किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए झा कमेटी की सिफारिश के आधार पर वर्ष 1965 में कृषि मूल्य व लागत आयोग का गठन किया गया था। मण्डी में किसानों की फसल को बिचौलिये कम कीमत पर खरीद लेते हैं, इसे ध्यान में रखते हुए ही सरकार आयोग की सिफारिश पर रबी और खरीफ की करीब 21 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है। एफसीआई और सीसीआई जैसी सरकारी एजेंसियां उन समर्थन मूल्यों पर खरीद भी करती हैं। पिछले सात साल से करीब सभी अनाजों का समर्थन मूल्य दोगुना हो गया है। धान का समर्थन मूल्य 2004-05 की तुलना में 560-590 रुपए से बढ़कर 1,250 रुपए और गेहूं का समर्थन मूल्य 640 रुपए से बढ़कर 1,285 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया। इस दौरान गन्ने का मूल्य भी 74.5 रुपए से बढ़कर 139. 12 क्विंटल प्रति टन पर पहुंच गया। सरकार ने दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए इस साल चने और मसूर का समर्थन मूल्य 2,800 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया है।
पहली नजर में यह नीति किसानों के लिए लाभदायक लगती है, किन्तु हकीकत बिल्कुल उलट है। बाजरा, ज्वार, मक्का, जौ जैसे मोटे अनाजों में आजतक कुल उपज का 1 प्रतिशत भी कभी खरीदा नहीं गया। इसी तरह चना, मूंग, उड़द आदि दलहनी फसलों के लिए भी समर्थन मूल्य घोषित तो किए जाते हैं, किन्तु उनकी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। आश्चर्य तो तब होता है जब यही दालें विदेशों से आयात करली जाती हैं और किसान को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाता है। आयातित अनाज आयोग के क्षेत्राधिकार में नहीं है, इसलिए आयोग इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करता। कमोबेश यही स्थिति बाकी फसलों की भी है, कपास की खरीद भी तब होती है जब विदेशों से खरीद के आदेश मिले होते हैं, अन्यथा सीसीआई हाथ पर हाथ रखे बैठी रहती है। इसका ताजा उदाहरण है इस वर्ष सीसीआई द्वारा राजस्थान से साढ़े 23 हजार, पंजाब से 65 हजार क्विंटल कपास की खरीद की जबकि हरियाणा में खरीद ही नहीं हुई। इसकी तुलना में गत वर्ष राजस्थान से 3 लाख, पंजाब से 5 लाख और हरियाणा से करीब 4 लाख क्विंटल कपास खरीदी गई थी।
दरअसल अभी तक केन्द्रीय कृषि आयोग के आधे-अधूरे ढांचे में सिर्फ प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक लोग ही शामिल हैं। इसमें कृषि विशेषज्ञों, किसानों तथा प्रदेशों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है। कहने को इसमें एकाध किसान प्रतिनिधि भी होते हैं लेकिन वे या तो फार्म-संस्कृति वाले होते हैं या राजनेताओं के चहेते। आयोग की समितियों पर दूसरा गम्भीर आरोप यह है कि ये कभी भी मुख्यालयों से 150-200 किलोमीटर दूर जाकर सीमांत किसानों से उनका दु:ख-दर्द और कृषि लागत पूछने की जहमत नहीं उठाती। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अगर किसान को उसकी जोत पर न्यूनतम आमदनी की गारंटी नहीं दे सकती तो उसे चाहिए कि कम से कम 10 साल पहले के किसी भी कालखंड मूल्य को मानक मान ले और जिस अनुपात में आवश्यक वस्तुओं के बाजार भाव बढ़े हैं, उसी के अनुरूप किसानों के उत्पाद के भी दाम तय किए जाएं।
