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Wednesday, August 28, 2013

बीटी ने बचाया मोरों को

बीटी कपास को लेकर पर्यावरणविद् कई तरह की शंकाएं व्यक्त करते रहे है लेकिन अबोहर वन्य जीव अभयारण्य पर इसका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। पिछले एक दशक से अभयारण्य से गायब हो चुके मोर बीटी कपास की खेती शुरू होने के बाद लौटने लगे हैं।
पंजाब राज्य में राजस्थान और हरियाणा सीमा पर स्थित अबोहर उपमंडल के तेरह गांवों को अग्रेंजों के जमाने से अभयारण्य का दर्जा मिला हुआ है। इन गांवों में वन्य जीवों को अपनी जान से ज्यादा प्यार करने वाले बिश्रोई समाज के लोग बहुसंख्या में है। अपने गुरू जम्भेश्वर की शिक्षाओं के अनुरूप बिश्रोई समाज वृक्षों और वन्य जीवों के संरक्षण को सदैव तत्पर रहता है। बिश्रोई समाज की भावनाओं की कद्र करते हुए अंग्रेज सरकार ने इन गांवों को अभयारण्य का दर्जा देकर किसी भी तरह के पशु या पक्षी के शिकार पर रोक लगा दी थी। आजादी के बाद स्वत्रंत भारत की सरकारों ने भी इन गांवों का अभयारण्य का दर्जा कायम रखते हुए पर्यावरण के प्रति अपने सरोकार की पुष्टि की।
अबोहर वन्य जीव अभयारण्य में शामिल तेरह गांवों का कुल रकबा 46,513 एकड़ है जिसमें रायपुरा, राजावाली, दुतारावाली, सरदारपुरा, खैरपुरा, सुखचैन, मेहराणा, सीतो गुन्नो, बिशनपुुरा, रामपुरा, नारायणपुरा, बजीतपुर भोमा और हिम्मतपुरा शामिल है। यह एशिया का अपनी तरह का अकेला ऐसा अभयारण्य है जिसकी कोई चारदीवारी या तारबंदी नहीं हुई है। किसानों की निजी भूमि में वन्य जीव निर्भय होकर विचरण करते हैं। अबोहर वन्य जीव अभयारण्य काले हिरण और मोर की बहुतायत के लिए जाना जाता था लेकिन बीस वर्षों में इस अभयारण्य से मोर पूरी तरह से लुप्त हो गए थे।
पुराने दिनों को याद करते हुए एक बजूर्ग बनवारीलाल बताते हैं कि अभयारण्य में हजारों की गिनती  में मोर हुआ करते थे। सुबह-शाम मोर की कूक से पूरे इलाक ा गूंज उठता था। घरों की छतों और आंगन में मोर नृत्य करते दिखाई देते थे। उन्होंने बताया कि सिर्फ दुतारावाली के शमशान घाट में ही दो सौ से ज्यादा मोर थे। धीरे-धीरे अभयारण्य से मोर गायब होने शुरू हुए। एक समय ऐसा भी आया कि अभयारण्य में मोर के दर्शन भी दुर्लभ हो गए।
भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर असिंचित रेतली भूमि में रहना पसंद करता है। अपने भारी पंखों के कारण यह ऊंची उड़ान नहीं भर पाता। यही कारण है कि अबोहर अभयारण्य से मोर के लुप्त होने को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जाने लगी। कुछ जानकारों का कहना था कि जलवायु परिवर्तन के कारण मोर पलायन कर गए है और कुछ इसके लिए अभयारण्य क्षेत्र में बढ़ते खुंखार कुत्तों को जिम्मेदार