आपको शायद यह जानकर आश्चर्य होगा कि 100 करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले इस देश में मात्र 16 करोड़ ही दुधारू पशु बचे हैं। पशु पालन विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 1951 में 40 करोड़ जनसंख्या पर 15 करोड़ 53 लाख पशु थे। 1992 में करीब 93 करोड़ की जनसंख्या पर पशुओं की संख्या थी 20 करोड़ 45 लाख और इसके बाद 1997 में यह अनुपात था 19 करोड़ 88 लाख जो सन 2003 में घटकर रह गया 18 करोड़ 52 लाख। यह गिरावट यहीं नहीं थमी सन 2008 में हमारे पास रह गए मात्र 16 करोड़ पशु। विभाग के सूत्रों के अनुसार 1951 में 3 लोगों के पर एक पशु था, जबकि 2006 में 7 लोगों के पर एक पशु रह गया। इन तथ्यों के बीच सरकार के जादूगरी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन दूध की उपलब्धता 132 ग्राम थी जो 2005-06 में 241 और 2009-09 में 258 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई? आप ही अंदाजा लगाएं कि यह क माल हमारी जीवनदायनी नदियों का है या गांव-देहात में बैंठे रसायनिक दूध ईजाद करने वाले 'वैज्ञानिकों का।
पशुओं की लगातार गिरती संख्या के पीछे दो बड़े कारण सामने आये हैं। एक तो है रोजाना 40से 50 हजार पशुओं का तस्करी द्वारा बांग्लादेश जाना और दूसरा है देश में हर साल बढ़ रही कत्लगाहें। केंद्र सरकार की 11वीं पंचवर्षीय योजना में यांत्रिक कत्लगाहों के लिए 500 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं। इस योजना में सभी प्रदेशों को 25 करोड़ रूपए दिए जाएंगे, जिसमें प्रदेश सरकार अपनी तरफ से और 25 करोड़ मिलाकर 50 करोड़ में स्थापित करेगी एक आधुनिक पशु वधशाला। वैसे तो ये बूचडख़ाने भेड-बकरियां काटने के लिए लगाए जा रहें हैं, पर क्या देश में इतनी भेडें या बकरियां हैं जो इन कारखानों को साल भर चला सकें? सब जानते हैं कि इन बूचडख़ानों में भेड-बकरियों के नाम पर क्या कटने वाला है। इनमें अपंग या मरणासन्न पशु चिकित्सा अधिकारी की अनुमति से काटे जा सकते हैं। स्वस्थ नर पशुओं को अपंग और मरणासन्न बनाना या ऐसा किए बिना उन्हें मारने का अनुमति-पत्र लेना 'गांधीजी की मेहरबानी से बहुत आसान है हमारें देश में।
कैसे होती है तस्करी?
गोवंश के तस्करों के लिए उत्तरप्रदेश के बरेली जिले का रामगंगा नदी का रास्ता सबसे मुफीद साबित हो रहा है। इस काम के लिए कूरियर बने दिहाड़ी मजदूर मात्र 500-700 रुपए के लिए कोई भी जोखिम उठा सकते हैं। पुलिस और प्रशासन की नजर कभी इन लोगों पर नहीं पडती, इसलिए यह धंधा वर्षों से बेरोक-टोक जारी है। गैनी के मेले में पशु दूध और नस्ल देखकर नहीं, वजन देखकर खरीदे जाते हैं। ये पशु वध के लिए फतेहगंज के रास्ते से रामपुर ले जाए जाते हैं। तस्करों के कूरियर जब मेले से गोवंश लेकर पैदल गौतारा घाट से गंगा पार करते हुए फतेहगंज पश्चिमी तक जाते हैं तो वह किसी के भी पूछने पर रसीद दिखाकर निकल जाते हैं। मेले तक लाने वाले कूरियर की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। इसके बाद दूसरे कूरियर इसे अंजाम देते हैं। पीपल फॉर एनिमल्ज की राष्ट्रीय अध्यक्ष मेनका गांधी कहती हैं कि उनकी संस्था के लोग प्रशासन को सूचना देते हैं फिर भी पुलिस कार्रवाई नहीं करती है।
