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Saturday, July 23, 2011

माइक्रो इंश्योरेंस के लिए एक स्वतंत्र नियामक एजेंसी की जरूरत

 पिछले दो-तीन वर्षो में लघु बीमा के क्षेत्र में तेज विस्तार की आवश्यकता को देखकर लगता है कि आगामी एक वर्ष के भीतर देश में लघु बीमा क्षेत्र के लिए एक स्वतंत्र नियामक एजेंसी का गठन हो जाएगा। सरकार मानती है कि देश के गरीब तबके तक बीमे का फायदा पहुंचाने के लिए लघु बीमा ही फिलहाल एकमात्र रास्ता है। बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आइआरडीए या इरडा) भी इस प्रस्ताव के पक्ष में है। इरडा के सदस्य आर. कानन के अनुसार माइक्रो इंश्योरेंस क्षेत्र की जरूरतें बिल्कुल अलग किस्म की हैं।  माइक्रो इंश्योरेंस के तहत जिस तरह की योजनाएं ग्राहकों को दी जाती हैं उनकी निगरानी इरडा के मौजूदा प्रावधानों के तहत करना आसान नहीं है, इसीलिए एक अलग नियामक एजेंसी होनी चाहिए। वैकल्पिक व्यवस्था होने तक इरडा ही इस क्षेत्र के मामलों को देखता रहेगा। सूत्रों का कहना है कि बीमा क्षेत्र में निजी और विदेशी कंपनियों के आने के बावजूद देश में माइक्रो इंश्योरेंस के क्षेत्र में उतना तेजी से विस्तार नहीं हुआ है जितना कि अन्य बीमा योजनाओं में। खास तौर पर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले और गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाली जनता को इन योजनाओं का सीधा लाभ उतना ही मिला है जितना सरकार ने अनुदान आदि के जरिए पहुंचाया है। हालांकि केंद्र व राज्य सरकारों ने भी माइक्रो इंश्योरेंस देने वाली कंपनियों को कई तरह से प्रोत्साहित किया है लेकिन कम लाभ और अधिक खर्च के चलते ये कम्पनियां इस क्षेत्र में ज्यादा रूचि नहीं ले रही हैं।
भू-मीत द्वारा चार राज्यों (राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तरप्रदेश) में किए गए एक सर्वेक्षण में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। इस सर्वेक्षण में निजी कम्पनियों के जिला स्तरीय कार्यालयों के अधिकारियों से जब उनकी कम्पनी द्वारा बनाई गई माइक्रो इंश्योरेंस योजनाओं के बारे में पूछा गया तो उनके सभी जवाब एक जैसे थे- ये योजनाएं राज्य मुख्यालय से नियंत्रित होती हैं, मैंने यह कम्पनी अभी जॉइन की है, दरअसल मैं मीडिआ बात करने के लिए अधिकृत नहीं हूं, इसके बारे में आपको पूरी जानकरी का मेल कर देंगे, अभी क्लोजिंग चल रही है, उससे फुर्सत मिलते ही आपको आंकड़े मिल जाएंगे आदि आदि। आश्चर्य की बात तो यह है कि एक भी अधिकारी अपनी ही कम्पनी द्वारा चलाई जा रही माइक्रो इंश्योरेंस की किसी भी एक योजना का नाम तक नहीं बता सका। नाम नहीं छापने की शर्त के साथ एक प्रतिष्ठित कम्पनी के राज्य स्तरीय अधिकारी ने बताया कि-इन योजनाओं में लाभ बहुत थोड़ा है इसलिए इनमें ऐजेन्ट्स का रूझान नहीं है, नब्बे प्रतिशत एनजीओ चोर हैं वे केवल दिखावे में विश्वास करते हैं और उत्तर भारत में स्वय सहायता समूह किन्हीं अज्ञात वजहों से नाकाम हैं। इसलिए माइक्रो इंश्योरेंस की योजनाएं बन तो सकती हैं पर कामयाब नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि माइक्रो इंश्योरेंस की राह में अकेली  निजी कम्पनियां ही बाधा हैं, इरडा भी इसमें बराबर का भागीदार है। बीमा क्षेत्र की कंपनियों का मानना है कि इरडा लघु बीमा की जरूरत व महत्त्व को ठीक तरीके से समझ नहीं पा रहा है। उदाहरण के लिए, भारतीय जीवन बीमा निगम ने एक वर्ष पहले एक लघु बीमा योजना का प्रारूप तैयार किया था। जिसके तहत गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों को उनकी झोपडिय़ों, मवेशियों से लेकर अन्य सभी संपत्तियों का बहुत ही कम किस्त पर बीमा किया जाना था। एलआइसी ने सरकारी क्षेत्र की चारों साधारण बीमा कंपनियों के साथ मिलकर इस योजना को शुरू करने की योजना बनाई थी। मगर इरडा से इसकी मंजूरी नहीं मिली। इरडा के नियमानुसार जीवन बीमा कंपनी केवल एक ही साधारण बीमा कंपनी के साथ समझौता कर सकती है। जाहिर है कि एलआइसी की उस महती योजना का लाभ ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचा। ऐसे ही कुछ कारणों से लघु बीमा के लिए अलग नियामक एजेंसी लाने की योजना बनाई जा रही है।

