Saturday, October 29, 2011

कैसे लगेंगे बेहतर डॉपलर रेडार?

मौसम की अद्यतन जानकारी और अपेक्षाकृत सटीक पूर्वानुमान के लिए मौसम विभाग अब देश भर के मौसम केन्द्रों पर ऐसे डॉपलर वैदर रेडार लगाने जा रहा है जो 400 किलोमीटर के दायरे में हुए किसी भी बदलाव को दर्ज कर लेंगे तथा बारिश, ओलावृष्टि, आंधी-तूफान का छ: घंटे पहले अनुमान लगा लेंगे ताकि समय रहते बचाव के लिए जरूरी कदम उठाए जा सकें। यह प्रक्रिया कई राज्यों में तो आरम्भ हो चुकी है पर राजस्थान में इसकी शुरुआत नवंबर में जयपुर से होगी,जिसके बाद कोटा, जोधपुर, जैसलमेर व श्रीगंगानगर में नए वैदर रेडार लगाए जाएंगे।
135 साल पुराने यंत्रों के भरोसे चलने वाले मौसम विभाग और मौसम के भरोसे रहने वालों के लिए यह घोषणा किसी लॉटरी से कम नहीं है। हालांकि दो वैदर रेडार सेना के उपयोग के लिए देश की अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास जैसलमेर व गंगानगर में लगे हुए हैं, यह अलग बात है कि गंगानगर का रेडार खराब हुए एक साल से ऊपर हो गया है। इस घोषणा से गत वर्ष अक्टूबर में इसरो के अध्यक्ष डॉ. के. राधाकृष्णन द्वारा जयपुर में की गई वह घोषणा याद आ गई जिसके अनुसार अगले दो माह में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के सहयोग से तहसील स्तर पर किसानों की सुविधा के लिए करीब 300 स्वचालित मौसम तंत्र लगाए जाएंगे जो इसरो के सैटेलाइट सूचना से सीधे जुड़े होंगे। राजस्थान क्षेत्रीय कार्यालय के महाप्रबंधक डॉ. जे.आर. शर्मा से जब इसकी प्रगति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि  अब तक मात्र 51 ही मशीनें ही लग पाई हैं। क्योंकि तहसील स्तर पर इतने मंहगे यंत्र किस विभाग की सुपुदर्गी में रहेंगे, इस पर फैसला करने में राज्य सरकार समय ले रही है। 
मौसम विज्ञान विभाग के महानिदेशक डॉ.अजित त्यागी के अनुसार एक जगह डॉप्लर वैदर रेडार लगाने पर लगभग 20-25 करोड़ का खर्च होगा। इसके लिए कम से कम 3 - 4 मंजिला कम से कम 16 मीटर ऊंची इमारत भी बनानी होगी। जयपुर में इमारत बन चुकी है, वहां इसे नवंबर में चालू कर दिया जाएगा। अन्य क्षेत्रों के लिए जगह का चयन किया जा रहा है। आप सोच रहे होंगे कि अरबों रूपए की इस महती योजना में क्या गोरखध्धे वाली बात क्या है? पहेली में गांठ यह है कि एक आयातित रेडार 10 से 12 करोड़ का आएगा और उसे लगाने का खर्च आएगा 15 से 20 करोड़। राजस्थान में ऐसी स्थिति पर तीन कहावतें है- कपड़े से मंहगी सिलाई, दाढ़ी से बड़ी मूछें और टके की डोकरी और एक आना सिर मुंडाई।
इस बात को समझने के लिए गंगानगर का अकेला उदाहरण ही काफी है। भारत-पाक सीमा पर बसे सामरिक महत्त्व का यह जिला देश में कृषि के लिए भी अपनी अलग पहचान रखता है। तभी तो मौसम विभाग ने बहुत पहले ही यहां एक मंहगा रेडार लगा दिया था। इस क्षेत्र के मौसम विभाग का कार्यालय आज से 25-30 वर्ष पहले कृषि विज्ञान केन्द्र और कृषि अनुसंधान केन्द्र के कार्यालय के पास ही खुले वातावरण में स्थित था। उस समय शहर के विस्तार के लिए सैंकडों हेक्टेअर में कुछ नई आवासिय कॉलोनियों की योजना बनाई गई, बिना यह सोचे कि इन कॉलोनियों में बसने के लिए इतने लोग कहां से आएंगे? राजनैतिक रास्ता यह निकाला गया कि यहां-वहां बिखरे कुछ सरकारी कार्यालयों को यहां लाकर बसा दिया जाए। इसी 'बुद्धिमत्ता पूर्णनिर्णय के परिणामस्वरूप मौसम विभाग का कार्यालय हरे-भरे खुले वातावरण से उठाकर आबादी क्षेत्र में लाया गया। उस दूरदर्शी निर्णय का परिणाम आज भुगतना पड़ रहा है कि करोडों रुपए का नया डॉपलर रेडार लगाने के लिए इस कार्यालय में उचित जगह ही नहीं है,और आसपास की घनी आबादी की वजह से वायु और तापमान संबंधी आंकड़े हमेशा गलत होते हैं। नया डॉपलर रेडार लगाने के लिए में आसपास में अव्वल तो जमीन है ही नहीं अगर आबादी को हटाकर जमीन खरीदनी पड़े तो वह इतनी मंहगी साबित होगी कि उस कीमत में 10-15 डॉपलर रेडार आ जाएं। उस समय के नगर विकास न्यास के अध्यक्ष और आज के विधायक श्री राधेश्याम से उनके 30 वर्ष पहले किए गए इस निर्णय के बारे में जब पूछा तो उनका जवाब था- मैं संबंधित विभाग के अधिकारियों से इस बारे में पूछ कर बताऊंगा। जब उनसे यह पूछा गया कि जिस मौसम विभाग को आप शहर के बाहर से अंदर लाए थे आज वहां आबादी ज्यादा हो गई है, आसपास में पेड़ बहुत हैं,  तथा ऊंची-ऊंची इमारतें के कारण सही आंकड़े नही मिल पाते इस का क्या उपाय है?तब उनका जवाब था पेड़ कटे भी सकते हैं। पर इमारतों का क्या करेंगे? तब उनका जवाब था इस विभाग को एकबार फिर कहीं और स्थानांतरित कर देंगे।
पहेली की अगली गुत्थी सुलझाने के लिए राजस्थान मौसम विभाग के निदेशक श्री एस.एस. सिंह से बात की तो उनका कहना था कि पुरानी इमारत इस लायक है कि नई मशीन का चार-पांच टन वजन झेल सकती है, हमने इस विषय मे पीडब्ल्यूडी के तकनीकी अधिकारियों से सलाह लेली है। परन्तु पीडब्ल्यूडी के अधीशाषी अभियंता सुशील विश्रोई से जब पूछा गया कि क्या मौसम विभाग ने उनसे इमारत की क्षमता का निरीक्षण करवाया है? क्या यह इमारत चार-पांच टन वजन उठाने के लायक है? तो उनका कहना था कि उनके विभाग से इस तरह की कोई जानकारी विगत एक वर्ष में नहीं ली गई। उलझन यहीं समाप्त नहीं हो जाती मौसम विभाग के स्थानीय कार्यालय से जब इस बारे में पूछा गया तो उनका कहना था- इस इमारत में नहीं हमारी दूसरी इमारत में लगेगा डॉपलर रेडार। हकीकत क्या है यह तो ईश्वर जाने। अब डॉपलर रेडार लगने के बाद पता लगेगा कि गोरखबाबा के इस पहेली का सही जवाब क्या है?

