डॉ. भरत झुनझुनवाला
यूपीए सरकार की महत्त्वकांक्षी योजना मनरेगा के सार्थक परिणाम सामने आ रहे हैं। श्रमिकों को रोज़गार अपने घर के पास उपलब्ध हो रहा है। परियोजना में 100 दिन के रोज़गार की व्यवस्था है जिसे अब बढ़ाकर 150 दिन किया जाना प्रस्तावित है। हालांकि 100 दिन के रोज़गार में भी योजना आयोग के अनुसार औसतन केवल 14 दिन का रोज़गार उपलब्ध हो पा रहा है। इस आंकड़े से उद्वेलित नहीं होना चाहिए। खबर है कि दक्षिण के कई राज्यों में श्रमिक 100 रुपए में मनरेगा में काम करने को राजी नहीं हैं क्योंकि क्षेत्र में सामान्य वेतन 200 रुपए है जबकि मनरेगा में 200 के स्थान पर 100 रुपए की ही कमायी होती है। तुलनात्मक रूप से पिछड़े राज्यों में मनरेगा का गहरा प्रभाव पड़ा है। मनरेगा का एक मात्र उजला और सार्थक पक्ष यह है कि बिहार, झारखण्ड और उड़ीसा के पिछड़े जिलों में जहां श्रमिकों की दिहाड़ी 50-60 रुपए थी, मनरेगा के कारण इसमें सहज ही वृद्धि हुई है। फलस्वरूप इन राज्यों से श्रमिक कम पलायन कर रहे हैं, और सम्पूर्ण देश में वेतन वृद्धि हो रही है।
किन्तु इस एकमात्र अच्छे और उजले पक्ष के साथ मनरेगा के तीन नकारात्मक बिन्दु भी सामने आए हैं। पहला यह है कि इसके अन्तर्गत गांवों में ही विकास कार्य कराए जाते हैं, जबकि गांव में उत्पादक कार्यों की संभावनाएं सीमित होती हैं। गांव में तालाब एक बार ही खोदा जा सकता है बार-बार खोदने का तो केवल स्वांग ही रचा जा सकता है। सड़क पर मिटटी डालने का काम भी ज्यादा हो जाए तो सड़क कमजोर हो जाती है। मतलब यह है कि मनरेगा में नदी के किनारे चेकडैम बनाने जैसे व्यर्थ के कार्य करवाए जाते हैं, जिससे हमारी अर्थशक्ति अनावश्यक कार्यों में क्षय हो रही है। मनरेगा में कमी का दूसरा बिन्दु यह है कि बिहार से मजदूरों के नहीं आने से उत्तरी राजस्थान और पंजाब जैसे क्षेत्रों में किसानों एवं उद्यमियों के लिए श्रमिकों की जबरदस्त कमी उत्पन्न हो रही है। एग्री-बिजनेस एण्ड मैनिजमेंट वेबसाइट पर बताया गया है कि मानव श्रमिकों की कमी के कारण किसानों द्वारा रासायनिक कीटनाशकों एवं मशीनों का उपयोग ज्यादा किया जाएगा। यानी किसान द्वारा निराई, गुड़ाई, कटाई, छंटाई के जो रोज़गार श्रम बाजार में सहज ही उत्पन्न किए जा रहे थे वे कार्य अब मशीनों द्वारा करवाए जाएंगे। दीर्घकाल में यह श्रमिकों के लिए हानिप्रद होगा क्योंकि उसकी श्रमशक्ति की मांग ही नहीं रह जाएगी। मनरेगा के अन्तर्गत काम करवाकर सरकार श्रमिक से अपने पैर पर कुल्हाड़ी चलवा रही है। निरीह श्रमिक 100 दिन काम करके आज प्रसन्न हैं परन्तु वे भूल रहे हैं कि आने वाले समय में उन्हे शेष 265 दिन बेकार बैठना पड़ेगा। मनरेगा की कृपा से वे गरीबी के कुएं से निकल कर मशीनीकरण की खाई में गिरने जा रहे हैं। श्रमिक की दिहाड़ी में तात्कालिक वृद्धि तो हो रही है परन्तु दीर्घकाल में उसके श्रम की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी।
