भारत की संस्कृति कथा को चार युगों-सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में बांटा गया है। शास्त्रानुसार चाहे इन कालखण्डों की कुछ भी व्याख्या की गई हो पर प्रगति के आधार पर कहा जा सकता है कि सतयुग केवल मानव श्रम का युग था, जबकि त्रेता में आदमी के हाथ में लकड़ी और पत्थर के हथियार आ गए थे। द्वापर आते-आते मनुष्य ने पहिए का अविष्कार कर लिया और हथियारों में लकड़ी, पत्थर के अलावा धातु का प्रयोग होने लगा। इसके बाद आया कलियुग जो पूर्णतया कल-पूर्जों और कल कारखानों का युग है, जो आज भी जारी है। वर्तमान में हमारे चारों तरफ इतने यंत्र हैं जिनके बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल है, विशेषकर कृषि का क्षेत्र जिसमें बिना यंत्रों के उपज लेने की सोचना भी कठिन है। आज पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के किसान अपनी थोड़ी सी जमीन पर खेती के लिए ज्यादा से ज्यादा उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका मानना है कि कामकाज के लिए यंत्रों के उपयोग के अलावा अब और कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि पिछले दो वर्षों में मजदूरी की दर दोगुनी हो चुकी हैं। उत्तरी भारत ही नहीं आज देशभर में किसान मजदूरों की जगह मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रख्यात कृषि अर्थशास्त्री और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के अध्यक्ष अशोक गुलाटी भी मानते हैं कि मनरेगा जैसी योजनाओं के चलते न केवल कृषि मजदूरी महंगी हुई है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता भी घटी है। यही वजह है कि जहां भी मजदूरों की जरूरत है वहां मशीनों का उपयोग बढ़ रहा है।
कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण का यह रुझान केवल ट्रैक्टरों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरक कृषि उपकरणों जैसे कंबाइन हार्वेस्टर, छोटे टिलर्स, डी-वीडर्स और बिजली तथा बैटरी से चलने वाले छोटे स्प्रेयर का उपयोग भी बढ़ रहा है। पिछले 5 साल में इन उपकरणों की बढ़ती बिक्री से इस बात को बल मिलता है कि मानव श्रम की जगह मशीनों का उपयोग कई गुणा बढ़ा है। इस दौरान बिकने वाले भारी ट्रैक्टरों की बिक्री 2010-11 में 57 प्रतिशत बढ़कर 5,45,128 इकाई रही, जो 2007-08 में 3,46,501 इकाई थी। इसी अवधि में छोटे टै्रक्टरों, कंबाइन हार्वेस्टर, पावर स्पे्रयर और ब्रश कटर की बिक्री में क्रमश: 157, 60, 300 और 800 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई।
नैशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिसी रिसर्च के निदेशक रमेशचंद ने कहा, 'किसान न केवल अपने कृषि कार्यों के लिए ज्यादा मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि इनकी उपयोगिता भी बढ़ी है।'
कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण का यह रुझान केवल ट्रैक्टरों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरक कृषि उपकरणों जैसे कंबाइन हार्वेस्टर, छोटे टिलर्स, डी-वीडर्स और बिजली तथा बैटरी से चलने वाले छोटे स्प्रेयर का उपयोग भी बढ़ रहा है। पिछले 5 साल में इन उपकरणों की बढ़ती बिक्री से इस बात को बल मिलता है कि मानव श्रम की जगह मशीनों का उपयोग कई गुणा बढ़ा है। इस दौरान बिकने वाले भारी ट्रैक्टरों की बिक्री 2010-11 में 57 प्रतिशत बढ़कर 5,45,128 इकाई रही, जो 2007-08 में 3,46,501 इकाई थी। इसी अवधि में छोटे टै्रक्टरों, कंबाइन हार्वेस्टर, पावर स्पे्रयर और ब्रश कटर की बिक्री में क्रमश: 157, 60, 300 और 800 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई।
नैशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिसी रिसर्च के निदेशक रमेशचंद ने कहा, 'किसान न केवल अपने कृषि कार्यों के लिए ज्यादा मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि इनकी उपयोगिता भी बढ़ी है।'