ठहराते। लेकिन मोर के लुप्त होने के पीछे कीटनाशक दवाओं के बढ़ते उपयोग को दोषी ठहराने वालों की संख्या सबसे ज्यादा थी। अबोहर पंजाब की कपास पट्टी के अंतिम सिरे पर स्थित है। अबोहर के किसानों की आर्थिक समृद्धि इस नकदी फसल पर टिकी है। अमेरिकन सुंडी के हमले ने न सिर्फ कपास उत्पादकों को आर्थिक नुकसान पहुंचाया बल्कि इलाके के पर्यावरण संतुलन को भी बुरी तरह बिगाड़ कर रख दिया। कपास का कोई विकल्प ने होने के कारण किसान फसल को बचाने के लिए तेज और महंगी कीटनाशक दवाओं का अंधा उपयोग करने के लिए मजबूर थे। बीटी कपास ने किसानों को आर्थिक संबल प्रदान करने के साथ पर्यावरण को भी सहारा दिया है। यही वजह है कि अभयारण्य में एक बार फिर राष्ट्रीय पक्षी की कूक सुनाई देने लगी है।
अबोहर के उप वन्य रेंज अधिकारी महेन्द्रसिंह मीत ने अभयारण्य में मोर की जनसंख्या में वृद्धि की पुष्टि करते हुए बताया कि राजावाली, हिम्मतपुरा, मेहराणा, सरदारपुरा और बिशनपुरा में मोर दिखाई देने लगे है। सरदारपुरा में मोर का एक बड़ा समुह अकसर दिखाई देता है। इसी तरह राजावाली में राजेन्द्र बिश्रोई के बाग में भी बड़ी संख्या में मोर देखे जा सकते है। उन्होंने बताया कि इस समय अभयारण्य में सौ से भी ज्यादा मोर हैं और आने वाले दिनों में इनके और बढऩे की उम्मीद की जा रही है।
अबोहर के सहायक पौध संरक्षण अधिकारी डॉ. आर. एस. यादव मानते है कि बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद कीटनाशक दवाओं के उपयोग में भारी गिरावट आई है। कपास की परंपरागत किस्मों की बिजाई के समय कपास पर अठारह से बीस बार कीटनाशक दवाओं का उपयोग किया जाता था। बीटी कपास पर चार बार कीटनाशक दवाएं छिड़कने से ही काम चल जाता था। इसके अलावा बीटी कपास की हाइब्रिड किस्में तैयार होने में भी कम समय लेती है। डॉø यादव के अनुसार कपास की परंपरागत किस्मों की बीजाई मई में होती थी और चुगाई का काम जनवरी तक चलता था। बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद चुगाई का काम नवंबर तक निपट जाता है। वे अबोहर के किसानों के बागवानी के प्रति बढ़ते रूझान को भी पर्यावरण के हित में मानते है। फल उत्पादन से होने वाली आय ने इलाके के किसानों की कपास पर निर्भरता को कम किया है।
भारतीय किसान यूनियन के जिला उप प्रधान अक्षय बिश्रोई इस संबंध में केन्द्र और राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करते है। उनके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी के गायब होने की सरकारें मूक दर्शक की तरह देखती रही। मोर सिर्फ हमारा राष्ट्रीय गौरव ही नहीं किसान का सबसे बड़ा मित्र पक्षी भी है। वे चाहते  है कि सरकार मोर के संरक्षण और संर्वद्धन के लिए जरूरी कदम उठाए ताकि अभयारण्य की पुरानी गरिमा बहाल हो सके।