तीसरी समस्या पलायन में रुकावट की है। तकनीकी बदलाव के साथ श्रम का पलायन होना अनिवार्य है। एक समय था जब सभी प्रमुख शहर जैसे दिल्ली, कानपुर, पटना एवं कोलकाता आदि नदियों और समुद्र के किनारे बसाए गए। क्योंकि यातायात प्रमुखत: जलमार्ग से होता था। आज रेल और वायुयान के विकास से हिसार, जयपुर और हैदराबाद जैसे शहर भी महानगर बने जा रहे हैं। आज यातायात और परिवहन साधनों पर जलमार्गों का एकाधिकार नहीं रह गया है, अत: नए शहरों की ओर श्रम का पलायन होना स्वाभाविक है। पटना, गया और भागलपुर की बढ़ती जनसंख्या को घर में रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है तथा नये कारखाने दूसरे स्थानों पर लग रहे हैं। इन शहरों के श्रमिकों के लिए कोलकाता, पंजाब, गुजरात और हरियाणा पलायन करना ही श्रेयस्कर है। जिस प्रकार मंडी से सेब और टमाटर उस शहर को भेजे जाते हैं जहां मांग अधिक होती है उसी प्रकार श्रम को भी उसी स्थान पर भेजा जाना चाहिए जहां उसकी मांग अधिक है। गयाना, फिजी, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भारत से बड़ी संख्या में श्रमिक इसी वजह से गए थे। नरेगा द्वारा इस पलायन को जबरन रोका जा रहा है अर्थात उत्पादक स्थान पर श्रम की कमी एवं अनुत्पादक स्थान पर श्रम की बर्बादी होने दी जा रही है।
मनरेगा के इस नकारात्मक पक्ष के प्रति सरकार की उदासीनता का कारण यही लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी का पहला उद्देश्य सत्ता पर बना रहना होता है। इसलिये सरकार मतदाता को उलझाए रखना चाहती है ताकि वह हमेशा सरकार के चारों ओर चक्कर लगाता रहे। दरअसल, सरकार की अंदरूनी मंशा गरीब को गरीबी से उबारने की नहीं है बल्कि उसे गरीब बनाये रखने की होती है। जैसे यदि सरकार लाभार्थी को सीधे 10,000 रुपये प्रति वर्ष दे दे तो लाभार्थी को सरपंच के चक्कर नहीं काटने होंगे बल्कि वह इस रकम से सरपंच की धांधली को उजागर करेगा। अत: सरकार ने युक्ति निकाली है कि नकद के स्थान पर रोज़गार दो ताकि लाभार्थी सरकारी तंत्र पर ही निर्भर रहे। दरअसल मनरेगा गरीब को परावलम्बी बनाने का एक नुस्खा है और सरकार इसमें कामयाब भी हो रही है।
इन समस्याओं के बावजूद मनरेगा की मूल सोच सही दिशा में है। श्रम को ऊंचा वेतन मिलना ही चाहिए परन्तु इस उद्देश्य को मनरेगा से सही मायने में हासिल नहीं किया जा रहा है। हमें ऐसे उपाय निकालने होंगे कि श्रम का मूल्य भी बढ़े और उसकी उत्पादकता भी बनी रहे। पहला उपाय है कि हर परिवार को मनरेगा के अन्तर्गत दी जाने वाली दस हज़ार रुपये की रकम सीधे वितरित कर दी जाए और इस रकम को प्राप्त करने के लिए दो-चार घंटे फर्जी काम करने का जो नाटक हो रहा है उसे भी समाप्त कर दिया जाए। इससे श्रमिक दूसरे उत्पादक कार्यों में लगे रहते हुए इस रकम को प्राप्त कर सकेंगे। इसे प्राप्त करने के लिए उसे निकम्मा नहीं बनना होगा। मनरेगा में तेजी से व्याप्त होती अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से भी देश को छुटकारा मिल जाएगा।
सुधार का दूसरा उपाय है कि सरकारी विभागों अथवा उनके ठेकेदारों द्वारा श्रमिक को दिया जा रहा भुगतान सरकार मनरेगा के बजट से दे दे। सार्वजनिक निर्माण विभाग को एक लम्बी-चौड़ी सड़क बनाने में जितने श्रमिकों का उपयोग करना हो उतनी रकम मनरेगा द्वारा सा.नि.वि. को उपलब्ध करा दी जाए। इससे सरकारी विभागों एवं ठेकेदारों के लिए कार्यों को मशीनों के स्थान पर श्रमिकों से कराना लाभप्रद हो जाएगा क्योंकि मशीनों का भुगतान उन्हें अपने बजट से करना होगा। इसी प्रकार निजी उद्योगों द्वारा उपयोग किये गये श्रम पर 50 रुपए प्रतिदिन का अनुदान दिया जा सकता है। ऐसा करने से बाज़ार में सहज ही रोज़गार उत्पन्न हो जाएंगे और मनरेगा की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। फिर भी यदि मनरेगा को जारी रखना ही हो तो इसमें निजी भूमि के सुधार की छूट दी जानी चाहिए। किसान अपने खेत पर मेड़बन्दी करे और वृक्ष लगाये तो मनरेगा उसे मजदूरी दे। इससे यह रकम उत्पादक हो जाएगी और उद्योगों को हो रहे नुकसान की आंशिक भरपायी भी हो जायेगी। सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए कि श्रमिक की दिहाड़ी में वृद्धि भी हो और उसके श्रम का सदुपयोग भी हो।