मेलों की आड़ में होता खेल
पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और देश के हर कोने में लगने वाले पशु मेलों का एकमात्र उद्देश्य है ऐसे बूचडख़ानों और तस्करी के लिए पशु जुटाना। इन मेलों में किसान दुधारू मवेशी खरीदने नहीं बल्कि अपना खराब, बीमार या फं डर पशु बेचने ज्यादा आते हैं। ये किसान पशु बेचान की कोई रसीद भी नहीं लेते। ये रसीदें तस्करों के बचाव में ढाल का काम करती हैं। इस 'धर्म के काम में कुछ गौशालाएं भी अपना सहयोग निरन्तर दे रही हैं।
पशुओं की लगातार गिरती संख्या के पीछे दो बड़े कारण सामने आये हैं। एक तो है रोजाना 40से 50 हजार पशुओं का तस्करी द्वारा बांग्लादेश जाना और दूसरा है देश में हर साल बढ़ रही कत्लगाहें। केंद्र सरकार की 11वीं पंचवर्षीय योजना में यांत्रिक कत्लगाहों के लिए 500 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं। इस योजना में सभी प्रदेशों को 25 करोड़ रूपए दिए जाएंगे, जिसमें प्रदेश सरकार अपनी तरफ से और 25 करोड़ मिलाकर 50 करोड़ में स्थापित करेगी एक आधुनिक पशु वधशाला। वैसे तो ये बूचडख़ाने भेड-बकरियां काटने के लिए लगाए जा रहें हैं, पर क्या देश में इतनी भेडें या बकरियां हैं जो इन कारखानों को साल भर चला सकें? सब जानते हैं कि इन बूचडख़ानों में भेड-बकरियों के नाम पर क्या कटने वाला है। इनमें अपंग या मरणासन्न पशु चिकित्सा अधिकारी की अनुमति से काटे जा सकते हैं। स्वस्थ नर पशुओं को अपंग और मरणासन्न बनाना या ऐसा किए बिना उन्हें मारने का अनुमति-पत्र लेना 'गांधीजी की मेहरबानी से बहुत आसान है हमारें देश में।
कैसे होती है तस्करी?
गोवंश के तस्करों के लिए उत्तरप्रदेश के बरेली जिले का रामगंगा नदी का रास्ता सबसे मुफीद साबित हो रहा है। इस काम के लिए कूरियर बने दिहाड़ी मजदूर मात्र 500-700 रुपए के लिए कोई भी जोखिम उठा सकते हैं। पुलिस और प्रशासन की नजर कभी इन लोगों पर नहीं पडती, इसलिए यह धंधा वर्षों से बेरोक-टोक जारी है। गैनी के मेले में पशु दूध और नस्ल देखकर नहीं, वजन देखकर खरीदे जाते हैं। ये पशु वध के लिए फतेहगंज के रास्ते से रामपुर ले जाए जाते हैं। तस्करों के कूरियर जब मेले से गोवंश लेकर पैदल गौतारा घाट से गंगा पार करते हुए फतेहगंज पश्चिमी तक जाते हैं तो वह किसी के भी पूछने पर रसीद दिखाकर निकल जाते हैं। मेले तक लाने वाले कूरियर की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। इसके बाद दूसरे कूरियर इसे अंजाम देते हैं। पीपल फॉर एनिमल्ज की राष्ट्रीय अध्यक्ष मेनका गांधी कहती हैं कि उनकी संस्था के लोग प्रशासन को सूचना देते हैं फिर भी पुलिस कार्रवाई नहीं करती है।
मेलों की आड़ में होता खेल
पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और देश के हर कोने में लगने वाले पशु मेलों का एकमात्र उद्देश्य है ऐसे बूचडख़ानों और तस्करी के लिए पशु जुटाना। इन मेलों में किसान दुधारू मवेशी खरीदने नहीं बल्कि अपना खराब, बीमार या फं डर पशु बेचने ज्यादा आते हैं। ये किसान पशु बेचान की कोई रसीद भी नहीं लेते। ये रसीदें तस्करों के बचाव में ढाल का काम करती हैं। इस 'धर्म के काम में कुछ गौशालाएं भी अपना सहयोग निरन्तर दे रही हैं।
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