Sunday, January 29, 2012

कैसा है बीज विधेयक-2010?

बीज विधेयक, 2010 संसद के मौजूदा सत्र में पुराने विधेयक, 2004 की जगह लेने के लिए तैयार है। माना जा रहा है कि यह विधेयक किसानों के बजाय बीज व्यवसायियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इसके पक्ष में तर्क यह दिए जा रहे हैं कि भारत का बीज-बाजार बहुत बड़ा है। देश में लगभग 38 करोड़ एकड़ भूमि पर खेती होती है, जिसमें एक-तिहाई सिंचित भूमि पर दो फसलें ली जाती है। यानी प्रति वर्ष 50 करोड़ एकड़ के लिए बीज चाहिए। यदि एक एकड़ के लिए एक हजार रुपए का बीज भी खरीदना पड़े तो यह आंकड़ा 50 हजार करोड़ के पार होगा। अभी तक इन कंपनियों की पहुंच मात्र 10 प्रतिशत किसानों तक ही है। इल्जाम लगाए जा रहे हैं कि इन कंपनियों की नजर देश के शेष 90 प्रतिशत किसानों पर है और यह कानून इसमें उनकी मदद करेगा।
किसान मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ का सवाल है कि जब देश में बीज व्यवसाय के लिए चार कानून पहले से मौजूद है, तो क्या वर्तमान कानून उन चारों को बाईपास करते हुए बीज कंपनियों को लाभ और किसानों को घाटा पहुंचाने के लिए लाया जा रहा है? एक तरफ जहां बीज बेचने वाली कंपनियां पहले ही आकाश छूती कीमतों के सहारे भरपूर मुनाफा कमा रही हैं वहीं बीज विधेयक में बीजों के खुदरा मूल्य या बड़े कारपोरिट्स की कुल रॉयल्टी को निर्धारित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं।
इस विधेयक पर पहले संसदीय स्थायी समिति फिर सर्वदलीय बैठक में विचार-विमर्श में और फिर कई किसान संगठनों, विपक्षी राजनीतिक दल तथा नागरिक संगठनों ने भी आक्रोश जताया है कि यह विधेयक छोटे और सीमांत किसानों के हितों की रक्षा करने में असफल रहेगा। यहां तक कि यूपीए अध्यक्ष की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद(एनएसी) के कई सदस्यों ने भी इस विधेयक के किसान-विरोधी प्रावधानों का खुलेआम विरोध किया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिशकुमार ने यह कहकर अपना विरोध प्रकट किया है कि विधेयक में राज्यों को बीज के उत्पादन, वितरण, विपणन या फिर उनके बाजार-मूल्य को निर्धारित करने के मामले में कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मौजूदा बीज विधेयक के लिए विरोधियों कुछ सुझाव भी दिए हैं जैसे- 
1. ब्रांडिड बीजों के इस्तेमाल के बाद फसल मारी जाए तो किसानों को दिए जाना वाला मुआवजा अधिकतम मात्र 30 हजार रुपए है। जबकि मुआवजा उन बीजों से पैदा होने वाली फसल के आधार पर दिया जाना चाहिए। 2. बीज आयात करते समय ध्यान रखा जाए कि देश के विभिन्न इलाकों की मिट्टी और जलवायु के माफिक बैठने वाले बीजों की ही अनुमति हो। बेहतर यह होगा कि आयातित बीजों की पहले स्थानीय भूमि पर जांच कर यह सुनिश्चित किया जाए कि वे न्यूनतम उपज क्षमता के दर्जे पर खरे उतरते हैं या नहीं, इस परीक्षण के बाद ही इन बीजों का उपयुक्तता के आधार पर प्रमाणीकरण किया जाए। 
3. देश में अधिकतर बीज-बैंक स्व-सहायता समूहों के द्वारा चलाये जा रहे हैं। विधेयक में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि इन बीज-बैंकों का संबंध कृषि-विज्ञान केंद्रों, कृषि-विश्वविद्यालयों, आइसीएआर और राज्यों के वित्त संस्थाओं से इस तरह बने कि इन्हें आधार बीज, तकनीकी सहायता और कार्यशील पूंजी राज्य सरकारों से हासिल हो। कृषि-विज्ञान केंद्रों से जुड़े बीज-बैंकों को बीज-व्यवसाय में उतरने के लिए प्रमाणीकरण जैसी औपचारिकताओं से भी मुक्त रखा जाए।
सिक्के के इस एक पहलू पर विचार करने के बाद अब नजर डालते हैं उसके दूसरे पहलू पर। बीज व्यवसायी चाहे देशी हों या इन देशी व्यापारियों की साझेदारी में विदेशी कंपनियां हो, इनका एकमात्र मकसद लाभ कमाना है। अब यह दीगर बात है कि कुछ ही कंपनियां इस लाभ का बड़ा हिस्सा अपनी साख के लिए शोध एवं अनुसंधान पर खर्च करती हैं। जबकि देशी कंपनियों की लम्बी फेहरिश्त में शायद ही कोई ऐसी हो जिसके पास शोध और अनुसंधान के लिए अपनी मूलभूत सुविधाएं हों। उनके कर्मिकों में वैज्ञानिक की नियुक्ति तो बहुत दूर की बात है इन कंपनियों के पास साधारण एम. एससी योग्यता वाला कोई एक आदमी तक नहीं होता, उस पर दावा यह कि जो बीज बेच रहे हैं वह उनकी अपनी शोध का परिणाम हैं। यह बीज विधेयक ऐसी तमाम बीज कंपनियों की दुकान बंद करवा देगा जो अपनी शोध से तैयार बीज नहीं बेचेंगे। यह ठीक है कि मंहगे बीज के बाद अगर फसल न उगे तो किसान का ही नहीं देश का भी नुकसान होता है, नए बिल में बीज के साथ जिस मामूली राशि का प्रावधान है उसके संबंध में मांग यह की जा रही है कि किसान को बीज नहीं उगने पर कुल संभावित उपज की राशि जितना मुआवजा मिलना चाहिए। अच्छा रहे यदि इस मांग में यह बात भी शामिल कर दी जाए कि मुआवजा निजी बड़ी कंपनियों के साथ-साथ सरकारी एजेंसियां और क्षेत्रीय बीज कंपनियां भी दें।
नया प्रस्तावित विधेयक पर एक आरोप यह भी है कि यह नकली एवं घटियां बीज बेचने वालों के प्रति उदार है, उनके लिए मात्र 25 हजार से एक लाख रुपये तक के जुर्माना का प्रावधान है और झूठी सूचनाएं देकर बीज पंजीकृत कराने वालों पर पांच लाख रुपये तक जुर्माना और एक साल तक की सजा का प्रावधान है। इस बात से सभी सहमत हैं कि यह सजा और जुर्माना कम है, बीज जैसे संवेदनशील उत्पाद के लिए जुर्माना चाहे कम हो पर सजा जरूरी और ज्यादा होनी ही चाहिए। देश में आजकल किसी भी बात का विरोध करना एक आम बात हो गई है, कुछ संस्थाओं और तथाकथित समाज सेवकों ने यह धंधा बना लिया उनसे कोई भी प्रायोजित विरोध करवा सकता है। अत: हर प्रस्ताव के साथ विरोध के दोनों पहलू जांचे और निर्णय अपने विवेक पर छोड़ दें।

Thursday, January 26, 2012

क्यों नहीं है जैव प्रौद्योगिकी नियामक प्राधिकरण?

