Thursday, January 17, 2013

घोर कलयुग है

भारत की संस्कृति कथा को चार युगों-सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में बांटा गया है। शास्त्रानुसार चाहे इन कालखण्डों की कुछ भी व्याख्या की गई हो पर प्रगति के आधार पर कहा जा सकता है कि सतयुग केवल मानव श्रम का युग था, जबकि त्रेता में आदमी के हाथ में लकड़ी और पत्थर के हथियार आ गए थे। द्वापर आते-आते मनुष्य ने पहिए का अविष्कार कर लिया और हथियारों में लकड़ी, पत्थर के अलावा धातु का प्रयोग होने लगा। इसके बाद आया कलियुग जो पूर्णतया कल-पूर्जों और कल कारखानों का युग है, जो आज भी जारी है। वर्तमान में हमारे चारों तरफ इतने यंत्र हैं जिनके बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल है, विशेषकर कृषि का क्षेत्र जिसमें बिना यंत्रों के उपज लेने की सोचना भी कठिन है। आज पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के किसान अपनी थोड़ी सी जमीन पर खेती के लिए ज्यादा से ज्यादा उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका मानना है कि कामकाज के लिए यंत्रों के उपयोग के अलावा अब और कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि पिछले दो वर्षों में मजदूरी की दर दोगुनी हो चुकी हैं। उत्तरी भारत ही नहीं आज देशभर में किसान मजदूरों की जगह मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रख्यात कृषि अर्थशास्त्री और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के अध्यक्ष अशोक गुलाटी भी मानते हैं कि मनरेगा जैसी योजनाओं के चलते न केवल कृषि मजदूरी महंगी हुई है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता भी घटी है। यही वजह है कि जहां भी मजदूरों की जरूरत है वहां मशीनों का उपयोग बढ़ रहा है।
कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण का यह रुझान केवल ट्रैक्टरों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरक कृषि उपकरणों जैसे कंबाइन हार्वेस्टर, छोटे टिलर्स, डी-वीडर्स और बिजली तथा बैटरी से चलने वाले छोटे स्प्रेयर का उपयोग भी बढ़ रहा है। पिछले 5 साल में इन उपकरणों की बढ़ती बिक्री से इस बात को बल मिलता है कि मानव श्रम की जगह मशीनों का उपयोग कई गुणा बढ़ा है। इस दौरान बिकने वाले भारी ट्रैक्टरों की बिक्री 2010-11 में 57 प्रतिशत बढ़कर 5,45,128 इकाई रही, जो 2007-08 में 3,46,501 इकाई थी। इसी अवधि में छोटे टै्रक्टरों, कंबाइन हार्वेस्टर, पावर स्पे्रयर और ब्रश कटर की बिक्री में क्रमश: 157, 60, 300 और 800 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई।
नैशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिसी रिसर्च के निदेशक रमेशचंद ने कहा, 'किसान न केवल अपने कृषि कार्यों के लिए ज्यादा मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि इनकी उपयोगिता भी बढ़ी है।'
उन्होंने कहा कि इससे पहले कृषि उपकरण जैसे कंबाइन हार्वेस्टर कुछ समय ही काम आते थे, लेकिन अब इनका इस्तेमाल पूरे फसल चक्र में होता है। इन उपकरणों का दैनिक किराया भी बढ़ा है। इसलिए क्या केवल बढ़ती श्रम लागत के कारण अचानक कृषि में मशीनों के उपयोग को वरीयता दी जाने लगी है? विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि पिछले 3-4 वर्षों में कृषि श्रम लागत में करीब 70 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इसकी वजह सरकार की मनरेगा जैसी सफल कल्याणकारी योजनाएं हैं। मनरेगा योजना अलग-अलग राज्यों में 125 से 155 रुपये दैनिक मजदूरी की गारंटी देती है।
श्रम विभाग के आंकड़े दर्शाते हैं कि पंजाब में औसत दैनिक कृषि मजदूरी पिछले 4 वर्षों में 78 फीसदी बढ़ी है। यह जनवरी 2007 में 95.75 रुपये थी, जो अप्रैल 2011 में बढ़कर 170.24 रुपये हो गई। देश में पंजाब गेहूं और चावल का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। वहीं हरियाणा में औसत दैनिक कृषि मजदूरी संदर्भित अवधि में 102 फीसदी बढ़ी है। वहां यह 100.18 रुपये से बढ़कर 203.06 रुपये हो गई है।  वर्ष 2005 में शुरू की गई मनरेगा योजना 2007 से देश के सभी जिलों में चालू है। इतनी ऊंची मजदूरी दर न केवल किसानों के लाभ को कम कर रही है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता भी घटा रही है।
दक्षिण भारत में चैन्ने स्थिति मुरुगप्पा समूह की कंपनी ईआइडी पैरी के प्रबंध निदेशक रविन्द्रसिंह सिंघवी कहते हैं कि- मनरेगा और व्याप्त सामाजिक-आर्थिक स्थितियों जैसे कारकों से 30-40 फीसदी कार्यबल में कमी आती है, जिससे साल दर साल लागत बढ़ती है। वह कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में तमिलनाडु में गन्ने की कटाई लागत 300 रुपये से बढ़कर 500-600 रुपये प्रति टन हो गई है। उनके अनुसार कटाई की चरम अवधि में यह 700 रुपये प्रति टन तक पहुंच जाती है। मुरुगप्पा समूह कृषि उत्पाद और सॉल्यूशन मुहैया कराने वाला 17,000 करोड़ रुपये का बड़ा समूह है। मुरुगप्पा समूह ने गन्ना उत्पादकों को मैकेनाइज्ड हार्वेस्टर और अन्य उपकरण मुहैया कराने के लिए हाल ही में सीएनएच ग्लोबल न्यू हॉलैंड फिएट इंडिया के साथ समझौता किया है। सिंघवी कहते हैं कि - ईआइडी पैरी और इसके सहयोगी जरूरी कृषि उपकरण जुटाएंगे और इसके बाद उन्हें किसानों को किराए पर देंगे, इससे किसानों की लागत वास्तविक लागत से काफी कम हो जाएगी। प्रारंभिक चरण में इस प्रयास के जरिए 15,000 किसानों को लक्षित किया जाएगा, जिस पर 100 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। समूह ने तमिलनाडु में उगाए जाने वाले कुल गन्ने के आधे भाग का मशीनीकरण के लिए निवेश बढ़ाने की योजना बनाई है। 
प्रमुख ट्रैक्टर निर्माता सोनालीका समूह के चेयरमैन एल डी मित्तल कृषि उपकरणों की बढ़ती बिक्री में दूसरा आयाम जोड़ते हैं। उनका कहना है कि किसान केवल मजदूरी के बारे में चिंतित नहीं हैं बल्कि वे उसी भूखंड से ज्यादा से ज्यादा लाभ अर्जित करना चाहते हैं, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में प्रतिफल काफी सुधरा है। मित्तल ने कहा कि - यदि किसान पहले अपने खेत को साफ करता है तो संभावना है कि अतिरिक्त फसल की बुआई कर करेगा और यह तभी हो सकता है जब मैनुअल श्रम लागत न्यूनतम हो।
छोटे और वहनीय (अफोर्डेबल) कृषि उपकरण विकसित करने वाली एक कंपनी एसएएस मोटर्स के प्रबंध निदेशक रवींद्र कुमार कहते हैं कि बैलों की एक जोड़ी की कीमत करीब 50,000 रुपये बैठती है और उन्हें खिलाने के लिए हर महीने अतिरिक्त 5,000 रुपये की जरूरत होती है। यद्यपि इनका इस्तेमाल एक महीने होता है, लेकिन पूरे वर्ष इन्हें चारा खिलाना पड़ता है। इसलिए भारतीय कृषि में बैल रखने की लागत महंगी पड़ती है।' इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया कहते हैं कि- हालांकि कृषि यंत्रिकरण विगत कुछ वर्षों में बहुत बढ़ा है पर अभी भी बहुत इस क्षेत्र में बहुत काम होना बाकी है। हमें इसके लिए भारतीय परस्थितियों के अनुसार यंत्र बनाने पड़ेंगे, अभी देश में कृषि यंत्र बनाने वाली कम्पनियां शोध एवं विकास पर कुछ नहीं कर रही हैं, वे चीन से आयात कर ग्राहकों बिना किसी बदलाव के यंत्र बेच रही हैं। नतीजा चाहे जो भी हो, यह बदलाव स्वागत योग्य है, क्योंकि मशीनीकरण उत्पादकता में सुधार के जरिए न केवल प्रति इकाई लागत घटाता है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता में घटत-बढ़त की स्थिति को भी कम करता है। भारतीय किसानों में मशीनों के प्रति बढ़ते प्रेम के चलते अनेक कंपनियां इस क्षेत्र में उतर रही हैं। अगर ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नहीं कि जब खेतों में किसान की जगह केवल मशीने ही नजर आएंगी। तब कहा जाएगा के वास्तव में घोर कल युग आ गया है।

