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Monday, December 5, 2011

हल्का-फुल्का बाट-माप विभाग

भू-मीत के पिछले अंक में सावधान स्तंभ के लिए बाट-माप विभाग से कुछ जानकारी चाहिए थी। मकसद था पाठकों को नाप-तौल के बारे में सही जानकारी और कानूनी अधिकार के बारे में बताना। दो-तीन कोशिशों के बाद आखिर जिले के एकमात्र निरीक्षक बी आर जांगिड़ से बात हुई। वांछित जानकारी मिल गई और पाठकों तक पहुंच भी गई। इन सब में बातों में एक ही परेशानी आई, बाट-माप अधिकारी से बात करने में। देरी का कारण निरीक्षक जांगिड़ ने बताया कि उनके पास इस जिले के अलावा हनुमानगढ़ का भी अतिरिक्त कार्यभार है। इतने बड़े क्षेत्र में मात्र एक निरीक्षक से सारा काम व्यवस्थित नहीं हो पाता इसलिए मुख्यालय पर कम ही रह पाता हूं।
इससे पहले कि हम गोरखबाबा की पहेली में उलझ जाएं जानते हैं कि इस विभाग का काम और अधिकार क्या हैं? हर वह वस्तु जो तौलकर या नापकर बेची जाती है वो खरीददार तक सही व पूरी पहुंचे इसके लिए सरकार ने यह विभाग बनाया है। इस विभाग का काम है उन सब व्यापारियों को जो वस्तुएं तौल या नाप कर बेचते हैं को साल में एक बार उनके नाप-तौल के उपकरणों का निर्धारित शुल्क लेकर सत्यापन करना। यह शुल्क साल भर का सौ-दो सौ रूपए से लेकर दो-तीन हजार तक हो सकता है। जो व्यापारी ऐसा नहीं करते उन्हें 500 से 25 हजार तक जुर्माना तथा 5 साल तक की जेल भी हो सकती है। सत्यापन के अलावा इनका काम है शिकायत मिलने पर या स्वयं अचानक जांच करने की और यह देखने की, कि विक्रेता पूरा नाप या तौल रहा है। इसमें चूक होने पर भी जुर्माने और सजा का प्रावधान है।
इसमें गौरखधंधा क्या हो सकता है, सिवाए छोटी-मोटी रिश्वत और कामचोरी के? सवाल यहां रिश्वत या कामचोरी का नहीं है, इस गोरखधंधे में यह समस्या तो बहुत ही छोटी और आखिरी है। बड़ी समस्या तो यह है कि 16लाख की आबादी वाले इन दोनों जिलों में सब्जी बेचने वालों से लेकर शॉपिंग मॉल, सुनार, पेट्रोल पंप, किराना व कपड़े की दुकानें, कृषि उपज मंडियां आदि मिलाकर करीब तीन लाख संस्थान हैं। इन सबके उपकरणों का सत्यापन तो दूर उन्हें देखने भर के लिए एक आदमी को सात जन्म कम पड़ जाएं। यह हाल अकेले इस जिले और राज्य का ही नहीं सीमावर्ती राज्यों हरियाणा और पंजाब का भी है। होना यह चाहिए कि वे सभी संस्थान जो नापने-तौलने का काम करते हैं, या नाप-तौल के उपकरण बेचते या ठीक भी करते हैं उन्हें इस विभाग के पास निर्धारित समय पर जाकर स्वंय ही अपने उपकरणों का सत्यापन करवाना होता है, और मजे की बात यह कि 80 प्रतिशत दुकानदार इस विभाग और कानून के बारे में जानते तक नहीं।
राजस्व उगाहने वाले इस विभाग में इतना कम स्टाफ क्यों है? के जवाब में राज्य के बाट-माप विभाग के संयुक्त निदेशक पी एन पांडे का जवाब था कि- हमारे विभाग का पहला उद्देश्य राजस्व कमाना नहीं है, फिर भी इस स्टाफ के साथ हमने गत वर्ष 5 करोड़ रूपए का राजस्व जमा किया है। जब उनसे पूछा गया कि राजस्व कमाना न सही पर खरीददार को पूरा सामान मिले, उसके हितों की रक्षा के लिए क्या स्टाफ पूरा है? का जवाब था-नई भर्ती करना राज्य सरकार का काम है, फिलहाल हमारे पास 34 निरीक्षक हैं और 30 नई भर्तियां हो चुकी हैं।
गोरखबाबा की पहेली यह है कि राजस्थान की 6करोड़ 86लाख की आबादी, लाखों तौल-माप कर बेचने वाले संस्थान और मात्र 60 से 65 निरीक्षक। एक अनुमान के अनुसार राजस्थान में इस विभाग के नीचे आने वाले व्यापारियों की संख्या लगभग 90 लाख है। आदर्श स्थिति के अनुसार 15 सौ संस्थानों पर एक निरीक्षक होना चाहिए, इस हिसाब से विभाग को 6हजार तो निरीक्षक ही चाहिएं। छोटे-बड़ों से विभिन्न दरों के अनुसार होने वाली मासिक आय होनी चाहिए करीब 45 करोड़ और सालना 540 करोड़। अगर वेतन और अन्य खर्च निकाल कर साल के 2 सौ करोड़ भी बच जाएं तो फायदा किसका है और नहीं हो रहा तो नुकसान किसका है?
अप्रेल 2011 से लागू विधिक माप विज्ञान अधिनियम 2009 के अनुसार, पहले जो सत्यापन साल में एक बार होता था अब वह दो साल में एक बार हुआ करेगा। इसके अलावा इस कानून में नाप-तोल के उपकरण जांचने से रोकने पर या जांच न करवाने पर बड़े जुर्माने और लम्बी सजा का प्रावधान है। जब 90 प्रतिशत लोग कानून तोडऩे वालें हों तो जुर्माना होता ही रहता है, लेकिन इक्के-दुक्के अपवाद को छोड़कर आज तक किसी एक भी व्यापारी सजा नहीं हुई। जबकि नए कानून में प्रावधान यह है कि लगातार कानून तोडऩे वाले को जेल तो होनी ही चाहिए। खैर यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि आम भारतीय की नजर में कानून तोडऩा भोजन करने जैसा जरूरी काम है।
पहेली का यह पेच समझ नहीं आ रहा कि राजस्थान सरकार एक तरफ बेरोज़गारों को नौकरी देने का वादा करती है और दूसरी तरफ अपने वेतन से सौ गुणा ज्यादा कमाकर देने वाले पद खाली पड़े हैं। जहां दक्षिणी राज्यों में इस विभाग के पास पूरा स्टाफ ही नहीं, वाहन आदि की भी सुविधाएं हैं, वहीं हमारे यहां साइकिल तक का तोड़ा है। हालांकि इस विभाग में भर्ती करने पर सरकार को तिहरा फायदा है- बेरोज़गारी कम होगी, राज्य को अतिरिक्त आय होगी और ग्राहक हितों की रक्षा होगी। ऐसा कब तक हो पाएगा का जवाब शायद गोरख बाबा ही दे सकते हैं।

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