राजस्थान, गुजरात के साथ-साथ पंजाब व हरियाणा के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र खारे पानी और लवणीय भूमि की समस्या से लगातार जूझते रहे हैं। इन क्षेत्रों के लिए एक अच्छी खबर यह है कि हरियाणा के करनाल स्थित केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान (सीएसएसआरआइ) के वैज्ञानिकों ने लवणग्रस्त भूमि और खारे पानी वाले क्षेत्र में फसल और फल उत्पादन में सफलता हासिल कर ली है।
संस्थान के सिरसा स्थित फार्म पर चार वर्ष पूर्व इस परियोजना पर कार्य शुरू किया गया था। अब ऐसी जमीनों पर आंवला, करौंदा व बेल-पत्र के अलावा बाजरा, सरसों, ग्वार और जौ का फसल चक्र अपनाकर अच्छा उत्पादन लिया है। चौथे वर्ष में आंवला, करौंदा व बेल के पेड़ों से फल मिलने शुरू हो गए हैं। अच्छी बात यह है कि लवणीय जल से सिंचित बाजरा, सरसों, ग्वार व जौ की फसल का उत्पादन भी बेहद संतोषजनक रहा और फलदार पौधों की बढ़वार भी ठीक रही।
संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. आरके यादव के अनुसार लवणीय भूजल वाले अर्धशुष्क क्षेत्रों में कृषि वानिकी एक लाभदायक फसल पद्धति है। अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहां भूजल लवणीय होने के कारण फसल उत्पादन संभव नहीं होता था वहां इस जल से पौधरोपण कर उनके साथ लवण सहनशील व कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों का उत्पादन लाभदायक रहा है। अब किसान ऐसी जमीनों से फल, ईधन, चारा व फसल आसानी से ले सकेंगे। उन्होंने इस प्रयोग के बारे में बताया कि सबसे पहले ट्रैक्टर से 60 सेंटीमीटर चौड़ी व 25 सेंटीमीटर गहरी नालियां बनाई जाती हैं। इन नालियों में ट्रैक्टर चलित बर्मे से उचित दूरी पर गड्ढे बनाए जाते हैं और यदि कंकर हों तो जिप्सम, गोबर की खाद व मिट्टी से गड्ढे को भरकर लवण सहनशील पेड़ लगाए जाते हैं और खारे पानी से सिंचाई की जाती है।
सीएसएसआरआइ के निदेशक डा. डीके शर्मा ने बताया कि केंद्रीय योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक हमें खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए 910 अरब घन मीटर जल की सिंचाई के लिए आवश्यकता होगी। इसके लिए निम्न गुणवत्ता जल जैसे लवणीय भूजल क्षेत्रों में लवणीय जल का उपयोग करना होगा। क्योंकि देश भर में करीब 860 लाख हेक्टेअर भूमि क्षार व लवणों की अधिकता के कारण खराब पड़ी है। देश के उत्तर-पश्चिमी राज्यों में 40 से 80 प्रतिशत भूजल की प्रकृति लवणीय है। ऐसे जल का लंबे समय तक अवैज्ञानिक तरीके से प्रयोग, मृदा व फसल उत्पादन के लिए हानिकारक हो सकता है। इस प्रकार के जल का समुचित वैज्ञानिक तरीकों से न्यूनतम मात्रा में उपयोग उन फसल पद्धतियों में करना चाहिए, जो इन परिस्थितियों में अधिकतम पैदावार दे सकें। अभी मार्च माह में हमारे वैज्ञानिकों नें दो गेहूं की नई किस्म केआरएल-210 व केआरएल-213 इजाद कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है।
इस विषय पर विस्तार से जानकारी देते हुए कृषि विज्ञानिक डॉ. नीरज कुलश्रेष्ठ ने बताया कि केआरएल-210 का दाना सामान्य है। पौधे की लंबाई 99 सेंटीमीटर होने के कारण गिरने की सम्भावना कम रहती है। सामान्य भूमि पर उगाने पर 25 क्विंटल प्रति हेक्टेअर व लवणीय भूमि में करीब 15 क्विंटल पैदावार ली जा सकती है। इसी तरह केआरएल-213 का दाना भी सामान्य ही है और पौधे की लंबाई 97 सेंटीमीटर है। सामान्य भूमि में 20 क्विंटल व लवणीय भूमि में करीब 13 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक पैदावार ली जा सकती है। दोनों किस्मों के गेहूं की रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। संस्थान की ओर से लवणीय व क्षारीय भूमि में बेहतर पैदावार की कई और गेहूं की किस्मों पर भी कार्य चल रहा है।