Saturday, July 16, 2011

परीक्षा क्यों नहीं देते पहली कक्षा के छात्र?

भू-मीत के ग्रामीण शिक्षा पर आधारित एक  विगत अंक की तैयारी के दौरान एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया। देश के लगभग सभी सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा के तीस से पैंतीस प्रतिशत विद्यार्थी मुख्य परीक्षा के दिनों में, स्कूल में तो सशरीर उपस्थित होते हैं पर उपस्थिति पंजिका में वे अनुपस्थित दर्शाए जाते हैं। पहली नजर में यह गोरखधंधा ही लगता है कि बच्चे क आए हैं, उनमें से कुछ ने परीक्षा भी दी है पर परिणाम सारणी में ये सारे बच्चे गैऱ-हाजिर कैसे हैं? इन बच्चों के मां-बाप के लिए भी यह एक अबूझ पहेली है कि आखिर हुआ क्या? चलिए सुलझा लेते हैं गोरख बाबा की इस पहेली को। एक सरकारी निर्देश के अन्तर्गत कक्षा आठ तक किसी विद्यार्थी को फेल नहीं किया जाएगा। दूसरे, कि कक्षा आठ तक  के सभी छात्रों को दोपहर का भोजन स्कूल में ही दिया जाएगा। इन दोनों आदेशों का पहली कक्षा के छात्रों की मुख्य परीक्षा से क्या संबंध है? इस विचित्र पहेली को सुलझाने के लिए आपको याद दिलाना पड़ेगा भू-मीत के शिक्षा विषय पर आधारित अंक का पोषाहार वाला वह लेख, जिसमें बताया जा चुका  है कि पहली कक्षा के एक छात्र के लिए सरकार महीने भर में औसत 25 किलो गेहूं या चावल और उसे पकाने के लिए औसतन 117 रूपए नकद देती है। यह तो आप भी जानते हैं कि 100 ग्राम कच्चे चावल पकने के बाद चार व्यस्क  लोगों के लिए पर्याप्त होते हैं, और सामूहिक रूप से भोजन पकाने पर 117 रूपए भी ज्यादा ही रहते हैं। सारे बच्चे स्कूल में भोजन करते भी नहीं है तो उस मद में बचत अलग से होती है। इस अनाज और पैसे की बचत के लालच में प्रधानाचार्य परीक्षा के दिन तक नए छात्रों के लिए प्रवेश खुला रखते हैं। अब जिन छात्रों को स्कूल आते हुए महज महीना-बीस दिन ही हुए हों और जो ढ़ंग से कलम पकडऩा भी नहीं सीख पाते, उन्हें दूसरी कक्षा के लिए उतीर्ण कैसे किया जा सकता है? नियमानुसार फेल उन्हें किया नहीं जा सकता, पास होने के लायक वे हैं नहीं। कुछ ऐसे जैसे फिल्म मुगले आज़म का यह मशहूर डायलॉग- अनारकली! सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और हम तुम्हें जीने नहीं देंगे। इस धर्मसंकट में बलिहारी गुरू आपने रस्ता दिया दिखाय। यानी बीच का रास्ता यह निकाला जाता है कि ये सारे छात्र परीक्षा के दौरान ग़ैर हाजिर रहें। जब परीक्षा दी ही नहीं तो दूसरी कक्षा में वे जा नहीं सकते, फेल वे हुए नहीं, इससे आदेशों की अवाज्ञ भी नहीं हुई। इसे कहते हैं नियम रूपी सांप को बिना लाठी तोड़े मारना। इस मौके पर गालिब का फारसी में लिखा एक शेर याद आ रहा है- मगज़ को न जाने दे बाग में, नाहक खून हो जाएगा परवाने का। अर्थ यह कि मगज़ यानी शहद की मक्खी बाग में जाएगी तो फूलों से शहद और मोम इक्कठा करेगी। मोम से मोमबत्तियां बनेंगी। मोमबत्ती जलेगी तो परवाने (कीट-पतंगे) आएंगे और जल कर मरेंगे। इसलिए शहद मक्खी को बाग में जाने ही न दो, न मोम बनेगा न परवाने का नाहक खून होगा।

