बीटी कपास को लेकर पर्यावरणविद् कई तरह की शंकाएं व्यक्त करते रहे है लेकिन अबोहर वन्य जीव अभयारण्य पर इसका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। पिछले एक दशक से अभयारण्य से गायब हो चुके मोर बीटी कपास की खेती शुरू होने के बाद लौटने लगे हैं।
पंजाब राज्य में राजस्थान और हरियाणा सीमा पर स्थित अबोहर उपमंडल के तेरह गांवों को अग्रेंजों के जमाने से अभयारण्य का दर्जा मिला हुआ है। इन गांवों में वन्य जीवों को अपनी जान से ज्यादा प्यार करने वाले बिश्रोई समाज के लोग बहुसंख्या में है। अपने गुरू जम्भेश्वर की शिक्षाओं के अनुरूप बिश्रोई समाज वृक्षों और वन्य जीवों के संरक्षण को सदैव तत्पर रहता है। बिश्रोई समाज की भावनाओं की कद्र करते हुए अंग्रेज सरकार ने इन गांवों को अभयारण्य का दर्जा देकर किसी भी तरह के पशु या पक्षी के शिकार पर रोक लगा दी थी। आजादी के बाद स्वत्रंत भारत की सरकारों ने भी इन गांवों का अभयारण्य का दर्जा कायम रखते हुए पर्यावरण के प्रति अपने सरोकार की पुष्टि की।
अबोहर वन्य जीव अभयारण्य में शामिल तेरह गांवों का कुल रकबा 46,513 एकड़ है जिसमें रायपुरा, राजावाली, दुतारावाली, सरदारपुरा, खैरपुरा, सुखचैन, मेहराणा, सीतो गुन्नो, बिशनपुुरा, रामपुरा, नारायणपुरा, बजीतपुर भोमा और हिम्मतपुरा शामिल है। यह एशिया का अपनी तरह का अकेला ऐसा अभयारण्य है जिसकी कोई चारदीवारी या तारबंदी नहीं हुई है। किसानों की निजी भूमि में वन्य जीव निर्भय होकर विचरण करते हैं। अबोहर वन्य जीव अभयारण्य काले हिरण और मोर की बहुतायत के लिए जाना जाता था लेकिन बीस वर्षों में इस अभयारण्य से मोर पूरी तरह से लुप्त हो गए थे।
पुराने दिनों को याद करते हुए एक बजूर्ग बनवारीलाल बताते हैं कि अभयारण्य में हजारों की गिनती में मोर हुआ करते थे। सुबह-शाम मोर की कूक से पूरे इलाक ा गूंज उठता था। घरों की छतों और आंगन में मोर नृत्य करते दिखाई देते थे। उन्होंने बताया कि सिर्फ दुतारावाली के शमशान घाट में ही दो सौ से ज्यादा मोर थे। धीरे-धीरे अभयारण्य से मोर गायब होने शुरू हुए। एक समय ऐसा भी आया कि अभयारण्य में मोर के दर्शन भी दुर्लभ हो गए।
भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर असिंचित रेतली भूमि में रहना पसंद करता है। अपने भारी पंखों के कारण यह ऊंची उड़ान नहीं भर पाता। यही कारण है कि अबोहर अभयारण्य से मोर के लुप्त होने को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जाने लगी। कुछ जानकारों का कहना था कि जलवायु परिवर्तन के कारण मोर पलायन कर गए है और कुछ इसके लिए अभयारण्य क्षेत्र में बढ़ते खुंखार कुत्तों को जिम्मेदार ठहराते। लेकिन मोर के लुप्त होने के पीछे कीटनाशक दवाओं के बढ़ते उपयोग को दोषी ठहराने वालों की संख्या सबसे ज्यादा थी। अबोहर पंजाब की कपास पट्टी के अंतिम सिरे पर स्थित है। अबोहर के किसानों की आर्थिक समृद्धि इस नकदी फसल पर टिकी है। अमेरिकन सुंडी के हमले ने न सिर्फ कपास उत्पादकों को आर्थिक नुकसान पहुंचाया बल्कि इलाके के पर्यावरण संतुलन को भी बुरी तरह बिगाड़ कर रख दिया। कपास का कोई विकल्प ने होने के कारण किसान फसल को बचाने के लिए तेज और महंगी कीटनाशक दवाओं का अंधा उपयोग करने के लिए मजबूर थे। बीटी कपास ने किसानों को आर्थिक संबल प्रदान करने के साथ पर्यावरण को भी सहारा दिया है। यही वजह है कि अभयारण्य में एक बार फिर राष्ट्रीय पक्षी की कूक सुनाई देने लगी है।