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और देश के कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए इस विषय पर लिखते हैं।)
किन्तु इस एकमात्र अच्छे और उजले पक्ष के साथ मनरेगा के तीन नकारात्मक बिन्दु भी सामने आए हैं। पहला यह है कि इसके अन्तर्गत गांवों में ही विकास कार्य कराए जाते हैं, जबकि गांव में उत्पादक कार्यों की संभावनाएं सीमित होती हैं। गांव में तालाब एक बार ही खोदा जा सकता है बार-बार खोदने का तो केवल स्वांग ही रचा जा सकता है। सड़क पर मिटटी डालने का काम भी ज्यादा हो जाए तो सड़क कमजोर हो जाती है। मतलब यह है कि मनरेगा में नदी के किनारे चेकडैम बनाने जैसे व्यर्थ के कार्य करवाए जाते हैं, जिससे हमारी अर्थशक्ति अनावश्यक कार्यों में क्षय हो रही है। मनरेगा में कमी का दूसरा बिन्दु यह है कि बिहार से मजदूरों के नहीं आने से उत्तरी राजस्थान और पंजाब जैसे क्षेत्रों में किसानों एवं उद्यमियों के लिए श्रमिकों की जबरदस्त कमी उत्पन्न हो रही है। एग्री-बिजनेस एण्ड मैनिजमेंट वेबसाइट पर बताया गया है कि मानव श्रमिकों की कमी के कारण किसानों द्वारा रासायनिक कीटनाशकों एवं मशीनों का उपयोग ज्यादा किया जाएगा। यानी किसान द्वारा निराई, गुड़ाई, कटाई, छंटाई के जो रोज़गार श्रम बाजार में सहज ही उत्पन्न किए जा रहे थे वे कार्य अब मशीनों द्वारा करवाए जाएंगे। दीर्घकाल में यह श्रमिकों के लिए हानिप्रद होगा क्योंकि उसकी श्रमशक्ति की मांग ही नहीं रह जाएगी। मनरेगा के अन्तर्गत काम करवाकर सरकार श्रमिक से अपने पैर पर कुल्हाड़ी चलवा रही है। निरीह श्रमिक 100 दिन काम करके आज प्रसन्न हैं परन्तु वे भूल रहे हैं कि आने वाले समय में उन्हे शेष 265 दिन बेकार बैठना पड़ेगा। मनरेगा की कृपा से वे गरीबी के कुएं से निकल कर मशीनीकरण की खाई में गिरने जा रहे हैं। श्रमिक की दिहाड़ी में तात्कालिक वृद्धि तो हो रही है परन्तु दीर्घकाल में उसके श्रम की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी।
तीसरी समस्या पलायन में रुकावट की है। तकनीकी बदलाव के साथ श्रम का पलायन होना अनिवार्य है। एक समय था जब सभी प्रमुख शहर जैसे दिल्ली, कानपुर, पटना एवं कोलकाता आदि नदियों और समुद्र के किनारे बसाए गए। क्योंकि यातायात प्रमुखत: जलमार्ग से होता था। आज रेल और वायुयान के विकास से हिसार, जयपुर और हैदराबाद जैसे शहर भी महानगर बने जा रहे हैं। आज यातायात और परिवहन साधनों पर जलमार्गों का एकाधिकार नहीं रह गया है, अत: नए शहरों की ओर श्रम का पलायन होना स्वाभाविक है। पटना, गया और भागलपुर की बढ़ती जनसंख्या को घर में रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है तथा नये कारखाने दूसरे स्थानों पर लग रहे हैं। इन शहरों के श्रमिकों के लिए कोलकाता, पंजाब, गुजरात और हरियाणा पलायन करना ही श्रेयस्कर है। जिस प्रकार मंडी से सेब और टमाटर उस शहर को भेजे जाते हैं जहां मांग अधिक होती है उसी प्रकार श्रम को भी उसी स्थान पर भेजा जाना चाहिए जहां उसकी मांग अधिक है। गयाना, फिजी, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भारत से बड़ी संख्या में श्रमिक इसी वजह से गए थे। नरेगा द्वारा इस पलायन को जबरन रोका जा रहा है अर्थात उत्पादक स्थान पर श्रम की कमी एवं अनुत्पादक स्थान पर श्रम की बर्बादी होने दी जा रही है।