इतना मंहगा क्यों है ट्रैक्टर?

नैनो कार की तरह एक लखटकिया ट्रैक्टर बाजार में आने की चर्चा समय-समय पर होती रहती है। यह खबर सुनकर खेती-बारी से जुड़े तमाम लोगों के मन में यह सवाल उठने लगता है कि क्या लाख रुपए का ट्रैक्टर किसानों को मिल सकता है? इसकी उपयोगिता और क्षमता क्या होगी? क्या इससे खेती की जरूरतें पूरी हो जाएंगी?
ट्रैक्टर निर्माताओं के मुताबिक ऐसा संभव है। इससे पहले कुछ कंपनियां सस्ता ट्रैक्टर बनाने की कौशिश कर चुकी हैं। हाल ही में गुजरात की एक अग्रणी कंपनी ने में करीब डेढ़ लाख रुपए का 15 हार्स पावर का एक ट्रैक्टर लांच किया है। उससे पहले हरियाणा की एक कंपनी 22 हार्स पावर का एक ट्रैक्टर एक लाख से कम कीमत में उतार चुकी है। इस बाजार से जुड़े लोगों की मानें तो अन्य कंपनियां भी इस मामले में गंभीर हैं। डीलरों और किसानों से ऐसे ट्रैक्टर की संभावना के बारे में राय ली जा चुकी है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि अगर सरकार, निर्माता और डीलर अपने-अपने स्तर से थोड़ी-थोड़ी रियायत करें, तो मौजूदा समय में ही लाख रुपए से कुछ ऊपर का ट्रैक्टर किसानों को आसानी से उपलब्ध हो सकता है। नई तकनीक वाले वातानुकूलित और बड़े उत्पादों को छोड़ भी दिया जाए, तो बाजार में कम से कम कीमत के उपलब्ध ट्रैक्टरों के दाम भी करीब तीन लाख रुपए है। इसमें उत्पादक को करीब 80 हजार से 1 लाख तक का लाभ होता है। करीब इतना ही विभिन्न करों के रूप में सरकार को जाता है। 15 से 25 हजार डीलर का मुनाफा होता है। अगर हर कोई अपने हिस्से में कुछ कटौती करे और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत 30-35 हार्स पावर के ट्रैक्टर पर 30 हजार रुपए का जो अनुदान देय है, उसे कम कीमत वाले ट्रैक्टरों पर भी दिया जाए, तो तीन लाख वाला ट्रैक्टर ही डेढ़ से दो लाख के बीच मिलने लगेगा। कंपनियां कम कीमत का जो नया ट्रैक्टर लांच कर रही हैं या करेंगी अगर उसमें ये सारी बातें शामिल कर दी जाएं तो लाख रुपए का ट्रैक्टर किसानों के लिए हकीकत होगा। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश में 90 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले हैं और उनमें भी 75 प्रतिशत की जोत तो एक हेक्टेअर से कम है। इनमें से अधिकांश की हैसियत तीन लाख या इससे ऊपर की कीमत का ट्रैक्टर खरीदने की नहीं है।
ऐसे में अधिकतर किसान किराए के ट्रैक्टर या बैल से खेती करते हैं। मौजूदा समय में बैल की एक बढिय़ा जोड़ी भी तीस से पचास हजार रुपए की है और पशु की जिंदगी कम तथा अन्य जोखिम अलग से हैं। बैल से काम लें या न लें पर खिलाना तो रोज ही पड़ता है ऐसे में लाख रुपए या इससे कुछ अधिक का ट्रैक्टर किराए के ट्रैक्टर या बैलों की जोड़ी का बेहतर विकल्प हो सकता है।
दूसरी तरफ एक अहम सवाल यह भी है कि विगत दस वर्षों में भारत में कारों की कीमत या तो वही हैं या उससे भी कम हो गई पर टैक्ट्ररों कीमतें चार से आठ गुणा तक बढ़ गई हैं और तकनीक तथा सहूलियत के हिसाब से भी उनमें कोई बदलावा नहीं आया है। इस बाबत सोनालिका टैक्ट्रर्ज के चेअरमैन एलडी मित्तल का कहना है कि कार निर्माताओं के पास पहले से ही बहुत ज्यादा मुनाफा था इसलिए कारों की कीमत गत दस सालों में स्थिर रही पर हमारे पास पहले से ही कम लाभ था और स्टील की कीमत दूगनी से ज्यादा हो गई तो रेट बढ़ाने के अलावा चारा क्या था? रही बात तकनीकी रूप से सुधार की तो बहुत सारे बदलाव टैक्ट्ररर्ज में आएं हैं जैसे-ऐवरेज बढ़ी है, सीआरडीआई इंजन तथा पावर स्टेरिंग आ गए हैं। इस विषय में जब एस्कॉर्ट लिमिटेड के मुख्य महाप्रबंधक (विक्रय) एसपी पाण्डे का तर्क वाजिब लगता है, वे कहते हैं कि- एक ट्रैक्टर बनने में काम आने वाली डाई तथा मोल्डिंग टूल उतने ही मंहगे हैं जितने एक कार बनाने में काम आने वाले औजार। लेकिन उन औजारों से बनने वाले ट्रैक्टर मात्र दो-तीन हजार बिकते हैं पर कारें दो-तीन लाख, इसलिए ट्रैक्टर की लागत बहुत ज्यादा बैठती है। वे कहते हैं कि आज देश में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 5 लाख ट्रैक्टर बिकते हैं जबकि कार का एक मॉडल ही इतना बिक जाता है।  इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया से पूछा गया तो उन्होंने विस्तार से बताया कि-इसके पीछे दो-तीन कारण है। पहला तो यह कि सरकारी नीतियां पर्यावरण के मामले में अमेरिका का अनुसरण कर रही है, जिसकी वजह से हमें यूरो-4 मानकों के तहत ट्रैक्टर बनाने पड़ रहे हैं, जबकि अन्य विकासशील देशों में यहां तक कि चीन में भी यूरो-3 मानक पर ही ट्रैक्टर बन रहे हैं। इसी बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हम तो यूरो-4 मानकों में ट्रैक्टर बना रहे हैं जबकि देश में अभी तक बिना यूरो मानक के ट्रैक्टर दौड़ रहे हैं।
सरकार देश की स्थितियों को देखते हुए व्यवहारिक नीयम नहीं बनाती जिसकी वजह से हमें बदलाव के लिए शोध तथा विकास पर बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है, इस वजह से प्रति वर्ष ट्रैक्टर 4 से 5 प्रतिशत तक मंहगा हो जाता है। मूल्य वृद्धि का दूसरा कारण है स्टील, रबर और लेबर का मंहगा होना, विगत दस वर्षों में ये तीनों वस्तुएं ढाई से तीन गुना तक मंहगी हुई हैं।

