
हालांकि नागपुर स्थित राष्ट्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉ. केशव क्रांति के अनुसार आजादी के बाद कृषि क्षेत्र में हुए अनुसंधान का सबसे ज्यादा लाभ कपास उत्पादक किसानों को मिला है। सन 1947 में एक हेक्टेअर क्षेत्र में केवल 80 किलो कपास का उत्पादन होता था जो वर्ष 2011 तक बढ़कर 570 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर तक पहुंच गया है। उन्होंने बताया कि कपास उत्पादन के क्षेत्र में हमें भी ब्राजील की तरह प्रगति करनी होगी जहां विश्व में सबसे अधिक प्रति हेक्टेअर दो हजार किलो कपास का उत्पादन होता है।
वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ.सी.डी.मायी का दावा है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिक अब बीटी काटन से काफी आगे निकल चुके हैं। उन्होंनें अधिक रोग प्रतिरोधक एवं अधिक उत्पादन वाली बीटी-2 और बीटी-3 जैसी कपास की प्रजाति भी विकसति कर ली है जो अगले दो तीन सालों में किसानों को उपलब्ध हो जाएंगे। उन्होंने बताया कि उन्नत बीज और आधुनिक तकनीक की मदद से प्रति हेक्टेअर एक हजार किलो से अधिक कपास का उत्पादन किया जा सकेगा। डॉ. मायी का सुझाव था कि कपास निर्यात पर पाबंदी हटाने से देश में कपास उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी।
जबकि सच्चाई यह है कि पिछले पांच सालों में हमारे वैज्ञानिकों ने मात्र तीन ही नई किस्में इजाद की हैं। गत पांच वर्षों में कपास बिजाई का रकबा तो बढ़ा है लेकिन उत्पादन में गिरावट आई है। कपास विकास एवं अनुसंधान संगठन (सीडीआरए) व कन्फैडरशन ऑफ इण्डियन टेक्सटाइल इण्डस्ट्रीज (सीआइटीआई) के अनुसार गत वर्ष की तुलना में इस वर्ष कपास का उत्पादन 475 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर हुआ है। उत्पादन कम होने का कारण उत्तरी भारत एवं केन्द्रीय राज्यों में मौसम का प्रतिकूल होना बताया जा रहा है। अधिकारियों के मुताबिक करीब 12.1 मिलियन प्रति हेक्टेअर कपास का उत्पादन हुआ जबकि कपास सलाहकार समिति का पूर्वानुमान 35.5 मिलियन गांठों के उत्पादन था।
कपड़ा आयुक्त का कहना है कि केवल 2007-08 में ही कपास का रिकॉर्डतोड़ उत्पादन 554 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर में हुआ था। पंजाब व गुजरात राज्य में 5 से 7 प्रतिशत कपास की फसल अनियमित वर्षा के कारण चौपट हो गई। इसके अलावा अक्टूबर में गर्म हवाएं चलने से फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और कपास का वजन भी घटा। सवाल यह है कि कपास पर चिन्ता करने वाली दर्जनों सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं और सैंकड़ों वैज्ञानिकों के प्रयास हमारे देश में ही असफल क्यों हो जाते हैं? क्या वजह है कि निजी क्षेत्र की हजारों कंपनियां अपने-अपने क्षेत्र में एक भी बेहतर बीज नहीं दे पाती हैं। ये कंपनियां एक ही बीज वैराइटी को अलग-अलग नामों से अपनी रिर्सच कह कर बेचती हैं। अचरज तो तब होता है जब हमारे कृषि अधिकारी अरबों रूपए के बीज बेचने वाली इन कंपनियों से उनकी शोध पर कोई सवाल तक नहीं पूछते। इन कंपनियों के पास शोध के लिए वैज्ञानिक तो क्या कृषि विज्ञान में एम.एससी एक कर्मचारी तक नहीं होता, प्रयोगशालाएं और अन्य संसाधन तो बहुत दूर की बात हैं।
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