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Thursday, January 19, 2012

अब रंग-बिरंगी कपास

कपास की तरह सफेद का मुहावरा अब बदल कर रंग-बिरंगा होने जा रहा है। अब वह दिन दूर नहीं कि जब कपास हरी, भूरी, बैंगनी और न जाने कौन-कौन से रंग की हो जाएगी। देश में कर्नाटक के धारवाड़ में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसिज (यूएएस) और तमिलनाडु एग्रीकल्चरल यूनीवर्सिटी दोनों ही रंगीन कपास उगाने की योजनाओं पर काम रही है। यूएएस इस वक्त खादी और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआइसी) के रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम कर रही है ताकि कपास को कई रंगों में तैयार किया जा सके। मौजूदा वक्त में यह केवल हरे और भूरे रंगों में ही उपलब्ध है। हालांकि यूएएस के प्रधान वैज्ञानिक (कपास) बी एम खादी के मुताबिक, इस समय कपास हरे रंग में छ: और भूरे रंग की करीब 22 प्रजातियां तैयार की जा सकती हैं। खादी के अनुसार कपास की 50 किस्में मौजूद हैं, इनमें पांच-छह ऐसी जंगली प्रजातियां हैं, जिनमें ऐसे रंग तत्व पाए जाते हैं, जिन्हें आनुवांशिक तौर पर सफेद कपास बीज में बदला जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि रंगीन कपास पहली बार पैदा की जा रही है, दरअसल यह पहले से मौजूद हैं। बस, बेहतर गुणवत्ता न होने से इसे इस्तेमाल योग्य नहीं माना गया। अमेरिकी वेरेसीज लिमिटेड के मालिक सैली फॉक्स ने पहली बार साल 1989 में प्राकृतिक तौर पर रंगीन कपास 'फॉक्सफाइबर' उगाया था। फॉक्स ने रंगीन कपास के जरिए 90 के दशक में 10 अरब डॉलर का कारोबार खड़ा किया था। चीन में रंगीन कपास की खेती 1997 में शुरू हुई। वर्तमान में सिनच्यांग वेवुर स्वायत्त प्रदेश, हुपेई और शानतुंग जैसे प्रांतों में किसान रंगीन कपास उत्पादित कर रहे हैं। चीनी टेक्सटाइल उद्योग महासंघ, निदेशक के अनुसार चीन विश्व में रंगीन कपास का सबसे बड़ा उत्पादक बन चुका है। यहां रंगीन कपास का उत्पादन विश्व में रंगीन कपास के सकल उत्पादन का एक तिहाई है। चीन में उत्पादित रंगीन कपास की गुणवत्ता विश्व के उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। चीनी रंगीन कपास समूह के अनुसार दुनिया में रंगीन कपास का उत्पादन उतना ज्यादा नहीं है, जितना लोगों की मांग पूरी हो सके। इसलिए रंगीन कपास वाली वस्तुओं की कीमत बहुत महंगी है।
पर्यावरण संरक्षण की प्रक्रिया में हरित वस्तुओं के उपभोग की इधर एक नई शैली बनी है। इस के प्रभाव में आ कर रंगीन कपास की खेती और टेक्सटाइल का एक नया व्यवसाय शुरू हुआ है। प्राकृतिक तौर पर रंगीन कपास को वातावरण के लिए खतरनाक सिंथेटिक रंगीन कपड़े के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। केवीआइसी को भरोसा है कि प्राकृतिक रंग वाली कपास को उपभोक्ताओं का बेहतर समर्थन मिलेगा। कपास वैज्ञानिक बी एम खादी कहते हैं, रसायनिक रंगों से कपास को रंगना न केवल त्वचा के लिए हानिकारक है बल्कि इससे प्रदूषण भी फैलता है। इस पर काफी रकम खर्च होती है साथ ही इस प्रक्रिया में पानी का भी बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है। टीएनएयू के कुलपति मुरुगेसा भूपति ने कहा कि तिरुपुर में रंजक कारखानों (डाइंग फैक्ट्रियों) के कारण होने वाला प्रदूषण एक गंभीर समस्या है। इससे निजात पाने के लिए कलर कॉटन एक बेहतर विकल्प हो सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसिज ने बैंगनी कपास को पैदा करने पर भी काम शुरू कर दिया है। हालांकि जैविक कपास की खेती में बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं लेकिन जब तक किसानों को इसकी ऊंची कीमत नहीं मिलेंगी, तब तक इसे सफलता नहीं मिल सकती। जैविक कपास की पैदावार 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेअर के आसपास रहती है। इस वजह से क्षेत्र के किसान प्राकृतिक रूप से रंगीन कपास को उगाने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहे हैं और इस समस्या से आने वाले वक्त में केवीआईसी और यूएएस कैसे निपटेगें, यह तो समय ही बताएगा।

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