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Wednesday, June 13, 2012

उपज को कितना समर्थन देता है, समर्थन मूल्य?

किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए झा कमेटी की सिफारिश के आधार पर वर्ष 1965 में कृषि मूल्य व लागत आयोग का गठन किया गया था। मण्डी में किसानों की फसल को बिचौलिये कम कीमत पर खरीद लेते हैं, इसे ध्यान में रखते हुए ही सरकार आयोग की सिफारिश पर रबी और खरीफ की करीब 21 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है। एफसीआई और सीसीआई जैसी सरकारी एजेंसियां उन समर्थन मूल्यों पर खरीद भी करती हैं। पिछले सात साल से करीब सभी अनाजों का समर्थन मूल्य दोगुना हो गया है। धान का समर्थन मूल्य 2004-05 की तुलना में 560-590 रुपए से बढ़कर 1,250 रुपए और गेहूं का समर्थन मूल्य 640 रुपए से बढ़कर 1,285 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया। इस दौरान गन्ने का मूल्य भी 74.5 रुपए से बढ़कर 139. 12 क्विंटल प्रति टन पर पहुंच गया। सरकार ने दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए इस साल चने और मसूर का समर्थन मूल्य 2,800 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया है।
पहली नजर में यह नीति किसानों के लिए लाभदायक लगती है, किन्तु हकीकत बिल्कुल उलट है। बाजरा, ज्वार, मक्का, जौ जैसे मोटे अनाजों में आजतक कुल उपज का 1 प्रतिशत भी कभी खरीदा नहीं गया। इसी तरह चना, मूंग, उड़द आदि दलहनी फसलों के लिए भी समर्थन मूल्य घोषित तो किए जाते हैं, किन्तु उनकी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। आश्चर्य तो तब होता है जब यही दालें विदेशों से आयात करली जाती हैं और किसान को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाता है। आयातित अनाज आयोग के क्षेत्राधिकार में नहीं है, इसलिए आयोग इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करता। कमोबेश यही स्थिति बाकी फसलों की भी है, कपास की खरीद भी तब होती है जब विदेशों से खरीद के आदेश मिले होते हैं, अन्यथा सीसीआई हाथ पर हाथ रखे बैठी रहती है। इसका ताजा उदाहरण है इस वर्ष सीसीआई द्वारा राजस्थान से साढ़े 23 हजार, पंजाब से 65 हजार क्विंटल कपास की खरीद की जबकि हरियाणा में खरीद ही नहीं हुई। इसकी तुलना में गत वर्ष राजस्थान से 3 लाख, पंजाब से 5 लाख और हरियाणा से करीब 4 लाख क्विंटल कपास खरीदी गई थी।
दरअसल अभी तक केन्द्रीय कृषि आयोग के आधे-अधूरे ढांचे में सिर्फ प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक लोग ही शामिल हैं। इसमें कृषि विशेषज्ञों, किसानों तथा प्रदेशों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है। कहने को इसमें एकाध किसान प्रतिनिधि भी होते हैं लेकिन वे या तो फार्म-संस्कृति वाले होते हैं या राजनेताओं के चहेते। आयोग की समितियों पर दूसरा गम्भीर आरोप यह है कि ये कभी भी मुख्यालयों से 150-200 किलोमीटर दूर जाकर सीमांत किसानों से उनका दु:ख-दर्द और कृषि लागत पूछने की जहमत नहीं उठाती। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अगर किसान को उसकी जोत पर न्यूनतम आमदनी की गारंटी नहीं दे सकती तो उसे चाहिए कि कम से कम 10 साल पहले के किसी भी कालखंड मूल्य को मानक मान ले और जिस अनुपात में आवश्यक वस्तुओं के बाजार भाव बढ़े हैं, उसी के अनुरूप किसानों के उत्पाद के भी दाम तय किए जाएं।
