Wednesday, January 11, 2012

कब तक कपास?

इंसान की तीन अहम ज़रूरतों में, मकान से पहले और रोटी के बाद कपड़े की ज़रूरत पर जोर दिया गया है। हम मकान के बिना रहने की कल्पना तो कर सकते हैं लेकिन कपड़े बिना रहने की हमारी सभ्यता में इजाज़त नहीं है। विज्ञान ने चाहे जितनी भी तरक्की कर ली हो, वह आज तक कपड़ा निर्माण हेतु कपास का कोई बेहतर विकल्प नहीं खोज पाया है। बढ़ती आबादी को और अधिक वस्त्रों की ज़रूरत है और अधिक वस्त्रों के लिए अधिक कपास की। हालांकि बीटी आने के बाद कपास की पैदावार विगत दस वर्षों में दोगुनी हो चुकी है, पर हमारी ज़रूरत के हिसाब से अभी भी कम है। कपास उत्पादक देशों में ब्राजील की 2000 क्विंटल प्रति हेक्टेअर की पैदावार को छोड़ भी दे तो शेष देशों की प्रति हेक्टेअर औसत पैदावार 750 किलो की तुलना में हमारी औसत 500 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। पैदावार में इस कमी के पीछे गर्म जलवायु, नकली खाद, बीज और कीटनाशक, खेती के नासमझ तरीकों के साथ लगातार घटती ज़मीन और बिजली-पानी की किल्लत जैसे बहुत से कारण हैं। वैसे इजराइल जैसे देश ने हमें यह तो सिखा दिया कि कम पानी और विषम परस्थितियों के बावुजूद खेती की जा सकती है, पर सिकुड़ती ज़मीन, बढ़ती लागत और अनिश्चित कीमतों के बीच कपास की खेती जारी रखना कौन सिखाएगा?
कपास की बढ़ती लागत पर एक नज़र डालें तो पाएंगे कि गत वर्ष तक जो मज़दूरी 75 से 80 रु. प्रतिदिन थी, वह अब 200-225 रु. हो गई है। इसके अलावा या तो खाद पर्याप्त मात्रा में मिलती नहीं और मिलती है तो लगातार बढ़ते हुए भाव में। एक ही साल में पोटाश 225 से 450, सुपर फास्फेट 180 से 225 और डीएपी 500 से 965 रूपए प्रति कट्टा हो गया है, यानी एक साल में किसानों पर कुलमिला कर 820 करोड़ रूपए का अतिरिक्त बोझ बढ़ गया। इस साल फसलों की लागत तो बढ़ी, पर भाव कम हो गए। गत वर्ष के 5 से 6 हजार रु. प्रति क्विंटल की तुलना में इस वर्ष कपास का भाव अब तक 4 हजार रु. प्रति क्विंटल से ज्यादा नहीं मिला।
ऐसे में किसानों के पास ग्वार या अन्य विकल्प ही रह जाते हैं। इससे पहले भी लागत न निकलने के कारण किसानों ने कपास के बजाए, खेती के अन्य विकल्पों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है। इसका जीता-जागता उदाहरण उत्तरप्रदेश है जहां कभी (1970 से 1990 के दौरान)लगभग एक लाख हेक्टेअर में कपास की खेती की जाती थी, जो वर्तमान में सिमटकर मात्र तीन हजार हेक्टेअर तक आ गई है। आज वहां की ज़्यादातर सूत और कपड़ा निर्माता मिलें बंद हो चुकी हैं और हथकरघा उद्योग भी अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है। देश में कपास की खेती घटने के पीछे विशेषज्ञों का कहना है कि यह लाभ की खेती तो है, पर इसमें हानि का डर ज्यादा होने से किसानों ने दूसरी फसलों को अपनाना शुरू कर दिया है। क्योंकि इसकी खेती में अधिक लागत के साथ कीट व बीमारियों के होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। दूसरा कारण यह है कि उत्तर भारत में यह फसल तैयार होने में 150 से 170 दिन तक और अन्य क्षेत्रों में 250 दिन तक ले लेती है। जबकि अन्य विकल्पों में किसानों को 60 से 180 दिनों में ही परिणाम मिल जाता है। तीसरा कारण है सरकार की योजनाओं का सरकारी अधिकारियों, किसानों, व्यापारियों और कारखाना मालिकों द्वारा ठीक से न समझा जाना। टेक्रालॉजी कॉटन मिशन इस नासमझी का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कपास की खेती सदियों से ही इतनी ही मंहगी और अनिश्चित रही है तभी तो लोककवि घाघ-बढऱी ने कपास की खेती के बारे में लिखा है कि- 'खेती करै ऊख कपास। घर करै व्यवहारिया पास।' अर्थात ईख और कपास की खेती करना साहूकार को अपने घर बुलाने जैसा है यानी कर्जदार बनना है। मंहगी मज़दूरी और बढ़ती फसल लागत के अतिरिक्त एक और कारण है- हमारा राष्ट्रीय चरित्र। आज तक कोई समझ नहीं पाया कि हम सब एक जैसे क्यों हैं? पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण सबके सब थोड़े बहुत अंतर के साथ बिलकुल एक जैसे। अपने थोड़े से लालच के लिए व्यापारी नकली खाद, बीज और कीटनाशक बेचता है। किसान थोड़े से फायदे के लिए फसल भिगोकर लाता है और मुआवज़े के लिए साधारण मौत से मरे हुए रिस्तेदार के मुहं में कीटनाशक डाल कर उसे राजनैतिक रंग दे देता है। सवाल यह है कि इन हालात में कब तक हो सकती है कपास की खेती?

2 comments:

  1. In halat men to kapas kuchh saalon ki baat hai..

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