Thursday, July 14, 2011

कहीं रद्द न हो जाए बीमा पॉलिसी

रोज़मर्रा की व्यस्तताओं के चलते अक्सर लोग समय पर बीमे की किस्त देना भूल जाते हैं, या फिर उस समय पास में इतना पैसा नहीं होता कि किस्त भरी जा सके। कभी-कभार जान-बूझकर भी किस्त चुकाने के समय को अनदेखा कर देते हैं और बीमा पॉलिसी में चूक (लैप्स) हो जाती है। पॉलिसी चूकने के बाद न केवल बीमा सुरक्षा राशि प्राप्त करने का अधिकार निरस्त हो जाता है बल्कि आर्थिक क्षति भी होती है। बीमा कंपनी द्वारा तय समय सीमा या रिआयत अवधि के अंदर किस्त का भुगतान नहीं करने पर पॉलिसी रद्द हो जाती है, जिसका सीधा अर्थ है बीमाकर्ता व बीमित व्यक्ति के बीच बीमा अनुबंध का समाप्त होना। तीन साल पुरानी या कम अवधि की यूलिप (युनिट लिक्ड प्लान या शेअर बाजार पर आधारित बीमा योजना) अथवा नियमित योजनाओं में किस्त का सालाना भुगतान करने पर ज्यादातर मामलों में एक माह का अतिरिक्त समय मिलता है, इस दौरान सुरक्षा जारी रहती है तथा किसी भी अनहोनी की दशा में दावे का फायदा भी उत्तराधिकारी को मिलता है। रिआयत अवधि में भी किस्त न भरने पर पॉलिसी समाप्त हो जाती है। सावधि (टर्म), धन-वापसी (मनीबैक) व बन्दोबस्ती (एंडॉवमेंट) सरीखी पारम्परिक योजनाओं में भी एक माह की रिआयत अवधि है।
इरडा द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार पॉलिसी संख्या के लिहाज 18 प्रतिशत व किस्त के लिहाज से 10 प्रतिशत बीमे प्रतिवर्ष समाप्त हो जाते हैं, दूसरी ओर पारम्परिक (ट्रेडिशनल) योजनाओं में यह दर थोड़ी कम किन्तु सावधि (टर्म) योजनाओं में अपेक्षाकृत ज्यादा रही है। किस्त अवधि के लिहाज से 19 प्रतिशत और  पॉलिसी संख्या के लिहाज से 28 प्रतिशत बीमा-पत्र आलोच्य अवधि में निरस्त हुए हैं। चूक दर पेंशन योजनाओं में सबसे कम रही वहीं नॉन-मेडिकल पॉलिसी में मेडिकल सुरक्षा पॉलिसी से ज्यादा चूक हुई है।
गलत विक्रय है मुख्य कारण
जानकारों के अनुसार एजेंट द्वारा गलत विक्रय (मिस-सेलिंग) की वजह से ज्यादातर बीमों में चूक होती है। दरअसल एजेंट व मार्केटिंग टीम ग्राहक को ऐसा उत्पाद बेचने का प्रयास करते हैं जो खरीदार की कमाई से मेल नहीं खाता। परिणामस्वरूप, कुछ समय के बाद उस पॅालिसी के रद्द  होने की स्थिति पैदा हो जाती है। बीमा कंपनियां एजेंट्स को नई पॉलिसियों पर हर साल 20,000 करोड़ रुपये कमीशन के रूप में देती हैं। पॉलिसी के पहले साल के कमीशन पर ज्यादा रकम खर्च करने के पीछे निश्चित रूप से ज्यादा से ज्यादा नया व्यवसाय लाने का गणित होता है।