किसान अपनी दैनिक जरूरत की कुछ ही चीजें तो पैदा कर पाता है बाकी तो उसे भी बाजार से ही खरीदनी पड़ती है। प्रसंगवश यह जानकरी चौंकाने वाली होगी कि वर्ष 1967 में एक क्विंटल गेंहू के बदले 121 लीटर डीजल आ जाता था लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ 24 से 28 लीटर ही मिल पाता है। उस वक्त ढाई क्विंटल गेंहू में एक तोला सोना खरीदा जा सकता था लेकिन आज देश का 95 प्रतिशत किसान अपना सारा गेंहू बेचकर भी एक तोला सोना खरीदने के बारे में नहीं सोच सकता। यह हाल तब है जब शुरु से ही उपज का दाम लगाने की जिम्मेदारी सरकार ने ले रखी है। आयोग की सिफारिशों के आधार भी परस्पर विरोधी हैं।
आयोग समर्थन मूल्य की घोषणा जिन आधारों पर करता है वे कुछ इस तरह हैं- (क) उत्पादन की लागत, (ख) उत्पादन के आदान मूल्यों में परिवर्तन, (ग) बाजार में मूल्यों की स्थिति, (घ) उपज की मांग व आपूर्ति, (ड) उद्योगों पर होने वाले नकारात्मक/सकारात्मक प्रभाव, (च) सामान्य मूल्य स्थिति पर प्रभाव, (छ) किसान द्वारा चुकाए गए और प्राप्त किए गए मूल्यों का अनुपात, (ज) अंतरराष्ट्रीय मूल्य स्थिति, (झ) आम लोगों के जीवनयापन पर मूल्यों पर प्रभाव।  सिफारिश के ये आधार परस्पर विरोधी, बिखरे हुए एवं अस्पष्ट हैं। आयोग इनमें से किन्हीं भी बिन्दुओं को अधिक महत्त्व देकर अपनी सिफारिश कर सकता है। इन कृषि मूल्यों को निश्चित करने के लिए कृषि उत्पादन हेतु किए जाने वाले श्रम के पारिश्रमिक, प्रयुक्त उपकरणों व उनकी घिसावट पर किए जाने वाले खर्च, कृषि में लगने वाली पूंजी तथा भू-पूंजी और इन दोनों के ब्याज की ओर ध्यान नहीं दिया गया। आयोग तब तक कृषि उपजों का सही आकलन कर ही नहीं सकता, जब तक प्राकृतिक प्रकोप जैसे सूखा, बाढ़, ओले, बीमारियां, बेमौसमी बरसात आदि जोखिमों के सम्बंध में विचार कर लागत का लेखा तैयार नहीं किया जाता। वास्तविकता तो यह है कि आयोग इन आपातकालिक आपदाओं को महत्त्व ही नहीं देता। ऊपर से उत्पादन लागत के आंकड़े भी दो वर्ष पुराने होते हैं, इस बीच लागत काफी बढ़ चुकी होती है।
समर्थन मूल्य की सिफारिश करते समय किसान को लागत पर कितना प्रतिशत लाभ दिया जाए, इसके लिए भी कोई ठोस दिशा-निर्देश आयोग के पास नहीं है। उदाहरण के लिए देखें कि आयोग ने 1967-68 में गेहूं की लागत 50.02 रुपए प्रति क्विंटल मानकर 76.00 रुपए प्रति क्विंटल का मूल्य तय किया जिसमें किसान को करीब 52 प्रतिशत लाभ था। जो बाद के वर्षों में घटकर 1975-76 में 5.68 प्रतिशत, 1977-78 में 3 प्रतिशत, 1980-81 में 4.25 प्रतिशत तथा 1983-84 में 10 प्रतिशत रह गया। गत वर्ष 2010-11 के लिए गेहूं का समर्थन मूल्य 1100 रुपए से बढ़ाकर 1120 रुपए किया गया था, जिसमें किसान को लाभ मात्र 1.81 प्रतिशत ही है, जबकि इस वर्ष कृषि में प्रयुक्त होने वाली सामग्री के मूल्य में वृद्धि 10 प्रतिशत से अधिक हो चुकी थी। आयोग द्वारा सिफारिश के आधार पर घोषित समर्थन मूल्य सामान्यतया बाजार भाव से नीचे ही रहते हैं। गजब तब होता है जब समर्थन मूल्य से दो गुने या उससे भी अधिक मूल्यों पर अनाजों का विदेशों से आयात किया जाता है।
इस ढांचे में सुधार के लिए हर प्रदेश के गैर-सरकारी कृषि विशेषज्ञों को, जिनकी संख्या कुल संख्या की एक तिहाई हो तथा पंजीकृत किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की संख्या भी कुल संख्या की एक तिहाई तथा शेष सरकार द्वारा नामांकित व्यक्तियों को मिलाकर मूल्य आयोग के गठन किए जाने पर लागत मूल्य का निर्धारण वास्तविकता के निकट होने की संभावना बनेगी। सरकार किसी भी एक वर्ष को आधार वर्ष मानकर सभी प्रकार की उपजों का लागत मूल्य सभी प्रभावित पक्षों को सुनवाई का अवसर देकर तय करे, फिर उस लागत को मूल्य सूचकांक के साथ जोड़ दे, जिससे प्रतिवर्ष न्याय-संगत समर्थन मूल्य घोषित करने की कारगर पहल हो सके।