किसान अपनी दैनिक जरूरत की कुछ ही चीजें तो पैदा कर पाता है बाकी तो उसे भी बाजार से ही खरीदनी पड़ती है। प्रसंगवश यह जानकरी चौंकाने वाली होगी कि वर्ष 1967 में एक क्विंटल गेंहू के बदले 121 लीटर डीजल आ जाता था लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ 24 से 28 लीटर ही मिल पाता है। उस वक्त ढाई क्विंटल गेंहू में एक तोला सोना खरीदा जा सकता था लेकिन आज देश का 95 प्रतिशत किसान अपना सारा गेंहू बेचकर भी एक तोला सोना खरीदने के बारे में नहीं सोच सकता। यह हाल तब है जब शुरु से ही उपज का दाम लगाने की जिम्मेदारी सरकार ने ले रखी है। आयोग की सिफारिशों के आधार भी परस्पर विरोधी हैं।
आयोग समर्थन मूल्य की घोषणा जिन आधारों पर करता है वे कुछ इस तरह हैं- (क) उत्पादन की लागत, (ख) उत्पादन के आदान मूल्यों में परिवर्तन, (ग) बाजार में मूल्यों की स्थिति, (घ) उपज की मांग व आपूर्ति, (ड) उद्योगों पर होने वाले नकारात्मक/सकारात्मक प्रभाव, (च) सामान्य मूल्य स्थिति पर प्रभाव, (छ) किसान द्वारा चुकाए गए और प्राप्त किए गए मूल्यों का अनुपात, (ज) अंतरराष्ट्रीय मूल्य स्थिति, (झ) आम लोगों के जीवनयापन पर मूल्यों पर प्रभाव। सिफारिश के ये आधार परस्पर विरोधी, बिखरे हुए एवं अस्पष्ट हैं। आयोग इनमें से किन्हीं भी बिन्दुओं को अधिक महत्त्व देकर अपनी सिफारिश कर सकता है। इन कृषि मूल्यों को निश्चित करने के लिए कृषि उत्पादन हेतु किए जाने वाले श्रम के पारिश्रमिक, प्रयुक्त उपकरणों व उनकी घिसावट पर किए जाने वाले खर्च, कृषि में लगने वाली पूंजी तथा भू-पूंजी और इन दोनों के ब्याज की ओर ध्यान नहीं दिया गया। आयोग तब तक कृषि उपजों का सही आकलन कर ही नहीं सकता, जब तक प्राकृतिक प्रकोप जैसे सूखा, बाढ़, ओले, बीमारियां, बेमौसमी बरसात आदि जोखिमों के सम्बंध में विचार कर लागत का लेखा तैयार नहीं किया जाता। वास्तविकता तो यह है कि आयोग इन आपातकालिक आपदाओं को महत्त्व ही नहीं देता। ऊपर से उत्पादन लागत के आंकड़े भी दो वर्ष पुराने होते हैं, इस बीच लागत काफी बढ़ चुकी होती है।
समर्थन मूल्य की सिफारिश करते समय किसान को लागत पर कितना प्रतिशत लाभ दिया जाए, इसके लिए भी कोई ठोस दिशा-निर्देश आयोग के पास नहीं है। उदाहरण के लिए देखें कि आयोग ने 1967-68 में गेहूं की लागत 50.02 रुपए प्रति क्विंटल मानकर 76.00 रुपए प्रति क्विंटल का मूल्य तय किया जिसमें किसान को करीब 52 प्रतिशत लाभ था। जो बाद के वर्षों में घटकर 1975-76 में 5.68 प्रतिशत, 1977-78 में 3 प्रतिशत, 1980-81 में 4.25 प्रतिशत तथा 1983-84 में 10 प्रतिशत रह गया। गत वर्ष 2010-11 के लिए गेहूं का समर्थन मूल्य 1100 रुपए से बढ़ाकर 1120 रुपए किया गया था, जिसमें किसान को लाभ मात्र 1.81 प्रतिशत ही है, जबकि इस वर्ष कृषि में प्रयुक्त होने वाली सामग्री के मूल्य में वृद्धि 10 प्रतिशत से अधिक हो चुकी थी। आयोग द्वारा सिफारिश के आधार पर घोषित समर्थन मूल्य सामान्यतया बाजार भाव से नीचे ही रहते हैं। गजब तब होता है जब समर्थन मूल्य से दो गुने या उससे भी अधिक मूल्यों पर अनाजों का विदेशों से आयात किया जाता है।