जरूरत के अनुरूप करवांए बीमा
इसलिए बीमा करवाते समय भविष्य की जरूरतों का आकलन करें । भविष्य की संभावित आवश्यकताओं और खर्चों को ध्यान में रखकर ही पॉलिसी खरीदें। किस्त राशि उतनी ही रखें जिसे आसानी से भरवाई जा सके, साथ ही यह भी ध्यान रखें कि भविष्य में आपकी आर्थिक स्थिति में क्या-क्या बदलाव हो सकते हैं।
एजेंट पर निर्भर न रहें
किस्त भरने के मामले में केवल बीमा एजेंट के ऊपर निर्भर न रहें, यह जिम्मेदारी खुद उठाएं। पते में बदलाव, उत्तराधिकारी का चयन या बदलाव, फंड का चयन या बदलाव, टॉप-अप, ऋण, बीच में राशि लेना, बीमा समाप्त करना आदि कार्य निर्णय जहां तक संभव हो खुद ही लें।
नियमित करें किस्त का भुगतान
बीमा पॉलिसी से लगातार प्यार करते रहिए यानी किस्त का भुगतान नियमित और समय पर करते रहें। किसी वजह से यदि चूक हो भी जाए तो रिआयत अवधि का लाभ उठाते हुए किस्त जरूर भरें। वेतन, बचत योजना, मासिक, तिमाही, छमाही या सालाना किस्त अवधि जो भी हो, उसका ध्यान रखें। किस्त भरने की तारीख को डायरी या कैलेंडर पर लिख कर रखें ताकि भूल न हो।
जाने भुगतान के तरीके
नई तकनीक के सौजन्य से अर्थात क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, इलेक्ट्रॉनिक क्लियरिंग सिस्टम, प्रीमियम पॉइंट, मोबाइल एसएमएस, नेट बैंकिंग, एटीएम, आटो डेबिट व चेक पिकअप सेवा जैसे ढ़ेर सारे विकल्पों के होते अब किस्त भरना और भी आसान हो गया है।
बीमा कंपनियां भी कर सकती हैं पहल
बीमे की किस्तों में चूक होने पर बीमाधारक की रकम व सुरक्षा चली जाती है, एजेंट का कमीशन समाप्त हो जाता है और इसका सबसे रोज्यादा असर तो बीमा व्यवसाय की वृद्धि पर पड़ता है जिससे बीमा कंपनी का लाभ भी प्रभावित होता है। इसलिए मुख्य कदम तो बीमा कंपनियों को ही उठाना है। पहले साल का कमीशन अधिक होने की वजह से एजेंट नई पॉलिसियां ही बेचने के इच्छुक रहते हैं, उनकी दिलचस्पी पुरानी पॉलिसियों के चलते रहने में कम हो जाती है। इस वजह से नया व्यवसाय तो बढ़ता जाता है पर पुरानी पालिसियां रद्द होती जाती हैं। अगर बीमा कंपनियां पहले साल का कमीशन घटा दें और पुराने बीमों के जारी रखने पर विशेष प्रोत्साहन राशि दे तो यह समस्या कम हो सकती है। ऐसे ही किस्त जमा होने को सुनिश्चित बनाने व ग्राहक को इसकी याद दिलाने पर भी प्रोत्साहन राशि रखी जा सकती है।

Tuesday, July 12, 2011

कहाँ करें बीमा कम्पनी की शिकायत ?