देश में जीन संवर्धित (जेनेटिकली मोडिफाइड या जीएम) फसलों पर वर्षों से होने वाले शोध के नतीजे में अब तक सिर्फ एक ही प्रजाति बीटी कॉटन सामने आई है। सफल परिणाम यानी कम लागत पर अधिक उपज वाली इस तकनीक पर देश भर में सवाल उठते रहे हैं। बीटी बैंगन के जबरदस्त विरोध के बावजूद बीज कंपनियों की नई जीन प्रसंस्कृत फसल लाने की योजना पर बस इतना ही असर हुआ कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से बीटी फसलों के अनुमोदन के लिए एक जिनेटिक इंजीनिअरिंग अप्रूवल कमिटि गठित कर दी गई, जो हर नई किस्म के अनुमोदन से पहले यह सुनिश्चित करती है कि संबंधित किस्म विशेष का खेतों में वास्तविक परीक्षण नियमानुसार हुआ था या नहीं। बीटी मक्का और बीटी टमाटर विकसित हुए अब मोंसांटो माहिको अगले एक साल के भीतर ही व्यावसायिक उत्पादन के लिए बीटी चावल और बीटी भिंडी लाने की योजना बना रही है। कंपनी जून 2012 तक इन परीक्षणों के परिणाम जिनेटिक मैनिपुलेशन के लिए बनी समीक्षा समिति के समक्ष पेश कर देगी जो यह देखती है कि कंपनी ने अपनी शोध और उसके उत्पाद प्रक्रिया में जरूरी दिशानिर्देशों का पालन किया है या नहीं। इसके बाद समिति उस आवेदन को बीटी बैंगन पर विवाद के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित एक जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी के सामने अंतिम फैसले के लिए भेजती है।
सवाल यह है कि इतना महत्त्वपूर्ण मुद्दा जिसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश परमाणु सुरक्षा जितना अहम रणनीतिक मुद्दा कह चुके है, को दो अस्थाई समितियों के हाथ में छोड़ देना सही है? बीटी बैंगन के मामले में साबित हो चुका है कि उसका खेत परीक्षण (फील्ड ट्रायल) सही नहीं हुआ था, कंपनियों द्वारा दिए गए आंकड़ों से पता चला कि देश के 20 फीसदी बैगन पैदा करने वाले उड़ीसा राज्य में तो फील्ड ट्रायल सिरे से हुए ही नहीं। जयराम रमेश तो यहां तक कहते हैं कि इस तरह हमारी सारी सब्जियों के बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में चले जाएंगे। चूंकि परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान की तर्ज पर बीजों की हिफाजत भी एक रणनीतिक मसला है, इसलिए जीएम फसलों के लिए दरवाजे खोलने से पहले सुरक्षा इंतजाम बहुत जरूरी हैं।
बीटी कॉटन औद्योगिक उत्पाद है लेकिन बैगन, भिंडी, टमाटर तथा अन्य सब्जियां तथा चावल आधे भारत में रोज खायी जाने वाली मुख्य फसल है। इन सभी पर फैसला जैव प्रौद्योगिकी से तैयार उत्पादों की मार्केटिंग करने वाली सरकारी संस्था के हाथों में कैसे छोड़ा जा सकता है? यह सही है कि बीटी काटन के आने के बाद दुनिया के कपास उत्पादन में भारत तीसरे स्थान से दूसरे स्थान पर आ गया है। शायद आप जानते हों कि बीटी कॉटन के 90 फीसदी बीज एक कंपनी के कब्जे में हैं, वह जब चाहे हमें दूसरे स्थान से नीचे धकेल सकती है। इसलिए याद रखना जरूरी है कि देश और किसान दोनों के हित में जीएम फसलों को लेकर एक बड़े नीतिगत बदलाव की जरूरत है। हालांकि जैव प्रौद्योगिकी नियामक प्राधिकरण पर बात तो पिछले छ: साल से हो रही है, लेकिन पता नहीं यह किन कारणों से संभव नहीं हो पा रहा है। जब बीमा, दूरसंचार और शेयर आदि के लिए देश में नियामक प्राधिकरण हैं तो जीएम फसलों के लिए इसका नहीं होना, संशय जरूर पैदा करता है। क्या वास्तव में दाल में कुछ काला है?

Monday, January 23, 2012

मनरेगा: क्या अभिशाप है?

नरमे कपास की चुगाई के ठण्डे मौसम में मजदूरों की किल्लत और बढ़ती चुगाई लागत के बारे में सोचकर ही किसान को पसीना आने लगता है। इसका एक मुख्य कारण माना गया है महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को। ऐसा नहीं है कि यह अकेले किसानों की ही शिकायत है, उद्योग जगत भी उतना ही हलकान है। इन दोनों का ही मानना है कि यह खतरे की घंटी है जो मुनाफे को लगातार घटा रही है। कल तक गांव में मजदूर 80 से 100 रूपए में आसानी से मिल जाते थे वो अब 200 से 250 रूपए में भी नहीं मिलते। ग्रामीण क्षेत्र में ऊंची मजदूरी दरों का मतलब है निर्माण कार्यों, कारखानों और अन्य कामों के लिए सस्ती श्रम शक्ति का अभाव।
यह है मनरेगा का एक पहलू, इस सिक्के का दूसरा पहलू देखने से पहले एक नजर मनरेगा के मुख्य मकसद की ओर। सूखा प्रभावित और वर्षा आधारित खेती क्षेत्रों में आमतौर पर 4 से 6 महीनों तक कोई काम नहीं होता है। खेती में खाली समय के दौरान ग्रामीण मजूदरों के पास कोई रोजगार नहीं होता या फिर जो काम मिलता उसमें पर्याप्त मजदूरी नहीं मिलती। इसलिए ये लोग वैकल्पिक रोजगार की तलाश में नजदीक के शहरों का रुख करते हैं। रोजगार गारंटी योजना से इन मजदूरों को खेती में खाली समय के दौरान गांव में ही रोजगार उपलब्ध होने लगा और उन्हें काम की तलाश में अस्थायी रूप से शहरों में डेरा भी नहीं डालना पड़ाता। जबसे मनरेगा ने न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित की है तब से मजदूर कम मजदूरी पर काम करने की बजाय मनरेगा से जुडऩा ज्यादा पसंद करने लगे हैं। हालांकि रोजगार गारंटी योजना न्यूनतम मजदूरी से ज्यादा कुछ और नहीं देती, और रोजगार केवल 100 दिनों के लिए मिलता है न कि साल के 365 दिनों के लिए। देश में साल भर खेती केवल उन्हीं इलाकों में होती है जो सिंचित है। इन क्षेत्रों में श्रम भी सस्ता उपलब्ध होता है क्योंकि वर्षा पर निर्भर इलाकों के मजूदर यहां काम के लिए आते हैं। मनरेगा ने यह तस्वीर भी बदल दी है, अब सूखे के दौरान यहां के मजदूर भी सिंचित क्षेत्रों की ओर रुख नहीं करते। इस वजह से सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में खेतीहर मजदूरी की दरें बढ़ी है। रोजगार गारंटी योजना मजदूरी की दरों को बहुत ऊपर ला दिया है, अब खेतीहर मजदूर भी काम निश्चित घंटों और दो समय की चाय व दोहपहर के खाने छूट्टी की बात करने लगा है। ये दबाव इसलिए बना है क्योंकि कानून ने एक आधार तैयार कर दिया है। मजदूरी दरें बढऩे से एक ओर खेती की लागत बढ़ गई और दूसरी ओर कल-कारखानों में बनने वाले सामान भी मंहगे हुए हैं।
अब बात करते हैं मनरेगा से लाभ क्या हुआ है और इसमें फैले भ्रष्टाचार का इतना हल्ला क्यों है? पहले उन लोगों की बात करें जो रोजगार गारंटी योजना का विरोध करते हैं तो यह तर्क देते हैं कि इसमें भ्रष्टाचार का बोलबाला है और गरीबों तक यह योजना नहीं पहुंच पा रही है, यदि पहुंच भी रही है तो उन्हें उनका पूरा हक नहीं मिल रहा है। इसके जवाब में एक ही बात कही जा सकती है कि हमें हर अच्छी योजना में भ्रष्टाचार का रास्ता निकाल लेने में महारथ हासिल है। कोई यह बात क्यों नहीं कह रहा कि पिछले कुछ अरसे में मजदूरी दर की तुलना में प्रबंधकों को मिलने वाली राशि कई गुना बढ़ी है? वास्तव में जो लोग भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं और बढ़ी हुई मजदूरी दरों के लिए मनरेगा को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, क्या उनकी नजर में मंहगाई सिर्फ उच्च वर्ग के लिए ही बढ़ी है? क्यों हर बार मजदूरी बढ़ाने के लिए सरकार को आगे आना पड़ता है? क्यों हर बार हड़ताल का सहारा लेना पड़ता है? अहम सवाल यह है कि क्या हम मनरेगा से पहले न्यूनतम मजदूरी दर की शर्तों को पूरा कर रहे थे? आखिर 100 दिन की न्यूनतम रोजगार गारंटी योजना कैसे शेष 265 दिनों की मजदूरी दरों को प्रभावित कर सकती है, यह तभी हो सकता है जब मजदूरों में काम करने की इच्छा ही न हो और वे उन्हीं 100 दिनों की कुल कमाई 11 हजार 900 रूपयों से ही खुश हों, जिसका कुछ हिस्सा तथाकथित भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। या दूसरे शब्दों में कहें तो मजदूर अपनी मुफलिसी में ही खुश हैं इस बात की ताईद करते हैं जो हम सदियों से सुनते आए हैं कि गरीब इसलिए गरीब हैं क्योंकि वे काम नहीं करना चाहते। पिछले कुछ महीनों में मजदूरी की दरों में जबरदस्त उछाल आया है, यह उन लोगों की सोच पर सवाल है जो मनरेगा और बढ़ती मजूदरी दरों में प्रत्यक्ष संबंध देखते हैं। वास्तव में हमे प्रसन्न होना चाहिए कि हालिया महीनों में मजदूरी की दर खाद्य मुद्रास्फीति की तुलना में ज्यादा बढ़ी है। आखिरकार ऐसे बदलाओं से ही हम गरीबी से निजात पाने की उम्मीद कर सकते हैं।