Wednesday, October 19, 2011

सब्जी की खेती

साग-सब्जियों का हमारे दैनिक जीवन में कितना महत्त्व है यह किसी से छुपा नहीं हैं। दरअसल शाक-सब्जी भोजन के ऐसे स्रोत है जो न केवल हमारे भोजन का पोषक मूल्य बढ़ाते हैं बल्कि उसको स्वादिष्ट भी बनाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो एक वयस्क व्यक्ति को संतुलित भोजन के लिए प्रतिदिन 85 ग्राम फल और 300 ग्राम साग-सब्जियों का सेवन करना चाहिए। हमारे देश में सब्जियों की औसत उपलब्धता मात्र 120 ग्राम से भी कम है, यानी सब्जी उत्पादन के व्यवसाय में अभी बहुत अवसर हैं।

सब्जी का बगीचा कहां लगाएं?
अगर सब्जी सिर्फ अपने परिवार के लिए ही चाहिए हो तो बगीचा के लिए स्थान घर का पिछवाड़ा हो सकता है जिसे आप लोग बाड़ी  भी कहते हैं। यह सुविधाजनक स्थान है क्योंकि परिवार के सदस्य खाली समय में साग-सब्जियों पर ध्यान दे सकते हैं तथा रसोईघर व स्नानघर से निकले पानी आसानी से सब्जी की क्यारियों में लगाया जा सकता है। इससे एक तो एकत्रित अनुपयोगी जल का निष्पादन हो सकेगा और दूसरे उससे होने वाले प्रदूषण से भी मुक्ति मिल जाएगी। साथ ही, सीमित क्षेत्र में साग-सब्जी उगाने से घरेलू आवश्यकता की पूर्ति भी हो सकेगी। सबसे अहम् बात यह कि सब्जी उत्पादन में रासायनिक पदार्थों का उपयोग करने की जरूरत भी नहीं होगी। अत: यह एक सुरक्षित पद्धति है तथा उत्पादित साग-सब्जी कीटनाशक दवाईयों से भी मुक्त होंगे। चार या पाँच व्यक्ति वाले औसत परिवार के लिए 1/20 एकड़ जमीन पर की गई सब्जी की खेती पर्याप्त हो सकती है। अगर आपने सब्जी को खेती के साथ-साथ अतिरिक्त कमाई के लिए लगाना चाहते हैं तो घर की बाड़ी इसके लिए छोटी रहेगी।
सब्जी उत्पादन के लिए खेत तैयार करना
सबसे पहले तो खेत से पत्थर, झाडिय़ों एवं बेकार के खरपतवार हटा दें और 30-40 सेंमी की गहराई तक कुदाली या हल की सहायता से जुताई करें। जमीन समतल करने के बाद आवश्यकता के अनुसार 45 सेंमी या 60 सेंमी की दूरी पर मेड़ या क्यारी बनाएँ। खेत में अच्छे ढंग से निर्मित 100 कि. ग्राम कृमि खाद चारों ओर फैला दें।
बुआई और पौध रोपण
सीधे बुआई की जाने वाली सब्जियां जैसे - भिंडी, सोयाबीन एवं लोबिया आदि की बुआई मेड़ या क्यारी बनाकर की जा सकती है। दो पौधे के बीच 30 सेंमी की दूरी रखें। प्याज, पुदीना एवं धनिये आदि को खेत के मेड़ पर उगाया जा सकता है।
प्रतिरोपित फसल, जैसे - टमाटर, बैंगन और मिर्ची आदि को एक महीना पूर्व नर्सरी बेड या मटके में उगाया जा सकता है। बुआई के बाद मिट्टी से ढ़क कर उसके ऊपर 250 ग्राम नीम की फली का पाउडर बनाकर छिड़काव किया जाता है ताकि इसे चीटियों आदि से बचाया जा सके। टमाटर के लिए 30 दिनों की बुआई के बाद तथा बैंगन, मिर्ची और बड़े प्याज के लिए 40-45 दिनों के बाद पौधे को नर्सरी से निकाल देना चाहिए। टमाटर, बैंगन और मिर्ची को 30-45 सेंमी की दूरी पर मेड़ या उससे सटाकर रोपाई की जाती है, जबकि बड़े प्याज के लिए मेड़ के दोनों ओर 10 सेंमी की जगह छोड़ी जाती है। रोपण के तीसरे दिन पौधों की सिंचाई करें। प्रारंभिक अवस्था में इस प्रतिरोपण को दो दिनों में एक दिन बाद पानी दिया जाए तथा बाद में 4 दिनों के बाद पानी दिया जा सकता है।
सब्जी के बगीचे का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है तथा वर्ष भर घरेलू साग-सब्जी की आवश्यकता की पूर्ति करना है। कुछ पद्धतियों को अपना कर यह लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
बगीचे के एक छोर पर बारहमासी पौधों को उगाया जाना चाहिए जिससे इनकी छाया अन्य फसलों पर न पड़े तथा अन्य साग-सब्जी फसलों को पोषण दे सकें।
बगीचे के चारों ओर तथा आने-जाने के रास्ते का उपयोग विभिन्न अल्पावधि हरी साग-सब्जियों जैसे- धनिया, पालक, मेथी, पुदीना आदि उगाने के लिए किया जा सकता है।
बारहमासी खेत
सहजन की फली, केला, पपीता, कढ़ी पत्ता : उपरोक्त फसल व्यवस्था से यह पता चलता है कि वर्षभर बिना अंतराल के प्रत्येक खेत में कोई न कोई फसल अवश्य उगाई जा सकती है। साथ ही, कुछ खेत में एक साथ दो फसलें (एक लम्बी अवधि वाली और दूसरी कम अवधि वाली) भी उगाई जा सकती है।
सब्जी बगीचे के निर्माण से आर्थिक लाभ
व्यक्ति पहले अपने परिवार का पोषण करता उसके बाद आवश्यकता से अधिक होने पर उत्पाद को बाजार में बेच देता है या उसके बदले दूसरी सामग्री प्राप्त कर लेता है। कुछ मामले में घरेलू बगीचा आय सृजन का प्राथमिक उद्देश्य बन सकता है। अन्य मामले में, यह आय सृजन उद्देश्य के बजाय पारिवारिक सदस्यों के पोषण लक्ष्य को पूरी करने में मदद करता है। इस तरह, यह आय सृजन और पोषाहार का दोहरा लाभ प्रदान करता है।