बीमा कंपनियों के टाल-मटोल वाले रवैये से परेशान और क्लेम के लिए कई महीने गुजरने के बाद भी भुगतान न मिलने पर क्या किया जा सकता है? या फिर किस्त का चेक या भुगतान बीमा कंपनी ने ले लिया पर पॉलिसी जारी न की हो तो क्या करें? ग्राहक सेवा प्रतिनिधि को बार-बार फोन करने और बीमा कंपनी के दफ्तर के चक्कर लगाने के बाद भी समस्या का समाधान न हो तब क्या चारा है? सबसे पहले बीमा कंपनी की संबंधित शाखा में अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। ज्यादातर कंपनियां अपने पॉलिसीधारकों को ग्राहक सेवा विभाग में फोन या ई-मेल के जरिए शिकायत करने की सुविधा देती हैं। अगर ग्राहक सेवा विभाग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिले या समस्या का समाधान न हो तो कंपनी के शिकायत निवारण अधिकारी से संपर्क करना चाहिए। बीमा कंपनी को तीन दिनों के भीतर लिखित में पॉलिसीधारक को उसकी शिकायत दर्ज होने की सूचना देनी होती है। शिकायत के दो हफ्ते के भीतर कंपनी को उसे निपटाना होगा। कंपनी अगर शिकायत को खारिज करती है, तो इसकी वजह के साथ-साथ उसे यह भी बताना होगा कि असंतुष्ट होने की स्थिति में पॉलसीधारक के पास क्या-क्या विकल्प हैं। शिकायत खारिज होने के आठ हफ्ते के भीतर आप अगला कदम नहीं उठाते, तो कंपनी मान लेती है कि मामला बंद हो चुका है। अगर इसके बावजूद भी समस्या का समाधान नहीं होता तो एक ही समाधान है बीमा लोकपाल को लिखित शिकायत करना, जहां से 90 दिनों में ही सभी समस्याओं का समाधान मिल सकता है।  
क्या है लोकपाल?
लोकपाल वह अधिकारी है जो पालिसी धारकों की समस्या के निस्तारण के लिए सरकार द्वारा सामान्यतया बीमा उद्योग, सिविल सेवा या न्यायिक सेवा अधिकारियों में से मनोनीत किए जाते हैं। बीमाधारकों के हितों की रक्षा के लिए 11 नवंबर, 1998 को भारत सरकार द्वारा जारी सूचनापत्र के बाद बीमा लोकपाल संस्थान अस्तित्व में आया। ग्राहकों और बीमा कंपनियों के बीच भरोसा बनाए रखने में इसकी अहम भूमिका है। इसका मुख्य उद्देश्य, बीमाधारकों की शिकायतों का जल्द से जल्द निपटारा करना है, साथ ही उन समस्याओं का भी समाधान करना भी है जो बीमाधारकों की शिकायतों के निपटारे में बाधक हैं। लोकपाल की नियुक्ति के लिए कमेटी के सुझाव के आधार पर प्रशासनिक निकाय आदेश देता है। इस कमेटी में, आइआरडीए (इंश्युरैंस रेग्युलेटरी एंड डिवेल्पमेंट ऑर्थोटी) के अध्यक्ष, एलआइसी (लाइफ इंश्युरैंस कारपोरेशन)और जीआइसी (जनरल इंश्युरैंस कारपोरेशन) के अध्यक्ष तथा केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।
लोकपाल के  कार्य