इस ढांचे में सुधार के लिए हर प्रदेश के गैर-सरकारी कृषि विशेषज्ञों को, जिनकी संख्या कुल संख्या की एक तिहाई हो तथा पंजीकृत किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की संख्या भी कुल संख्या की एक तिहाई तथा शेष सरकार द्वारा नामांकित व्यक्तियों को मिलाकर मूल्य आयोग के गठन किए जाने पर लागत मूल्य का निर्धारण वास्तविकता के निकट होने की संभावना बनेगी। सरकार किसी भी एक वर्ष को आधार वर्ष मानकर सभी प्रकार की उपजों का लागत मूल्य सभी प्रभावित पक्षों को सुनवाई का अवसर देकर तय करे, फिर उस लागत को मूल्य सूचकांक के साथ जोड़ दे, जिससे प्रतिवर्ष न्याय-संगत समर्थन मूल्य घोषित करने की कारगर पहल हो सके।
पहली नजर में यह नीति किसानों के लिए लाभदायक लगती है, किन्तु हकीकत बिल्कुल उलट है। बाजरा, ज्वार, मक्का, जौ जैसे मोटे अनाजों में आजतक कुल उपज का 1 प्रतिशत भी कभी खरीदा नहीं गया। इसी तरह चना, मूंग, उड़द आदि दलहनी फसलों के लिए भी समर्थन मूल्य घोषित तो किए जाते हैं, किन्तु उनकी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। आश्चर्य तो तब होता है जब यही दालें विदेशों से आयात करली जाती हैं और किसान को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाता है। आयातित अनाज आयोग के क्षेत्राधिकार में नहीं है, इसलिए आयोग इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करता। कमोबेश यही स्थिति बाकी फसलों की भी है, कपास की खरीद भी तब होती है जब विदेशों से खरीद के आदेश मिले होते हैं, अन्यथा सीसीआई हाथ पर हाथ रखे बैठी रहती है। इसका ताजा उदाहरण है इस वर्ष सीसीआई द्वारा राजस्थान से साढ़े 23 हजार, पंजाब से 65 हजार क्विंटल कपास की खरीद की जबकि हरियाणा में खरीद ही नहीं हुई। इसकी तुलना में गत वर्ष राजस्थान से 3 लाख, पंजाब से 5 लाख और हरियाणा से करीब 4 लाख क्विंटल कपास खरीदी गई थी।
दरअसल अभी तक केन्द्रीय कृषि आयोग के आधे-अधूरे ढांचे में सिर्फ प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक लोग ही शामिल हैं। इसमें कृषि विशेषज्ञों, किसानों तथा प्रदेशों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है। कहने को इसमें एकाध किसान प्रतिनिधि भी होते हैं लेकिन वे या तो फार्म-संस्कृति वाले होते हैं या राजनेताओं के चहेते। आयोग की समितियों पर दूसरा गम्भीर आरोप यह है कि ये कभी भी मुख्यालयों से 150-200 किलोमीटर दूर जाकर सीमांत किसानों से उनका दु:ख-दर्द और कृषि लागत पूछने की जहमत नहीं उठाती। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अगर किसान को उसकी जोत पर न्यूनतम आमदनी की गारंटी नहीं दे सकती तो उसे चाहिए कि कम से कम 10 साल पहले के किसी भी कालखंड मूल्य को मानक मान ले और जिस अनुपात में आवश्यक वस्तुओं के बाजार भाव बढ़े हैं, उसी के अनुरूप किसानों के उत्पाद के भी दाम तय किए जाएं।
किसान अपनी दैनिक जरूरत की कुछ ही चीजें तो पैदा कर पाता है बाकी तो उसे भी बाजार से ही खरीदनी पड़ती है। प्रसंगवश यह जानकरी चौंकाने वाली होगी कि वर्ष 1967 में एक क्विंटल गेंहू के बदले 121 लीटर डीजल आ जाता था लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ 24 से 28 लीटर ही मिल पाता है। उस वक्त ढाई क्विंटल गेंहू में एक तोला सोना खरीदा जा सकता था लेकिन आज देश का 95 प्रतिशत किसान अपना सारा गेंहू बेचकर भी एक तोला सोना खरीदने के बारे में नहीं सोच सकता। यह हाल तब है जब शुरु से ही उपज का दाम लगाने की जिम्मेदारी सरकार ने ले रखी है। आयोग की सिफारिशों के आधार भी परस्पर विरोधी हैं।