Friday, January 20, 2012

गुड़ से महंगे गुलगुले

एक खबर के अनुसार घरेलू और निर्यात मांग में कमी तथा भारी कर्ज के बोझ तले दबे कपड़ा उद्योग को 2011 के दौरान कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। साल की शुरूआत ही मुश्किलों से हुई, जनवरी में कपास की कीमत घरेलू बाजार में 65,000 रुपये प्रति कैंडी (356 किलो) पर पहुंच गई। इसके बाद धागे के निर्यात पर लगे प्रतिबंध से इसके निर्यात पर निर्भर इकाइयों के पास भंडार इतना बढ़ गया कि उनकी वित्तीय मुश्किलें बढ़ गई। श्रम मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस उद्योग में 3.5 करोड़ लोग काम करते हैं और इस संकट की वजह से साल 2011 की पहली तिमाही के दौरान 1.23 लाख कामगारों को और पूरे साल भर में 2.23 लाख लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा। इस से भी बुरी खबर यह थी कि देश में सब तरह के कपड़ों के दाम यहां तक बढ़ गए कि 30 से 40 रूपए में बिकने वाले अंडरवीयर-बनियान 75 से 90 रूपए के हो गए।
अब एक नजर सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं। पिछले साल कपास बिकी थी औसत 6000 रूपए प्रति क्विंटल यानी 60 रूपए किलो और कपड़ा मिलों ने रूई खरीदी 180 से 185 रूपए किलो। सोचना पड़ता है कि किसान से कारखाना मालिकों तक आते-आते ऐसा क्या हुआ कि भाव एकदम तीन गुणा हो गए? क्या आढ़तियों और बिचौलियों का लाभ इतना ज्यादा है? सच्चाई जानने के लिए एकबार यह हिसाब-किताब भी करके देख लेते हैं- सौ किलो कपास में कचरा और छीजत होती है औसतन 5 प्रतिशत, रूई निकलती है औसत 33 किलो और बिनौला का औसत बैठता है 62 किलो। अगर 62 किलो बिनौलों को 17 रूपए किलो के हिसाब से 1054 रूपए में बेच दिया जाए तो बची हुई 33 किलो रूई की कीमत रह जाएगी 4646 रूपए, यानी करीब 141 रूपए किलो। अब इसमें जोड़ते हैं मजदूरी, ढुलाई, भाड़ा, प्रसंस्करण खर्च और जिनर का लाभ आदि सब मिलाकर लगभग 25 प्रतिशत के हिसाब से 35 रूपए जो कुलमिला कर हो गया 175  रूपए किलो। हमारे तथाकथित किसान हितैषी अर्थशास्त्री अक्सर किसानों को यह कह कर वरगलाते हैं कि, जब आपने बिनौलों सहित कपास बेची तो 60 रूपए किलो और रजाई भरवाने के लिए 5 किलो वापिस खरीदी तो भाव 200 रूपए किलो, यह आप पर जुल्म है, यह सरासर नाइंसाफी क्या लूट है।
बहरहाल, उपरोक्त गणित से आपकी समझ में आ गया होगा कि कैसे 60 रूपए किलो वाली कपास तीन गुणा कीमती कैसे हो जाती है। अब एक अहम बात रह जाती है कि कपास का भाव बढऩे पर उससे बनने वाली हर वस्तु के भाव दो से चार गुणा तक बढ़ जाते हैं, पर जब कपास के भाव गिर जाते हैं तो उन वस्तुओं के भाव वहीं अटके रह जाते हैं, एक रूपया भी नीचे नहीं आते। आपने देखा ही होगा कि गत वर्ष के मुकाबले कपास के भाव तो 45 प्रतिशत तक कम हो गए, पर कपड़े और अंडरवीयर-बनियान के भाव आज भी वहीं है, दस प्रतिशत भी कम नहीं हुए। क्या यह लूट अकेले किसानों के साथ ही हो रही है? क्या देश की बाकी जनता को यह सामान सस्ता मिलता है? किसानों उनकी उपज का अच्छा भाव मिले इससे किसी को भी एतराज नहीं हो सकता, सरकार इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी तय करती है, पर किसान की उसी उपज से बनने वाले सामान की कीमत पर नियंत्रण का काम क्या सरकार का नहीं है?

