Sunday, April 24, 2011

शिक्षित होने का अर्थ

चारों तरफ शिक्षा ही शिक्षा के प्रतीकों के रूप में आज हमारे पास है पिछली किसी भी सदी से ज्यादा विद्यालय हैं। हर छोटे बड़े गांव, कस्बे और शहर में हर ओर स्कूल ही स्कूल दिख जाते हैं। इस विद्या ने लोगों को डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक बना कर आजीविका या रोजी और रोटी कमा लेने का हुनर तो दिया है, लेकिन इसे हम सही अर्थों में शिक्षा नहीं दी। हम अपने बच्चों को यूरोप, अमरीका और आस्ट्रलिया भेज कर वहां भी रोटी कमाने की कुशलता ही सिखा रहे हैं, मात्र विद्या दे रहे हैं और कुछ भी नहीं। आज हम अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे रहे हैं, न ही हमारा वर्तमान में शिक्षा से कोई नाता है। हम क्या कर रहें हैं यह जानने से पहले विद्या और शिक्षा के अर्थ जानने जरूरी हैं। विद्या का हमारे शास्त्रों के अनुसार अर्थ है, जो वह ज्ञान जो मुक्त करे— ‘सा विद्या या विमुक्तये’। क्या वर्तमान में जो हम पढ़ रहे हैं वह ऐसी विद्या है जो विमुक्त कर सकती हो? यह विद्या तो हमें रोजी-रोटी कमाने के साधनों में और ज्यादा उलझा रही है मुक्त नहीं कर रही। दरअसल विद्या शिक्षा का एक पहलू है, सम्पूर्ण शिक्षा नहीं है। शिक्षित होने का अर्थ है सर्वज्ञान से युक्त होना। याद करें हमारी गुरूकुल परम्परा की उस शिक्षा को जहां शिक्षार्थी शास्त्र, धर्म, साहित्य, संगीत, नैतिकता, संस्कार, युद्ध एवं राजनीति सब कुछ सिखाया जाता था। आज की शिक्षा के बारे में ज्यादा बात करने से पहले थोड़ी सी चर्चा आज की विद्या पर।
 
अब एक नजर उस विद्या के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं जो हमें रोजी-रोटी दिलवा रही है। वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी हालिया आंकडों के अनुसार-आइ.आइ.टी. से प्रतिवर्ष मात्र 3000 और 2240 इंजीनियरिंग कॉलेजों से 2.07 तथा कुल मिलाकर भारत भर में हर साल 1.10 करोड युवा डिग्रीधारी पैदा होते हैं। जिनमें से 90 प्रतिशत ग्रेजुएट नौकरी के लायक ही नहीं होते हैं। आइ.टी. की तरह पिछले कुछ वर्षो में रिटेल, हॉस्पिटैलिटी, एनिमेशन-गेमिंग, एविएशन, टूरिज्म, टेलीकम्युनिकेशन जैसे कुछ और क्षेत्र सामने आए हैं, जिसमें प्रशिक्षित युवाओं के लिए काम की भरमार है। लेकिन इन क्षेत्रों में जितने कुशल लोगों की जरूरत है, उतने मिल नहीं पा रहे हैं। इसका कारण इन क्षेत्रों में हमारे देश में प्रशिक्षण मात्र कुछ बडे शहरों में ही उपलब्ध होना है। देश की अधिकांश आबादी तो छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में रहती है, जो आज भी तमाम सुविधाओं से वंचित हैं। यहां के विद्यार्थी वे कोर्स ही पढऩे के लिए मजबूर होते हैं, जो निकटवर्ती कालेज और विश्वविद्यालय में उपलब्ध होते हैं। जब वांछित कोर्स ही उपलब्ध नहीं होगा, तो ये छात्र उसे करेंगे कैसे? नतीजा यह है कि हमारे विद्यार्थी वे ही घिसे-पिटे पारंपरिक कोर्स करते हैं, जिनका मूल्य विश्व रोजगार बाजार में दो कौड़ी भी नहीं। इसका एक ही अर्थ निकलता है कि हम जो विद्या सिखाने का एकमात्र काम कर रहे हैं वो भी पूरी ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं।
 
