क्या आपने कभी सोचा है कि अब तक पशुओं की खुराक रहे कपास के बीज से लाखों
भूखे लोगों का पेट भरा जा सकता है। कपास में पर्याप्त प्रोटीन है जिससे हर
साल पाँच अरब लोगों का पेट भरा जा सकता है। शीघ्र ही यह संभव हो जाएगा।
अमेरिका में टेक्सॉस के भारतीय मूल के वैज्ञानिक कीर्ति एस. राठौड़ ने
जेनेटिक इंजिनियरिंग से कपास के बीजों में छिपे एक जहरीले पदार्थ गॉसीपोल
को कम करके ऐसा नया बीज बनाया है, जिसका
उपयोग भोज्य पदार्थों में किया जा सकता है। आने वाले दस सालों के भीतर ही
इस नए बीज से बने ब्रेड, कुकी, पेय और खाद्य पदार्थ बाजार में नजर आएँगे।
राठौड़ के अनुसार लंबे समय से कपास के बीजों से तेल निकालकर उसका उपयोग मायोनीज बनाने और सलाद को सजाने में किया जाता रहा है। अब गॉसीपोल रहित नए बीजों को गेहूँ और मक्के के साथ मिलाकर भोजन को ज्यादा प्रोटीन- समृद्ध बनाया जा सकता है। नए स्वाद में इसे पैनकेक, कारमेल, पॉपकॉर्न और टोर्टिला बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बीज का आप हर तरह से उपयोग कर सकते हैं। आशा है कि कपास उगाने वाले किसानों को अब उनकी फसलों का ज्यादा मूल्य मिल पाएगा।
कपास को खाने योग्य बनाने का कमाल कर दिखाने वाले टेक्सास के ए एंड एम विश्वविद्यालय के शोधकर्ता राठौड़ का मानना है कि दुनिया में बहुत से गरीब हैं जिन्हें पर्याप्त प्रोटीनयुक्त भोजन नहीं मिल पाता। उनके लिए प्रोटीनयुक्त कपास का बीज सस्ता और पौष्टिक विकल्प हो सकता है। कपास के बीजों में पाया जाने वाला गॉसीपोल पहले रक्त में पोटेशियम का स्तर बढ़ा देता था जिससे मनुष्य और जानवरों के दिल और लीवर (यकृत) को नुकसान पहुँच सकता था। यह इस हद तक खतरनाक है कि यदि मुर्गियों को केवल कपास के ये बीज लगातार एक सप्ताह तक खाने को दिए जाएँ तो वे गॉसीपोल जहर के प्रभाव से मर जाएँगी।
कपास के बीजों को खाने योग्य बनाने के लिए दशकों तक काम करने के बाद वैज्ञानिकों को 1950 में थोड़ी सफलता मिली, जब कपास के पौधे में जहर पैदा करने वाले जीन को खत्म कर गॉसीपोल-मुक्त पौधे को उगाने में वे सफल हुए, लेकिन गॉसीपोल-रहित कपास के पौधे में आसानी से कीड़े और रोग लगने का खतरा ज्यादा था जिससे कपास बरबाद हो जाता था। लेकिन अब राठौड़ ने बीज में ही गॉसीपोल बनने को रोककर नए बीज बनाए। राठौर ने बताया, आनुवांशिक रूप से बदले हुए कपास के इन बीजों के खाए जाने का कम विरोध होगा, क्योंकि इसमें ऐसी तकनीक को अपनाया है, जिसमें हमने अलग से कुछ नहीं मिलाया बल्कि बीज में होने वाली एक रासायनिक प्रक्रिया को रोका है।
इस नई विधि का उपयोग एशिया और अफ्रीका में उगाए जाने वाली नई फसलों में, जैसे मटर या फिर फली किस्म की फसलों को उगाने में भी किया जा सकता है। किसान मटर को आपातकालीन फसल के रूप में उगाते हैं क्योंकि इस में प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है और सूखने का खतरा नहीं होता।
लेकिन इन में न्यूरोटॉक्सीन (स्नायविक विष) की मात्रा ज्यादा होती है जिसे ज्यादा खाने से शरीर के निचले हिस्से को लकवा मारने का खतरा हो सकता है। राठौड़ के प्रयोग से बनाए गए ये नए बीज विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिका के खाद्य और औषधि प्रशासन के मानकों पर खरे उतरे हैं।
यदि इस बीज को व्यावसायिक स्तर पर मंजूरी मिल जाती है तो उसकी भी कीमत जींस, टी शर्ट आदि बनाने में लगने वाले कपास के बीजों के बराबर ही होगी क्योंकि ये काफी बड़ा बाजार है। कपास के बीजों की कीमत दस अमेरिकी सेंट प्रति पौंड है, जबकि कपास के रेशे की कीमत सत्तर सेंट प्रति पौंड है।