बीमा लोकपाल को दो काम करने होते हैं, पहला ग्राहक की शिकायत का निपटारा और दूसरा बीमा कम्पनी तथा ग्राहक के बीच पंचायत करना। बीमा लोकपाल किसी भी बीमा कंपनी के विरुद्घ शिकायतों को लेने और उन पर विचार करने को अधिकृत है। इसके लिए जरूरी है कि ग्राहक ने पहले अपनी शिकायत संबंधित बीमा कंपनी से की हो और उक्त बीमा कंपनी ने 30 दिनों के भीतर या तो उसका निपटारा न किया हो या निपटारा संतोषजनक न रहा हो। दूसरी बात यह है कि यही शिकायत किसी अदालत, उपभोक्ता अदालत के यहां लम्बित नहीं हो।
क्या हो सकती हैं शिकायतें?
दावे के निपटारे में बीमा कंपनियों द्वारा ढ़ील बरतने या बीमे के लिए दी गई या दी जाने वाली किस्त राशि संबंधी विवाद हो या दावों के निपटारे में विलंब और किस्त लिए जाने के बावजूद किसी तरह का बीमा-दस्तावेज न दिए जाना आदि। लोकपाल, 20 लाख रुपये तक के बीमा संबंधी विवादों के निपटारे के लिए अधिकृत है, तथा इसे तीन महीने में अपना फैसला देना होता है और बीमा कंपनियां उसे मानने के लिए बाध्य भी होती हैं।
कैसे करें शिकायत?
भारत भर में लोकपाल के बारह कार्यालय हैं। जो अपने-अपने क्षेत्राधिकार के आधार पर कार्य करते हैं। शिकायतकर्ता को इनके यहां अपनी शिकायत लिखित रूप में करनी चाहिए। शिकायत, बीमाधारक के कानूनी-वारिसों द्वारा भी दर्ज कराई जा सकती है। लोकपाल के यहां शिकायत दर्ज करवाने में कुछ विशेष सावधानियां रखनी होती हैं जैसे-शिकायतकर्ता द्वारा बीमा कंपनी के समक्ष अपने शिकायत रखे जाने के बाद बीमा कंपनी द्वारा उसका वाद खारिज कर दिया हो या शिकायत मिलने की तारीख से एक महीने तक कोई जवाब नहीं दिया हो या दिए गए जवाबों से शिकायतकर्ता संतुष्टï न हो। लेकिन ध्यान रहे, बीमा कंपनी के जवाब देने के बाद एक साल गुजर जाने पर शिकायत नहीं की जा सकती, उस हालत में शिकायत को अवधिपार मान लिया जाता है। या वह शिकायत किसी न्यायालय या उपभोक्ता मंच में लम्बित नहीं होनी चाहिए।
लोकपाल का फैसला
लोकपाल मामले की गंभीरता और परिस्थितियों को देखते हुए, उचित ही फैसला करता है। निर्णय मामला दर्ज होने के एक महीने के अंदर ही संबंधित शिकायतकर्ता और बीमा कंपनी को भेज दिया जाता है। अगर शिकायतकर्ता, लोकपाल निर्णय और सुझावों से संतुष्टï हो तो उसे सुझाव प्राप्त होने की तारीख से 15 दिनों के अंदर लिखित रूप में लोकपाल को अपनी स्वीकृति देनी होती है। अगर लोकपाल के फैसले से शिकायतकर्ता सहमत नहीं हो तो विवाद उपभोक्ता मंच या अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है।
इसके अलावा बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (इरडा) के मुफ्त फोन नंबर-155255 पर संपर्क कर सकते हैं या लिखित शिकायत भी दर्ज करवाई जा सकती है। जीवन बीमा, साधारण बीमा में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के लिए अलग-अलग अधिकारी एवं कार्यक्षेत्र हैं।

