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Monday, August 13, 2012

'मल्हार' गाने से नहीं होती बारिश

यह बात वैसे तो कोई भी कह सकता है कि यह एक किवदन्ती मात्र है, पर इसी बात को जब पीढिय़ों से संगीत की साधना करने वाले घराने का एक स्थापित कलाकार कहे तो उसकी प्रमाणिकता पर एक मुहर लग जाती है। यह स्परूट मान्यता है सलिल भट्ट की, जिन्हें विश्व आज सात्त्विक वीणा के अविष्कत्र्ता के रूप में जानता है। उनके परिचय का एक पहलू यह भी है कि वे विश्व में संगीत के सबसे अधिक प्रचारित पुरस्कार ग्रेमी से सम्मानित होने वाले संगीतज्ञ पद्मश्री विश्वमोहन भट्ट के सबसे बड़े पुत्र, प्रथम शिष्य और सात्त्विक वीणा तथा मोहन वीणा के सबसे कुशल वादक है। करीब सत्रह साल पहले पं. विश्वमोहन भट्ट ने अपनी रचना 'ए मीटिंग बाइ द रिवर' के लिए ग्रेमी अवार्ड जीतकर हिंदुस्तानी संगीत का परचम विश्व संगीत के आकाश पर फहराया था। अब सलिल ने अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए अपनी संगीत रचना 'स्लाइड टू फ्रीडम' की प्रस्तुति से विश्व के दूसरे ग्रेमी कहे जाने वाले कैनेडियन जूनो अवार्ड की श्रेष्ठ पांच नामांकित रचनाओं में जगह बना ली है। वे पहले और इकलौते भारतीय संगीतकार हैं जो इस पुरस्कार के लिए नामित किए गए हैं।
बीते दिनों उनसे प्रकृति, पर्यावरण और संगीत विषय पर कुछ बातें हुई। वे कहते हैं कि प्रकृति और संगीत कभी अलग हो ही नहीं सकते, दरअसल संगीत प्रकृतिक ध्वनियों का वैज्ञानिक रूपांतरण ही है। सलिल तो यहां तक कहते हैं कि सबसे पहला और सबसे बड़ा विज्ञान संगीत ही है, दुनिया की पहली खोज भी संगीत को ही माना जाता है।
क्या मेघ मल्हार गाने से बरसात हो सकती है? के जवाब में उनका कहना है कि- इसे बहुत गलत तरीके से समझा गया है। भारतीय संगीत की रचना बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से की गई है इसमें हर घंटे और समय के हिसाब से अलग-अलग राग हैं। तानसेन से जुड़ी एक जनश्रुति है कि एकबार तानसेन से दोपहर का राग दीपक धोखे गवाया गया। दरअसल इस राग की तासीर इतनी गर्म है कि सच्चा कलाकार अंदर तक झुलस जाता है। ऐसा नहीं है कि मैंने अभी राग दीपक गाया और मेरे सामने पलक झपकते ही आग लग जाएगी। यह तो मात्र एक अहसास है, कोई जादू नहीं हैं। बाद में तानसेन की पुत्री ने राग मेघ मल्हार गाया ताकि राग दीपक गाने से जो ऊर्जा उत्पन्न हुई थी, उसके प्रभाव को थोड़ा कम किया जा सके। मेघ मल्हार गाने से ऐसा आभास होता है मानो दूर तक बरसात हुई हो।
तो क्या राग का कोई असर नहीं होता? पूछने पर कहते हैं कि राजस्थान में एक कहावत है कि राग, पाग और साग कभी-कभी ही जमते हैं। आपने देखा किया होगा कि साग (सब्जी) हमारे घरों में बारह महीने और दिन में चार बनता है पर कभी-कभी किसी सब्जी का स्वाद लाजवाब होता है। इसी तरह रोज बांधी जाने वाली पगड़ी भी किसी दिन अलग ही नजर आती है। राग पर तो यह बात सोलह आने लागू होती है। वो कोई संयोग विशेष ही होता है जब गायक, वादक, साज और संगतकार एक ही वेवलेंग्थ पर, एक ही मानसिकता पर आ जाते हैं, ऐसा सुयोग बनने पर ही राग मल्हार बरसने का और राग दीपक सुलगने का आभास देती है।
अगर सचमुच में ऐसा होता तो हम सिद्ध गायक लोग जब चाहे मेघ मल्हार गा कर बारिश करवा लेते और राजस्थान बन जाता सर्वाधिक बारिश वाला इलाका चेरापूंजी। बरसात की कुदरती प्रक्रिया मानसून के सक्रिय होने से शुरू होती है। अगर ज्यादा पेड़ होंगे तो वातावरण में नमी बढ़ेगी, जो धूप से वाष्पित हो कर अथवा मॉनसूनी बादलों की भाप को बून्दों में बदलकर बरसात में तब्दील करती है। राजस्थान में इन दिनों बादल आ रहे हैं और बिना बरसे ही निकल जाते हैं, क्योंकि राजस्थान बंजर है, वीरान है। बरसात मल्हार गाने से नहीं, ज्यादा से ज्यादा मात्रा में पेड़ लगाने से होगी। अत: हम लोगों को पर्यावरण का महत्त्व समझना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने चाहिएं।
संगीत कोई चमत्कार या जादू नहीं है कि राग गाने और बजाने भर से ही सब कुछ हो जाएगा। अगर ऐसा होता तो हमें कनाडा से बुलावा आ जाता, जहां तापमान शून्य से 40 डिग्री तक नीचे चला जाता है। वहां हम राग दीपक गाते और सारी बर्फ पिछल जाती। दरअसल आज का इंसान कुदरत से अनावश्यक और लालच भरी छेड़-छाड़ कर रहा है। इसलिए बर्फ पिघल रही है, ग्लेशियर लगातार टूट रहे हैं। यही हाल रहा तो थोड़े समय में बर्फ  बनना भी बंद हो जाएगी। हम लोगों ने पर्यावरण का तो सत्या नाश कर रखा है, ऊपर से राग मल्हार की बातें कर रहे हैं। मैंने संगीत के जरिए पर्यावरणवादी सोच विकसित करने की कोशिश की है। मेघ मल्हार और मियां की मल्हार बहुत अच्छी राग हैं, लेकिन इनके भरोसे बैठने से बात नहीं बनेगी, बात बनेगी तो सिर्फ पर्यावरण सुधारने से, उसे बचाने से।

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