शोधकर्ताओं का मानना है कि कपास के बीजों में 22 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होने की वजह से वह विकासशील देशों में कुपोषण के शिकार लोगों के आहार के स्तर को सुधार सकता है। इन बीजों में मूँगफली का स्वाद होता है। उन्हें भूनकर या नमकीन के रूप में बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, कपास का यह नया बीज सोयाबीन के प्रोटीन से बिल्कुल अलग है क्योंकि इसे खाने से पेट में गैस की तकलीफ भी नहीं होती।
राठौड़ के अनुसार लंबे समय से कपास के बीजों से तेल निकालकर उसका उपयोग मायोनीज बनाने और सलाद को सजाने में किया जाता रहा है। अब गॉसीपोल रहित नए बीजों को गेहूँ और मक्के के साथ मिलाकर भोजन को ज्यादा प्रोटीन- समृद्ध बनाया जा सकता है। नए स्वाद में इसे पैनकेक, कारमेल, पॉपकॉर्न और टोर्टिला बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बीज का आप हर तरह से उपयोग कर सकते हैं। आशा है कि कपास उगाने वाले किसानों को अब उनकी फसलों का ज्यादा मूल्य मिल पाएगा।
कपास को खाने योग्य बनाने का कमाल कर दिखाने वाले टेक्सास के ए एंड एम विश्वविद्यालय के शोधकर्ता राठौड़ का मानना है कि दुनिया में बहुत से गरीब हैं जिन्हें पर्याप्त प्रोटीनयुक्त भोजन नहीं मिल पाता। उनके लिए प्रोटीनयुक्त कपास का बीज सस्ता और पौष्टिक विकल्प हो सकता है। कपास के बीजों में पाया जाने वाला गॉसीपोल पहले रक्त में पोटेशियम का स्तर बढ़ा देता था जिससे मनुष्य और जानवरों के दिल और लीवर (यकृत) को नुकसान पहुँच सकता था। यह इस हद तक खतरनाक है कि यदि मुर्गियों को केवल कपास के ये बीज लगातार एक सप्ताह तक खाने को दिए जाएँ तो वे गॉसीपोल जहर के प्रभाव से मर जाएँगी।
कपास के बीजों को खाने योग्य बनाने के लिए दशकों तक काम करने के बाद वैज्ञानिकों को 1950 में थोड़ी सफलता मिली, जब कपास के पौधे में जहर पैदा करने वाले जीन को खत्म कर गॉसीपोल-मुक्त पौधे को उगाने में वे सफल हुए, लेकिन गॉसीपोल-रहित कपास के पौधे में आसानी से कीड़े और रोग लगने का खतरा ज्यादा था जिससे कपास बरबाद हो जाता था। लेकिन अब राठौड़ ने बीज में ही गॉसीपोल बनने को रोककर नए बीज बनाए। राठौर ने बताया, आनुवांशिक रूप से बदले हुए कपास के इन बीजों के खाए जाने का कम विरोध होगा, क्योंकि इसमें ऐसी तकनीक को अपनाया है, जिसमें हमने अलग से कुछ नहीं मिलाया बल्कि बीज में होने वाली एक रासायनिक प्रक्रिया को रोका है।
इस नई विधि का उपयोग एशिया और अफ्रीका में उगाए जाने वाली नई फसलों में, जैसे मटर या फिर फली किस्म की फसलों को उगाने में भी किया जा सकता है। किसान मटर को आपातकालीन फसल के रूप में उगाते हैं क्योंकि इस में प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है और सूखने का खतरा नहीं होता।
लेकिन इन में न्यूरोटॉक्सीन (स्नायविक विष) की मात्रा ज्यादा होती है जिसे ज्यादा खाने से शरीर के निचले हिस्से को लकवा मारने का खतरा हो सकता है। राठौड़ के प्रयोग से बनाए गए ये नए बीज विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिका के खाद्य और औषधि प्रशासन के मानकों पर खरे उतरे हैं।
यदि इस बीज को व्यावसायिक स्तर पर मंजूरी मिल जाती है तो उसकी भी कीमत जींस, टी शर्ट आदि बनाने में लगने वाले कपास के बीजों के बराबर ही होगी क्योंकि ये काफी बड़ा बाजार है। कपास के बीजों की कीमत दस अमेरिकी सेंट प्रति पौंड है, जबकि कपास के रेशे की कीमत सत्तर सेंट प्रति पौंड है।
शोधकर्ताओं का मानना है कि कपास के बीजों में 22 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होने की वजह से वह विकासशील देशों में कुपोषण के शिकार लोगों के आहार के स्तर को सुधार सकता है। इन बीजों में मूँगफली का स्वाद होता है। उन्हें भूनकर या नमकीन के रूप में बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, कपास का यह नया बीज सोयाबीन के प्रोटीन से बिल्कुल अलग है क्योंकि इसे खाने से पेट में गैस की तकलीफ भी नहीं होती।
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