ऐसा नहीं है कि हमारे देश में शिक्षण संस्थानों की कमी है। इस समय भारत में करीब 300 विश्वविद्यालय और करीब 12 हजार कॉलेज हैं। इसके अतिरिक्त लगभग एक हजार दूसरे संस्थान भी हैं। लेकिन इन सबमें बीए, एमए जैसे साधारण पाठ्यक्रम ही उपलब्ध हैं। अगर तकनीकी शिक्षा संस्थानों की बात करें, तो देश में इस समय करीब 1900 सरकारी और 3500 निजी वोकेशनल कॉलेज हैं, जहां सिर्फ चार लाख छात्रों को ही मौका मिल सकता है। देश भर में इंजीनियरिंग में करीब तीन लाख और मेडिकल में मात्र 25 हजार छात्रों के लिए ही सीटे उपलब्ध हैं। यूरोपीय देशों की तुलना में भारत की करीब सवा अरब आबादी में आज लगभग 50 करोड भारतीय 25 से कम उम्र के हैं। इनमें भी 22 करोड युवा 16 से 25 साल की उम्र के हैं। यही कारण है कि भारत को युवाओं का देश भी कहा जाता है। यदि इन सभी को आज के समय की मांग के अनुसार शिक्षण-प्रशिक्षण की सुविधा मिल जाए तो भारत संभवत: दुनिया का सबसे तेजी से विकास करने वाला देश बन जाए।
 
अब एक बार पुन: शिक्षा की बात करते हैं। इस पर एक तीसरा विचार ओशो का भी है जिससे शायद आप असमत हों। ओशो समूचे विश्व की शिक्षा पर सवालिया निशान लगाते हैं। उन्होनें 1978 के अपने एक सम्बोधन में कहा था कि क्या शिक्षित होने के बाद हम और ज्यादा उजड्ढ और बद्तमीज नहीं हो गए हैं? क्या हमारी शिक्षा ने हमें स्वार्थी और ईर्ष्यालु नहीं बना दिया है? बनते भी क्यों नहीं हमें बचपन से सिखाया गया है- प्रेम करो, संस्कारी बनो! लेकिन कभी आपने विचार किया है कि आज की पूरी शिक्षा व्यवस्था प्रेम और संस्कार पर नहीं, प्रतियोगिता पर आधारित है। किताबों में सिखाते हैं प्रेम करो और पूरी व्यवस्था और इंतजाम प्रतियोगिता का है। जहां प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा और अहंकार है वहां प्रेम कैसे हो सकता है। ये सब तो जलन और ईर्ष्या के रूप है। एक बच्चे के प्रथम आने पर दूसरे बच्चों को अपमानित करने ·की हद तक प्रताडि़त किया जाता है। यह हम क्या सिखा रहे हैं? हम सिखा रहे हैं  ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और द्वेष। हमारी पूरी व्यवस्था उन्हें गोल्ड मेडल और सर्टिफिकेट दे रही है, पुरस्कृत कर रही है और मालाएं पहना रही है। जब सारी दुनिया में प्रतियोगिता सिखाई जाती हो और बच्चों के दिमाग में कम्पिटीशन और एंबीशन का जहर भरा जाता हो तो क्या दुनिया अच्छी हो सकती है? जब हर बच्चा अपने साथियों से आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील और उत्सुक हो तो बीस साल की शिक्षा के बाद जिंदगी में वह वही करेगा जो उसने सीखा है। तभी तो आज हर आदमी एक दूसरे को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ। दरअसल हम शिक्षा के नाम पर हिंसा सिखा रहे हैं, अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज मारकाट, दंगे-फसाद और युद्ध होते हों तो आश्चर्य कैसा! अगर यही शिक्षा है तो ऐसी सारी शिक्षा तुरंत बंद हो जाए तो शायद कल का आदमी आज से बेहतर हो सकता है।
-भू-मीत मार्च-अप्रैल अंक से

1 comment:

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