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Monday, August 13, 2012

पंचायतों को मिले बजट का 7 प्रतिशत -के. एन. गोविंदाचार्य

पंचायती राज अधिनीयम में सन 1993 में 73वां संशोधन कर देश में पंचायती राज की पुन: स्थापना की गई। इससे ग्राम पंचायतों का ढांचा खड़ा हुआ और उन्हें विकास कार्यों के अधिकार भी मिले। पर्याप्त आर्थिक संसाधनों की व्यवस्था न होने से पंचायती राज का सपना आज भी अधूरा है। हालांकि इस संसोधन को हुए 20 साल होने आ गए पर अभी भी केन्द्र सरकार ग्राम पंचायतों को धन मुहैया कराने पर विचार ही कर रही है। केन्द्र सरकार के अलग-अलग मंत्रालयों में विचारों के आदान-प्रदान हो रहे हैं। राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संस्थापक-संरक्षक तथा सुप्रसिद्ध विचारक के. एन. गोविंदाचार्य द्वारा सरकार के सामने रखी एक मांग के अनुसार गांवों में देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी रहती है इसलिए केन्द्रीय बजट का कम से कम 7 प्रतिशत धन सीधे ग्राम पंचायतों को दे दिया जाए। सन 2011-12 में केन्द्रीय बजट 12 लाख करोड़ रुपये से अधिक था और देश में 2.5 लाख ग्राम पंचायतें हैं। उनके हिसाब से प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसत 30 लाख रुपए दिये जाने चाहिए जो बजट राशि के साथ प्रतिवर्ष बढ़ते जाएंगे। प्रस्तुत हैं गत दिनों श्री के. एन. गोविंदाचार्य से उनकी इस मांग के बारे में विस्तार से हुई बात-चीत के सम्पादित अंश-