Thursday, January 19, 2012

अब रंग-बिरंगी कपास

कपास की तरह सफेद का मुहावरा अब बदल कर रंग-बिरंगा होने जा रहा है। अब वह दिन दूर नहीं कि जब कपास हरी, भूरी, बैंगनी और न जाने कौन-कौन से रंग की हो जाएगी। देश में कर्नाटक के धारवाड़ में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसिज (यूएएस) और तमिलनाडु एग्रीकल्चरल यूनीवर्सिटी दोनों ही रंगीन कपास उगाने की योजनाओं पर काम रही है। यूएएस इस वक्त खादी और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआइसी) के रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम कर रही है ताकि कपास को कई रंगों में तैयार किया जा सके। मौजूदा वक्त में यह केवल हरे और भूरे रंगों में ही उपलब्ध है। हालांकि यूएएस के प्रधान वैज्ञानिक (कपास) बी एम खादी के मुताबिक, इस समय कपास हरे रंग में छ: और भूरे रंग की करीब 22 प्रजातियां तैयार की जा सकती हैं। खादी के अनुसार कपास की 50 किस्में मौजूद हैं, इनमें पांच-छह ऐसी जंगली प्रजातियां हैं, जिनमें ऐसे रंग तत्व पाए जाते हैं, जिन्हें आनुवांशिक तौर पर सफेद कपास बीज में बदला जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि रंगीन कपास पहली बार पैदा की जा रही है, दरअसल यह पहले से मौजूद हैं। बस, बेहतर गुणवत्ता न होने से इसे इस्तेमाल योग्य नहीं माना गया। अमेरिकी वेरेसीज लिमिटेड के मालिक सैली फॉक्स ने पहली बार साल 1989 में प्राकृतिक तौर पर रंगीन कपास 'फॉक्सफाइबर' उगाया था। फॉक्स ने रंगीन कपास के जरिए 90 के दशक में 10 अरब डॉलर का कारोबार खड़ा किया था। चीन में रंगीन कपास की खेती 1997 में शुरू हुई। वर्तमान में सिनच्यांग वेवुर स्वायत्त प्रदेश, हुपेई और शानतुंग जैसे प्रांतों में किसान रंगीन कपास उत्पादित कर रहे हैं। चीनी टेक्सटाइल उद्योग महासंघ, निदेशक के अनुसार चीन विश्व में रंगीन कपास का सबसे बड़ा उत्पादक बन चुका है। यहां रंगीन कपास का उत्पादन विश्व में रंगीन कपास के सकल उत्पादन का एक तिहाई है। चीन में उत्पादित रंगीन कपास की गुणवत्ता विश्व के उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। चीनी रंगीन कपास समूह के अनुसार दुनिया में रंगीन कपास का उत्पादन उतना ज्यादा नहीं है, जितना लोगों की मांग पूरी हो सके। इसलिए रंगीन कपास वाली वस्तुओं की कीमत बहुत महंगी है।
पर्यावरण संरक्षण की प्रक्रिया में हरित वस्तुओं के उपभोग की इधर एक नई शैली बनी है। इस के प्रभाव में आ कर रंगीन कपास की खेती और टेक्सटाइल का एक नया व्यवसाय शुरू हुआ है। प्राकृतिक तौर पर रंगीन कपास को वातावरण के लिए खतरनाक सिंथेटिक रंगीन कपड़े के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। केवीआइसी को भरोसा है कि प्राकृतिक रंग वाली कपास को उपभोक्ताओं का बेहतर समर्थन मिलेगा। कपास वैज्ञानिक बी एम खादी कहते हैं, रसायनिक रंगों से कपास को रंगना न केवल त्वचा के लिए हानिकारक है बल्कि इससे प्रदूषण भी फैलता है। इस पर काफी रकम खर्च होती है साथ ही इस प्रक्रिया में पानी का भी बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है। टीएनएयू के कुलपति मुरुगेसा भूपति ने कहा कि तिरुपुर में रंजक कारखानों (डाइंग फैक्ट्रियों) के कारण होने वाला प्रदूषण एक गंभीर समस्या है। इससे निजात पाने के लिए कलर कॉटन एक बेहतर विकल्प हो सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसिज ने बैंगनी कपास को पैदा करने पर भी काम शुरू कर दिया है। हालांकि जैविक कपास की खेती में बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं लेकिन जब तक किसानों को इसकी ऊंची कीमत नहीं मिलेंगी, तब तक इसे सफलता नहीं मिल सकती। जैविक कपास की पैदावार 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेअर के आसपास रहती है। इस वजह से क्षेत्र के किसान प्राकृतिक रूप से रंगीन कपास को उगाने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहे हैं और इस समस्या से आने वाले वक्त में केवीआईसी और यूएएस कैसे निपटेगें, यह तो समय ही बताएगा।