राजीव गाँधी कृषक साथी योजना

राजस्थान में 30 अगस्त, 1994 से कृषि कार्य करते समय दुर्घटनाग्रस्त होने वाले किसानों व खेतीहर मजदूरों को आर्थिक सहायता देने के लिए 'कृषक साथी योजना राजस्थान राज्य कृषि विपणन बोर्ड द्वारा शुरू की गई थी जो 22 दिसम्बर, 2004 से 'किसान जीवन कल्याण योजना के नाम से जारी रही। राज्य सरकार ने 9 दिसम्बर 2009 को इस योजना का नाम संशोधित कर 'राजीव गांधी कृषक साथी योजना 2009 कर दिया गया है। इस योजना में राज्य के किसानों, खेतीहर मजदूरों, पंजीकृत पल्लेदार/हमाल/मजदूरों का खेत और मण्डी प्रांगण में कार्य करते समय, गाँव से मण्डी तक आते और लौटते समय दुर्घटना में मृत्यु या अंग-भंग होने पर कृषि उपज मण्डी समितियों के जरिये सहायता प्रदान की जाती है। आइए जानते हैं योजना में मिलने वाला लाभ किन परिस्थितियों में दिया जाता है-
  • किसानों और खेतीहर मजदूरों द्वारा कृषि कार्य के दौरान कृषि उपकरणों व यंत्रो का उपयोग करते हुए।
  • सिंचाई हेतु कुआं खोदते समय, ट्यूबवेल स्थापित करते समय एवं उसे संचालित करते समय बिजली का करन्ट लगने पर या खेत पर से गुजरने वाली विद्युत लाइन के क्षतिग्रस्त हो कर गिरने से मृत्यु या अंग-भंग होने पर भी।
  • फसलों पर रासायनिक दवाइयों का छिड़काव करते समय।
  • किसी भी मण्डी प्रांगण व राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर घोषित क्रय केन्द्रों पर आते-जाते अथवा कृषि यंत्रों का उपयोग करते समय।
  • मण्डी में बोरियों की धांग लगाते समय।
  • मण्डी प्रांगण या खेत में ट्रैक्टर ट्रॉली, ऊँट, बैल या भैंसा गाड़ी के उलट जाने पर।
  • मण्डी प्रांगण में कार्यरत पल्लेदार/हमाल/ मज़दूर की मण्डी प्रांगण में कृषि विपणन कार्य करते समय।
  • अपने या किराये के साधन जिसमें काश्ताकार स्वयं हो, मण्डी में कृषि उपज लाते या ले जाते समय।
  • काश्तकार/खेतीहर मज़दूर के कृषि प्रयोजनार्थ टै्रक्टर, बैलगाड़ी, ऊँटगाड़ी आदि से खेत से घर लौटते या जाते समय।
  • कुट्टी/कुत्तर काटने की मशीन अथवा कृषि संयंत्रों से किसान व मज़दूर, पुरूष या महिलाओं के केश (बाल) मशीन में आने से हुई दुर्घटना पर।
  • खेत पर कार्य करते हुए साँप, जहरीले जानवर या ऊँट के काटने पर।
  • कृषि कार्य करते हुए आकाशीय बिजली गिरने से मृत्यु या अंग-भंग होने पर।
  • कृषि अथवा कृषि विपणन कार्य करते समय रीढ़ की हड्डी टूट जाने या सिर में चोट लगने से कोमा में जाने या इससे दो अंगों के स्थायी रूप से नाकारा होने पर।
  • कृषि सुरक्षा, पशु चराई हेतु पेड़ों की छंगाई या फसल की रखवाली करते समय दुर्घटना में काश्ताकार या मज़दूर की मृत्यु या अंग-भंग होने पर।
सहायता समिति
सहायता राशि स्वीकृति हेतु मण्डी समिति स्तर पर एक सहायता समिति का गठन किया गया है जिसमें कृषि उपज मण्डी समिति का अध्यक्ष, सचिव, स्थानीय प्रशासन प्रतिनिधि और राज्य बीमा विभाग का एक प्रतिनिधि (पूर्व में राज्य बीमा विभाग के प्रतिनिधि की उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी जिसे अब राज्य बीमा के प्रतिनिधि एवं सचिव मण्डी समिति की उपस्थिति अनिवार्य की गयी है ताकि प्रकरणों का शीघ्र एवं विवाद रहित निष्पादन हो सके।) होती है। समिति की बैठक मण्डी समिति स्तर पर प्रतिमाह आवश्यक रूप की जाती है। यह योजना सामाजिक सरोकार से सम्बन्धित है इसलिए एक बार प्रकरण सहायता समिति द्वारा निरस्त किये जाने के बाद किसी भी स्तर पर पुनर्विचार नहीं किया जाता तथा इस समिति का निर्णय अन्तिम होता है।
दावे के निपटाने की प्रक्रिया एवं समयावधि
दुर्घटना घटित होने के पश्चात यथाशीघ्र सहायता राशि प्राप्त करने के लिए संबंधित कृषि उपज मण्डी समिति के कार्यालय में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया जाना चाहिए, क्योंकि दुर्घटना के 6 माह पश्चात प्रस्तुत प्रार्थना पत्र पर किसी भी स्थिति कोई विचार नही किया जाता।
पुनर्भरण प्रक्रिया
सहायता समिति की बैठक में निपटाए गए मामले के पुनर्भरण हेतु मण्डी समिति के सचिव द्वारा राज्य बीमा विभाग को एक सप्ताह में आवश्यक रूप से भेजे जाते हैं। इलाज के खर्च का पुनर्भरण करवाने का दायित्व राज्य बीमा विभाग का होता है, क्योंकि यह विभाग ही इस योजना का सेवा प्रदाता है। मण्डी समिति के सचिव निस्तारित प्रकरणों की पत्रावली पुनर्भरण से पूर्व जिला मुख्यालय पर पदस्थापित उप/सहायक निदेशक राज्य बीमा विभाग को भेजते हैं और उप/सहायक निदेशक राज्य बीमा विभाग द्वारा पुनर्भरण की कार्यवाही सम्पादित की जाती है तथा पुनर्भरण की राशि सम्बन्धित मण्डी समितियों को सीधे ही राज्य बीमा विभाग द्वारा भिजवाई जाती है।
पुनर्भरण प्रकरणों की हेतु समिति
निदेशालय स्तर पर प्रत्येक माह की 20 तारीख अथवा उस दिन अवकाश होने पर अगले कार्य दिवस में प्रकरणों के पुनर्भरण की समीक्षा हेतु राज्य बीमा विभाग के अतिरिक्त निदेशक के साथ एक बैठक आयोजित की जाती है, जिसमें निदेशालय स्तर पर मुख्यलेखाधिकारी, उप निदेशक (राजीव गांधी कृषक साथी योजना) की सदस्यता वाली एक समिति बनी हुई है जो यह समीक्षा करती है कि कोई प्रकरण अनावश्यक रूप से लम्बित न रहे।
सहायता हेतु आवेदन प्रक्रिया
इस योजना के अन्तर्गत सहायता प्राप्त करने के लिए प्रार्थी को अपने क्षेत्र से सम्बन्धित कृषि उपज मण्डी समिति में आवेदन करना होता है। योजना में आवेदन-पत्र के साथ निम्र कागजों की आवश्यकता होती है:
  •  दावा करने वाले द्वारा भरा गया एक दावा प्रपत्र।
  • मण्डी समिति स्तरीय समिति द्वारा भुगतान का सिफारिशी प्रपत्र।
  • चिकित्सा अधिकारी द्वारा जारी प्रमाण-पत्र।
 