Saturday, January 12, 2013

तकनीक की भेंट चढ़ गए मित्र पक्षी


किसानों के मित्र समझे जाने वाले मित्र पक्षियों की कई प्रजातियां काफी समय से दिखाई नहीं दे रहीं हैं। किसान मित्र पक्षियों का धीरे-धीरे गायब होने के पीछे बहुत से कारणों में एक बड़ी वजह किसानों द्वारा कृषि में परंपरागत तकनीक छोड़ देने, मशीनीकरण व कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल को माना जा रहा है। गाँव-गाँव में मोबाइल फोन के टावरों से निकलने वाली तरंगों से भी मित्र पक्षियों तथा कीटों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
कौन से हैं किसानों के मित्र
किसान मित्र पक्षियों में मोर, तीतर, बटेर, कौआ, शिकरा, बाज, काली चिड़ी और गिद्ध आदि हैं, जो दिन-प्रतिदिन लुप्त होते जा रहे हैं। ये पक्षी खेतों में बड़ी संख्या में कीटों को मारकर खाते हैं। आज से एक दशक पहले तक ये पक्षी काफी अधिक संख्या में थे लेकिन अब इनमें कुछ पक्षियों के दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। सबसे ज्यादा असर तो खेतऔर घरों में आमतौर पर दिखने वाली गौरया चिड़ी पर पड़ा है। खेतों में तीतर व बटेर जैसे पक्षी दीमक को खत्म करने में सहायक थे, क्योंकि उनका मनपंसद खाना दीमक ही है। इनके प्रजनन का माह अप्रैल, मई है और ये पक्षी आम तौर पर गेहूं के खेत में अंडे देते है। आज किसान गेहूँ कम्बाइन से काटते हैं और बचे हुए भाग को आग लगा देते हंै। इससे तीतर, बटेर के अंडे, बच्चें आग की भेंट चढ़ जाते है। इसी कारण इनकी संख्या में कमी आ रही है। नरमा, कपास के खेतों में दिन-प्रतिदिन कीटनाशकों का जरूरत से ज्यादा छिड़काव हो रहा है। जिससे बड़ी संख्या में तीतर-बटेरों की हर साल मौत हो जाती है। कमोबेस यही स्थिति मांसाहारी पक्षियों बाज, शिकरा, गिद्ध और कौवों की भी है।
खूबसूरत मोर भी हुए लुप्तप्राय
गाँव का सबसे खूबसूरत पक्षी और वर्षा की पूर्व सूचना देने वाले मोर भी अब लुप्त होते जा रहे है। ये पक्षी किसानों को सांप जैसे खतरनाक जंतुओं से भयमुक्त रखता है और साथ ही पक्षी शिकार कर खेतों से चूहे मारकर खाने में मशहूर है। वर्तमान में जहरीली दवाओं की वजह से मोरों की संख्या बहुत कम हो गई है।
मुर्दाखोर गिद्ध भी गायब हैं
भारत मे कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थी, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हैं। संरक्षण कार्यकर्ताओं का मानना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में अविश्वसनीय रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है। गिद्धों की इस कमी का एक कारण बताया जा रहा है: पशुओं को दर्दनाशक के रूप में दी जा रही दवा डायक्लोफ़ेनाक, और दूसरा, दूध निकालने लिए के लगातार दिए जा रहे ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इन दवाओं के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो ये रसायन उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते है और सड़े हुए माँस से होने वाली अनेक बीमारियों की रोकथाम में सहायता कर प्राकृतिक संतुलन बिठाते है। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, एक गिद्ध जोड़ा साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देता है।
कीटनाशकों के प्रयोग से मरे अधिकांश पक्षी
कीटनाशकों का प्रयोग लगातार बढऩे से अन्य कीटों के साथ-साथ चूहे भी मर जाते हैं और इन मरे हुए चूहों को खाने से ये पक्षी भी मर जाते हैं। इसी प्रकार कौवे तथा गिद्ध भी जहर युक्त मरे जानवरों को खाने से मर रहे हैं। खेतों में सुंडी जैसे कीटों को मारकर खाने वाली काली चिडिया व अन्य किस्म की चिडियों पर भी कीटनाशकों का कहर बरपा है। अब ये पक्षी कभी-कभार ही दिखाई देते हैं।
वृक्षों का कटना भी है कारण
खेतों से पक्षियों के गायब होने का एक बड़ा कारण है किसानों द्वारा वृक्षों का काटना। किसानों द्वारा किसी जमाने में खेतों में वृक्षों के नीचे पक्षियों के लिए पानी व खाने का प्रबंध किया जाता था, परंतु अब ठीक इसके विपरीत हो रहा है, जिससे अब पक्षियों का रूख खेतों की तरफ नहीं हो रहा है।