आयोग समर्थन मूल्य की घोषणा जिन आधारों पर करता है वे कुछ इस तरह हैं- (क) उत्पादन की लागत, (ख) उत्पादन के आदान मूल्यों में परिवर्तन, (ग) बाजार में मूल्यों की स्थिति, (घ) उपज की मांग व आपूर्ति, (ड) उद्योगों पर होने वाले नकारात्मक/सकारात्मक प्रभाव, (च) सामान्य मूल्य स्थिति पर प्रभाव, (छ) किसान द्वारा चुकाए गए और प्राप्त किए गए मूल्यों का अनुपात, (ज) अंतरराष्ट्रीय मूल्य स्थिति, (झ) आम लोगों के जीवनयापन पर मूल्यों पर प्रभाव। सिफारिश के ये आधार परस्पर विरोधी, बिखरे हुए एवं अस्पष्ट हैं। आयोग इनमें से किन्हीं भी बिन्दुओं को अधिक महत्त्व देकर अपनी सिफारिश कर सकता है। इन कृषि मूल्यों को निश्चित करने के लिए कृषि उत्पादन हेतु किए जाने वाले श्रम के पारिश्रमिक, प्रयुक्त उपकरणों व उनकी घिसावट पर किए जाने वाले खर्च, कृषि में लगने वाली पूंजी तथा भू-पूंजी और इन दोनों के ब्याज की ओर ध्यान नहीं दिया गया। आयोग तब तक कृषि उपजों का सही आकलन कर ही नहीं सकता, जब तक प्राकृतिक प्रकोप जैसे सूखा, बाढ़, ओले, बीमारियां, बेमौसमी बरसात आदि जोखिमों के सम्बंध में विचार कर लागत का लेखा तैयार नहीं किया जाता। वास्तविकता तो यह है कि आयोग इन आपातकालिक आपदाओं को महत्त्व ही नहीं देता। ऊपर से उत्पादन लागत के आंकड़े भी दो वर्ष पुराने होते हैं, इस बीच लागत काफी बढ़ चुकी होती है।
समर्थन मूल्य की सिफारिश करते समय किसान को लागत पर कितना प्रतिशत लाभ दिया जाए, इसके लिए भी कोई ठोस दिशा-निर्देश आयोग के पास नहीं है। उदाहरण के लिए देखें कि आयोग ने 1967-68 में गेहूं की लागत 50.02 रुपए प्रति क्विंटल मानकर 76.00 रुपए प्रति क्विंटल का मूल्य तय किया जिसमें किसान को करीब 52 प्रतिशत लाभ था। जो बाद के वर्षों में घटकर 1975-76 में 5.68 प्रतिशत, 1977-78 में 3 प्रतिशत, 1980-81 में 4.25 प्रतिशत तथा 1983-84 में 10 प्रतिशत रह गया। गत वर्ष 2010-11 के लिए गेहूं का समर्थन मूल्य 1100 रुपए से बढ़ाकर 1120 रुपए किया गया था, जिसमें किसान को लाभ मात्र 1.81 प्रतिशत ही है, जबकि इस वर्ष कृषि में प्रयुक्त होने वाली सामग्री के मूल्य में वृद्धि 10 प्रतिशत से अधिक हो चुकी थी। आयोग द्वारा सिफारिश के आधार पर घोषित समर्थन मूल्य सामान्यतया बाजार भाव से नीचे ही रहते हैं। गजब तब होता है जब समर्थन मूल्य से दो गुने या उससे भी अधिक मूल्यों पर अनाजों का विदेशों से आयात किया जाता है।
इस ढांचे में सुधार के लिए हर प्रदेश के गैर-सरकारी कृषि विशेषज्ञों को, जिनकी संख्या कुल संख्या की एक तिहाई हो तथा पंजीकृत किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की संख्या भी कुल संख्या की एक तिहाई तथा शेष सरकार द्वारा नामांकित व्यक्तियों को मिलाकर मूल्य आयोग के गठन किए जाने पर लागत मूल्य का निर्धारण वास्तविकता के निकट होने की संभावना बनेगी। सरकार किसी भी एक वर्ष को आधार वर्ष मानकर सभी प्रकार की उपजों का लागत मूल्य सभी प्रभावित पक्षों को सुनवाई का अवसर देकर तय करे, फिर उस लागत को मूल्य सूचकांक के साथ जोड़ दे, जिससे प्रतिवर्ष न्याय-संगत समर्थन मूल्य घोषित करने की कारगर पहल हो सके।