(सर्पदशं एवं कीटनाशक दवाइयों के छिड़काव के कारण मृत्यु होने की स्थिति में राजकीय चिकित्सक का प्रमाण-पत्र एवं पोस्टमार्टम रिपोर्ट अथवा मौके पर तैयार पंचनामे पर दो सरकारी कर्मचारियों एवं सम्बन्धित चिकित्सक जिसने चिकित्सा प्रमाण-पत्र जारी किया है, के हस्ताक्षर आवश्यक होते हैं। ज्ञात रहे मृत्यु का कारण गलत साबित होने पर पंचनामें पर हस्ताक्षरकर्ता व्यक्तियों का समान रूप से व्यक्तिगत उत्तरदायित्व होता है तथा मृत्यु का कारण गलत साबित होने पर पंचनामे पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी/कर्मचारी के विरूद्ध कार्यवाही करने हेतु सम्बन्धित विभाग को मंडी समिति सचिव द्वारा लिखा जाता है।)
जांच सूची-
  •  प्रथम सूचना रिपोर्ट -अगर नहीं है तो कारण
  •  पोस्टमार्टम रिपोर्ट - अगर नही है तो कारण
  •  पंचनामा
  •  साँप/जहरीला जानवर काटने पर मृत्यु होने पर सरकारी चिकित्सक का प्रमाण-पत्र या  चिकित्सालय के ओ.पी.डी.रजिस्टर का क्रमांक व दिनांक।
  • दावेदार किसान या मज़दूर द्वारा उपज बेचकर वापस जाते वक्त मृत्यु होने पर मण्डी का गेट पास/विक्रय पर्ची/ अमानत पर्ची।
  • रसायनिक दवाइयों के प्रभाव से मृत्यु होने पर विसरा (एफ.एस.एल.) भेजने के रजिस्टर में क्रमांक और दिनांक।
  • विधिक दावेदार कृषक का 10 रू. के नॉन ज्यूडिशिअल स्टाम्प पर शपथ-पत्र।
  • अंग-भंग होने की स्थिति में दावेदार का सरकारी अस्थि रोग विशेषज्ञ का चिकित्सा प्रमाण-पत्र मय सत्यापित फोटो/डाक्टर की पर्ची/दवाइयों के बिल आदि।
  • दावेदार कृषक व उससे संबंधित भूमि की खसरा, गिरदावरी रिपोर्ट।
  • दावेदार का फोटो।
  •  अगर मृतक मज़दूर है तो जिसके खेत में कार्य कर रहा था उसके मालिक का शपथ-पत्र एवं खसरा गिरदावरी।
  • दावेदार कृषक की पहचान हेतु राशनकार्ड, वोटर पहचान-पत्र, बैंक पासबुक, जमीन पासबुक, नरेगा जॉब कार्ड आदि की सत्यापित फोटोप्रति।
  • मृत्यु होने की स्थिति में कृषि कार्य करते हुए मृत्यु होने का संबंधित उपखण्ड अधिकारी द्वारा जारी मृत्यु प्रमाण-पत्र।

भावी किसान जरूर आएं मंडी


दुनिया के किसी भी देश में एक भी ऐसा स्कूल नहीं बना जो छात्रों को मात्र किताबी पढ़ाई से खेती-बाड़ी के विषय में पारंगत बना दे। यह ज्ञान किताबों में जितना है उससे कहीं ज्यादा खेत और बाजार में है। वर्तमान में हमारे किसान के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि वह अपने बच्चों को स्कूलों से किताबी ज्ञान तो दिलवा देता है लेकिन उसे खेत की 'ज़मीनी हकीकत से दूर रखता है। इसका एक दुष्परिणाम यह है कि आज खेत में 50 साल से कम उम्र के किसान गिने-चुने ही नजर आते हैं। इसका दूसरा नुकसान यह हुआ कि बच्चे पढ़-लिख कर अपना खेत होते हुए भी बेरोज़गारों की कतार में खड़े हैं। इस बात का यह अर्थ कतई न निकाला जाए कि किसान अपने बच्चों को पढ़ाए-लिखाए नहीं, बल्कि उसे अपने बच्चों को जरूर पढ़ाना चाहिए ताकि कृषि कार्यों में दुनिया भर में जो बदलाव आ रहे हैं वह उन्हें समझ सके। आइए जानते हैं कि इसकी शुरूआत घर से कैसे की जाए-
घर से करें आरम्भ
एक मान्यता के अनुसार, बिल्ली अपने बच्चों साथ ले जाकर 9 अलग-अलग घर दिखाती है और उनके बारे में जानकारी देती है। बिल्ली ऐसा करके अपने मातृत्व धर्म का निर्वाह तो करती ही है साथ ही अपने बच्चों को भविष्य के लिए तैयार भी करती है। किसान को भी चाहिए कि वह अपने बच्चों को न सिर्फ खेती-किसानी की बारीकियां खेत में लेजाकर सिखाए बल्कि, उन्हें अपने साथ ले जा कर बाज़ार, मंडी और बैंक की कार्य पद्धतियों से भी परिचित करवाए।
बच्चे बनेंगे समझदार
सभी जानते हैं कि हम उन बातों को ज्यादा बेहतर ढ़ंग से और आसानी से सीखते हैं जिन्हें हम अपनी आखों से देख लेते हैं। जाहिर सी बात है आपके बच्चे भी आपको काम करता हुआ देखकर बेहतर ही सीखेंगे। आज के पढ़े-लिखे बच्चे जिन्हें अंग्रेजी भी आती है और कंप्यूटर भी जानते हैं। किताबी ज्ञान के साथ अगर व्यवहारिक ज्ञान भी मिल जाए तो वे बेहतर किसान के साथ-साथ अच्छे व्यवसायी भी बनेंगे।
शहर को बनाये पाठशाला
किसान शहर को अपने बच्चे के लिए पाठशाला समझें। जहां मंडियां तथा बैंक ऐसी पाठशालाएं है जो व्यवहारिक ज्ञान, धन और धन प्रबंधन के गुर एक साथ देती है। शहर में ही कृषि विभाग के कार्यालय हैं जहां सरकारी योजनाओं और अनुदान के बारे में नित-नई जानकारियां उपलब्ध रहती हैं। बीज, खाद और कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के अधिकारी/कर्मचारी हैं जो इस क्षेत्र में दुनिया भर में होने वाले बदलाओं के बारे में आपका ज्ञान बढ़ाते रहते हैं।
नए रिश्ते भी बनेंगे
पहले तो किसान और आढ़तिये के बीच व्यवसाय के अतिरिक्त एक और पारिवारिक रिश्ता होता था। ये दोनों एक-दूसरे के सुख-दु:ख काम आते थे, पर समय के साथ यह रिश्ता अब कुछ अपवादों को छोड़कर बहुत औपचारिक रह गया है। किसान और बाज़ार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और किसी एक का गुजारा दूसरे के बिना नहीं चल सकता। अत: जिस आढ़तिये या दुकान पर खरीद-फरोख्त करते हैं वहां अपने बच्चों को भी लाएं, ताकि यह संबंध प्रगाढ़ हो और आगामी पीढ़ी के लिए परस्पर लाभदायक हो सके।