कृषि यंत्रों का ऐतिहासिक सफर


विश्व में खेती का इतिहास जितना पुराना है कमो-बेश कृषि यंत्रों का इतिहास भी उतना ही पुराना है। खेतों को तैयार करने, जोतने बोने, फसल काटने आदि के लिए मनुष्य को आरंभ से ही उपकरणों की जरूरत रही है। आरंभ में वे सब औजार लकड़ी, पत्थर या हड्डी के रहे होंगे लेकिन धातु के आविष्कार के बाद पत्थर और हड्डी की जगह धातु ने ले ली और लकड़ी के हल में भी लोहे के फल लगने लगे। इसी प्रकार कुदाल, फावड़ा, खुरपी, हँसिया आदि दूसरे प्रकार के उपकरण भी बनाए और मानवशक्ति के साथ-साथ पशुशक्ति का उपयोग किया जाने लगा। इसके लिए बैल, घोड़ा, खच्चर, ऊँट अधिक लाभदायक सिद्ध हुए। इन्हीं साधनों और पशुओं में थोड़े से बदलाव के साथ संसार के सभी देशों में 18वीं शताब्दी के आरंभ तक खेती होती रही। अठारहवीं शताब्दी में उद्योगों में यंत्रीकरण के बाद कृषि क्षेत्र में भी लोगों का ध्यान इस ओर गया तथा धीरे-धीरे कृषि उपकरण यंत्र बनते गए। उन्नत देशों में सन 1840 से ही लगभग लोहे के हलों का उपयोग होने लगा था। 20वीं शताब्दी में हलों में पर्याप्त सुधार किए गए, जिनके कारण हलों पर भार घट गया। कोल्टर्स के उपयोग के कारण हलों में खरपतवार भी कम फसते है तथा ये आसानी से चलते भी हैं। अब रबर के पहिए के कारण कृषि यंत्रों और ट्रैक्टरों द्वारा भार के खिंचाव में सुविधा हो गई है। अच्छे डिजाइन और बनावट तथा सुदृढ़ धातु के उपयोग के कारण घर्षण कम हो गया है। पिछड़े हुए देशों में आजतक भी अच्छे प्रकार के कृषि यंत्रों का मिलना एक समस्या है। सन 1900 के बाद विशेषत: प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात, रूस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अमरीका और अफ्रीका में कृषि के यंत्रीकरण का प्रचलन अधिक हुआ। श्रम की महत्त्व समझने वाले अनेक देशों के कृषक जुताई तथा फसल की बटाई आदि कार्यों के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने लगे, किंतु अफ्रीका और एशिया के बहुत से देशों में अभी यांत्रिक शक्ति का उपयोग अधिक मात्रा में नहीं हो रहा है। रूस के साइबीरिया क्षेत्र में सामूहिक खेतों पर तथा दक्षिण व मध्य अमरीका में मक्का उगाने के लिए, अर्जेंटाइना में कपास तथा ईख आदि के लिए यंत्रों का उपयोग विशेष रूप से होता है।
आधुनिक यंत्रों के प्रयोग से खाद्य एवं पहनने की वस्तुओं के उत्पादन में काफी प्रगति हुई है। क्षेत्र और विभिन्न प्रकार की फसलों का ध्यान रखते हुए अनेक प्रकार के यंत्रों का निर्माण होने लगा है। खेती के काम के लिए शक्ति के बढ़ते हुए उपयोग के कारण, मशीनों को चलाने वाली मोटरों तथा विद्युत का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ रहा है। संयुक्त राज्य अमरीका में, खेती की वृद्धि के साथ-साथ विद्युत शक्ति का उपयोग मुर्गी तथा सूअरों के पालने, घास सुखाने, आटा पीसने तथा डेअरी मशीनें आदि चलाने के कार्यों में भी होने लगा है। जिसकी वजह से घोड़ों और ऊँटों का प्रयोग बहुत ही कम हो गया। हाथ तथा पशुओं से चलाए जानेवाले यंत्रों में भी पर्याप्त सुधार हुआ और शक्तिचालित यंत्रों का आविष्कार एवं उपयोग बढ़ता गया। कृषि अनुसंधानकर्ताओं तथा अभियंताओं ने अब पौधे लगाने वाली, चुकंदर के बीज अलग करनेवाली एवं दाना तथा भूसा अलग करने आदि, कृषि कार्यों के लिए उपयोगी मशीनों को भी शक्तिचालित बनाने में सफलता प्राप्त करली है। संयुक्त राज्य अमरीका में कृषि कार्य में शक्ति और यंत्रों के उपयोगों के प्रारंभ का क्षेत्र बड़ा व्यापक था, वहाँ के खेत विभिन्न प्रकार की मिट्टी के होने के कारण छोटे-छोटे भागों में बँटे हुए थे। अत: वहाँ छोटे से छोटे खेतों में उपयोग करने के निमित्त मशीनें बनीं, जिसका ज्वलंत उदाहरण छोटे ट्रैक्टर हैं। ये पारिवारिक तथा छोटे खेतों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए है। यही बात प्लांटिंग मशीन और फर्टिलाइजर डिस्ट्रिब्यूटर के विषय में भी कही जा सकती है।
ग्रेट ब्रिटेन में जुताई के लिए भाप से चलने वाले ट्रैक्टर उपयोग में लाए जाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहाँ पेट्रोल से चलने वाले ट्रैक्टरों की संख्या अधिक हो गई। कृषि संबंधी श्रमिकों की कमी ने खेतों पर शक्ति तथा यंत्रों के उपयोग में दिनों दिन वृद्धि की है। वहाँ के किसानों ने घास से अधिक लाभ उठाने के हेतु मशीनों का उपयोग विशेष रूप से किया। वर्षा के कारण घास को अच्छी दशा में रखना कठिन था, अत: घास को साइलों में रखने की प्रथा का पर्याप्त विकास हुआ। परिणामस्वरूप इनसाइलेज कटर (चारा काटने की मशीन), साइलोफियर, साइलेज हारवेस्टर जैसी मशीनें प्रचलन में आई। वहाँ कुछ फसलों की कटाई रीपर के द्वारा होती है, जो फसल को बिना ग_र बनाए ही भूमि पर डाल देता है। यह कटी हुई फसल ट्रकों में भरकर मड़ाई के लिए जाती है। वहाँ की थ्रेशिंग मशीनें केवल भूसे को ही दाने से अलग नहीं करतीं, वरन छोट-छोटे खरपतवार, लकड़ी, पत्थर और मिट्टी को भी अनाज से अलग करती है। हवा में अधिक नमी होने के कारण ब्रिटेन के बहुत से चरागाहों में काई पैदा हो जाने से गर्मी में हैरो का उपयोग होने लगा है।