Tuesday, January 17, 2012

बीटी कपास के दस वर्ष


कपास की खेती मानव सभ्यता के इतिहास में सात हजार सालों से होती आई है, लेकिन इसमें पिछली सदी के अंतिम दशक में एक नया अध्याय तब लिखा गया जब महाराष्ट्र स्थित माहिको हायब्रिड सीड कंपनी और अमेरिकन कंपनी मोनसेंटो से साझेदारी की। सन 1999 में मोनसेंटो बीटी कॉटन लेकर भारत आई। भारत में पहले से मौजूद कई संकर किस्मों से बीटी कपास का बीज तैयार किया गया। माहिको ने बीटी का छोटे पैमाने पर पहला खेत परीक्षण 1999 में किया और 2000 में बड़े स्तर पर। विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय द्वारा डॉ. तुली के नेतृत्व में नैशनल बॅटैनिकॅल रिसर्च इंस्टीट्यूट को विषय शोध करने के लिए 5 करोड़ रुपये का कोष भी मुहैया करवाया गया। जिस पर सरकार के  खर्च हो हुए, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। मोनसेंटो भी इस तकनीक पर 1990 तक दो करोड़ रुपये खर्च कर चुकी थी। आखिर में तमाम असहमतियों के बावजूद जीईएसी (जिनेटिक इंजीनिअरिंग अप्रूवल कमेटी) द्वारा 2002 में हरी झंडी दे दी गई।
उस समय इसकी अनगिनत खूबियां गिनवाई गईं थी जैसे- इसकी खेती लागत सामान्य कपास के मुकाबले आधी होगी और उपज दोगुनी। कीटनाशकों पर होने वाला खर्च भी नाममात्र ही रह जाएगा। जमीनी हकीकत किसान जानता है या बीटी बीज बनाने-बेचने वाली कंपनियां। हालांकि जो वायदे किए गए और फायदे गिनाए गए, आज उनमें अंतर आ रहा है। अंग्रेजी पत्रिका 'फ्रंटलाइन' में प्रकाशित एक लेख में दिए गए आंकड़े कहते हैं- वर्ष 2007 में जहां बीटी कपास का उत्पादन 560 किलो प्रति हेक्टेअर होता था, वह 2009 में घटकर 512 किलो रह गया। वर्ष 2002 में बीटी कपास के उत्पादन पर देशभर में कीटनाशकों का उपयोग 597 करोड़ रुपये का था, वह भी बढ़कर 2009 में 791 करोड़ रुपये सालाना हो गया। अब यह बहस का विषय हो सकता है कि लोहा कितना खोटा है और लोहार कितना। फिलहाल कुछ बातें बीटी के बारे में-
क्या है बीटी कपास?
हालांकि इन दस सालों में आप जान गए होंगे कि बीटी क्या है, फिर भी दोहरा लेते हैं। दरअसल, इस कपास को मिट्टी में पाए जाने वाले जीवाणु बैसिलस थुरिजैन्सिस (जिसके पहले अंग्रेजी बी और टी हैं।)से जीन निकालकर तैयार किया है। मोनसेंटो ने अपने पहले प्रयोग बोलगार्ड-1 में एक ही जीन डाला जिससे अमेरिकन सुंडी, पिंक और स्पोटेड बॉलवर्म की प्रतिरोधी क्षमता विकसित हुई जो मात्र 120 दिन तक ही असरदार थी। उसके बाद ये कीड़े फसल को नुकसान पहुंचा सकते थे। बाद में इसमें दो जीन डालकर बोलगार्ड-2 विकसित किया गया जो इन तीन कीड़ों के साथ-साथ तम्बाकू लट का भी प्रतिरोधी बनाया गया तथा समय भी 120 दिन से बढ़ा कर 150 से 160 दिन हो गया। अब बोलगार्ड-3 का अभी खेत परीक्षण चल रहा है, संभवत: इस साल के अंत तक यह बीज भी बाजार में आ जाएगा।
बीटी कितना सस्ता?
बीजी-1 के 450 ग्राम बीज पैकेट की कीमत है 750-850 रुपये और बीजी-2 की कीमत प्रति पैकेट 950-1,050 रुपये है। एक एकड़ जमीन के लिए कम-से-कम तीन पैकेट बीज यानी औसतन 2400 से 3000 रूपए की जरूरत प्रति एकड़ पड़ती है। कोढ़ में खाज यह है कि हर साल कालाबाजारी में यह 1700 से 2,500 रुपये प्रति पैकेट तक खुलेआम बिकता है। कंपनी और सरकार के कम लागत के दावे पता नहीं क्या हुए? इसके साथ एक अबूझ पहेली यह भी है कि गुजरात में यही बीज शेष भारत से आधी कीमत पर बिकते हैं। पड़ौसी राज्यों के किसान सस्ते के लालच में गुजरात से बीज खरीदना पंसद करते हैं। इस कालाबाजारी में एक और ठगी भी होती है नकली बीज की। गुजरात में हर कंपनी का बीटी बीज जितना चाहिए उतना नकली आसानी से मिल जाता है।
इसके पक्ष में एक और दावा किया गया था कि इस पर कीटनाशक साधारण कपास के मुकाबले बहुत कम डाला जाता है पर एक किसान एक मौसम में 7-8 बार रसायन का छिड़काव करते हैं जिसकी लागत प्रति एकड़ तीन-चार हजार रुपये पड़ती है। आंकड़ों के अनुसार भारत में सभी फसलों के लिए कुल 28 अरब रुपये के कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है, जिसमें केवल कपास की खेती के लिए 16 अरब रुपये के कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है।
बीटी कितना कीट प्रतिरोधी?
अभी तक भारत में कपास के बीज में बीटी जीन ही डाला गया है। इससे कपास की किस्में अमेरिकन सुंडी रोधी हो गई। पहले इस सुंडी को रोकने के लिए किसानों को कीटनाशी दवा के 10 से 12 छिड़काव करने पड़ते थे, जो अब रसचूसक कीड़ों को रोकने के लिए 2 से 3 ही करने पड़ते हैं। ज्ञात रहे बीटी जनित किस्में अमेरिकन सुंडी, चितकबरी लट और तम्बाकू लट रोधी होती हैं, इसलिए भारत के कुछ हिस्सों में इस बीटी बीज से उत्पन्न फसल पर कीट हमले के समाचार सुने जाते रहे हैं। हालांकि बीटी कपास की खेती भारत की अन्य सभी फसलों की खेती के पांच प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में होती है, लेकिन कीटनाशकों का उपयोग इस पर 55 प्रतिशत से भी ज्यादा होता है।
मोनसेंटो इसकी वजह 'रिफ्यूजिआ-सीड' यानी भारत में तैयार किए गए बीजों के उपयोग को मानती है, जो बीटी किस्मों के चारों तरफ तीन-चार पंक्तियों में लगाया जाता है। कंपनी का कहना है कि ज्यादातर किसान बीटी बीजों के साथ मिलने वाले नॉनबीटी रिफ्यूजिआ-बीजों को नहीं लगाते, इसमें कीटों की प्रतिरोधी क्षमता विकसित होना बहुत स्वाभाविक और उम्मीद के अनुरूप है। उनका तर्क है कि चूंकि क्राई वेन प्रोटीन एक शुरूआती जिनेटिक फसल है जो अभी थोड़ी अविकसित किस्म है इसलिए ऐसा होना लाजिमी है। मोनसेंटो ने किसानों को यह सलाह भी दी है कि जरूरत के हिसाब से रसायनों का इस्तेमाल किया जाए और कटाई के बाद खेत में अवशेषों और जो अनखुली गांठों और टिंडों का ठीक से प्रबंधन किया जाए। बोलगार्ड-2 के बारे में कंपनी का कहना है कि इस किस्म में हम वांछित कीट के प्रभाव को 150 से 160 दिनों तक ही रोक सकते हैं।
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का इस रवैये पर कहना है कि मोंनसेंटो ने अपने व्यापार का यही माडल दुनियाभर में अपना रखा है। जब पहला बीज असफल हो जाता है तब ये उसकी जगह लाए दूसरे बीज को बढ़ावा देने के साथ किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल की सलाह भी देने लगते हैं। 'खेती विरासत' संगठन की कविता करुंगति भी देविंदर शर्मा  से सहमत है, उनके मुताबिक अब प्रत्येक नई बीटी प्रजाति को अपनाने से पहले हर पहलू पर ध्यान देना जरूरी है। कृषि अर्थशास्त्री के. जयराम ने वर्ष 2007 में पंजाब के मालवा क्षेत्रों के कई गांवों के दौरे के बाद एक वेबसाइट 'काउंटर करेंट्स' पर 'बीटी कॉटन एंड इकॅनॉमिक ड्रेन इन पंजाब' नामक लिखे एक लेख के अनुसार- 2007 में पंजाब के कुल 12,729 गांवों में 10,249 उवर्रक वितरक एजेंसियां थीं। जो एक मौसम में 10 हजार लीटर तक कीटनाशक औसतन 300 रूपए प्रति लीटर तक बेच लेती थी, यानी 30 लाख रूपए प्रति मौसम।
 बीटी कपास का रकबा और किस्में
अभी भारत के कुल 9 राज्यों- पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में बीटी कपास की खेती होती है। सन 2002-03 में जहां बीटी का क्षेत्रफल मात्र 0.29 लाख हेक्टेअर था जो कुल कपास के 73.90 लाख हेक्टेअर का मात्र 0.39 प्रतिशत ही था वह 2010-11 में बढ़कर 95.50 लाख हेक्टेअर हो गया जो कुल रकबे 111.61 का 85.57 प्रतिशत है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि 2002 में जहां बीटी जनित संकर किस्मों का संख्या मात्र 2 थी वो 2011 आते-आते बढ़कर 1090 हो गई।
बीटी जनित संकर किस्में केवल निजी कंपनियां ही विकसित कर बाज़ार में मंहगे भाव से बेच रही हैं, यह बीज दोबारा बोया जाए तो उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। किसान को अच्छी उपज के लिए हर बार नया बीज लेना ही पड़ता है, अत: कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि अनुसंधान केंद्रों के वैज्ञानिकों को इस विषय में नई किस्में विकसित करनी चाहिए, ताकि किसानों को उचित भाव पर बीज मिल सकें। सवाल यह है कि इन दस वर्षों में बीटी ने तो अपना कृषि रकबा तो आठ सौ प्रतिशत बढ़ा लिया है पर हमने क्या किया?
सेवानिवृत वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आर.पी. भारद्वाज और कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा से बातचीत पर आधारित।