Monday, June 11, 2012

कृषि आदानों पर गुण-नियत्रंण का गोरखधंधा

कृषि उत्पादन में आदानों की गुणवत्ता का महत्त्व किसी से छुपा नहीं है। कृषि विभाग भी मानता है कि कृषि आदानों की कीमतों में वृद्धि के कारण विक्रेताओं द्वारा अमानक और नकली कृषि आदान बेचने की सोच पैदा हो जाती है। बीज, उर्वरक एंव कीटनाशी रसायनों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने हेतु भारत सरकार द्वारा समय-समय पर अधिनियम/नियम/ आदेश पारित किए जाते हैं। गुणवत्ता युक्त बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए बीज अधिनियम 1966, बीज नियम 1968, बीज नियंत्रण आदेश 1983, उर्वरकों के लिए उर्वरक नियंत्रण आदेश 1985 तथा कीटनाशी रसायनों के लिए कीटनाशी अधिनियम 1968, कीटनाशी नियम 1971 बने हुए हैं।
इन कानूनों के तहत सभी राज्यों में कृषि आदानों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए कृषि अधिकारियों को निरीक्षक की शक्तियां मिली हुई हैं। समस्त निरीक्षक राज्य के विभिन्न उपजिलों/जिलों में पदस्थापित है एवं इनके द्वारा अपने क्षेत्र में बिक रहे कृषि आदानों की उपलब्धता एवं गुणवत्ता सुनिश्चित करने की पूर्ण जिम्मेदारी होती है। ये निरीक्षक अपने अधिकारिता क्षेत्र में कार्यरत समस्त विक्रय प्रतिष्ठानों का निरीक्षण कर कृषि आदान के नमूने ले सकते हैं। सम्बन्धित विक्रेताओं को बिलबुक रखना, स्टाक रजिस्टर भरना, बोर्ड पर मूल्य सूची और स्टॉक प्रदर्शित करना, उनके द्वारा क्रय किए गए आदान के स्रोत भण्डारण आदि कार्य इस व्यवसाय में सुनिश्चित करने होते हैं। इनमें अनियमितता पाए जाने पर कानून के तहत सम्बन्धित निर्माताओं और विक्रेताओं के विरूद्ध न्यायिक कार्यवाही की जाती है। निरीक्षण के दौरान सम्बन्धित निर्माता और विक्रेताओं के प्रतिष्ठान पर उपलब्ध कृषि आदानों के नमूने लेकर राजकीय परीक्षण प्रयोगशालाओं को भिजवाए जाते हैं। बीज, खाद और कीटनाशकों के नमूने अमानक पाए जाने पर सम्बधित कानूनों के तहत व्यवसाय करने वालों के विरूद्ध नियमानुसार कार्यवाही भी की जाती है। यहां तक की स्थिति बहुत ही आदर्शवादी नजर आती है। घटिया खाद, बीज और कीटनाशी बेचने और बनाने पर सजा। यानी किसान के हितों का पूरा ख्याल। इसे समझने के लिए एक उदाहरण की जरूरत होगी, उसके लिए देश भर के सभी जिलों के कृषि आदानों के आंकड़े नहीं चाहिए। इसके लिए हम देश का एक जिले गंगानगर को लेगें और विशेषतय: बीज की बात करेंगे, क्योंकि सारे राजस्थान में जितने बीज उत्पादक हैं उससे दोगुने अकेले इस क्षेत्र में हैं। सारे देश की तरह यहां भी कृषि अधिकारी बीजों का नमूना दुकान-दुकान जाकर भरते हैं। बीज का एक नमूना तीन किलो का भरा जाता है, जिसे एक-एक किलो के तीन हिस्सों में बांट कर एक बीज विक्रेता के यहां, दूसरा जांच के लिए सरकारी प्रयोगशाला में और तीसरा विवाद की सूरत में दूबारा जांच के लिए संयुक्त निदेशक कृषि के कार्यालय में जमा करवाया जाता है। प्रयोगशाला 60 दिन में बता देती है कि यह नमूना मानक है या अमानक।