सोवियत रूस में सहकारी खेती, पंचवर्षीय योजना, भूमिसुधार और छोटे-छोटे खेतों को तोड़कर बड़े फार्म बनाने की योजनाओं के कार्यान्वित होने से ही यांत्रिक खेती की प्रगति हुई है। सुनिश्चित समय में योजनाओं के अंतर्गत यंत्रीकरण उन्नति की ओर विशेष तथा सस्ते ईधंन की प्राप्ति, रूस के कृषियंत्रीकरण में विशेष सहायक सिद्ध हुई। देश में ट्रैक्टर बनाने के बहुत से कारखाने खोले गए तथा आदमियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। लगभग सन 1940 तक रूस में खेती का एक बड़ा भाग सामूहिक खेती के रूप में होता रहा। अंत में इन छोटे भागों को मिलाकर बड़ी इकाई का रूप दे दिया गया, जिसके प्रबंध में पर्याप्त सुविधा हुई। मध्यम तथा छोटे सामूहिक खेत वाले आवश्यकता पडऩे पर राजकीय खेतों से मशीनें लाकर कार्य करते हैं। सन 1936 के बाद रूस में मशीनें गेहूँ, जौ, जई, राई और दूसरे अनाज उगाने के काम में आने लगीं और जो मशीनें अन्यत्र यांत्रिक खेती के लिये प्रयुक्त होती रहीं उनका उपयोग कपास, चुकंदर इत्यादि फसलों की खेती में भी किया जाने लगा। अब वहाँ लगभग सभी कृषि कार्य मशीनों के द्वारा होते हैं। दूसरे शब्दों में कृषि का 95 प्रतिशत यंत्रीकरण हो चुका है, वहाँ विभिन्न प्रकार के 1,000 कृषियंत्र बनने लगे हैं। 
जर्मनी में लोगों का झुकाव डीजल तथा सेमिडीजल छोटे ट्रैक्टरो के निर्माण की ओर अधिक है। यांत्रिक शक्ति के उपयोग से फसल उगाने के लिये पुरस्कार स्वरूप जर्मनी के कृषकों को 3 से 5 एकड़ ज़मीन मिल जाती थी। स्वभावत: लोगों का झुकाव ट्रैक्टरों एवं ट्रकों से कृषि उत्पाद बाजार ले जाने की ओर हुआ। वहाँ मशीनों के डिजाइन में खाद्योत्पादन की वृद्धि की और विशेष ध्यान दिया गया, जिससे वहाँ के छोटे छोटे फार्मों से अत्यधिक लाभ उठाया जा सके। कतारों में बुनाई करनेवाली इस देश की मशीनों की सूक्ष्मता दूसरे देशों के लिये एक उदाहरण है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व भी जर्मनी के खेतों पर विद्युत शक्ति का उपयोग होता था। सिफ्ट जर्मनी का एक विख्यात ट्रैक्टर है, जिसका निर्माण सन 1947-48 में प्रारंभ हुआ। ट्रैक्टरों से चलनेवाले स्पाइक टुथ हैरो तथा पल्वराइजर इत्यादि इस देश में बहुताएत निर्मित होते हैं।
फ्रांस में छोटे छोटे खेतों की अधिकता के कारण यांत्रिक खेती का उतना विकास नहीं है जितना इंगलैंड, रूस तथा जर्मनी में है। फ्रांस के कृषक अपने शक्तिशाली घोड़ों के लिये प्रसिद्ध हैं। कृषि कार्यों के लिये इनका उपयोग बड़ी मात्रा में होता है, इसके बावजूद इस देश में छोटे ट्रैक्टरों का उपयोग बढ़ा है। इस देश में स्प्रेइंग तथा डस्टिंम मशीनों का प्रयोग एवं फलों तरकारियों की खेती में अधिक तथा कुछ सीमा तक व्यापारिक उर्वरक के लिये होता है। दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा अर्जेंटाइना में भी कृषि यंत्रों की ओर लोगों का झुकाव है किंतु जहाँ कही भी ईंधन मंहगा और पशु रखने की सुविधा है वहां के किसानों ने पशु शक्ति पर निर्वाह करना उचित समझा। इन देशों में यांत्रिक शक्ति का उपयोग केवल खेत तैयार करने तथा फसल की कटाई तक ही सीमित है। न्यूजीलैंड में डेअरी उद्योगों की उन्नति होने के फलस्वरूप वहाँ पर डेअरी से संबंधित यंत्रों का अत्यधिक मात्रा में उपयोग तथा विकास हुआ है। अफ्रीका में नील नदी की घाटी और दक्षिणी अफ्रीका के अतिरिक्त अन्य सभी जगह खेती अब भी पुराने ढंग से की जाती है और सामान्य यंत्र तथा पशु उपयोग में लाए जाते हैं। यही स्थिति एशिया के बहुत से देशों की है।
अधिक जनसंख्या होने के कारण चीन में ट्रेक्टरों तथा बड़ी मशीनों का उपयोग बहुत ही सीमित है। मानव एवं पशुचालित यंत्र ही वहाँ विशेष प्रचलित हैं। चीन में कृषि कार्यों की शक्ति का मुख्य साधन मनुष्य ही है। यहाँ तक कि हल तथा गाडिय़ाँ भी मनुष्यों द्वारा चलाई जाती हैं। साइलेज कटर, पनचक्की, राइस हलर, राइस थ्रैशर, दो पहिए वाले हल इत्यादि कुछ उन्नतिशील कृषि यंत्रों का निर्माण अब चीन में होने लगा है। यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका में विद्युतचलित यंत्रों का प्रयोग होने लगा है क्योंकि वहाँ बिजली अधिक सस्ते दर पर उपलब्ध है एवं इसको उपयोग में लाना भी सरल होता है। इसके अतिरिक्त विद्युत-चालित औजार और यंत्र भी पर्याप्त समय तक ठीक दशा में रखे जा सकते हैं, समय की बचत होती है, कार्य निपुणता बढ़ती है और व्यय कम होता है। भारत में कृषि यंत्रों का व्यवहार हालांकि हरित क्रान्ति के बाद से आरंभ हुआ है और आज उसका तेजी से विस्तार हो रहा है। हमारे यहां किसान की जरूरतों के आधार पर कृषि यंत्र नहीं बनाए जाते, यहां आज तक विदेशों की नकल पर तैयार यंत्रों का चलन है। 

