केंद्रीय बजट से पूर्व कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण पर फिक्की-यस बैंक की रिपोर्ट को हालांकि अब बहुत समय हो चुका है, पर इसकी प्रासंगिता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। इस अध्ययन में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए, पहला यह कि प्राकृतिक संसाधनों में कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से उपजी चुनौतियों के कारण कृषि में मशीनों का इस्तेमाल बेहद जरूरी हो गया है। अत: मुख्य कृषि कार्यकार्यों के दौरान नए उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ाया जाना इस क्षेत्र के मौजूदा 2 प्रतिशत के स्तर को दोगुना करने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरा यह कि यंत्रीकरण से ग्रामीण रोज़गार सृजन पर जितना विपरीत असर पड़ेगा, उससे अधिक रोज़गार के नए मौके इन उपकरणों के रखरखाव के जरिए तैयार हो जाएंगे। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना कानून (मनरेगा) के कारण कृषि मजदूरों की कमी हो गई है। खासतौर से कृषि प्रधान राज्यों में बुआई और कटाई सत्र के दौरान यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है, और जमीन और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कमी के कारण भी यह जरूरी हो गया है कि संसाधनों का संरक्षण करने वाली प्रौद्योगिकी में निवेश किया जाए, जैसे जुताई रहित खेती, वैज्ञानिक कृषि और ड्रिप सिंचाई। इसके लिए विशेष किस्म की मशीनों और उपकरणों की जरूरत है। यह सारे उपकरण देश में मौजूद नहीं होने के कारण इनमें से कुछ का आयात भी करना पड़ेगा। लागत कम करने के लिए बाद में इन उपकरणों को स्थानीय स्तर पर भी तैयार करना होगा। इसका एक उदाहरण लेजर लैंड लेवलर से कृषि भूमि को समतल करने का है। इससे सिंचाई के लिए करीब 30 प्रतिशत पानी की बचत हो जाती है और पैदावार भी एक समान होती है। कुछ समय पहले तक इनका आयात किया जाता था और इसलिए यह काफी महंगे भी थे, लेकिन अब यह देश में बेहद कम कीमत पर तैयार हो रहे हैं। स्थानीय विनिर्माताओं द्वारा तैयार किए ये उपकरण इतने सस्ते नहीं हुए कि कोई भी किसान इन्हें खरीद ले। सारे उपकरण खरीदना एक बडे किसान के बूते से आज भी बाहर हैं। इसका एक बेहतर विकल्प यह निकाला गया कि कुछ कम्पनियों और राज्य सरकार द्वारा पंचायत स्तर पर उपकरणों को जरूरतमंद किसानों को किराए पर उपलब्ध करवाया जाए। इन उपकरणों से समय और मजदूरी दोनों की काफी बचत होती है, उत्पादन लागत घटती है तथा फसल तैयार होने के बाद नुकसान में कमी आती है। पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तरी राज्यों में अक्सर गर्मी जल्दी आ जाती है। ऐसे में गेहूं की बुआई में एक सप्ताह की देरी होने पर गेहूं का उत्पादन प्रति हेक्टेअर 1.5 क्विंटल तक घट जाता है। इस नुकसान की भरपाई गेहूं की जल्द बुआई करके पूरी की जा सकती है लेकिन ऐसा तभी संभव है जब धान की पिछली फसल की कटाई मशीन से की जाए और विशेष उपकरणों की मदद से गेहूं की बुआई की जाए, इसके जरिए जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की बुआई के समय में होने वाले बदलावों को नियंत्रित किया जा सकता है। जल्दी बुआई तभी संभव हो सकेगी जब उपकरणों की मदद ली जाए। इन बातों पर विचार करने के बाद लगता है कि फिक्की-यस बैंक की गई रिपोर्ट पर विचार करना चाहिए।
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