अबोहर के उप वन्य रेंज अधिकारी महेन्द्रसिंह मीत ने अभयारण्य में मोर की जनसंख्या में वृद्धि की पुष्टि करते हुए बताया कि राजावाली, हिम्मतपुरा, मेहराणा, सरदारपुरा और बिशनपुरा में मोर दिखाई देने लगे है। सरदारपुरा में मोर का एक बड़ा समुह अकसर दिखाई देता है। इसी तरह राजावाली में राजेन्द्र बिश्रोई के बाग में भी बड़ी संख्या में मोर देखे जा सकते है। उन्होंने बताया कि इस समय अभयारण्य में सौ से भी ज्यादा मोर हैं और आने वाले दिनों में इनके और बढऩे की उम्मीद की जा रही है।
अबोहर के सहायक पौध संरक्षण अधिकारी डॉ. आर. एस. यादव मानते है कि बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद कीटनाशक दवाओं के उपयोग में भारी गिरावट आई है। कपास की परंपरागत किस्मों की बिजाई के समय कपास पर अठारह से बीस बार कीटनाशक दवाओं का उपयोग किया जाता था। बीटी कपास पर चार बार कीटनाशक दवाएं छिड़कने से ही काम चल जाता था। इसके अलावा बीटी कपास की हाइब्रिड किस्में तैयार होने में भी कम समय लेती है। डॉø यादव के अनुसार कपास की परंपरागत किस्मों की बीजाई मई में होती थी और चुगाई का काम जनवरी तक चलता था। बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद चुगाई का काम नवंबर तक निपट जाता है। वे अबोहर के किसानों के बागवानी के प्रति बढ़ते रूझान को भी पर्यावरण के हित में मानते है। फल उत्पादन से होने वाली आय ने इलाके के किसानों की कपास पर निर्भरता को कम किया है।
भारतीय किसान यूनियन के जिला उप प्रधान अक्षय बिश्रोई इस संबंध में केन्द्र और राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करते है। उनके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी के गायब होने की सरकारें मूक दर्शक की तरह देखती रही। मोर सिर्फ हमारा राष्ट्रीय गौरव ही नहीं किसान का सबसे बड़ा मित्र पक्षी भी है। वे चाहते है कि सरकार मोर के संरक्षण और संर्वद्धन के लिए जरूरी कदम उठाए ताकि अभयारण्य की पुरानी गरिमा बहाल हो सके।
अमित यायावर
पंजाब राज्य में राजस्थान और हरियाणा सीमा पर स्थित अबोहर उपमंडल के तेरह गांवों को अग्रेंजों के जमाने से अभयारण्य का दर्जा मिला हुआ है। इन गांवों में वन्य जीवों को अपनी जान से ज्यादा प्यार करने वाले बिश्रोई समाज के लोग बहुसंख्या में है। अपने गुरू जम्भेश्वर की शिक्षाओं के अनुरूप बिश्रोई समाज वृक्षों और वन्य जीवों के संरक्षण को सदैव तत्पर रहता है। बिश्रोई समाज की भावनाओं की कद्र करते हुए अंग्रेज सरकार ने इन गांवों को अभयारण्य का दर्जा देकर किसी भी तरह के पशु या पक्षी के शिकार पर रोक लगा दी थी। आजादी के बाद स्वत्रंत भारत की सरकारों ने भी इन गांवों का अभयारण्य का दर्जा कायम रखते हुए पर्यावरण के प्रति अपने सरोकार की पुष्टि की।
अबोहर वन्य जीव अभयारण्य में शामिल तेरह गांवों का कुल रकबा 46,513 एकड़ है जिसमें रायपुरा, राजावाली, दुतारावाली, सरदारपुरा, खैरपुरा, सुखचैन, मेहराणा, सीतो गुन्नो, बिशनपुुरा, रामपुरा, नारायणपुरा, बजीतपुर भोमा और हिम्मतपुरा शामिल है। यह एशिया का अपनी तरह का अकेला ऐसा अभयारण्य है जिसकी कोई चारदीवारी या तारबंदी नहीं हुई है। किसानों की निजी भूमि में वन्य जीव निर्भय होकर विचरण करते हैं। अबोहर वन्य जीव अभयारण्य काले हिरण और मोर की बहुतायत के लिए जाना जाता था लेकिन बीस वर्षों में इस अभयारण्य से मोर पूरी तरह से लुप्त हो गए थे।