Saturday, January 5, 2013

सरकारी बैंकों से किसानों का मोहभंग

भारतीय बैंकों पर अकसर इल्जाम लगता है कि ये कार लेने वालों से कम और कृषि यंत्र लेने वाले से ऊँची दरों पर ब्याज वसूते हैं। यह अरोप सही भी है क्योंकि जहां कार पर 10 प्रतिशत ब्याज लिया जाता है वहीं ट्रैक्टर 13 प्रतिशत ब्याज से कम पर नहीं मिल सकता। अगर कार लेने वाले की साख अच्छी है और आयकर रिटर्न बड़ी रकम का है तो नियम-कानून के पेच भी थोड़े ढीले हो जाते हैं और ब्याज दर भी कम हो जाती है। जबकि ट्रैक्टर लेने वाला कितना ही बड़ा किसान क्यों न हो उसे कोई रियायत नहीं मिल सकती। इससे भी ज्यादा पक्षपात यह कि ट्रैक्टर या कृषि यंत्रों के लिए किसान को अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ती है जबकि कार लेने वाला महज अपनी दो से तीन साल की आमदनी का प्रमाण दे कर बिना कुछ गिरवी रखे ऋण ले सकता है।
कृषि यंत्रों पर महंगे ऋण की बात करने से पूर्व यह जानना जरूरी है कि बैंकों के ऋण मानदण्ड क्या हैं। कोई भी बैंक ऋण देने से के लिए आवेदक की ऋण लौटाने की क्षमता और अपने धन की सुरक्षा देखता है। सबसे पहले बात करते है धन सुरक्षा कि तो देश में कहीं भी खेती योग्य एक एकड़ भूमि की कीमत तीन लाख से कम नहीं है। अलग-अलग बैंक अपने नियमों के अनुसार एक ट्रैक्टर के 4 से 5 लाख ऋण लिए कम से कम 4 से 6 एकड़ तक जमीन गिरवी रखते हैं जिसकी बाजार कीमत 12 से 18 लाख तक होती है। अब अगर बात करें ऋण लौटाने की क्षमता की तो सबसे सस्ती और जल्द उगने वाली फसल अगर गेहूं को मानें तो मात्र 90 से 120 दिन पैदा होने वाली यह फसल एक एकड़ में कम से कम 15 क्विंटल होती है जिसका सरकारी मूल्य ही 18 से 20 हजार होता है।   
किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं कि इस विषय में बैंक प्रबंधन मौन है पर प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया है कि बैंकर और किसान प्रतिनिधियों के बीच संवाद की व्यवस्था जल्द करवाएंगे ताकि इस समस्या का समाधान हो सके। टिकैत कहते हैं कि अगर ट्रैक्टर नकद खरीदा जाए तो 40 से 50 हजार तक छूट मिलती है जबकि लोन पर लेने वाले को यह छूट नहीं मिलती। साथ ही वे समूचे ट्रैक्टर उद्योग को भी कटधरे में खड़ा करते हैं कि देश में हर वस्तु का अधिकतम खुदरा मूल्य है जबकि ट्रैक्टर का ऐसा कोई मूल्य तय नहीं है।
यही बडी वजह है कि विगत दो साल से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से किसानों ने ट्रैक्टरों पर ऋण लेना ही बंद कर रखा है। वर्तमान में हर ट्रैक्टर डीलर के यहां एचडीएफसी या कोटक महेन्द्रा का एक प्रतिनिधि बैठा है जो न सिर्फ ग्राहक को तुरंत ऋण उपलब्ध करवा रहा है बल्कि डीलर को भी ज्यादा ट्रैक्टर मंगावने के लिए अग्रिम भुगतान की सुविधा दे रहा है। एक बडे राष्ट्रीय बैंक के अधिकारी नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताते है कि- यह स्थिति रातों-रात नहीं आई, बैंकर खुद लाए हैं। हमारा तरीका बेहद सरकारी है जिस वजह से टैक्टर निर्माता और विक्रेता ही नहीं खरीददार का भी मोहभंग हुआ है। हम विक्रेता को बैंक के कई चक्कर लगावाने के बाद सेवा-चाकरी करने पर ही महीने दो महीने में भुगतान करते थे। हमें हर खरीददार चोर लगता था इसलिए उसके कागजों में कमी न होने पर भी मीन-मेख निकालते रहते। उन्होंने बताया कि कारें इसलिए कम ब्याज पर मिल जाती हैं कि शुरू में कोई भी राष्ट्रीय बैंक कारों पर ऋण नहीं देता था केवल निजी कम्पनियां और बैंक ही ऐसा करते थे। ये बैंक कार निर्माताओं से कुछ पैसा लेकर ग्राहकों को जीरो प्रतिशत पर भी कार लोन दे देते थे। जब राष्ट्रीय बैंक इस दौड़ में शामिल हुए तो उसी रास्ते पर चल पड़े। पंजाब नैशनल बैंक के कृषि महाप्रबंधक आई एस फोगाट बेहद ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि ऐसा इसलिए है कि खेती के लिए ऋण देना आज भी जोखिम का काम है क्योंकि यह सौ प्रतिशत मौसम पर निर्भर है। इसमें वित्त उपलब्ध करवाने के तरीकों में सुधार की गुंजाइश है। वे इस सुझाव पर तुरंत काम करने को तैयार हो गए कि कारों की तरह ट्रैक्टर उद्योग को भी ब्याज का कुछ हिस्सा देने को तैयार किया जाए ताकि किसानों को राहत मिल सके।