आपने कहा कि कुल बजट का 7 प्रतिशत सीधा पंचायतों को दिया जाना चाहिए। क्या हमारी ग्राम पंचायतें इतनी सक्षम हैं? जिन लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप सबसे ज्यादा लगते हैं, उन्हीं के हाथ में सीधा धन दे दिया जाए तो क्या इससे भ्रष्टाचार और नहीं बढ़ेगा?
जब हम विधानसभा और लोकसभा को खत्म नहीं करते हुए भ्रष्टाचार का निदान करने का प्रयास कर रहे हैं तो वही बात ग्राम-पंचायतों पर भी लागू होती है। आजकल चुने हुए प्रतिनिधियों की तो कोई जिम्मेदारी ही नहीं है, यह अधिकार सरकारी कर्मचारियों को दे दिया गया है जिन्हें ग्राम-सेवक कहते हैं। एक ग्राम-सेवक की अनुशंषा पर जिला कलेक्टर पंचायत को भंग कर देता है। इसलिए हमारा पहला लक्ष्य है 6 लाख गावों की 2.5 लाख पंचायतों को शक्तिशाली बनाना और ग्राम सभाओं को जीवित करना। दूसरी बात यह है कि विधानसभा और लोकसभा की तरह जिन विकृतियों का शिकार आज पंचायत चुनाव हो चुके हैं, उनमें सुधार लाना। इसके लिए मेरा सुझाव है कि पंच-सरपंच सर्वसम्मति या आम सहमति से चुने जाएं, और हिसाब-किताब जांचने के लिए लोकाधिकारी और ग्राम सभा भी होने चाहिएं।
एक ऐसा ही प्रयास नहरी क्षेत्र में किया गया है, जहां नहरों का रख-रखाव, पानी का बटवारा तथा आबियाना वसूली तक के सारे अधिकार किसानों को दे दिए गए हैं। जहां-जहां भी यह किसान समितियां बनी हैं वहां भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। किसान नहर के किनारों की मिट्टी खोदकर अपने घर बनवा रहे हैं।
जब भी बदलाव होता है इस तरह की परेशानियां आती ही हैं। जब चलेंगे तो दुर्घटनाएं भी होंगी ही, तो क्या इन दुर्घटनाओं से डरकर हम चलना ही बंद करदें? लोकतंत्र को इसी तरह अपाहिज रहने दें? यह एक प्रयोग है जिसमें परेशानियां आएंगी तो उनके हल भी खोज लिए जाएंगे।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के मंच से आप प्राय: परिवर्तन की बात करते हैं। क्या यह सत्ता परिर्वत की बात है या आम लोगों के व्यवहार परिवर्तन की बात है?
 यह सत्ता परिवर्तन नहीं व्यवस्था परिवर्तन का मुद्दा है जिसमें सामाजिक, प्रशासनिक, शैक्षिक तथा न्यायिक सुधार शामिल हैं। हमारा जन-शिक्षण, जनमत और जन-दबाव के साथ इस दिशा में बढऩा है। 
क्या यह हमारे देश में संभव है जहां के लोग मूलत: आलसी, लालची और आत्मघात की हद तक अज्ञानी हैं और अपने छोटे से फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं?  
हमारा मकसद है सामान्य आदमी का नैतिक स्तर इतना बढ़े कि वह किसी प्रलोभन न आए, इसे कहेंगे मानस परिवर्तन। व्यवस्था में यह गुंजाइश बनी रहे कि आम आदमी सीधे रास्ते पर चल सके। धर्म-सत्ता और समाज-सत्ता की भूमिका यह है कि व्यक्ति की नैतिकता बनी रहे और राज-सत्ता और अर्थ-सत्ता का कार्य यह है कि व्यवस्था निरापद बनी रहे। हम इन दोनों स्थितियों पर काम करेंगे।
इसके लिए कोई ठोस रणनीति है आपके पास?
इसके लिए हमारा प्रयास है कि जिला स्तर पर ऐसे लोगों को जोड़ा जाए जो इन विषयों पर आपस में सहमत हों। इसे मैंने हमारा गांव हमारा देश, हमारा जिला हमारी दुनिया नाम दिया है, और लक्ष्य रखा है सबको भोजन सबको काम। अब ऐसे लोग ही मिल कर कोई रास्ता निकाल सकते हैं क्योंकि राज-सत्ता और तंत्र के माध्यम से तो यह रास्ता निकलने से रहा। भारतीय समाज कुछ ऐसा है जिसमें धर्म-सत्ता, समाज-सत्ता, राज-सत्ता और अर्थ-सत्ता चारों मिल कर काम करें तो ही कार्य हो सकता है और हम इस दिशा में ही कार्य कर रहे हैं। साधु-संत अपने जिले में विश्वनीयता बनाए रखकर यह माहोल तैयार करें कि न सत्ता का न सम्पत्ति बल्कि सही का सम्मान हो।
क्या यह योजना बहुत लम्बी नहीं है? इसके माध्यम से लक्ष्य हासिल करने में पांच-सात सौ साल लग जाएंगे। जिस देश के एक छोटे से शहर की नगर पालिका के 20-30 ईमानदार लोगों का मिलना कठिन हैं वहां 2.5 लाख पंचायतों के लिए 10 लाख ईमानदार लोग कहां से आएंगे?
 आज निराशा के इस समय में समस्या है किसी भी कार्य को शुरू करने की, अगर हम शुरू ही नहीं करेंगे तो लोग इस स्थिति से निकलेंगे कैसे? जब आम आदमी को सीधे रास्ते से धन मिलेगा तो वह ईमानदार भी रह सकेगा।
अब से पहले कहा जाता था कि सरकारी कर्मचारियों की वेतन इतना कम है कि वह अपने गुजारे के लिए रिश्वत लेता है, पर पांचवे वेतन आयोग के लागू होने के बाद वह स्थिति नहीं रही। आज के कर्मचारी को इतना वेतन मिलता है कि वह आराम से गुजारा कर सके, इसके बावजूद भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी बढ़ी है।
भ्रष्टाचार मूलत: आर्थिक मुद्दा न हो कर नैतिक मुद्दा है, अत: इसे वर्तमान राजनैतिक माहौल में नहीं सुधारा जा सकता। इसी लिए हमें राजनैतिक और चुनाव सुधारों की बुनियादी तौर बहुत जरूरत है। इस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है, इसमें एक प्रयास यह हुआ है कि जो जहां है वहीं कार्य करे जिससे यह लड़ाई विकेंद्रित और स्थानिक हो जाए।