Monday, January 16, 2012

टीएमसी सम्भला नहीं, और चाहिए टैक्सटाइल पार्क

विगत दिनों गंगानगर के व्यापारी और उद्योगपति एकजुट हो कर क्षेत्र के लिए टैक्सटाइल पार्क की मांग कर रहे थे। राज्य और केंद्र सरकार को बहुत सारी संस्थाओं ने पत्र भी लिखे। उसी समय एक सरकारी योजना के बारे में जानकारी मिली- कपास प्रौद्योगिकी मिशन। इस मिशन का टैक्सटाइल पार्क से क्या संबंध है, जानने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि क्या थी कपास प्रौद्योगिकी मिशन योजना?
फरवरी, 2000 में कपास प्रौद्योगिकी मिशन की स्थापना कपास में गुणवत्ता में सुधार के साथ उत्पादकता में वृद्धि लाने के साथ-साथ कपास उत्पादकों की आय में वृद्धि, वस्त्रोद्योग और जिनिंग प्रेसिंग मिलों का कायाकल्प तथा मंडियों में भी आधारभूत परिर्वतन करना था। भारत सरकार ने अरबों रूपए वाली इस योजना की जि़म्मेदारी के लिए कपास प्रौद्योगिकी मिशन का अलग विभाग बनाया और सहयोग के लिए कॉटन कारपोरेशन को साथ जोड़ा। इस कार्यक्रम की अधिकांश गतिविधियाँ मिनी मिशन-1 से 4 के अधीन संचालित की गयी।
यहां के व्यापारियों द्वारा टैक्सटाइल पार्क की मांग करते समय बार-बार यह दावा किया कि इस गया कि इस परियोजना के लिए गंगानगर से बेहतर दुनिया में और कोई दूसरा स्थान नहीं है। इस दावे में कितनी पोल है जानने के लिए यह जानना भी ज़रूरी है कि टेक्रानॉलॉजी मिशन इन कॉटन (टीएमसी) के साथ क्या सलूक किया गया?
मिनी मिशन-1 : इसके लिए नोडल एजेंसी थी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) और इसका उद्देश्य था- कम अवधि में अधिक उपजवाली, रोग एवं कीट प्रतिरोधी किस्मों का विकास करना, जिसका रेशा (फाइबर) वस्त्रोद्योग के मानदंड पर खरा उतरता हो। कपास खेती के लिए सघनित जल और पोषक तत्वों का प्रबंध तथा विभिन्न कपास उत्पादक राज्यों में कीट प्रबंधन प्रौद्योगिका का विकास करना और खेती की लागत घटाना जैसे महत्त्वपूर्ण करना।
मिनी मिशन-2  :
नोडल एजेंसी कृषि और सहकारिता मंत्रालय और भारतीय कपास निगम, उद्देश्य था- प्रदर्शन और प्रशिक्षण द्वारा प्रौद्योगिकी का अंतरण। डीलिंटिंग इकाइयाँ स्थापित करना और उनके लिए प्रमाणित बीजों का आपूर्ति। किसानों को आवधिक रूप से पर्याप्त और समय पर जानकारी उपलब्ध करवाना।
मिनी मिशन-3 : इस मिनी मिशन के लिए वस्त्र मंत्रालय और भारतीय कपास निगम नोडल एजेंसी है और उद्देश्य है - नए मंडियों की स्थापना और मौजूदा मंडियों में सुधार।
मिनी मिशन-4  :
इस मिनी मिशन के लिए वस्त्र मंत्रालय नोडल एजेंसी और उद्देश्य हैं- वर्तमान जिनिंग और प्रेसिंग फैक्टरियों का उच्च तकनीकी आधुनिकीकरण करना कपास संसाधन में सुधार हो सके।
यहां हम आज बात करेंगे मिशन-3 की जिसमें करोडों रूपए खर्च कर आजादी के बाद पहली बार मंडी में आधुनिकतम सुविधाएं जुटाई गई, जैसे किसान सूचना केंद्र की स्थापना करना जिसमें किसानों को मृदा, जलवायु स्थितियों, वर्षा, बीजों की उपयुक्तता, उपज प्रबंधन, तकनीकी सलाह, विशेष और निकटस्थ मंडियों पर बाजार जानकारी, देश के अन्य राज्यों के साथ-साथ विश्व भावों की जानकारी, राज्य/केंद्र सरकार की नीतियाँ, ऋण का तरीका और स्त्रोत, स्थानीय भाषाओं में बीमा योजना और उपज संबंधित जानकारी देने के लिए निगम ने देश की 95 मंडियों में अति-आधुनिक सूचना केंद्र स्थापित किए, जिनमें टच स्क्रीन कियोस्क, डिजिटल डिसप्ले बोर्ड, टेलीविजन, कम्प्युटर और प्रिंटर, इंटरनेट तथा टेलीफोन के साथ-साथ इंटरएक्टिव वॉईस रिसपोंस सिस्टम (आइवीआरएस) सुविधाओं से युक्त हैं।
इसके साथ कपास के लिए एक प्रयोगशाला जिसमें अति-आधुनिक जांच के लिए एचवीआई, नमी जांच यंत्र, ट्रेस स्परेटर जैसी मशीने लगाई गई। इन मशीनों से थोड़ी मात्रा में बिनौले अलग करना, कपास में पत्ते, मिट्टी, गंदगी अलग करना और नमी की जांच, रेशे की लम्बाई और गुणवत्ता आदि की जांच किसानों के लिए नि:शुल्क उपलब्ध है। मंडी में ही बड़े और छोटे इलैक्ट्रॉनिक तौल कांटे और आग लगने की स्थिति में आग बुझाने के यंत्र भी लगाए गए। इतना ही नहीं भंडारण के लिए गोदाम, पक्की सड़कें, पक्के फर्श, पार्किंग सुविधा, ठहरने के लिए विश्रामगृह और सस्ता सुलभ भोजन जैसी और भी बहुत सारी सुविधाओं का भी प्रंबंध किया गया।
इस योजना के तहत देश भर में 1 लाख 16 हजार 8 सौ करोड़ तथा गंगानगर हनुमानगढ़ की 11 मंडियों पर लगभग 1 हजार 7 सौ करोड़ रूपए खर्च किए जा चुके हैं। इतना खर्च करने के बाद भी उत्तर भारत की 95 प्रतिशत मंडियों में किसान सूचना केंद्र और प्रयोगशाला के लिए दिए गए तमाम उपकरण जस के तस पड़े हैं। उदाहरण के लिए गंगानगर की मंडी में ये सारे उपकरण एक कमरे में बंद करके रखने की वजह जब मंडी सचिव टीआर मीणा से जाननी चाही तो उनका जवाब था-''ये तमाम उपकरण सन 2002 से ही बंद पड़े हैं और मेरी नियुक्ति 2010 में हुई है। मैं देखूंगा कि ये अगर अब भी चलने की स्थिति में हैं तो जल्द से जल्द शुरू करवा दिए जाएंगे।'' मंडी से सीधे जुड़े और कपास के प्रमुख व्यापारी मंडी समिति के पूर्व अध्यक्ष परमजीत समरा, दी गंगानगर ट्रेडर्स एसोशिएशन के अध्यक्ष संजय महीपाल, जिला कच्चा आढ़तिया संघ के अध्यक्ष हनुमान गोयल, गंगानगर कच्चा आढ़तिया संघ के अध्यक्ष चन्द्रेश जैन और मंडी की वर्तमान अध्यक्षा श्रीमती रमनदीप कौर और उपाध्यक्ष राजेश पोकरण का समवेत सुरों में कहना है कि ''हमें इस बारे में कुछ भी पता नहीं। अगर ऐसे उपकरण मंडी कार्यालय में पडे हैं तो उन्हें तुरंत आरंभ करवाएंगे।''
अध्यक्ष श्रीमती रमनदीप कौर ने तो इससे एक कदम आगे की योजना को साथ जोड़ा और कहा कि ''पहले का मुझे पता नहीं पर अब हम कपास के साथ-साथ सरसों और मिट्टी जांच की प्रयोग भी शुरू करवा देंगे। '' इसी योजना में देश भर के कुल 372 जिनिंग और प्रेसिंग कारखानों नें यह प्रस्ताव स्वीकार किया। जिनमें हरियाण में किसी ने नहीं, राजस्थान के 1 तथा पंजाब के 5 कारखानों ने इस सुविधा को स्वीकारा जबकि महाराष्ट्र में 196 तथा गुजरात में 139 कारखानों ने इसका लाभ उठाया।
इस बारे में गंगानगर के बड़े कारखाना मालिकों के जवाब भी सुनलें। चितलांगिया कॉटन फैक्ट्री के आदित्य चितलांगिया के अनुसार- ''जरूरत ही नहीं थी, हमारे पास पहले से ही स्थानीय उत्पादन के हिसाब से मशीनें व सुविधाएं पर्याप्त हैं।"  ए एंड ए स्पिनर्स के सतीश कांडा कहते हैं- ''एक तो क्षेत्र में जागरूकता ही कम है दूसरे यहां की सभी बड़ी मिलें ठेके पर चल रही हैं, इसलिए जरूरत ही महसूस नहीं हुई।"
ऐसा नहीं है कि टीएमसी मिशन 1, 2 और 4 को उत्तर भारत ने सिर-आंखों पर लिया है। वहां भी ऐसे ही और इससे भी बदतर हालात मिलेंगे। सरकार ने इस महती योजना पर 2 लाख करोड़ से ज्यादा खर्च कर दिए और इतने ही और भी कर सकती थी पर कोई लेने वाला ही नहीं, या जिसने ले लिए उसने इस्तेमाल ही नहीं किए।
सवाल यह है कि जब सरकार किसी योजना में करोडों रूपए खर्च करने के लिए देती है तो हमसे खर्च नहीं होते, अगर उन रूपयों से मशीन और उपकरण खरीद कर देदे तो हम से संभाले नहीं जाते, तब हम किस मुहं से 7500 करोड़ की परियोजना के लिए जि़द्द कर सकते हैं? ऐसा नहीं है कि इसके लिए कोई एक राजनैतिक पार्टी, व्यापारियों का एक वर्ग विशेष या फिर सरकारी कर्मचारी दोषी हैं। दरअसल इस तरह की नाकामी के लिए ये सभी जि़म्मेदार हैं।
केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि टीएमसी के लिए 12वीं योजना में गुजरात, महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश के लिए कुछ सहायता राशि का प्रावधान रखा है, जबकि राजस्थान, पंजाब, हरियाणा शेष राज्यों के लिए इसे बंद किया जा रहा है।  स्वभाविक ही है जो राज्य योजना के रहते कोई लाभ नहीं ले सके उनके लिए इसका जारी रखा जाना ज़रूरी भी नहीं।
इस विषय में जब राजस्थान सरकार के कृषि विपणन राज्य मंत्री गुरमीतसिंह कुन्नर से पूछा गया तो उनका कहना था कि मैं इस विषय में पूरी जानकारी के बाद ही कुछ कह पाऊँगा।