उन्होंने कहा कि इससे पहले कृषि उपकरण जैसे कंबाइन हार्वेस्टर कुछ समय ही काम आते थे, लेकिन अब इनका इस्तेमाल पूरे फसल चक्र में होता है। इन उपकरणों का दैनिक किराया भी बढ़ा है। इसलिए क्या केवल बढ़ती श्रम लागत के कारण अचानक कृषि में मशीनों के उपयोग को वरीयता दी जाने लगी है? विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि पिछले 3-4 वर्षों में कृषि श्रम लागत में करीब 70 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इसकी वजह सरकार की मनरेगा जैसी सफल कल्याणकारी योजनाएं हैं। मनरेगा योजना अलग-अलग राज्यों में 125 से 155 रुपये दैनिक मजदूरी की गारंटी देती है।
श्रम विभाग के आंकड़े दर्शाते हैं कि पंजाब में औसत दैनिक कृषि मजदूरी पिछले 4 वर्षों में 78 फीसदी बढ़ी है। यह जनवरी 2007 में 95.75 रुपये थी, जो अप्रैल 2011 में बढ़कर 170.24 रुपये हो गई। देश में पंजाब गेहूं और चावल का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। वहीं हरियाणा में औसत दैनिक कृषि मजदूरी संदर्भित अवधि में 102 फीसदी बढ़ी है। वहां यह 100.18 रुपये से बढ़कर 203.06 रुपये हो गई है। वर्ष 2005 में शुरू की गई मनरेगा योजना 2007 से देश के सभी जिलों में चालू है। इतनी ऊंची मजदूरी दर न केवल किसानों के लाभ को कम कर रही है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता भी घटा रही है।
दक्षिण भारत में चैन्ने स्थिति मुरुगप्पा समूह की कंपनी ईआइडी पैरी के प्रबंध निदेशक रविन्द्रसिंह सिंघवी कहते हैं कि- मनरेगा और व्याप्त सामाजिक-आर्थिक स्थितियों जैसे कारकों से 30-40 फीसदी कार्यबल में कमी आती है, जिससे साल दर साल लागत बढ़ती है। वह कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में तमिलनाडु में गन्ने की कटाई लागत 300 रुपये से बढ़कर 500-600 रुपये प्रति टन हो गई है। उनके अनुसार कटाई की चरम अवधि में यह 700 रुपये प्रति टन तक पहुंच जाती है। मुरुगप्पा समूह कृषि उत्पाद और सॉल्यूशन मुहैया कराने वाला 17,000 करोड़ रुपये का बड़ा समूह है। मुरुगप्पा समूह ने गन्ना उत्पादकों को मैकेनाइज्ड हार्वेस्टर और अन्य उपकरण मुहैया कराने के लिए हाल ही में सीएनएच ग्लोबल न्यू हॉलैंड फिएट इंडिया के साथ समझौता किया है। सिंघवी कहते हैं कि - ईआइडी पैरी और इसके सहयोगी जरूरी कृषि उपकरण जुटाएंगे और इसके बाद उन्हें किसानों को किराए पर देंगे, इससे किसानों की लागत वास्तविक लागत से काफी कम हो जाएगी। प्रारंभिक चरण में इस प्रयास के जरिए 15,000 किसानों को लक्षित किया जाएगा, जिस पर 100 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। समूह ने तमिलनाडु में उगाए जाने वाले कुल गन्ने के आधे भाग का मशीनीकरण के लिए निवेश बढ़ाने की योजना बनाई है।
श्रम विभाग के आंकड़े दर्शाते हैं कि पंजाब में औसत दैनिक कृषि मजदूरी पिछले 4 वर्षों में 78 फीसदी बढ़ी है। यह जनवरी 2007 में 95.75 रुपये थी, जो अप्रैल 2011 में बढ़कर 170.24 रुपये हो गई। देश में पंजाब गेहूं और चावल का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। वहीं हरियाणा में औसत दैनिक कृषि मजदूरी संदर्भित अवधि में 102 फीसदी बढ़ी है। वहां यह 100.18 रुपये से बढ़कर 203.06 रुपये हो गई है। वर्ष 2005 में शुरू की गई मनरेगा योजना 2007 से देश के सभी जिलों में चालू है। इतनी ऊंची मजदूरी दर न केवल किसानों के लाभ को कम कर रही है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता भी घटा रही है।
दक्षिण भारत में चैन्ने स्थिति मुरुगप्पा समूह की कंपनी ईआइडी पैरी के प्रबंध निदेशक रविन्द्रसिंह सिंघवी कहते हैं कि- मनरेगा और व्याप्त सामाजिक-आर्थिक स्थितियों जैसे कारकों से 30-40 फीसदी कार्यबल में कमी आती है, जिससे साल दर साल लागत बढ़ती है। वह कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में तमिलनाडु में गन्ने की कटाई लागत 300 रुपये से बढ़कर 500-600 रुपये प्रति टन हो गई है। उनके अनुसार कटाई की चरम अवधि में यह 700 रुपये प्रति टन तक पहुंच जाती है। मुरुगप्पा समूह कृषि उत्पाद और सॉल्यूशन मुहैया कराने वाला 17,000 करोड़ रुपये का बड़ा समूह है। मुरुगप्पा समूह ने गन्ना उत्पादकों को मैकेनाइज्ड हार्वेस्टर और अन्य उपकरण मुहैया कराने के लिए हाल ही में सीएनएच ग्लोबल न्यू हॉलैंड फिएट इंडिया के साथ समझौता किया है। सिंघवी कहते हैं कि - ईआइडी पैरी और इसके सहयोगी जरूरी कृषि उपकरण जुटाएंगे और इसके बाद उन्हें किसानों को किराए पर देंगे, इससे किसानों की लागत वास्तविक लागत से काफी कम हो जाएगी। प्रारंभिक चरण में इस प्रयास के जरिए 15,000 किसानों को लक्षित किया जाएगा, जिस पर 100 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। समूह ने तमिलनाडु में उगाए जाने वाले कुल गन्ने के आधे भाग का मशीनीकरण के लिए निवेश बढ़ाने की योजना बनाई है।