मण्डी पर मंडराते खतरे

हमारे देश में किसानों और अनाज व्यापारियों के सम्बन्ध वर्षों पुराने हैं। इन संबंधों में सहजता बनी रहे और किसान को उपज का सही भाव मिल सके इसके लिए यहां विगत लगभग पांच-छ:दशकों से कृषि उपज मण्डी व्यवस्था है। पिछले 10 वर्षों से इस व्यवस्था में तेजी से बदलाव आया है। आज आइटीसी, कारगिल और दूसरी कई कम्पनियों नें मण्डियों के समानान्तर अपनी व्यवस्था खड़ी कर दी है। ये कम्पनियां किसान के खेत से या मण्डी और मण्डी क्षेत्र से बाहर कहीं भी बड़ी मात्रा में ज्यादा पारदर्शी तरीके से सीधी खरीदी कर रही हैं। क्या मात्र यह कम्पनियां मंडी पर मंडराता एकमात्र खतरा हैं? जानने का प्रयास करते हैं कि और कौनसे कारण हैं जो मंडी के आस्तिव पर एक बड़ा सा सवाल बनकर खड़े हो गए हैं...  
क्या सरकार है खतरा?
इस व्यवस्था का आरम्भ सन 2000 में हुआ। मध्यप्रदेश की दिग्विजयसिंह सरकार ने आंशिक रूप से 1970 के राज्य कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में संशोधन किया था, जिसके कारण निजी खरीददारों को मंडी प्रांगण के बाहर खरीद केंद्र स्थापित करने के लिये मंडी समितियों द्वारा लाइसेंस देने का प्रावधान किया गया। उसके बाद सितंबर 2003 को केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्य सरकारों से परामर्श से एक मॉडल कानून 'राज्य कृषि उत्पाद विपणन (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 2003 तैयार किया। इस अधिनियम के तहत देश में कृषि बाज़ारों के प्रबंधन एवं विकास में सार्वजनिक व निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने, निजी मंडियां व सीधे खरीद केंद्र स्थापित करने के प्रावधान किए गए। साथ ही अनुबंध खेती की व्यवस्थाओं को प्रोत्साहन देने व नियंत्रित करने के कानून भी इसमें शामिल किए गए। जाहिर है यह कानून मौजूदा कृषि उपज मंडी समिति की भूमिका को भी पुनर्भाषित करता है,ताकि नई विपणन व्यवस्था तथा अनुबंध खेती के साथ इसका तालमेल बैठ सके।
क्या निजी कम्पनियां हैं खतरा ?
हमारे अर्थशास्त्री मानते हैं कि इस नई व्यवस्था से किसानों को बेहतर और उचित दाम मिल रहे हैं। इनका मानना है कि अगर सरकारी प्रणाली सही ढ़ंग से काम न करे तो उसे सुधारने की बजाए उसके समानान्तर निजी ढांचा खड़ा कर दो। आज देश भर में इन निजी कम्पनियों ने लगभग 25 प्रतिशत बाज़ार पर अपनी पकड़ बना ली है। सरकार भी शायद शक्ति संतुलन के नियम पर कार्य कर रही है उसकी नीतियां धीरे-धीरे मण्डी व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में बढ़ रही है। कम्पनियों को किसानों से सीधे अनाज खरीदने की अनुमति देने का एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार को दो गुना दामों पर 53 लाख टन अनाज आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूक्रेन से खरीदना पड़ा। पिछले 4 वर्षों में अनाज की खुले बाज़ार में कीमतें 70 से 120 प्रतिशत तक बढ़ीं पर किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 20 प्रतिशत ही बढ़ा। वर्तमान में ये निजी और विदेशी संस्थान किसानों के साथ बहुत ही सलीके से पेश आ रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अभी किसानों के पास कृषि उपज मण्डी का विकल्प मौजूद है। कल्पना करें कल जब यह विकल्प खत्म हो जाएगा या कम प्रभावी हो जाएगा तब भी क्या इन कम्पनियों का व्यवहार किसान के साथ यही रहेगा?