Friday, January 13, 2012

कपास का लगातार घटता उत्पादन

आस्ट्रेलिया, ग्रीस, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के बाद मुंबई में, इंटरनैशनल कॉटन एडवाइजरी कमेटी वाशिंगटन, इंडियन सोसायटी फोर कॉटन इंप्रूवमेंट और इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च (आइसीएआर) के संयुक्त तत्वावधान में 7 से 11 नवंबर तक चली पांचवीं वल्र्ड कॉटन कॉन्फ्रेंस में 131 देशों के 125 विशेषज्ञों सहित करीब 700 लोगों ने भाग लिया 
कॉन्फ्रेंस में शामिल सभी विशेषज्ञों ने माना कि देश कपास के उत्पादन में पिछड़ रहा है। सीआइसीआर (सेंट्रल इंस्ट्यिूट  फॉर कॉटन रिर्सच) के अध्यक्ष डॉ. दिलीप मोंगा ने बताया कि विश्व का प्रति हेक्टेअर औसत कपास उत्पादन 750 किलोग्राम है जबकि भारत का औसत उत्पादन 500 किलोग्राम ही है। इसलिए भारत को अब बीटी कॉटन से भी आगे बढ़कर नई उत्पादन वर्धक किस्में तैयार करने की जरूरत है। उपस्थित कपास वैज्ञानिकों द्वारा यह भी स्वीकार किया गया कि कृषि विज्ञान क्षेत्र में हो रहे शोध किसानों तक पहुंच ही नहीं रहे है। भारत में यह हाल तब है जबकि राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान में एक समतुल्य विश्वविद्यालय सहित 13 राष्ट्रीय संस्थान, 3 ब्यूरो, 9 परियोजना निदेशालय, 2 राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र, 27 अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान प्रायोजनाएं और 5 अखिल भारतीय नेटवर्क प्रायोजनाएं हैं। इसके अलावा कई लचीले ढ़ंग से कार्यरत रिवोल्विंग फंड योजनाएं और राष्ट्रीय अनुसंधान नेटवर्क भी सक्रिय हैं जिनके माध्यम से अनेक बाहरी वित्तपोषित प्रायोजनाओं को यहां तकनीकी सहायता प्रदान की जाती है। एक-एक वैज्ञानिक को लाखों रूपए वेतन के अलावा शोध के लिए दुनिया भर की सुविधाएं दी जाती हैं।
हालांकि नागपुर स्थित राष्ट्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉ. केशव क्रांति के अनुसार आजादी के बाद कृषि क्षेत्र में हुए अनुसंधान का सबसे ज्यादा लाभ कपास उत्पादक किसानों को मिला है। सन 1947 में एक हेक्टेअर क्षेत्र में केवल 80 किलो कपास का उत्पादन होता था जो वर्ष 2011 तक बढ़कर 570 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर तक पहुंच गया है। उन्होंने बताया कि कपास उत्पादन के क्षेत्र में हमें भी ब्राजील की तरह प्रगति करनी होगी जहां विश्व में सबसे अधिक प्रति हेक्टेअर दो हजार किलो कपास का उत्पादन होता है। 
वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ.सी.डी.मायी का दावा है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिक अब बीटी काटन से काफी आगे निकल चुके हैं। उन्होंनें अधिक रोग प्रतिरोधक एवं अधिक उत्पादन वाली बीटी-2 और बीटी-3 जैसी कपास की प्रजाति भी विकसति कर ली है जो अगले दो तीन सालों में किसानों को उपलब्ध हो जाएंगे। उन्होंने बताया कि उन्नत बीज और आधुनिक तकनीक की मदद से प्रति हेक्टेअर एक हजार किलो से अधिक कपास का उत्पादन किया जा सकेगा। डॉ. मायी का सुझाव था कि कपास निर्यात पर पाबंदी हटाने से देश में कपास उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी।
जबकि सच्चाई यह है कि पिछले पांच सालों में हमारे वैज्ञानिकों ने मात्र तीन ही नई किस्में इजाद की हैं। गत पांच वर्षों में कपास बिजाई का रकबा तो बढ़ा है लेकिन उत्पादन में गिरावट आई है। कपास विकास एवं अनुसंधान संगठन (सीडीआरए) व कन्फैडरशन ऑफ इण्डियन टेक्सटाइल इण्डस्ट्रीज (सीआइटीआई) के अनुसार गत वर्ष की तुलना में इस वर्ष कपास का उत्पादन 475 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर हुआ है। उत्पादन कम होने का कारण उत्तरी भारत एवं केन्द्रीय राज्यों में मौसम का प्रतिकूल होना बताया जा रहा है। अधिकारियों के मुताबिक करीब 12.1 मिलियन प्रति हेक्टेअर कपास का उत्पादन हुआ जबकि कपास सलाहकार समिति का पूर्वानुमान 35.5 मिलियन गांठों के उत्पादन था।
कपड़ा आयुक्त का कहना है कि केवल 2007-08 में ही कपास का रिकॉर्डतोड़ उत्पादन 554 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर में हुआ था। पंजाब व गुजरात राज्य में 5 से 7 प्रतिशत कपास की फसल अनियमित वर्षा के कारण चौपट हो गई। इसके अलावा अक्टूबर में गर्म हवाएं चलने से फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और कपास का वजन भी घटा। सवाल यह है कि कपास पर चिन्ता करने वाली दर्जनों सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं और सैंकड़ों वैज्ञानिकों के प्रयास हमारे देश में ही असफल क्यों हो जाते हैं? क्या वजह है कि निजी क्षेत्र की हजारों कंपनियां अपने-अपने क्षेत्र में एक भी बेहतर बीज नहीं दे पाती हैं। ये कंपनियां एक ही बीज वैराइटी को अलग-अलग नामों से अपनी रिर्सच कह कर बेचती हैं। अचरज तो तब होता है जब हमारे कृषि अधिकारी अरबों रूपए के बीज बेचने वाली इन कंपनियों से उनकी शोध पर कोई सवाल तक नहीं पूछते। इन कंपनियों के पास शोध के लिए वैज्ञानिक तो क्या कृषि विज्ञान में एम.एससी एक कर्मचारी तक नहीं होता, प्रयोगशालाएं और अन्य संसाधन तो बहुत दूर की बात हैं।