Friday, January 4, 2013

कितना जरूरी है कृषि यंत्रीकरण

केंद्रीय बजट से पूर्व कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण पर फिक्की-यस बैंक की रिपोर्ट को हालांकि अब बहुत समय हो चुका है, पर इसकी प्रासंगिता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। इस अध्ययन में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए, पहला यह कि प्राकृतिक संसाधनों में कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से उपजी चुनौतियों के कारण कृषि में मशीनों का इस्तेमाल बेहद जरूरी हो गया है। अत: मुख्य कृषि कार्यकार्यों के दौरान नए उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ाया जाना इस क्षेत्र के मौजूदा 2 प्रतिशत के स्तर को दोगुना करने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरा यह कि यंत्रीकरण से ग्रामीण रोज़गार सृजन पर जितना विपरीत असर पड़ेगा, उससे अधिक रोज़गार के नए मौके इन उपकरणों के रखरखाव के जरिए तैयार हो जाएंगे। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना कानून (मनरेगा) के कारण कृषि मजदूरों की कमी हो गई है। खासतौर से कृषि प्रधान राज्यों में बुआई और कटाई सत्र के दौरान यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है, और जमीन और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कमी के कारण भी यह जरूरी हो गया है कि संसाधनों का संरक्षण करने वाली प्रौद्योगिकी में निवेश किया जाए, जैसे जुताई रहित खेती, वैज्ञानिक कृषि और ड्रिप सिंचाई। इसके लिए विशेष किस्म की मशीनों और उपकरणों की जरूरत है। यह सारे उपकरण देश में मौजूद नहीं होने के कारण इनमें से कुछ का आयात भी करना पड़ेगा। लागत कम करने के लिए बाद में इन उपकरणों को स्थानीय स्तर पर भी तैयार करना होगा। इसका एक उदाहरण लेजर लैंड लेवलर से कृषि भूमि को समतल करने का है। इससे सिंचाई के लिए करीब 30 प्रतिशत पानी की बचत हो जाती है और पैदावार भी एक समान होती है। कुछ समय पहले तक इनका आयात किया जाता था और इसलिए यह काफी महंगे भी थे, लेकिन अब यह देश में बेहद कम कीमत पर तैयार हो रहे हैं। स्थानीय विनिर्माताओं द्वारा तैयार किए ये उपकरण इतने सस्ते नहीं हुए कि कोई भी किसान इन्हें खरीद ले। सारे उपकरण खरीदना एक बडे किसान के बूते से आज भी बाहर हैं। इसका एक बेहतर विकल्प यह निकाला गया कि कुछ कम्पनियों और राज्य सरकार द्वारा पंचायत स्तर पर उपकरणों को जरूरतमंद किसानों को किराए पर उपलब्ध करवाया जाए। इन उपकरणों से समय और मजदूरी दोनों की काफी बचत होती है, उत्पादन लागत घटती है तथा फसल तैयार होने के बाद नुकसान में कमी आती है। पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तरी राज्यों में अक्सर गर्मी जल्दी आ जाती है। ऐसे में गेहूं की बुआई में एक सप्ताह की देरी होने पर गेहूं का उत्पादन प्रति हेक्टेअर 1.5 क्विंटल तक घट जाता है। इस नुकसान की भरपाई गेहूं की जल्द बुआई करके पूरी की जा सकती है लेकिन ऐसा तभी संभव है जब धान की पिछली फसल की कटाई मशीन से की जाए और विशेष उपकरणों की मदद से गेहूं की बुआई की जाए, इसके जरिए जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की बुआई के समय में होने वाले बदलावों को नियंत्रित किया जा सकता है। जल्दी बुआई तभी संभव हो सकेगी जब उपकरणों की मदद ली जाए। इन बातों पर विचार करने के बाद लगता है कि फिक्की-यस बैंक की गई रिपोर्ट पर विचार करना चाहिए।