पुराने दिनों को याद करते हुए एक बजूर्ग बनवारीलाल बताते हैं कि अभयारण्य में हजारों की गिनती में मोर हुआ करते थे। सुबह-शाम मोर की कूक से पूरे इलाक ा गूंज उठता था। घरों की छतों और आंगन में मोर नृत्य करते दिखाई देते थे। उन्होंने बताया कि सिर्फ दुतारावाली के शमशान घाट में ही दो सौ से ज्यादा मोर थे। धीरे-धीरे अभयारण्य से मोर गायब होने शुरू हुए। एक समय ऐसा भी आया कि अभयारण्य में मोर के दर्शन भी दुर्लभ हो गए।
भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर असिंचित रेतली भूमि में रहना पसंद करता है। अपने भारी पंखों के कारण यह ऊंची उड़ान नहीं भर पाता। यही कारण है कि अबोहर अभयारण्य से मोर के लुप्त होने को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जाने लगी। कुछ जानकारों का कहना था कि जलवायु परिवर्तन के कारण मोर पलायन कर गए है और कुछ इसके लिए अभयारण्य क्षेत्र में बढ़ते खुंखार कुत्तों को जिम्मेदार ठहराते। लेकिन मोर के लुप्त होने के पीछे कीटनाशक दवाओं के बढ़ते उपयोग को दोषी ठहराने वालों की संख्या सबसे ज्यादा थी। अबोहर पंजाब की कपास पट्टी के अंतिम सिरे पर स्थित है। अबोहर के किसानों की आर्थिक समृद्धि इस नकदी फसल पर टिकी है। अमेरिकन सुंडी के हमले ने न सिर्फ कपास उत्पादकों को आर्थिक नुकसान पहुंचाया बल्कि इलाके के पर्यावरण संतुलन को भी बुरी तरह बिगाड़ कर रख दिया। कपास का कोई विकल्प ने होने के कारण किसान फसल को बचाने के लिए तेज और महंगी कीटनाशक दवाओं का अंधा उपयोग करने के लिए मजबूर थे। बीटी कपास ने किसानों को आर्थिक संबल प्रदान करने के साथ पर्यावरण को भी सहारा दिया है। यही वजह है कि अभयारण्य में एक बार फिर राष्ट्रीय पक्षी की कूक सुनाई देने लगी है।
अबोहर के उप वन्य रेंज अधिकारी महेन्द्रसिंह मीत ने अभयारण्य में मोर की जनसंख्या में वृद्धि की पुष्टि करते हुए बताया कि राजावाली, हिम्मतपुरा, मेहराणा, सरदारपुरा और बिशनपुरा में मोर दिखाई देने लगे है। सरदारपुरा में मोर का एक बड़ा समुह अकसर दिखाई देता है। इसी तरह राजावाली में राजेन्द्र बिश्रोई के बाग में भी बड़ी संख्या में मोर देखे जा सकते है। उन्होंने बताया कि इस समय अभयारण्य में सौ से भी ज्यादा मोर हैं और आने वाले दिनों में इनके और बढऩे की उम्मीद की जा रही है।
अबोहर के सहायक पौध संरक्षण अधिकारी डॉ. आर. एस. यादव मानते है कि बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद कीटनाशक दवाओं के उपयोग में भारी गिरावट आई है। कपास की परंपरागत किस्मों की बिजाई के समय कपास पर अठारह से बीस बार कीटनाशक दवाओं का उपयोग किया जाता था। बीटी कपास पर चार बार कीटनाशक दवाएं छिड़कने से ही काम चल जाता था। इसके अलावा बीटी कपास की हाइब्रिड किस्में तैयार होने में भी कम समय लेती है। डॉø यादव के अनुसार कपास की परंपरागत किस्मों की बीजाई मई में होती थी और चुगाई का काम जनवरी तक चलता था। बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद चुगाई का काम नवंबर तक निपट जाता है। वे अबोहर के किसानों के बागवानी के प्रति बढ़ते रूझान को भी पर्यावरण के हित में मानते है। फल उत्पादन से होने वाली आय ने इलाके के किसानों की कपास पर निर्भरता को कम किया है।
भारतीय किसान यूनियन के जिला उप प्रधान अक्षय बिश्रोई इस संबंध में केन्द्र और राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करते है। उनके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी के गायब होने की सरकारें मूक दर्शक की तरह देखती रही। मोर सिर्फ हमारा राष्ट्रीय गौरव ही नहीं किसान का सबसे बड़ा मित्र पक्षी भी है। वे चाहते है कि सरकार मोर के संरक्षण और संर्वद्धन के लिए जरूरी कदम उठाए ताकि अभयारण्य की पुरानी गरिमा बहाल हो सके।
अमित यायावर