वैसे तो हमारे प्राचीन ऋषियों एवं मनीषियों ने भी ब्रह्माण्ड की संकल्पना में पृथ्वी के पर्यावरण में जीवों की पारस्परिक निर्भरता का उल्लेख किया है, जिसके वैज्ञानिक प्रमाण जुटाने का श्रेय उन्नीसवां सदी के पश्चिम वैज्ञानिको को जाता है। ब्रिटिश जीव वैज्ञानी चाल्र्ज डॉर्विन योग्यतम की उत्तरजीविता (सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट ) का सिद्धांत हमारे शास्त्रोक्त, जीवो-जिवस्स भोजनम् की संवर्धित व्याख्या सा लगता है। विज्ञान की नवीनतम तकनीकी एवं नव सामाजिक चेतना के कारण आज बीबीसी के डिस्कवरी जैसे चैनल्ज की वजह से केवल वैज्ञानिक की विरासत समझा जानेवाला विशिष्ट ज्ञान जन-जन के सामान्य ज्ञान में शामिल हो गया है। फलस्वरूप हम जानते हैं कि प्रकृति का कोई भी प्राणी एकांतिक नहीं है, सब एक दूसरे से जुड़े हैं। निरपेक्ष भाव से देखें तो कोई भी कार्य न तो बेकार होता है, और न ही गन्दा और हीन। जैसे सभ्य समाज ने आपने शरीर और शहर की सफाई की व्यवस्था कर रखी है वैसा ही इन्तजाम प्रकृति के अन्दर भी मौजूद है। मरे हुए पशुओं को मुर्दाखोर जानवर और कीड़े खा जाते हैं और उनकी हड्डियां समय के साथ मिट्टी बन जाती हैं। हम अपने अज्ञान और लोभ के कारण खुद भी गन्दे हुए है और प्रकृति को भी उसके काम से रोका है, कम से गिद्धों के मामले में तो यह शत-प्रतिशत प्रमाणित हो चुका है कि करे कोई और भरे कोई।
भारत मे कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थी- बियर्डेड, इजिप्शयन, स्बैंडर बिल्ड, सिनेरियस, किंग, यूरेजिन, लोंगबिल्ड, हिमालियन ग्रिफिम और व्हाइट बैक्ड। इनमें से मात्र चार ही प्रवासी किस्म की थी शेष सभी विशुद्ध इसी महाद्वीप की प्रजातियां थी। कभी राजस्थान, गुजरात व मध्यप्रदेश में कभी गिद्ध भारी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब बिरले ही कही दिखाई देते हैं। रेगिस्तानी इलाकों के मुख्यतया पाए जाने वाले गिद्धों की संख्या अकेले गुजरात में ही 2500 से घटकर 1400 रह गई है। ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियाँ चिंताजनक रूप से कम हुई हैं। संरक्षण कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में अविश्वसनीय रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है।
गिद्धों की इस कमी का एक कारण बताया जा रहा है: पशुओं को दर्दनाशक के रूप में दी जा रही दवा डायक्लोफ़ेनाक, और दूसरा, दूध निकालने लिए के लगातार दिए जा रहे ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इन दवाओं के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो ये रसायन उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। तीसरा है, शहरी क्षेत्रों में बढता प्रदूषण। लगातार कटते वृक्षों से गिद्धों के बसेरे की समस्या भी इस शानदार पक्षी को बड़ी तेजी से विलुप्ति की ओर धकेल रही है। भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफ़ेनाक और ऑक्सीटोसिन के अवशेषों की जानकारी करीब 18 साल पहले ही मिल गई थी, लेकिन आज तक गिद्धों में दवा के असर को कम करने का कोई तरीका ढूंढ़ा नहीं जा सका है। हालांकि भारत सरकार ने सर्वेक्षणों की रिपोर्ट, नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ़ द्वारा डायक्लोफ़ेनाक पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा और रॉयल सोसायटी के डेबी पेन द्वारा चिन्ता व्यक्त करने के बाद -डायक्लोफ़ेनाक और ऑक्सीटोसिन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन भोजन चक्र से इसका असर ख़त्म होने में काफ़ी समय लगेगा।
मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते है और सड़े हुए माँस से होने वाली अनेक बीमारियों की रोकथाम में सहायता कर प्राकृतिक संतुलन बिठाते है। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, एक गिद्ध जोड़ा साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देता है। सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए अन्य देशों के साथ भारत सरकार ने भी प्रयास शुरु कर दिए हैं। इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थी। सरकारी पाबंदी के बावजूद ये दोनों दवाएं गाँव-शहरो में पंसारी की दुकान तक पर आज भी सहज उपलब्ध हैं। हम भारतीयों का कानून के प्रति सम्मानभाव सारी दुनियां जानती है, जब हम अपने लालच के आगे भगवान की नहीं सुनते सरकार की क्या मानेंगे। हम अपने छोटे से फायदे के लिए रसायनिक दूध बनाकर आदमी की जान ले सकते हैं वहां गिद्ध की परवाह किसे है, वैसे भी भारतीय समाज में मरे हुए प्राणियों का माँस खाने वाले इस पक्षी को सम्मान या दया की दृष्टि से नहीं देखा जाता है।
अब बात करते हैं ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन के बढ़ते इस्तेमाल के प्रभाव की । नीदरलैंड में एम्सर्टडम विश्विद्यालय के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर दुधारू पशु से ज्यादा दूध लेने के लिए उसे ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन दिया जाए तो उस दूध का सेवन करनेवाले में कई विकार पैदा हो सकते हैं। शोध के मुताबिक़ इस तरह के दूध के सेवन से अपने समुदाय और जाति को दूसरे से श्रेष्ठ समझने का भाव बलवती होता है। ये शोध हाल में अमरीकन एसोसिएशन ऑफ़ एडवांसमेंट ऑफ़ साइंस की पत्रिका प्रोसीडिंग्स नेशनल अकेडमी ऑफ़ साइंस में प्रकाशित हुआ है। अब तक ऑक्सीटोसिन को ऐसा रसायन माना जाता था जो जानवरों में अपने बछड़े के प्रति प्रेम का भाव का पैदा करता है जिससे उसे ज़्यादा दूध उतरता था। लेकिन अब शोधकर्ताओं ने एक नई बात पाई है कि जहाँ ये अपने समुदाय के भीतर एक दूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास को बढ़ावा देता है वहीं दूसरे समुदायों और जातियों के प्रति अविश्वास का भाव का निर्माण करता है। शोध के अनुसार दूसरे समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह की धारणा उत्पन्न होने से जातीय झगड़े बढ़ सकते हैं।
भारत के हर राज्य में पशुपालक अपने मवेशियों में दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए नियमित तौर पर ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल करते हैं। जोधुपर, जेएनवी विश्विद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रमुख प्रोफ़ेसर नरपतसिंह शेखावत के अनुसार उससे हाल के वर्षो में जातीय विवाद और द्वंद जिस स्तर पर उभरा है उसमें इस तरह के दूध के इस्तेमाल ने मदद की होगी इस बात से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता है। वे कहते हैं कि ऐसी दवाइयों पर महज कागजों में रोक लगी है, इस रोक का सख्ती से पालन करवाना भी जरूरी है क्योंकि हम एक जाति समुदायों वाले विविधपूर्ण समाज का हिस्सा हैं। अब तो इस इन्जेक्शन का प्रयोग सब्जिय़ाँ पैदा करनेवाले किसान धड़ल्ले से कर रहे हैं। इसे लौकी या कद्दू में लगा दिया जाये तो शीघ्र ही वह बड़ी हो जाती है।
(इस आलेख में उद्धरण, बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल, ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ लंदन, रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स तथा भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 2008 की समीक्षा से लिए गये है। )
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