मनरेगा के इस नकारात्मक पक्ष के प्रति सरकार की उदासीनता का कारण यही लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी का पहला उद्देश्य सत्ता पर बना रहना होता है। इसलिये सरकार मतदाता को उलझाए रखना चाहती है ताकि वह हमेशा सरकार के चारों ओर चक्कर लगाता रहे। दरअसल, सरकार की अंदरूनी मंशा गरीब को गरीबी से उबारने की नहीं है बल्कि उसे गरीब बनाये रखने की होती है। जैसे यदि सरकार लाभार्थी को सीधे 10,000 रुपये प्रति वर्ष दे दे तो लाभार्थी को सरपंच के चक्कर नहीं काटने होंगे बल्कि वह इस रकम से सरपंच की धांधली को उजागर करेगा। अत: सरकार ने युक्ति निकाली है कि नकद के स्थान पर रोज़गार दो ताकि लाभार्थी सरकारी तंत्र पर ही निर्भर रहे। दरअसल मनरेगा गरीब को परावलम्बी बनाने का एक नुस्खा है और सरकार इसमें कामयाब भी हो रही है।
इन समस्याओं के बावजूद मनरेगा की मूल सोच सही दिशा में है। श्रम को ऊंचा वेतन मिलना ही चाहिए परन्तु इस उद्देश्य को मनरेगा से सही मायने में हासिल नहीं किया जा रहा है। हमें ऐसे उपाय निकालने होंगे कि श्रम का मूल्य भी बढ़े और उसकी उत्पादकता भी बनी रहे। पहला उपाय है कि हर परिवार को मनरेगा के अन्तर्गत दी जाने वाली दस हज़ार रुपये की रकम सीधे वितरित कर दी जाए और इस रकम को प्राप्त करने के लिए दो-चार घंटे फर्जी काम करने का जो नाटक हो रहा है उसे भी समाप्त कर दिया जाए। इससे श्रमिक दूसरे उत्पादक कार्यों में लगे रहते हुए इस रकम को प्राप्त कर सकेंगे। इसे प्राप्त करने के लिए उसे निकम्मा नहीं बनना होगा। मनरेगा में तेजी से व्याप्त होती अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से भी देश को छुटकारा मिल जाएगा।
सुधार का दूसरा उपाय है कि सरकारी विभागों अथवा उनके ठेकेदारों द्वारा श्रमिक को दिया जा रहा भुगतान सरकार मनरेगा के बजट से दे दे। सार्वजनिक निर्माण विभाग को एक लम्बी-चौड़ी सड़क बनाने में जितने श्रमिकों का उपयोग करना हो उतनी रकम मनरेगा द्वारा सा.नि.वि. को उपलब्ध करा दी जाए। इससे सरकारी विभागों एवं ठेकेदारों के लिए कार्यों को मशीनों के स्थान पर श्रमिकों से कराना लाभप्रद हो जाएगा क्योंकि मशीनों का भुगतान उन्हें अपने बजट से करना होगा। इसी प्रकार निजी उद्योगों द्वारा उपयोग किये गये श्रम पर 50 रुपए प्रतिदिन का अनुदान दिया जा सकता है। ऐसा करने से बाज़ार में सहज ही रोज़गार उत्पन्न हो जाएंगे और मनरेगा की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। फिर भी यदि मनरेगा को जारी रखना ही हो तो इसमें निजी भूमि के सुधार की छूट दी जानी चाहिए। किसान अपने खेत पर मेड़बन्दी करे और वृक्ष लगाये तो मनरेगा उसे मजदूरी दे। इससे यह रकम उत्पादक हो जाएगी और उद्योगों को हो रहे नुकसान की आंशिक भरपायी भी हो जायेगी। सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए कि श्रमिक की दिहाड़ी में वृद्धि भी हो और उसके श्रम का सदुपयोग भी हो।
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और देश के कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए इस विषय पर लिखते हैं।)
Very nice
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