साधारण बीमा क्षेत्र की निजी क्षेत्र की कम्पनियों के लिए- 
श्री के. श्रीनिवास, 
सहायक निदेशक
बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण, उपभोक्ता मामलों का विभाग, 
युनाइटिड इंडिया टॉवर, 9वीं मंजिल, 3-5-817, 818 बशीर बाग , हैदराबाद-500 029
e-mail : complaints@irda.gov.in

साधारण बीमा क्षेत्र की सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के लिए-
श्री आर. श्रीनिवास, 
विशेष कार्य अधिकारी
बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण, उपभोक्ता मामलों का विभाग, 
युनाइटिड इंडिया टॉवर, 9वां मंजिल, 3-5-817, 818 बशीर बाग , हैदराबाद-500 029
e-mail : complaints@irda.gov.in
 
जीवन बीमा में दोनों क्षेत्रों के लिए- 
श्री टी. व्येकेटश्वराय राव, 
सहायक निदेशक
बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण, उपभोक्ता मामलों का विभाग, 
युनाइटिड इंडिया टॉवर, 9वां मंजिल, 3-5-817, 818 बशीर बाग, हैदराबाद-500 029
e-mail : complaints@irda.gov.in

ग्रामीण बीमा योजनाओं को खुद चाहिए बीमा सुरक्षा

वैसे तो हमारे देश के शहरी क्षेत्र में बीमा और हेलमेट दोनों ही जुर्माने या टैक्स से बचने के लिए मजबूरी में खरीदे जाते हैं। इन दोनों महत्त्व ही तब पता चलता है जब कोई दुर्घटना या मौत हो जाती है। जब यह हाल शहरी क्षेत्र में बीमे का है तो ग्रामीण क्षेत्र के बार में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। बीमा क्षेत्र के दिग्गजों ने स्वीकार किया है कि ग्रामीण क्षेत्र और छोटे शहरों में बीमा कंपनियां अभी तक पैठ बनाने में नाकाम रही हैं। छोटी किस्त राशि, साप्ताहिक या मासिक भुगतान विकल्प और अनियमिता की वजह से इन इलाकों में कारोबार के लिए फिलहाल कंपनियां उत्साहित नजर नहीं आ रही हैं।
विभिन्न बीमा कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों ने माना है कि देश की 65 फीसदी से अधिक की आबादी वाले ग्रामीण इलाके बीमा के लिहाज से अबतक अनछुए हैं। इस बात की ताईद आइएलओ (इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाजेशन) भी करता है, जिसके अनुसार भारत में कु ल 51 माइक्रो इंश्युरैंस योजनाएं चल रही हैं, जिनमें से ज्यादातर पिछले पांच-सात साल में ही बनाई गई हैं। जारी आंकडों के मुताबिक 43 योजानाएं मात्र 52 लाख लोगों को ही सुरक्षा प्रदान कर रही हैं। इनमें से 33 प्रतिशत योजनाएं माइक्रो फाइनैंस व्यवसाय करने वाली संस्थाओं के हाथ में है, 31 प्रतिशत एनजीओ, 23 प्रतिशत समुदायिक संगठनों और 12 प्रतिशत स्वास्थ्य की देखभाल करने वाली संस्थाओं द्वारा चलाई जा रही हैं। देश की कुल 60.8 प्रतिशत योजनाएं ग्रामीण क्षेत्र पर आधारित हैं, 31.4 प्रतिशत ग्रामीण एवं शहरी दोनों पर तथा शेष 7.8 प्रतिशत विशुद्ध रूप से शहरी क्षेत्र को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। इसमें जीवन बीमा और स्वास्थ्य बीमा दो ही तरह की योजनाओं पर ज्यादा ध्यान दिया गया है, 59 प्रतिशत जीवन बीमा और 57 प्रतिशत स्वास्थ्य बीमा योजनाओं पर आधारित हैं।