संस्थान के सिरसा स्थित फार्म पर चार वर्ष पूर्व इस परियोजना पर कार्य शुरू किया गया था। अब ऐसी जमीनों पर आंवला, करौंदा व बेल-पत्र के अलावा बाजरा, सरसों, ग्वार और जौ का फसल चक्र अपनाकर अच्छा उत्पादन लिया है। चौथे वर्ष में आंवला, करौंदा व बेल के पेड़ों से फल मिलने शुरू हो गए हैं। अच्छी बात यह है कि लवणीय जल से सिंचित बाजरा, सरसों, ग्वार व जौ की फसल का उत्पादन भी बेहद संतोषजनक रहा और फलदार पौधों की बढ़वार भी ठीक रही।
संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. आरके यादव के अनुसार लवणीय भूजल वाले अर्धशुष्क क्षेत्रों में कृषि वानिकी एक लाभदायक फसल पद्धति है। अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहां भूजल लवणीय होने के कारण फसल उत्पादन संभव नहीं होता था वहां इस जल से पौधरोपण कर उनके साथ लवण सहनशील व कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों का उत्पादन लाभदायक रहा है। अब किसान ऐसी जमीनों से फल, ईधन, चारा व फसल आसानी से ले सकेंगे। उन्होंने इस प्रयोग के बारे में बताया कि सबसे पहले ट्रैक्टर से 60 सेंटीमीटर चौड़ी व 25 सेंटीमीटर गहरी नालियां बनाई जाती हैं। इन नालियों में ट्रैक्टर चलित बर्मे से उचित दूरी पर गड्ढे बनाए जाते हैं और यदि कंकर हों तो जिप्सम, गोबर की खाद व मिट्टी से गड्ढे को भरकर लवण सहनशील पेड़ लगाए जाते हैं और खारे पानी से सिंचाई की जाती है।
सीएसएसआरआइ के निदेशक डा. डीके शर्मा ने बताया कि केंद्रीय योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक हमें खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए 910 अरब घन मीटर जल की सिंचाई के लिए आवश्यकता होगी। इसके लिए निम्न गुणवत्ता जल जैसे लवणीय भूजल क्षेत्रों में लवणीय जल का उपयोग करना होगा। क्योंकि देश भर में करीब 860 लाख हेक्टेअर भूमि क्षार व लवणों की अधिकता के कारण खराब पड़ी है। देश के उत्तर-पश्चिमी राज्यों में 40 से 80 प्रतिशत भूजल की प्रकृति लवणीय है। ऐसे जल का लंबे समय तक अवैज्ञानिक तरीके से प्रयोग, मृदा व फसल उत्पादन के लिए हानिकारक हो सकता है। इस प्रकार के जल का समुचित वैज्ञानिक तरीकों से न्यूनतम मात्रा में उपयोग उन फसल पद्धतियों में करना चाहिए, जो इन परिस्थितियों में अधिकतम पैदावार दे सकें। अभी मार्च माह में हमारे वैज्ञानिकों नें दो गेहूं की नई किस्म केआरएल-210 व केआरएल-213 इजाद कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है।
इस विषय पर विस्तार से जानकारी देते हुए कृषि विज्ञानिक डॉ. नीरज कुलश्रेष्ठ ने बताया कि केआरएल-210 का दाना सामान्य है। पौधे की लंबाई 99 सेंटीमीटर होने के कारण गिरने की सम्भावना कम रहती है। सामान्य भूमि पर उगाने पर 25 क्विंटल प्रति हेक्टेअर व लवणीय भूमि में करीब 15 क्विंटल पैदावार ली जा सकती है। इसी तरह केआरएल-213 का दाना भी सामान्य ही है और पौधे की लंबाई 97 सेंटीमीटर है। सामान्य भूमि में 20 क्विंटल व लवणीय भूमि में करीब 13 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक पैदावार ली जा सकती है। दोनों किस्मों के गेहूं की रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। संस्थान की ओर से लवणीय व क्षारीय भूमि में बेहतर पैदावार की कई और गेहूं की किस्मों पर भी कार्य चल रहा है।
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