क्या आढ़तिया खुद है खतरा ?
मण्डी व्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले आढ़तिये पर लूट-खसोट के इल्जाम लगते ही आएं हैं,पर एक आढ़तिया कितना कमाता या लूटता है जरा एक नज़र इस गणित पर भी डाल लेते हैं। एक औसत आढ़तिये के माध्यम से साल भर में एक से डेढ़ करोड़ के सौदे होते हैं, जिसका 2 प्रतिशत कमीशन बनता है 2 से 3 लाख रूपए सालाना। इस राशि में उसे दुकान के सारे खर्च जैसे मुनीम और नौकर का वेतन, किराया-भाड़ा, बिजली-पानी और चाय-नास्ते आदि चुकाने होते हैं। एक पंजाबी कहावत के अनुसार 'अगर मुनाफा घुटने-घुटने तक हो तो टखने-टखने तक ही रह जाता है। यानी इस 2 प्रतिशत एक बड़ा भाग तो खर्च हो जाता है दुकान चलाने के आधारभूत खर्चों में ही। उसे अतिरिक्त कमाई होती है किसान को वक्त-जरूरत दिए गए रूपयों के ब्याज से,और कुछ व्यापारियों को वजन में कम-ज्यादा करने और अपने जानकारों से किसान को सामान दिलवाने से। हालांकि सारे व्यापारी ऐसा नहीं करते और नही मोटा ब्याज नहीं लेते और वजन में लंगड़ी भी नहीं लगाते। शायद ही कोई आढ़तिया है जिसके रूपए इस ब्याज कमाने के चक्कर में डूबे न हों। आजकल जब किसान को बैंक से 3-4 प्रतिशत पर पैसा मिल जाता है तो कौन आढ़तिये से 15 से 24 प्रतिशत पर पैसा उधार लेगा? लगातार घटती कमाई और डूबती पूंजी के कारण खुद आढ़तिया भी मण्डी छोडऩे को तैयार बैठा है।
तो क्या किसान है यह खतरा?
अब बात करें मण्डी के सबसे मज़बूत स्तम्भ यानी किसान की। अब उसके भी खाते-बही देख लेते हैं। दु:ख इसी बात का है कि किसान खाते-बही जैसी कोई चीज रखता ही नहीं है। उसका हिसाब तो आढ़तिये, बैंक  और कोर्ट-कचहरियां रखती है। मान लें एक किसान के पास दस बीघा जमीन है। वह उस पर बैंक से कर्ज लेता है 30 से 40 हजार रूपए प्रति बीधा, आढ़तिये से उसी एक बीघे पर ले लेता है 10 से 15 हजार रूपए। खाद बीज वाले से करीब 5 हजार, कुल औसत हुआ 50 हजार। अब अगर ट्रैक्टर या अन्य कोई उपकरण ले रखा है तो यह कर्ज बढ़कर हो जाएगा करीब 80 हजार रूपए प्रति बीघा तथा ब्याज व खेत का खर्च अलग।अब एक नजर प्रति बीघा कमाई भी देख लें। एक बीघा में गेहूं होता है अधिकतम 10 क्विंटल बाजार भाव के अनुसार अधिकतम 11 हजार का, सरसों 8 क्वि. 20 हजार और नरमा/कपास 8 से 10क्विं अधिकतम 32 हजार रूपए। ज्ञात रहे सरसों या गेहूं दोनों में से एक ही फसल ली जा सकती है, यानी किसान की किस्मत अच्छी हो और मौसम की मार न पड़े तो सारी उपज को मिलाकर ज्यादा से ज्यादा कमाई कर सकता है 60 हजार और कर्ज है 80 हजार तथा उसका ब्याज व अन्य खर्च। एक साल का औसत घाटा होता है करीब 20 हजार रूपए प्रति बीघा।
इसके बावजूद किसान बैंक और आढ़तिये से ज्यादा कर्ज के लिए झगड़ते देखे जा सकते हैं। उनका तर्क होता है 5 से 7 लाख रूपए प्रति बीघा वाली मेरी जमीन पर बस 30-40 हजार कर्ज? सच्चाई तो यह है कि एक बीघा जमीन का ठेका जो वर्तमान में 8 से 10 हजार रूपए है, उतना ही कर्ज ले तो कोई भी किसान कमाई कर सकता है,उसके उपर लिया गया सारा पैसा जमीन पर भार है। अब आप स्वंय ही अंदाज लगा लें कि इस लाभ की खेती को किसान कितने साल और कैसे करेगा।
क्या चाहती है सरकार?
अंत में बात कर लेते हैं मण्डी के आखरी पहरेदार यानी हमारी सरकार की। केन्द्रीय वित्तमंत्री के आर्थिक सलाहाकार कार्तिक बसु जो खुदरा व्यापार मे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की पुरजोर वकालत कर रहे हैं। आज सरकार का प्रयास खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिये दूसरी हरित क्रांति लाने का है। जिसका फायदा किसान नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों व उत्पादन तंत्र पर नियंत्रण करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उठाएंगी। सरकार अगले दो सालों में इन कम्पनियों के लिए 120करोड डॉलर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली है और साथ ही पहले 5 वर्षो तक उनके पूरे फायदे पर 100फीसदी आयकर में छूट और अगले पांच वर्षो तक 25फीसदी छूट देती रहेगी। इनके लिए उत्पाद शुल्क (एक्साइज ड्यूटी) को भी आधा कर दिया गया है यानी सरकार के बजट में कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा फायदा दिया जा रहा है। सरकार को अनाज की कम खरीद करना पड़े और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गरीबों को अनाज कम देना पड़े इसलिए गरीबी रेखा का दायरा छोटा किया जा रहा है। यह इसलिये भी किया जा रहा है ताकि कम्पनियों को किसानों से मनमानी कीमत पर अनाज खरीदने का मौका मिल सके और इस अतिरिक्त अनाज का उपयोग निर्यात और प्रसंस्करण दोनों के लिए भी किया जा सके।
इस प्रस्तावित और लगभग सर पर खड़ी व्यवस्था को किसान और व्यापारियों को एक चेतावनी की तरह लेना चाहिए। इस चौतरफा हमले के बाद भी अगर मण्डी बच जाए तो किसी आश्चर्य से कम नहीं होगा।

