैं। बादलों के कुछ और पर्याय भी हैं जैसे- सारंग, बोम, बोमचर, मेघ, जळज, जळधर, जळहर, जळजाळ, जळवाह, जळधरण, जळबाहण, जळमंड, जळमंडळ, जळमुक, महत, महिपाळ, महिमंडण, मेहाजळ, मेघाण, महाधण, महींरजण, तरत्र, निरझर, भरणनिवाण, रौरगंजण, पीथळ, पिरथीराज, पिरथीपाळ, पावस, पाथोद, डाबर, डंबर, दळबादळ, हब्र, मैंमट, मेहाजळ, बसु, अंब्र, इळम, पिंगळ, नीरद, पाळग, तडि़तवान, आकासी, सेहर, रामइयो, मुदिर, कारायण, कंद, घण, घणमंड, धरमंडण और भरणनंद।
दुनिया की शायद ही किसी भाषा में बरसात के पानी के लिए कोई अलग से नाम है, पर राजस्थानी में इसे पालर पाणी कहते हैं, जिसका एक और अर्थ निकलता है स्वादहीन। राजस्थान और गुजरात के सेठ अपने गांव के लोगों की प्यास और उसकी कीमत समझते थे, इसलिए तो इन राज्यों में एक-दो कोस की दूरी पर बावडियां बनावाई गई हैं, जिनमें बरसात का पानी इकठा होता है।
good
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