Wednesday, January 11, 2012

कब तक कपास?

इंसान की तीन अहम ज़रूरतों में, मकान से पहले और रोटी के बाद कपड़े की ज़रूरत पर जोर दिया गया है। हम मकान के बिना रहने की कल्पना तो कर सकते हैं लेकिन कपड़े बिना रहने की हमारी सभ्यता में इजाज़त नहीं है। विज्ञान ने चाहे जितनी भी तरक्की कर ली हो, वह आज तक कपड़ा निर्माण हेतु कपास का कोई बेहतर विकल्प नहीं खोज पाया है। बढ़ती आबादी को और अधिक वस्त्रों की ज़रूरत है और अधिक वस्त्रों के लिए अधिक कपास की। हालांकि बीटी आने के बाद कपास की पैदावार विगत दस वर्षों में दोगुनी हो चुकी है, पर हमारी ज़रूरत के हिसाब से अभी भी कम है। कपास उत्पादक देशों में ब्राजील की 2000 क्विंटल प्रति हेक्टेअर की पैदावार को छोड़ भी दे तो शेष देशों की प्रति हेक्टेअर औसत पैदावार 750 किलो की तुलना में हमारी औसत 500 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। पैदावार में इस कमी के पीछे गर्म जलवायु, नकली खाद, बीज और कीटनाशक, खेती के नासमझ तरीकों के साथ लगातार घटती ज़मीन और बिजली-पानी की किल्लत जैसे बहुत से कारण हैं। वैसे इजराइल जैसे देश ने हमें यह तो सिखा दिया कि कम पानी और विषम परस्थितियों के बावुजूद खेती की जा सकती है, पर सिकुड़ती ज़मीन, बढ़ती लागत और अनिश्चित कीमतों के बीच कपास की खेती जारी रखना कौन सिखाएगा?
कपास की बढ़ती लागत पर एक नज़र डालें तो पाएंगे कि गत वर्ष तक जो मज़दूरी 75 से 80 रु. प्रतिदिन थी, वह अब 200-225 रु. हो गई है। इसके अलावा या तो खाद पर्याप्त मात्रा में मिलती नहीं और मिलती है तो लगातार बढ़ते हुए भाव में। एक ही साल में पोटाश 225 से 450, सुपर फास्फेट 180 से 225 और डीएपी 500 से 965 रूपए प्रति कट्टा हो गया है, यानी एक साल में किसानों पर कुलमिला कर 820 करोड़ रूपए का अतिरिक्त बोझ बढ़ गया। इस साल फसलों की लागत तो बढ़ी, पर भाव कम हो गए। गत वर्ष के 5 से 6 हजार रु. प्रति क्विंटल की तुलना में इस वर्ष कपास का भाव अब तक 4 हजार रु. प्रति क्विंटल से ज्यादा नहीं मिला।
ऐसे में किसानों के पास ग्वार या अन्य विकल्प ही रह जाते हैं। इससे पहले भी लागत न निकलने के कारण किसानों ने कपास के बजाए, खेती के अन्य विकल्पों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है। इसका जीता-जागता उदाहरण उत्तरप्रदेश है जहां कभी (1970 से 1990 के दौरान)लगभग एक लाख हेक्टेअर में कपास की खेती की जाती थी, जो वर्तमान में सिमटकर मात्र तीन हजार हेक्टेअर तक आ गई है। आज वहां की ज़्यादातर सूत और कपड़ा निर्माता मिलें बंद हो चुकी हैं और हथकरघा उद्योग भी अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है। देश में कपास की खेती घटने के पीछे विशेषज्ञों का कहना है कि यह लाभ की खेती तो है, पर इसमें हानि का डर ज्यादा होने से किसानों ने दूसरी फसलों को अपनाना शुरू कर दिया है। क्योंकि इसकी खेती में अधिक लागत के साथ कीट व बीमारियों के होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। दूसरा कारण यह है कि उत्तर भारत में यह फसल तैयार होने में 150 से 170 दिन तक और अन्य क्षेत्रों में 250 दिन तक ले लेती है। जबकि अन्य विकल्पों में किसानों को 60 से 180 दिनों में ही परिणाम मिल जाता है। तीसरा कारण है सरकार की योजनाओं का सरकारी अधिकारियों, किसानों, व्यापारियों और कारखाना मालिकों द्वारा ठीक से न समझा जाना। टेक्रालॉजी कॉटन मिशन इस नासमझी का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कपास की खेती सदियों से ही इतनी ही मंहगी और अनिश्चित रही है तभी तो लोककवि घाघ-बढऱी ने कपास की खेती के बारे में लिखा है कि- 'खेती करै ऊख कपास। घर करै व्यवहारिया पास।' अर्थात ईख और कपास की खेती करना साहूकार को अपने घर बुलाने जैसा है यानी कर्जदार बनना है। मंहगी मज़दूरी और बढ़ती फसल लागत के अतिरिक्त एक और कारण है- हमारा राष्ट्रीय चरित्र। आज तक कोई समझ नहीं पाया कि हम सब एक जैसे क्यों हैं? पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण सबके सब थोड़े बहुत अंतर के साथ बिलकुल एक जैसे। अपने थोड़े से लालच के लिए व्यापारी नकली खाद, बीज और कीटनाशक बेचता है। किसान थोड़े से फायदे के लिए फसल भिगोकर लाता है और मुआवज़े के लिए साधारण मौत से मरे हुए रिस्तेदार के मुहं में कीटनाशक डाल कर उसे राजनैतिक रंग दे देता है। सवाल यह है कि इन हालात में कब तक हो सकती है कपास की खेती?