किसान हितों का ध्यान रखने के लिए बनाया गया कानून यहां आकर दम तोड़ देता है। इन 60 दिनों में बीज विक्रेता अपना सारा बीज बेच लेता है। अब अगर जांच रिर्पोट अमानक आ भी जाए तो फूटे किसान के। व्यापारी कानून से मिले हुए अपने हक के तहत दूबारा जांच के लिए दूसरी प्रयोगशाला में चला जाता जहां से रिर्पोट आती है 90 दिन में। जांच के इन पांच महिनों में किसान इस बीज से उपजी फसल बाजार में बेचकर फारिग भी हो चुका होता है। अब अगर दूसरी रिर्पोट भी अमानक आ जाए तो कृषि विभाग कानून के अनुसार मामले को अदालत के हवाले कर देता है, जहां वर्षों बाद व्यापारी को पहली गलती पर 500 रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। दूसरी बार यह गुनाह साबित होने पर 1 हजार तक का जुर्माना और 6 माह तक की कैद या दोनों भी हो सकते हैं। बीज नियंत्रण आदेश 1983 में सजा कम से कम 1 वर्ष है। (यह दीगर बात है कि आज तक किसी भी बीज बनाने और बेचने वाले को एक दिन की भी सजा नहीं हुई है।)
कानून किसके हक में? जब इस पूरी प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बता कर राजस्थान सरकार के कृषि विभाग में संयुक्त निदेशक गुणवत्ता नियंत्रण, जगपाल सिंह से जब पूछा गया कि इस सारी कवायद का मतलब ही क्या है जब किसान को कोई फायदा ही नहीं है? तो उन्होंने जवाब के बदले सवाल किया कि जो अधिकार हमें कानून से मिले हैं, उससे ज्यादा हम कर भी क्या सकते हैं? नाम नहीं छापने की शर्त पर कृषि आदान के कुछ विक्रेता कहते हैं कि यह कानून कृषि विभाग की कमाई का बड़ा साधन है। इस बात की पुष्टि कृषि विभाग से मिले ये आंकड़े भी करते हैं। गंगानगर जिले में करीब 650 से ज्यादा बीज विक्रेता हैं और एक बीज विक्रेता की दूकान पर 50 किस्मों और उत्पादकों के बीज होते हैं। अगर उनके यहां से साल में एक वस्तु का एक नमूना भी भरा जाए तो पांच साल में 3250 नमूने भरे जाने चाहिए थे लेकिन विभाग द्वारा विगत पांच वर्षों में बीज के मात्र 680 नमूने ही भरे गए। जिनमें सिर्फ 48 अमानक पाए गए और 37 नमूनों की आज तक प्रयोगशाला से रिर्पोट ही नहीं आई।
विभाग इसके पीछे स्टाफ की कमी को कारण बताता है और व्यापारी कहते हैं कि इसके लिए विभाग के अधिकारियों की बाकायदा सेवा की जाती है। इसके बाद खानापूर्ति के लिए कुछ नमूने लिए जाते हैं, वह भी व्यापारी की इच्छा और पसंद के अनुसार। यहां ध्यान रखा जाता है कि घटिया कृषि आदान बनाने वाले संस्थानों के उत्पादों के नमूने नहीं भरे जाते, और जो नमूने लिए भी जाते हैं उन्हें एक साधारण कपड़े की थैली में डालकर संयुक्त निदेशक के कार्यालय में ऐसे ही पटक दिया जाते हैं, जो कुछ समय में ही फंगस लगकर खराब हो जाते हैं। नमूने किस प्रयोगशाला में भेजे जाएगें और उस नमूने का गुप्त नम्बर क्या है? यह भी आसानी से जाना जा सकता है और परिणाम को इच्छानुसार बदलवाया भी जा सकता है। भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत कहते हैं कि इस कानून से विभाग और व्यापारी दोनों राजी हैं, बात तो किसान के हितों की है, उसके नाम पर होने वाली इस लूट में हमेशा किसान ही खरबूजा साबित हुआ है। बीज अमानक निकल जाए तो किसान उपभोक्ता अदालत में जाकर भले ही कुछ राहत पा सकता है बीज कानून तो केवल भ्रष्ट अधिकारियों की जेब भरने का साधन मात्र है।

Friday, June 8, 2012

बजट के बहाने से

पिछले महीन केंद्र और राज्य सरकारों ने अगले साल के लिए योजनाए बनाई और बजट पेश किया। बजट में चाहे कुछ भी आंकड़े भरे हों हमारा ध्यान सिर्फ इस पर है कि खेत किसान के लिए क्या है। कारण बहुत साफ है कि तमाम बड़े-बड़े उद्योग-धंधों और कम्प्यूटर क्रांति के बाद भी अब तक देश की 60 प्रतिशत आबादी खेती-किसानी पर ही निर्भर है। विडम्बना यह है कि साठ फीसदी लोगों को रोज़गार देने वाले इस क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में योगदान लगातार घटता जा रहा है। आजादी के समय कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 50 प्रतिशत था, जो नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2011-12 में गिरकर 13.9 प्रतिशत रह गया है।