एक रोचक तथ्य यह है कि इन सभी ग्रामीण बीमा आधारित योजनाओं का 75 प्रतिशत इस्तेमाल सिर्फ 4 दक्षिण भारतीय राज्यों में (आंध्र प्रदेश 27 प्रतिशत, तमिलनाडु-23 प्रतिशत, कर्नाटक-17 प्रतिशत और केरल 8 प्रतिशत) में हो रहा है। शेष का 18 प्रतिशत उत्तर भारतीय राज्यों जिसमें महाराष्ट्र में 12 प्रतिशत और गुजरात में 6 प्रतिशत तथा शेष भारत में बचा हुआ 7 प्रतिशत ही काम आ रहा है।
एक विरोधभास यह भी है कि एक कार्यक्रम के दौरान आइएनजी वैश्य इंश्योरेंस के चीफ रिप्रजेंटेटिव एनएन जोशी ने माना कि ग्रामीण क्षेत्रों में पैर जमाने की सारी कोशिशें अभी तक इसलिए बेकार रही हैं कि बीमा कंपनियों ने अपनी अधिकांश योजनाएं शहरी ग्राहकों को ध्यान में रखकर तैयार की है। उनके अनुसार कंपनियों को ग्रामीण उपभोक्ताओं के मुताबिक उत्पाद तैयार करने चाहिए जो अपेक्षाकृत छोटी किस्त राशि के हों। भारती एक्सा लाइफ इंश्योरेंस के सीइओ नितिन चोपड़ा के मुताबिक, बीमा कंपनियों को अब शहरों से दूर नए इलाकों की तलाश करनी चाहिए, इन क्षेत्रों में सफलता के लिए जरूरी है कि उनका उत्पाद सस्ता हो तथा लोगों तक यह सस्ते में पहुंचे भी। ये दोनों बयान संकेत करते हैं कि छोटी रकम की बीमा योजनाओं से देश में बीमा व्यवसाय बढ़ सकता है। पर सच्चाई कुछ और ही बयान कर रही है-तमाम सरकारी प्रवधानों और संरक्षणों के बावजूद बीमा कंपनियां ग्रामीण जनता व समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर पाने में नाकामयाब रही हैं। यह भी सच है कि टोटल इंश्योरेंस प्रीमियम के मामले में भारत एशिया का पांचवां बड़ा देश है, और यह भी कि 2008 में कुल इंश्योरेंस प्रीमियम 1 लाख करोड़ रुपए इक्कठा हुआ पर इसमें माइक्रो इंश्योरेंस का हिस्सा सिर्फ 125 करोड़ रुपए ही था। आइआरडीए के अनुसार बहुत सी साधारण बीमा कंपनियों- ओरियंटल, टाटा एआइजी व इफको-टोकियो ने ग्रामीण प्रतिबद्धता तथा न्यू इंडिया, नेशनल व एचडीएफसी एग्री ने सामाजिक प्रतिबद्धता का अपना लक्ष्य तक पूरा नहीं किया। इरडा द्वारा 2010 में जारी आंकड़ों के अनुसार 24 कम्पनियों में से 15 के पास लघु बीमा व्यवसाय के लिए ऐजेंट ही नहीं हैं। शेष 9 कम्पनियों में अविवा और श्रीराम के पास एक-एक, आइसीआइसीआइ प्रूडेंशिअल व सहारा के पास 14 व 15 ऐजेंट ही हैं कुलमिला कर कुल 8676 ऐजेंट्स में से निजी कम्पनियों के पास देशभर में मात्र 770 ऐजेंट ही हैं।
इस मामले में न्यू इंडिया इश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के पूर्व चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर बिमलेंदु चक्रवर्ती की राय अहमियत रखती है। उनके अनुसार योजनाओं का नफा नुकसान स्पष्ट नहीं होने के कारण अबतक देश में मात्र 0.6फीसदी लोग ही ये बीमा उत्पाद अपना सके हैं। ऐसे में अधिक आबादी वाले ग्रामीण बाजार के लिए अधिक सरल उत्पाद लाने चाहिए और उसकी प्रक्रिया को इतना सरल करने की जरूरत है कि यह किसी परचून की दुकान पर भी बेचे जा सकें। फिलहाल यहीं कहा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्र में बीमा उद्योग को खुद अपने लिए किसी अच्छी सी बीमा योजना की जरूरत है।