आप इसकी क्या वजह मानते हैं?
 भारतीय समाज में अच्छाई बहुतायत में है, पर हम उसे अवसर नहीं देते। समाज सुधार के लिए काम करने वाले लोगों और संस्थाओं ने अपने मानक खुद निर्धारित कर रखें हैं और उन्हें आम लोगों पर लादने का प्रयास कर रहे हैं जो शायद त्रुटिपूर्ण हैं।
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोग व्यवस्था के खिलाफ लड़ते-लड़ते सत्ता के खिलाफ लडऩे लगते हैं, वे अपनी सारी ताकत सत्ता के विरोध में झोंक देते हैं, क्या आप इसे सही मानते हैं?
 यह निभर्र करता है आंदोलन चलाने वालों पर। आप जेपी का उदाहरण लें। जब इंदिराजी ने कहा कि अगर आप लोकतंत्रवादी हैं तो एक वर्ष बाद चुनाव आ ही रहे हैं, फैसला जनता को करने दें। जेपी ने इसे स्वीकार किया और देश की जनता ने साबित किया। यह तो बदकिस्मती थी कि बाद में वे बीमार पड़ गए वरना मोराजी, चरणसिंह, लालू आदि को स्वस्थ नहीं रहने देते।
कहने का भाव यह कि पहले से होमवर्क जरूरी है केवल टकराकर सत्ता परिवर्तन पर रुक जाएं यह सही नहीं होगा। सत्ता परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन और मानस परिवर्तन तीनों में सत्ता परिवर्तन तो हो जाएगा लेकिन मूल उद्देश्य तो व्यवस्था और मानस परिवर्तन है।
आजकल भ्रष्टाचार की मुखालिफत करना एक फैशन बन गया है। देश भर में हाशिए पर पड़े नेता इसे भुनाने की जुगत में हैं, जबकि आम भारतीय अज्ञानता के कारण भ्रष्टाचार का अहम हिस्सा बना हुआ है। आप क्या कहेंगे?
 यह सामाजिक बदलाव के संकेत हैं, पुन:निर्माण की प्रक्रिया है। नए तकाजे हैं, नई जरूरतें है, तभी तो इसकी आवश्यकता है, वर्ना अन्ना हजारे पहले क्यों नहीं आए? स्थितियां ऐसी बन गई हैं तब यह दौर आया है। रही बात मौकापरस्त लोगों के साथ जुडऩे की, तो यह आप भी जानते ही हैं कि जब फसल उगती है और बरसात अच्छी हो तथा खाद भी भरपूर मिल रही हो तो खरपतवार साथ उग ही जाती है। अब यह काम तो किसानरूपी जनता का है कि वो मुख्य फसल बचाने के लिए कितनी निराई-गुड़ाई करती है।
आप पर एक आरोप यह है कि आप वैश्वीकरण के सख्त खिलाफ है, जबकि इसकी वजह से लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया है।
इस बारे में हमें यह देखना होगा कि आज हमारी जरूरतें क्या है न कि यह कि विश्व बाजार हमारे यहां बेचना क्या चाहता है? इसे आप एक बात से समझ जाएंगे कि जब हमारी बहन बहुत छोटी थी तब किसी ने उनके कान के सोने के कुण्डल ले कर उन्हें लॉलीपॉप दे दिया। हमारी बहन तो बहुत खुश थी कि उन्हें अपनी पसंद की वस्तु एक बेकार चीज के बदले मिल गई। कुछ ऐसा ही हमारे देश के साथ हो रहा है। हमें देखना होगा कि वैश्विक तकनीक के बदले हम कीमत क्या चुका रहे हैं?
अगर देखा जाए तो यह बैंलेस-शीट कुल मिलाकर घाटे की ही बनेगी। सरकार को देखना चाहिए कि समाज को सेक्टर वाइज क्या मिला है, 2005 में विश्व व्यापार समझौता लागू हुए 10 साल हो गए, इन 10 वर्षों में स्थिति क्या रही है? हमें एक नेता मिले जो कहते हैं कि वैश्वीकरण की वजह से हमें जर्मनी की स्ट्राबेरी खाने को मिली, वरना हम महाबलेश्वर की स्ट्रबेरी को ही अच्छा मानते रहते। मेरा मानना है कि वैश्वीकरण से ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी नहीं घटी, शहरी क्षेत्र में थोड़ा अंतर आया है पर उसके साथ अपराध बढ़े और सामाजिक ढांचा चरमराया है।
यह आप किस आधार पर कह सकते हैं?
 भारत दरअसल संबंधों पर (रिलेशन बेस्ड) आधारित समाज है जिसे पश्चिमी तकनीक की मदद से सम्पर्क आधारित (कांटेक्ट बेस्ड) बनाने का प्रयास हो रहा है। दूसरे उस तकनीक से पर्यावरण के प्रति हमारी संवेदनाए कम हुई हैं, स्त्रियों के प्रति हमारा नजरिया बदला है। लाभोन्माद, कामोन्माद बढ़े हैं और नैतिकता क्षत-विक्षत हुई है, उससे समाज के बंधन कमजोर हुए हैं। संबंध आधारित समाज में पारस्परिक देखभाल ही हमारी ताकत थी उसकी जगह अगर हम सम्पर्क आधारित समाज बनाएंगे तो आर्थिक रूप से भी कमजोर ही होंगे।
मीडिआ ने आपको बहुत सारी उपाधियां दे रखी हैं जैसे-चिंतक, विचारक, राजनेता, आन्दोलनकारी, चिर-असन्तुष्ट। आप इन से सहमत हैं? या  खुद को कहां सहज महसूस करते हैं?
 मैं ऐसा कुछ नहीं मानता। मैं अपने को सीधा-सादा, सद्उद्देश्य से प्रेरित इंसान भर मानता हूं, बाकी सब नाम भावनावश दिए गए अतिशियोक्ति पूर्ण तमगे हैं।

1 comment:

  1. Read related article at http://bharatiyaanand.blogspot.in/2012/08/indian-agriculture-series-part-ii-day.html

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