देश में जीन संवर्धित (जेनेटिकली मोडिफाइड या जीएम) फसलों पर वर्षों से होने वाले शोध के नतीजे में अब तक सिर्फ एक ही प्रजाति बीटी कॉटन सामने आई है। सफल परिणाम यानी कम लागत पर अधिक उपज वाली इस तकनीक पर देश भर में सवाल उठते रहे हैं। बीटी बैंगन के जबरदस्त विरोध के बावजूद बीज कंपनियों की नई जीन प्रसंस्कृत फसल लाने की योजना पर बस इतना ही असर हुआ कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से बीटी फसलों के अनुमोदन के लिए एक जिनेटिक इंजीनिअरिंग अप्रूवल कमिटि गठित कर दी गई, जो हर नई किस्म के अनुमोदन से पहले यह सुनिश्चित करती है कि संबंधित किस्म विशेष का खेतों में वास्तविक परीक्षण नियमानुसार हुआ था या नहीं। बीटी मक्का और बीटी टमाटर विकसित हुए अब मोंसांटो माहिको अगले एक साल के भीतर ही व्यावसायिक उत्पादन के लिए बीटी चावल और बीटी भिंडी लाने की योजना बना रही है। कंपनी जून 2012 तक इन परीक्षणों के परिणाम जिनेटिक मैनिपुलेशन के लिए बनी समीक्षा समिति के समक्ष पेश कर देगी जो यह देखती है कि कंपनी ने अपनी शोध और उसके उत्पाद प्रक्रिया में जरूरी दिशानिर्देशों का पालन किया है या नहीं। इसके बाद समिति उस आवेदन को बीटी बैंगन पर विवाद के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित एक जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी के सामने अंतिम फैसले के लिए भेजती है।
सवाल यह है कि इतना महत्त्वपूर्ण मुद्दा जिसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश परमाणु सुरक्षा जितना अहम रणनीतिक मुद्दा कह चुके है, को दो अस्थाई समितियों के हाथ में छोड़ देना सही है? बीटी बैंगन के मामले में साबित हो चुका है कि उसका खेत परीक्षण (फील्ड ट्रायल) सही नहीं हुआ था, कंपनियों द्वारा दिए गए आंकड़ों से पता चला कि देश के 20 फीसदी बैगन पैदा करने वाले उड़ीसा राज्य में तो फील्ड ट्रायल सिरे से हुए ही नहीं। जयराम रमेश तो यहां तक कहते हैं कि इस तरह हमारी सारी सब्जियों के बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में चले जाएंगे। चूंकि परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान की तर्ज पर बीजों की हिफाजत भी एक रणनीतिक मसला है, इसलिए जीएम फसलों के लिए दरवाजे खोलने से पहले सुरक्षा इंतजाम बहुत जरूरी हैं।
बीटी कॉटन औद्योगिक उत्पाद है लेकिन बैगन, भिंडी, टमाटर तथा अन्य सब्जियां तथा चावल आधे भारत में रोज खायी जाने वाली मुख्य फसल है। इन सभी पर फैसला जैव प्रौद्योगिकी से तैयार उत्पादों की मार्केटिंग करने वाली सरकारी संस्था के हाथों में कैसे छोड़ा जा सकता है? यह सही है कि बीटी काटन के आने के बाद दुनिया के कपास उत्पादन में भारत तीसरे स्थान से दूसरे स्थान पर आ गया है। शायद आप जानते हों कि बीटी कॉटन के 90 फीसदी बीज एक कंपनी के कब्जे में हैं, वह जब चाहे हमें दूसरे स्थान से नीचे धकेल सकती है। इसलिए याद रखना जरूरी है कि देश और किसान दोनों के हित में जीएम फसलों को लेकर एक बड़े नीतिगत बदलाव की जरूरत है। हालांकि जैव प्रौद्योगिकी नियामक प्राधिकरण पर बात तो पिछले छ: साल से हो रही है, लेकिन पता नहीं यह किन कारणों से संभव नहीं हो पा रहा है। जब बीमा, दूरसंचार और शेयर आदि के लिए देश में नियामक प्राधिकरण हैं तो जीएम फसलों के लिए इसका नहीं होना, संशय जरूर पैदा करता है। क्या वास्तव में दाल में कुछ काला है?
सवाल यह है कि इतना महत्त्वपूर्ण मुद्दा जिसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश परमाणु सुरक्षा जितना अहम रणनीतिक मुद्दा कह चुके है, को दो अस्थाई समितियों के हाथ में छोड़ देना सही है? बीटी बैंगन के मामले में साबित हो चुका है कि उसका खेत परीक्षण (फील्ड ट्रायल) सही नहीं हुआ था, कंपनियों द्वारा दिए गए आंकड़ों से पता चला कि देश के 20 फीसदी बैगन पैदा करने वाले उड़ीसा राज्य में तो फील्ड ट्रायल सिरे से हुए ही नहीं। जयराम रमेश तो यहां तक कहते हैं कि इस तरह हमारी सारी सब्जियों के बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में चले जाएंगे। चूंकि परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान की तर्ज पर बीजों की हिफाजत भी एक रणनीतिक मसला है, इसलिए जीएम फसलों के लिए दरवाजे खोलने से पहले सुरक्षा इंतजाम बहुत जरूरी हैं।
बीटी कॉटन औद्योगिक उत्पाद है लेकिन बैगन, भिंडी, टमाटर तथा अन्य सब्जियां तथा चावल आधे भारत में रोज खायी जाने वाली मुख्य फसल है। इन सभी पर फैसला जैव प्रौद्योगिकी से तैयार उत्पादों की मार्केटिंग करने वाली सरकारी संस्था के हाथों में कैसे छोड़ा जा सकता है? यह सही है कि बीटी काटन के आने के बाद दुनिया के कपास उत्पादन में भारत तीसरे स्थान से दूसरे स्थान पर आ गया है। शायद आप जानते हों कि बीटी कॉटन के 90 फीसदी बीज एक कंपनी के कब्जे में हैं, वह जब चाहे हमें दूसरे स्थान से नीचे धकेल सकती है। इसलिए याद रखना जरूरी है कि देश और किसान दोनों के हित में जीएम फसलों को लेकर एक बड़े नीतिगत बदलाव की जरूरत है। हालांकि जैव प्रौद्योगिकी नियामक प्राधिकरण पर बात तो पिछले छ: साल से हो रही है, लेकिन पता नहीं यह किन कारणों से संभव नहीं हो पा रहा है। जब बीमा, दूरसंचार और शेयर आदि के लिए देश में नियामक प्राधिकरण हैं तो जीएम फसलों के लिए इसका नहीं होना, संशय जरूर पैदा करता है। क्या वास्तव में दाल में कुछ काला है?
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