Sunday, April 24, 2011

कौन देता है शिक्षा?

भारत में सरकारी स्कूली शिक्षा के स्तर से सभी इतने मायूस हैं कि। प्राथमिक स्तर पर वही अभिभावक सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाते हैं जिनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। हो सकता है कि इस बात को खुले तौर पर मानने में सरकारी स्कूल के अध्यापकों को थोड़ी शर्म आए (जो पढ़ाने के नाम पर अच्छा-खासा वेतन उठाते हैं।) कि गरीब से गरीब आदमी की भी पसंद सूची में ये अंतिम पायदान पर हैं। आज विशेष रूप से स्कूल स्तर के अध्यापकों की हमारे समाज में कोई इज्जत नहीं है। समाज में गुरू के लिए कभी सम्मान का भाव रहा होगा पर आज वह महज एक वेतन भोगी है। गुरूजी के इस हाल पर बात करें उससे पहले एक नजर इन आंकडों पर जो हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं।
 
देश के प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्तर लाखों स्कूल और उनमें पढा़ रहे अध्यापकों, सारे सर्व शिक्षा अभियानों, ड्रॉप-आउट ट्रेकिंग कार्यक्रमों और गत वर्ष के नि:शुल्क शिक्षा जैसे कानूनों तथा केन्द्र व राज्य सरकार के अरबों रूपए के बजट के बावजूद संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट यह कहती है कि दुनिया की सबसे अधिक निरक्षर आबादी भारत में है। दूसरी ओर दि एड्यूकेशन फॉर आल की ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनियाभर 79 करोड़ 90 लाख निरक्षर वयस्कों में सबसे ज्यादा भारत में बसते है। रिपोर्ट के अनुसार, आधे से अधिक वयस्क निरक्षरों की आबादी दक्षिणी एशिया के चार मुख्य देशों बांग्लादेश, चीन, भारत और पाकिस्तान में रहती है जिसकी वजह से इस क्षेत्र में प्रगति की रफ़्तार धीमी है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार सात करोड़ बीस लाख बच्चों को प्राथमिक स्कूल में और सात करोड़ दस लाख किशोरों को माध्यमिक स्कूलों में होना चाहिए था पर वे वहां नहीं हैं। यदि यही चलन जारी रहा तो 2015 तक पांच करोड़ साठ लाख बच्चे प्राथमिक स्कूलों से बाहर होंगे। यूनेस्को की एक अधिकारी इरिना बोकोवा के अनुसार इस विश्व इकाई को आशंका है कि वित्तिय संकट के चलते सरकारें शिक्षा पर व्यय होने वाले अपने खर्च में कटौती करेंगी। अगर ऐसा हुआ तो स्थिति और भी विस्फोटक हो जाएगी है।
 
एक सच्चाई यह भी है कि हमारे देश के साक्षरों और निरक्षरों में कोई ज्यादा अन्तर नहीं है। इसका पहला कारण है हमारी बुनियादी शिक्षा में गुणवत्ता की कमी व दूसरे सरकार की प्राथमिकता में कभी शिक्षा नहीं थी, हम आज भी  इसलिए पढ़तें है कि रोजी-रोटी कमा सकें, और सरकार है कि शिक्षा कलैण्डर में पढाई के 180 दिनों में भी शिक्षकों से ही जनगण्ना, पशुगणना, चुनाव, पोषाहार, टीकाकरण जैसे कार्य करवाती है। आज के युवाओं को जब कोई भी सरकारी नौकरी न मिले तो ही वे अध्यापक बनते हैं, उनकी पहली पसंद शिक्षक बनना नहीं है। बेमन से शिक्षक बनने वाला व्यक्ति सारी उम्र खुद को और अपनी नौकरी को कौसते हुए निकाल देता है। एक ऐसा व्यक्ति जिसने मजबूरी में कोई कार्य अपनाया हो वह उस कार्य को जिन्दगी भर ईमानदारी से कर ही नहीं  सकता। कोई भी व्यक्ति सही अर्थ में शिक्षक तभी हो सकता है जब उसे अपने पेशे से प्यार हो और अपने काम के प्रति जूनून की हद तक लगाव हो। जो इन्सान अपनी सारी नौकरी पढ़ाने से जी चुराते और ट्रान्सफर से डरते हुए गुजार दे, वह कभी शिक्षक हो ही नहीं सकता।
 
एक कारण और भी है कि आज डॉक्टर बनने के लिए एक अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के बाद छ: से बारह साल तक पढऩा पड़ता है। यही कहानी एंजिनिअर बनने के लिए है, और तो और, वकील बनने के लिए भी बाहरवीं के बाद पांच साल पढ़ाई करनी पड़ती है तथा प्रवेश परीक्षा के लिए जी तोड़ तैयारी करनी पड़ती है। यानी किसी भी काम के लिए तीन से दस साल तक पढऩा ही पड़ता है। सवाल यह है कि अध्यापक जैसे चुनौती पूर्ण कार्य के लिए मूंगफली के भाव मिलने वाली महज एक साल की बी.एड. की डिग्री काफी कैसे है? वह भी तब जब समाज निर्माण का बोझ माता-पिता के बाद शिक्षक के कन्धों पर है।
 
इस स्थिति में सुधार लाने के लिए सरकार को पहला कदम तो यह उठाना चाहिए कि बी.एड. को प्लस टू के बाद पांच साल का कोर्स बना दे, और उसमें भी प्रवेश के लिए, एक अभिरुचि प्रतियोगी परीक्षा रखे। ऐसा करने से यह कोर्स करने वे ही छात्र आएंगे जो वास्तव में शिक्षक बनना चाहते हैं। ऐसे ही एक और प्रतियोगी परीक्षा के बाद  जो दो साल की एम.एड. करेगा वही प्रधानाध्यापक बन पाए। इतनी कडी परीक्षा के बाद जो शिक्षक आएंगे उनसे शिक्षा में क्रान्ति की उम्मीद रखी जा सकती है, अन्यथा ‘बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय...।’
 
भू-मीत के मार्च अप्रेल अंक का संमपादकीय

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