संविदा खेती या कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग


शुरू-शुरू में संविदा खेती तथा कारपोरेट कृषि केवल वृक्षारोपण कार्यक्रम और बेकार पड़ी जमीन के विकास तक ही सीमित थी, लेकिन सन 2000 में जारी पहली नई कृषि नीति की घोषणा के बाद बुनियादी क्षेत्र में भी इसे अमल में लाया जा रहा है। कृषि क्षेत्र से जुड़ी निजी कंपनियों के सामने पैदावार की गुणवत्ता बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि इसका निर्धारण खरीदार करते हैं। इसके अलावा दूसरा महत्त्वपूर्ण मामला है समय पर माल की आपूर्ति करना।
इस ओर पहला कदम पंजाब ने बढ़ाया जब पेप्सी फूड्स लि. ने वहां बाईस करोड़ रूपयों की लागत से टमाटर से विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए कारखाना लगाया। चूंकि टमाटर पूरी मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहे थे इसलिए पेप्सीको ने अनुबंध-खेती की शुरूआत की। पेप्सीको ने इस सिलसिले में कई महत्त्वपूर्ण पहल करते हुए अनुबंध कृषि को नए आयाम दिए। इस कंपनी ने पंजाब के संगरूर जिले में संसाधनों पर आधारित अनुबंध के तहत कृषि समझौते किए तथा किसानों को बाजार मुहैया कराने के साथ पैदावार में सुधार के उपाय भी सुझाए, जिससे किसानों को अच्छे खरीदार भी मिले और उन्हें अपनी पैदावार का उचित मूल्य भी मिलने लगा। बाद में कुछ और कम्पनियों ने बासमती चावल, मिर्च, मूंगफली, धनिया और आलू भी इसी आधार पर देश के विभिन्न प्रदेशों में उगाने आरम्भ किए। इसी तरह टै्रक्टर निर्माण करने वाली प्रमुख कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने भारतीय किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए शुभ-लाभ सेवा आरम्भ की। जिसमें सामुदायिक कृषि को बढ़ावा दिया गया तथा एक ही केन्द्र पर किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप जरूरी सभी सुविधाएं भी उपलब्ध करवाई गईं।
हमारे देश में खेती हमेशा जीविका चलाने और जीवन का एक हिस्सा जरूर थी, पर कभी वस्तु, बाजार या व्यवसाय नहीं थी। आज की कंपनियों की पहली शर्त खेती को वस्तु बनाकर व्यवसाय के लिए बाजार तक पहुंचाना है। इसलिए आज की संविदा खेती का मूल आधार ही लाभ है। इसके लिए हमारी सरकार ने डब्लू.टी.ओ. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय दवाब में नई-नई कृषि नीतियों की घोषणा की है। प्रचारित किया जा रहा है कि अनुबंध या ठेका-खेती अपनाने से ही भारतीय गांव और किसान सुखी होंगे। भारत की नई राष्ट्रीय कृषि नीति के मसौदे में फसलों के विभिन्नीकरण (डायवर्सीफिकेशन) की वकालत की गई है। इसके तहत किसान खाद्यान्न फसलों को पैदा करने के स्थान पर नकद फसलों का उत्पादन करेंगे तथा उनके उत्पादित माल का निर्यात होगा। लिहाजा विदेशी मुद्रा में इजाफा होगा, साथ ही किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। फसल विभिन्नीकरण के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत होगी जिसकी आपूर्ति निजी क्षेत्र से की जाएगी, इसलिए बड़ी-बड़ी कंपनियां और बैंक तथा विशेषज्ञों के गठजोड़ संविदा खेती के सहायक बनेंगे।
सिक्के के इस उजले पहलू के बाद अब एक नजर सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं, जिसके अनुसार संविदा खेती में किसानों के साथ एक अनुबंध किया जाएगा जिसके तहत पहले से तय कीमतों पर उन्हें अपनी फसलें कंपनियों को बेचनी पड़ेगी। इस अनुबंध में एक शर्त गुणवत्ता की भी होती है, जिसका निर्धारण खरीदने वाली कम्पनी ही करती है। बहुत बार कम्पनी उपज को गुणवत्ता के अनुरूप नहीं है कह कर नहीं भी खरीदती या बहुत कम भाव में खरीदने का प्रयास करती है। इसमें दिक्कत यह है कि संविदा खेती का अभी कोई नया कानून नहीं बनाया गया है, जिससे किसान व अन्य पक्षों को अदालत से न्याय प्राप्त करने में परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इन मुकद्दमों का परिणाम क्या होगा जिनमें एक तरफ संसाधन विहीन गरीब किसान होगें और दूसरी तरफ धन/सुविधा संपन्न कंपनियां। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के चाल्र्स ईटन और एंडयू डब्लू शेफर्ड ने 'कांट्रेक्ट फार्मिंग पार्टनरशिप्स फॉर ग्रोथ नामक पुस्तक में विस्तार से समझाया है कि किसानों और ठेके पर खेती करने की इच्छुक कंपनियों के बीच हुए करार के अनुसार किसान अपनी जमीन उन्हें बेच देंगे या लगान की तय दर पर दे देंगे, फिर चाहें तो वे किसान कंपनियों के इन खेतों पर मजदूर के रूप में काम करें। इस प्रकार कृषि पारिवारिक न होकर पूरी तरह पूंजीवादी हो जाएगी। पैदावार संबंधी सारे फैसले जैसे- क्या उगाएं? कैसे उगाएं? और किनके लिए उगाएं? आदि कंपनियां तय करेंगी। जाहिर है इन सब निर्णयों का आधार मुनाफा बढ़ाना ही होगा।
आदि काल में भी इस तरह की खेती की शर्तें और तौर-तरीके शोषणकारी और अमानवीय होते थे और भविष्य में भी लाभ कमाने के लिए शायद वही तरीके अपनाए जाएं, बस फर्क इतना होगा कि पहले शोषण स्थानीय और स्वदेशी जमींदार करते थे अब यह काम स्थानीय लोगों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियां करवाएंगी। संविदा खेती को बढ़ावा देने के लिये कृषि सुधार प्रस्ताव 2004 में केन्द्रीय कृषि मंत्री के नेतृत्व में सभी प्रदेशों के कृषि मंत्रियों के बीच हुई बैठक के नतीजे के अनुसार कृषि सुधार प्रस्ताव में तीन प्रमुख बातें हैं, पहला, कार्य मंडियों का निजीकरण, दूसरा, अनुबंध खेती या लीज खेती में मौजूद भूमि हदबंदी कानून को खत्म करना और तीसरा, भूमि साझा करने वाली कंपनियों का उदय। इस कानून से भारत में लगभग पचास करोड़ से ज्यादा छोटे किसानों यानी 1 से 5 एकड़ खेती वाले किसानों को अपने पुश्तैनी धन्धे से बेदखल होना पड़ेगा।

क्या है ई-चौपाल?

चौपाल की अवधारणा भारतीय किसानों के लिए नई नहीं है। आइटीसी द्वारा उठाया गया शुरुआती कदम आज हजारों गांवों में अपनी छाप छोड़ रहा है। आज बहुत सारे सरकारी विभाग और नैस्कॉम 'प्रत्येक गांव में एक कंप्यूटर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जोरशोर से लगे हुए हैं। वर्तमान में 11 राज्यों और 42 हजार गांवों में तकरीबन 7000 ई-चौपालों का फायदा लगभग 40 लाख किसान उठा रहे हैं वे उसकी मदद से सोयाबीन, मसाले, कॉफी, गेहूं, चावल, मक्का, दालें और अन्य अनाज उपजा रहे हैं। देश में सबसे पहले आइटीसी ने 1500 ई-चौपाल नेटवर्क बनाया, जिसमें बैटरी से चलने वाला कंप्यूटर, एक संचालक और सैटेलाइट संचार की व्यवस्था की गई थी। इसी तर्ज पर रिलायंस इंडस्ट्री भी अपना सामाजिक आधारभूत ढ़ांचा बना रही है ताकि वो किसानों तक अपनी पहुंच बना सकें। आंध्रप्रदेश, पंजाब और हरियाणा से दूध की खरीद के लिए इस मॉडल को शुरू किया गया है, जल्द ही इसमें और भी वस्तुएं शामिल की जाएंगी। डीसीएम श्रीराम कंसल्टेंसी लिमिटेड (डीएससीएल) ने अपने तरीके का ई-चौपाल मॉडल बनाया है जिसे नाम दिया गया है हरियाली किसान बाजार (एचकेबी)। इस मॉडल का लक्ष्य गांव के लोगों, खासतौर पर किसानों के लिए बाजार बनाना है। सन 2002 में शुरू हुए इस हरियाली मॉडल के 160 बूथ है और एक बूथ के जरिए 20,000 किसानों के परिवार तक पहुंच बनाई गई है। आइटीसी के एक अधिकारी के अनुसार 'किसान की सारी जरूरतें कोई एक आदमी पूरी नहीं कर सकता, इसलिए ई-चौपाल की जरूरत महसूस हुई, पर अभी यह शुरूआत है अभी बहुत काम होना बाकी है। दरअसल आम किसान के लिए ई-चौपाल एक ऐसा जादू का पिटारा है, जिससे फसलों की सही कीमत और जरूरत के सामान के साथ कई और महत्त्वपूर्ण खबरें और नसीहतें उपलब्ध होती हैं, जैसे- 
फसलों का डाटाबेस
आपको अगली बार कौन सी फसल उगानी है यह निरधारण करने में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया डाटाबेस आपकी मदद करेगा। यह आपको सलाह देगा कि कौन सी फसल उगाना फायदेमंद और घरेलू परिस्थितियों के अनुरूप सही है। एचकेबी ने अपने यहां 2-3 कृषि वैज्ञानिकों को रखा है जो सभी केन्द्रों पर किसानों को 24 घंटे अपनी सेवा देते हैं।
बिचैलियों से  मुक्ति
वस्तु (कमोडिटी) बाजार से कंप्यूटर के माध्यम से सीधे जुडऩे पर आपको बिचौलियों के बगैर उपज की बेहतर कीमत मिलेगी। इस समय देश में करीब 25 वस्तु विनमय केन्द्र (कमोडिटी एक्सचेंज) है जिनमें चार राष्ट्रीय स्तर के हैं जैसे- नैशनल मल्टी-कमोडिटी एक्सचेंज ऑफ इंडिया (एनएमसीई), नैशनल बोर्ड ऑफ ट्रेड (एनबीटी), नैशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव एक्सचेंज (एनसीडीइएक्स) और मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स)।
अन्य सुविधाएं
इन केन्द्रों से पेट्रोल पंप, एलपीजी गैस कनेक्शन और बैंक भी जुड़े हुए हैं। भारत पेट्रोलियम के साथ एचकेबी ने अपने केन्द्र के नजदीक एक पेट्रोल पंप खोलने के लिए गठजोड़ भी किया है और अब तक 16 पेट्रोल पंपों ने काम करना शुरू भी कर दिया है तथा साल के अंत तक 60 और पेट्रोल पंप के शुरू होने की उम्मीद है। आइसीआइसीआई और एचडीएफसी बैंक ने भी अपने काउंटर यहां खोले हैं। इनमें से कुछ केन्द्रों पर शॉपिंग मॉल और सुपर बाजार भी है जहां घरेलू उपभोक्ता वस्तुएं जैसे टीवी, फ्रिज आदि भी खरीदे जा सकते हैं।
ज्ञात रहे कि 'विलेज कंप्यूटर को चलाने के लिए ज्यादा पढ़ा होना या वैज्ञानिक होना जरूरी नहीं है। मात्र 15 से 20 दिन का प्रशिक्षण लेने के बाद आप पंचायत के कंप्यूटर रूम को संभाल सकने में सक्षम हो सकते हैं। यही नहीं, इन कोर्सेज में प्रशिक्षण के लिए आप दसवीं कक्षा की परीक्षा पास करने के बाद आवेदन भी कर सकते हैं। भारत में तकरीबन छ: लाख गांवों में इस रोजगार की विपुल संभावनाएं हैं।