प्रमुख ट्रैक्टर निर्माता सोनालीका समूह के चेयरमैन एल डी मित्तल कृषि उपकरणों की बढ़ती बिक्री में दूसरा आयाम जोड़ते हैं। उनका कहना है कि किसान केवल मजदूरी के बारे में चिंतित नहीं हैं बल्कि वे उसी भूखंड से ज्यादा से ज्यादा लाभ अर्जित करना चाहते हैं, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में प्रतिफल काफी सुधरा है। मित्तल ने कहा कि - यदि किसान पहले अपने खेत को साफ करता है तो संभावना है कि अतिरिक्त फसल की बुआई कर करेगा और यह तभी हो सकता है जब मैनुअल श्रम लागत न्यूनतम हो।
छोटे और वहनीय (अफोर्डेबल) कृषि उपकरण विकसित करने वाली एक कंपनी एसएएस मोटर्स के प्रबंध निदेशक रवींद्र कुमार कहते हैं कि बैलों की एक जोड़ी की कीमत करीब 50,000 रुपये बैठती है और उन्हें खिलाने के लिए हर महीने अतिरिक्त 5,000 रुपये की जरूरत होती है। यद्यपि इनका इस्तेमाल एक महीने होता है, लेकिन पूरे वर्ष इन्हें चारा खिलाना पड़ता है। इसलिए भारतीय कृषि में बैल रखने की लागत महंगी पड़ती है।' इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया कहते हैं कि- हालांकि कृषि यंत्रिकरण विगत कुछ वर्षों में बहुत बढ़ा है पर अभी भी बहुत इस क्षेत्र में बहुत काम होना बाकी है। हमें इसके लिए भारतीय परस्थितियों के अनुसार यंत्र बनाने पड़ेंगे, अभी देश में कृषि यंत्र बनाने वाली कम्पनियां शोध एवं विकास पर कुछ नहीं कर रही हैं, वे चीन से आयात कर ग्राहकों बिना किसी बदलाव के यंत्र बेच रही हैं। नतीजा चाहे जो भी हो, यह बदलाव स्वागत योग्य है, क्योंकि मशीनीकरण उत्पादकता में सुधार के जरिए न केवल प्रति इकाई लागत घटाता है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता में घटत-बढ़त की स्थिति को भी कम करता है। भारतीय किसानों में मशीनों के प्रति बढ़ते प्रेम के चलते अनेक कंपनियां इस क्षेत्र में उतर रही हैं। अगर ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नहीं कि जब खेतों में किसान की जगह केवल मशीने ही नजर आएंगी। तब कहा जाएगा के वास्तव में घोर कल युग आ गया है।
छोटे और वहनीय (अफोर्डेबल) कृषि उपकरण विकसित करने वाली एक कंपनी एसएएस मोटर्स के प्रबंध निदेशक रवींद्र कुमार कहते हैं कि बैलों की एक जोड़ी की कीमत करीब 50,000 रुपये बैठती है और उन्हें खिलाने के लिए हर महीने अतिरिक्त 5,000 रुपये की जरूरत होती है। यद्यपि इनका इस्तेमाल एक महीने होता है, लेकिन पूरे वर्ष इन्हें चारा खिलाना पड़ता है। इसलिए भारतीय कृषि में बैल रखने की लागत महंगी पड़ती है।' इंडोफार्म ट्रैक्टर्ज के विक्रय और विपणन निदेशक अंशुल खडवालिया कहते हैं कि- हालांकि कृषि यंत्रिकरण विगत कुछ वर्षों में बहुत बढ़ा है पर अभी भी बहुत इस क्षेत्र में बहुत काम होना बाकी है। हमें इसके लिए भारतीय परस्थितियों के अनुसार यंत्र बनाने पड़ेंगे, अभी देश में कृषि यंत्र बनाने वाली कम्पनियां शोध एवं विकास पर कुछ नहीं कर रही हैं, वे चीन से आयात कर ग्राहकों बिना किसी बदलाव के यंत्र बेच रही हैं। नतीजा चाहे जो भी हो, यह बदलाव स्वागत योग्य है, क्योंकि मशीनीकरण उत्पादकता में सुधार के जरिए न केवल प्रति इकाई लागत घटाता है, बल्कि श्रमिकों की उपलब्धता में घटत-बढ़त की स्थिति को भी कम करता है। भारतीय किसानों में मशीनों के प्रति बढ़ते प्रेम के चलते अनेक कंपनियां इस क्षेत्र में उतर रही हैं। अगर ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नहीं कि जब खेतों में किसान की जगह केवल मशीने ही नजर आएंगी। तब कहा जाएगा के वास्तव में घोर कल युग आ गया है।