यंत्रों की नकल में अक्ल का अभाव

इंसान ने कब, कहाँ और कैसे खेती करना आरंभ किया, इसका उत्तर देना आसान नहीं है। सभी देशों के इतिहास में खेती के विषय में कुछ न कुछ दावे जरूर किए गए हैं। माना जा सकता है कि आदिम समय में जब मनुष्य जंगली जानवरों का शिकार पर ही निर्भर था तथा बाद में जब उसने कंद-मूल, फल और अपने-आप उगे अन्न का उपयोग आरंभ कर दिया होगा। ऐसे ही शायद कभी किसी समय खेती द्वारा अन्न उत्पादन करने का आविष्कार किया गया होगा। वर्तमान में सारी पृथ्वी पर जहां भी संभव है खेती की जा रही है, यहां एक यह जानकारी भी रोचक हो सकती है कि दुनिया में आज भी ऐसे देश हैं जहां कुछ भूमि ऐसी है जहाँ पर खेती नहीं हो सकती जैसे अफ्रीका और अरब के रेगिस्तान, तिब्बत एवं मंगोलिया के ऊँचे पठार तथा मध्य आस्ट्रेलिया आदि और इंसानों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो खेती नहीं करते जैसे कांगो के बौने और अंडमान के बनवासी।
फ्रांस में मिली आदिमकालीन गुफाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वपाषाण युग में ही मनुष्य खेती से परिचित हो गया था। बैलों से हल जोतने का प्रमाण मिश्र की पुरातन सभ्यता से मिलता है। अमरीका में केवल खुरपी और मिट्टी खोदने वाली लकड़ी का पता चलता है। भारत में पाषाण युग में कृषि का विकास कितना और किस प्रकार हुआ था इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है, किंतु सिंधु नदी के पुरावशेषों के उत्खनन से इस बात के बहुत से प्रमाण मिले है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में कृषि उन्नत अवस्था में थी और लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे। ऐसा अनुमान पुरातत्वविद मुअन-जो-दड़ो में मिले बडे-बडे कोठरों के आधार पर करते हैं। हमारे देश में आधुनिक कृषि यंत्रों की अवधारणा बाकी सभी यंत्रों की तरह विदेश से ही आई है। आज देश में अस्सी प्रतिशत कार्य मशीनों की मदद से होने के बावजूद भी बहुत काम होना बाकी है। हमारे कृषि यंत्र निर्माता विदेशी यंत्रों की आंख बंद कर नकल कर रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि देश की जमीनें, फसलें और उन्हें इस्तेमाल करने वाले लोग कैसे हैं?
नकल के सहारे हमारा काम अब तक जितना चल चुका वह बहुत है, आगे हमें अपनी जरूरतों के हिसाब से न केवल यंत्र बनाने होंगे, बल्कि उन यंत्रों के लिहाज से बीज भी तैयार करने होंगे। उदाहरण लिए देश की एक प्रमुख फसल कपास को ही लें। अब तक कपास चुनने के लिए मजदूर बहुत ही सस्ती दरों पर उपलब्ध थे लेकिन मनरेगा के कारण आज कपास चुगाई के लिए किसी भी भाव पर मजदूर नहीं हैं। हालांकि कपास चुगाई कि एक देशी और एक विदेशी मशीन तैयार खड़ी है मगर उनके लिहाज से बीज तैयार नहीं हैं। मौजूदा कपास की किस्मों को इस मशीन से नहीं चुना जा सकता। अब इसके लिए या नई मशीन चाहिए या मशीन के अनुरूप बीज। ऐसे ही गेहूँ के लिए एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि यूरिया खाद उसके बीज के ठीक एक इंच नीचे होनी चाहिए लेकिन हम आज तक एक भी ऐसी मशीन तैयार नहीं कर सके। गेहूँ काटने के लिए हमने कम्बाइन की नकल तो करली पर यह बात भूल गए कि गेहूँ के दाने निकालने के बचा हुआ भाग पशु चारे के काम आता है। कम्बाइन से गेहूँ निकालने इस चारे की मात्रा आधी भी नहीं मिल पाती। क्या हम एक भी मशीन ऐसी तैयार नहीं कर सकते जो गेहूँ के बाद चारे को बचाले?