अब तक यह माना जा रहा था कि जीन प्रसंस्कृत बीटी हाइब्रिड कपास की खेती से ज्यादा उपज लेने का एकमात्र तरीका है। आज कृषि-विज्ञान में ऐसे कई साधन उपलब्ध हैं, जिनके इस्तेमाल से उन इलाकों में भी कपास का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, जो सिंचाई के लिए पूरी तरह बारिश पर निर्भर हैं। नागपुर स्थित केंद्रीय कपास शोध संस्थान (सीआइसीआर) ने एक असाधारण नई तकनीक 'हाई डेंसिटी कॉटन प्लांटिंग सिस्टम' का विकास किया है। इस तकनीक के अंर्तगत प्रति हेक्टेअर भूमि पर पहले से ज्यादा पौधे लगाए जाते हैं, जिनसे महारष्ट्र के विदर्भ जैसे इलाके में भी कपास का उत्पादन दोगुना करने में सफलता हासिल हुई है। पानी की कमी के कारण विदर्भ में अक्सर कपास की फसल खराब हो जाती है, जिससे व्यथित किसान आत्महत्या तक कर लेते हैं।
आमतौर पर किसान प्रति हेक्टेअर 50,000 से 55,000 पौधे लगाते हैं। नई तकनीक के तहत बीजों को कम दूरी पर बोया जाता है, जिससे प्रति हेक्टेअर 2 लाख पौधों की बुआई की जाती है। ज्यादा संख्या में पौधों की बुआई करने से कपास का ज्यादा उत्पादन होता है। इस तरह के घने रोपण के लिए कपास की वे किस्में बिल्कुल मुफीद हैं, जो जल्दी पकने के साथ-साथ सूरज की रोशनी, पोषक तत्त्व हासिल करने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करती, तथा जिनके पौधे न तो ज्यादा लंबे होते हैं और न ही ज्यादा फैलते हैं। छोटी अवधि में पकने वाली किस्मों का जीवन-चक्र मॉनसून के बाद मिट्टी में मौजूद नमी के समाप्त होने से पहले ही पूरा हो जाता है। सी.आइ.सी.आर. ने वास्तविक परीक्षण के जरिये कपास की विभिन्न किस्मों की पहचान कर ली है, जो घने रोपण के लिए बिल्कुल उपयुक्त रहेंगी। इसमें पीकेवी 081 (जिसे अकोला कृषि विश्वविद्यालय ने 1987 में पेश किया था), एनएच 615 (हाल में परभणी विश्वविद्यालय द्वारा विकसित) और सूरज (2008 में सीआइसीआर द्वारा विकसित) कुछ ऐसी ही किस्में हैं।
बारिश का जल संरक्षित करने के तरीके अपनाने से भी इस अनोखी प्रक्रिया से कपास की खेती में बहुत मदद मिलती है। महारष्ट्र, मध्यप्रदेश आंध्रप्रदेश और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में बारिश पर निर्भर रहने वाली कपास की खेती को इससे काफी फायदा हो सकता है क्योंकि यहां बार-बार पानी की कमी के कारण उत्पादन को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है। सीआइसीआर के कपास वैज्ञानिकों का कहना है कि उन इलाकों में कपास की उत्पादकता बेहद कम होती है, जो पानी के लिए बारिश पर निर्भर होते हैं क्योंकि मॉनसून के बाद मिट्टी में नमी की कमी हो जाती है, खासतौर पर पौधों पर फूल निकलते समय, जब पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
आमतौर पर जून में शुरू होने वाली मॉनसून की बारिश सितंबर तक समाप्त हो जाती है जबकि फूल का बनना अक्टूबर में शुरू होता है और नवंबर में चरम पर होता है। इस वजह से कपास के फूल खासतौर पर ऐसी मिट्टी में पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते हैं जिसकी पानी सोखने की क्षमता कम होती है। नतीजतन फसल का उत्पादन कम होता है। लंबी अवधि में पकने वाली कपास की किस्मों का प्रदर्शन सबसे खराब होता है क्योंकि उन्हें फसल के विकास के अहम समय पर पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल पाता है।
पिछले खरीफ सीजन के दौरान किसानों की मदद से विदर्भ और आसपास के इलाकों में 155 जगहों पर इन किस्मों का परीक्षण किया गया और खराब मॉनसून व कपास के सबसे खराब कीट प्रकोप के बावजूद इसके नतीजे काफी शानदार रहे। कीड़े के प्रकोप पर काबू पाने के लिए कई इलाकों में कीटनाशकों का छिड़काव भी किया गया। इनमें से ज्यादातर जगहों पर कपास के उत्पादन में 35 से 40 प्रतिशत का इजाफा दर्ज किया गया। पूरे परीक्षण स्थल में कुल औसत प्रति हेक्टेअर 15 से 18 क्विंटल की रही, जो विदर्भ जिले में होने वाले सामान्य कपास उत्पादन का करीब दोगुनी है। सबसे ज्यादा उत्पादन चंद्रपुर, अमरावती और नागपुर के इलाकों में हुआ। इससे किसानों को प्रति हेक्टेअर 12,000 रुपये से 90,000 रुपये का फायदा हुआ जबकि इसकी खेती की लागत 20,000 रुपये से 25,000 रुपये प्रति हेक्टेअर आती है।
सीआइसीआर के निदेशक आर क्रांति के अनुसार इस तकनीक की सफलता ने कपास किसानों में उत्साह का संचार किया है। कुछ किसानों ने तो जैविक कपास उगाने के लिए उच्च घनत्व कपास खेती आजमाने का विकल्प चुना है। कपास वैज्ञानिकों के उत्साह और कपास किसानों की ओर से मिली प्रतिक्रिया को देखते हुए लगता है कि इस नई तकनीक में ऐसी ही एक और कपास क्रांति लाने की क्षमता है, जो पिछले दशक में बीटी कॉटन के आने के बाद आई थी। सबसे अहम बात है कि इस तकनीक में जल सिंचाई के अभाव में फसल बरबाद होने से ग्रसित किसानों की इस समस्या का समाधान करने की संभावना है। जाहिर है कि राज्य कृषि विभागों को शोध संस्थानों के साथ मिलकर इस तकनीक के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना होगा।
हमे आपकी जानकारी अछी लगी है हमे कपास की और जानकारी दिजीये जैसे कुकड़ा पन से बचाव मच्छरो के लिये कोन सी किटनासक का प्रयोग करे
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