हरित क्रान्ति से लेकर आज तक अरबों-खरबों रुपए कृषि के नाम पर खर्च करने के बावजूद हम अन्न उत्पादन के क्षेत्र में कहां खड़े हैं, जानने के लिए एक नजर अपने पड़ौसी देशों के खाद्यान्न उत्पादन के इन आंकड़ो पर भी डाल लें। हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसलों का उत्पादन पड़ौसी देश चीन की तुलना में लगभग आधा है। चीन जैसे बड़े देश से तुलना न भी करें तो भी यह जानकारी और भी चौंकाने वाली हो सकती है कि हमारे यहां मक्का और दलहन जैसी फसलें भी पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार से भी कम पैदा होती है। कृषि मंत्री शरद पवार से संसद में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर से यह आंकड़ें सामने आए हैं कि भारत में चावल की उत्पादकता 3,264 किलो प्रति हेक्टेअर है, जबकि चीन में यह 6,548 किलो है और बांग्लादेश में 4,182 किलो, म्यांमार में 4,123 किलो प्रति हेक्टेअर है। गेहूं की उपज के मामले में भी चीन में उपज करीब 4,748 किलो प्रति हेक्टेअर है जबकि हमारे देश में यह 3,264 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। मक्का उपज में बांग्लादेश शीर्ष पर है, जहां इसकी उत्पादकता 5,837 किलो प्रति हेक्टेअर है, 5,459 किलो के साथ चीन दूसरे तथा 3,636 किलो के साथ म्यांमार तीसरे पर और 3,558 किलो प्रति हेक्टेअर के साथ पाकिस्तान चौथे स्थान पर है जबकि भारत में यह आंकड़ा मात्र 1,958 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। हमारा लगभग यही हाल दलहनी फसलों के मामले में भी है।
इसके बाद बात करते हैं खेती लागत और बाजार भावों की। रासायनिक कीटनाशकों और खाद के अंधाधुंध और अवैज्ञानिक उपयोग से जहां किसान एक ओर क़र्ज़ में डूब रहा है वहीं दूसरी ओर बाजार भाव अकसर उसे धोखा दे जाते हैं। 300 रूपए किलो बिकने वाला लहसुन कब 5रूपए पर आ जाए कहा नहीं जा सकता। गत वर्ष कपास 7 हजार रूपए प्रति क्विंटल तक बिकी वह इस साल 4 हजार रूपए प्रति क्विंटल के आसपास बनी रही। इन हालात को देखते हुए ही शायद यह मांग जोर पकड़ रही है कि रेल बजट की तरह कृषि बजट भी अलग से बनाया जाए। सन 1970 से हरितक्रंाति जो सफर शुरू हुआ था वह आजतक जारी है, मगर शर्म की बात है कि हरित क्रान्ति के इन 42 सालों में हम बंग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान से अन्न उत्पादन में पीछे हैं। ये हाल तब है जब कि इन देशों का कुल बजट भी हमारे कृषि बजट के बराबर नहीं हैं। 
यहां सारा दोष सरकार को भी नहीं दिया जा सकता, इस मामले में हमारा किसान भी कम नहीं है। अगर एक साल कपास की कीमत अच्छी मिल गई तो अगले साल सारे के सारे किसान कपास बीज कर बैठ जाएंगे। खाद, बीज और कीटनाशको की कमी होगी तो काले बाजार से दोगुने-चार गुने दामों पर खरीद कर भी यह बीजाई कपास की ही करेंगे। अगले साल फसल ज्यादा होने से वह भाव नहीं मिलेगा तो सरकार को कोसेंगे। ऐसे में सरकार चाहे लाख कृषि बजट बनाले, जब तक किसान अपने खेत का बजट नहीं बनाएगा तब तक वह जान ही नहीं पाएगा कि खेती करे या छोड़ दे। यही वजह है कि कल तक खेती को सम्मान का काम समझा जाता था, पर वर्तमान में अन्नदाता किसान दूसरे दर्जे के बाबुओं और अफसरों के रहमो-करम पर जिन्दा है।