जानें सीधी खरीद के बारे में

सरकार का हमेशा से प्रयास रहा है कि किसानों को उनकी उपज का पूरा व सही भाव मिले। इसी नीति के क्रियान्वयन में धान मण्डियों का विकास हुआ। देश भर की छोटी-बड़ी मिलाकर लाखों मण्डियों को बसाने और वहां किसानों के लिए उचित सुविधाएं जुटाने के लिए खरबों रूपए विगत साठ वर्षों में खर्च किए गए और यह प्रक्रिया आज भी जारी हैं। इन दिनों व्यापार के वैश्विक दबाव में सरकार यह मानने लगी है कि इसके सामान्तर कोई दूसरा विकल्प भी होना चाहिए। तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे   किसानों को उचित भाव मिलेगा और बड़ी कम्पनियों को सस्ता कच्चा माल मिलेगा।
कैसे होती है सीधी खरीद?
पांच सात किलोमीटर के दायरे में कम्पनी उपज खरीद के लिए एक प्रतिनिधि नियुक्त करती है, जिसके पास एक इंटरनेट युक्त कम्प्युटर होता है। इस कम्प्युटर की मदद से उस संचालक को अगले दिन उपज खरीदने का एक भाव मिलता है जिसे वह किसानों तक पहुंचाता है। जो किसान उस भाव पर उपज बेचने का इच्छुक होता है, वह अपनी उपज का अनुमानित वजन लिखवा कर एक पर्ची बनवा लेता है। इस तरह के सारे किसान कम्पनी द्वारा स्थापित नजदीक के केन्द्र पर अपनी उपज लेकर पहुंच जाते हैं, जहां झार लगा कर साफ उपज का वजन किया जाता है। इस खरीद के कुछ मानदंड हैं जैसे- हेक्टोलीटर जांच। इसमें एक लीटर के बर्तन में गेहूं भरकर तौला जाता है, अगर उसका वजन 790 ग्राम से ज्यादा हो तो कोई कटौती नहीं होती। दूसरी जांच में उपज की नमी देखी जाती 10 प्रतिशत से कम नमी पर भी कटौती नहीं होती। तीसरी जांच में दानें अगर 3 प्रतिशत से कम टूटे हो तो भी कोई काट नहीं लगती। चौथी और पांचवी जांच में अनाज सफेद, फफूंद लगा और भीगा हुआ न हो तो तय कीमत ही अदा की जाती है। अगर इनमें से किसी भी जांच में उपज मानक स्तर पर खरी न हो तो भी सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भाव नहीं दिए जाते।
क्या है सीधी खरीद का नफा-नुकसान?
इस तरह की खरीद में किसान को कई लाभ हैं, जैसे- किसान को पहले ही पता होता है कि उसकी उपज किस भाव पर बिकेगी। उपज बेचने के लिए नीलामी का लम्बा इंतजार नहीं करना पड़ता और तुरंत भुगतान मिल जाता है। पर इस व्यवस्था में कुछ नुकसान भी हैं जैसे-एकबार कीमत तय हो गई वही मिलती है, चाहे उस दिन बाजार में कोई भी भाव हो। मण्डी में दस-बीस व्यापारी बोली लगाकर उपज खरीदते हैं, उसमें सम्भावना रहती है कि भाव ज्यादा भी मिल सकता है, साथ ही तसल्ली भी होती है कि भाव सही मिला है। जबकि सीधी खरीद में एक ही आदमी भाव लगाता है। सीधी खरीद में तय भाव में नमी, दाना छोटा या टुकड़ों में होने पर भाव में कुछ प्रतिशत की कमी हो जाती है। अब किसान के पास दो ही विकल्प हैं या तो कम्पनी के प्रस्तावित मूल्य पर उपज बेचे या किए गए खर्च को भूल कर घर लौट आए। सीधी खरीद एक सीमित समय के लिए होती है अब अगर फसल पहले तैयार हो जाए तो इंतजार करें और अगर फसल निकालने में देरी हो जाए  
तो किसान क्या करे?
आढ़तिये और किसान में बरसों साथ काम करने से एक संबंध बन जाता है जो किसान को मण्डी के बाहर भी कई तरह की सुविधाएं दिलवाता है, पर कम्पनी के अधिकारी अपनी नौकरी की वजह से बदलते रहते हैं तथा वे इस तरह के व्यक्तिगत संबंधों में विश्वास भी नहीं रखते। किसान किसी भी वजह से खरीद केन्द्र पर शाम के बाद पहुंचे तो उसे वहां कोई नहीं मिलता, जबकि आढ़तिये को आधी रात में भी किसान के लिए खाने और सोने का इंतजाम करना पड़ता है। सबसे बड़ी असुविधा यह है कि बिना फसल लाए या उपज का भुगतान लेने के बाद भी केवल आढ़तिया ही जरूरत पर रूपए-पैसे से इमदाद करता है, कम्पनियों में यह सुविधा नहीं है।