अमित यायावर

क्या बीत गए दिन बीटी के?

एक दशक पहले जिस बीटी कपास ने भारत में बड़ी चकाचौंध के साथ प्रवेश किया था अब उसकी चमक फीकी पडने लगी है। पिछले दिनों बीटी कपास को लेकर दो विरोधाभासी घटनाएं एक साथ देखने को मिलीं। एक ओर कृषिमंत्री शरद पवार ने लोकसभा में बीटी कपास पर गैर-सरकारी संगठनों, सिविल सोसायटी और संसद की स्थायी समिति की आपत्तियों को काल्पनिक व भ्रामक करार दिया तो दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार ने पहली बार आधिकारिक रूप से स्वीकार किया कि राज्य में बीटी कपास की पैदावार में 40 प्रतिशत तक की गिरावट आ चुकी है। हालांकि केंद्र को भेजी अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार ने किसानों को सीधे 6000 करोड़ रुपये का नुकसान होने की बात कही है। लेकिन यदि बीज, उर्वरक, कीटनाशक, रसायन, मजदूरी आदि की लागत को देखें तो यह नुकसान 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक का होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि पहले जहां विदर्भ व मराठवाड़ा से ही कपास फसल के बर्बाद होने की खबरें आती थीं वहीं अब उत्तर महाराष्ट्र के खानदेश जैसे सिंचित क्षेत्र से भी आने लगी हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार इस साल महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याओं के 5000 का आंकड़ा छू लेने की उम्मीद है जबकि पिछले साल 3500 किसानों ने आत्महत्या की थी। यह लगातार तीसरा साल है जब महाराष्ट्र में कपास की फसल बर्बाद हुई है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 42 लाख हेक्टेअर जमीन में कपास की खेती की जाती है जो देश में सर्वाधिक है। लेकिन प्रति हेक्टेअर पैदावार में आ रही गिरावट के कारण जहां एक ओर कुल उत्पादन कम होता जा रहा है वहीं दूसरी ओर लागत बढ़ती जा रही जिससे किसान तेजी से कर्ज के चंगुल में फंसते जा रहे हैं।
कपास किसानों की बढ़ती बदहाली और पैदावार में लगातार आ रही गिरावट के बावजूद कंपनियां बीटी कपास को चमत्कारी फसल बता रही हैं। उनके मुताबिक 2002 में 77 लाख हेक्टेअर कपास की खेती होती थी जो कि 2011-12 में 121 लाख हेक्टेअर हो गई। इस दौरान कपास का कुल उत्पादन 1.3 करोड़ गांठ से बढ़कर 3.45 करोड़ गांठ हो गया जिससे भारत कपास का निर्यातक बन गया। कंपनियां इसका श्रेय बीटी कपास को देती हैं। भारत में बीटी कपास लाने वाली महिको-मोंसेटो बायोटेक कंपनी दावा करती है कि बीटी कपास अपनाने के बाद भारतीय कपास किसानों को 31500 करोड़ रुपये का मुनाफा हो चुका है। लेकिन यदि कंपनी के दावों का विश्लेषण किया जाए तो कहानी कुछ और ही सामने आती है। यह सच है कि बीटी कपास अपनाने के बाद पैदावार तेजी से बढ़ी। उदाहरण के लिए 2004-05 में कपास की उत्पादकता 470 किग्रा प्रति हेक्टेअर थी जो 2007-08 में बढ़कर 554 किग्रा हो गई। लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट का दौर शुरू हुआ। आज यह 480 किग्रा रह गई है। स्पष्ट है कपास उत्पादन में जो बढ़ोतरी हुई उसमें एक बड़ा योगदान कपास के अधीन बढ़े हुए रकबे का है। सबसे बड़ी बात यह है कि मोनसेंटो के बीटी कपास के प्रवेश के बाद से कपास की स्थानीय किस्में लुप्त हो गईं। इससे किसान महंगे हाइब्रिड बीजों पर निर्भर हो गए जिन्हें खरीदने के लिए उन्हें हर साल मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है। ज्ञात रहे बीटी के आने के बाद कपास बीज की कीमतें 800 गुना तक बढ़ चुकी हैं। दूसरी तरफ किसान भी कम नहीं है वह एक ही खेत में लगातार कपास की फसल लेता है और बीटी के चारों तरफ नॉन बीटी किस्मों की (रिफ्यूजिया)भी नहीं बीजता, जिससे न सिर्फ मिट्टी के पोषक तत्वों में कमी आ रही है बल्कि कीटों की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ रही है। इसी का नतीजा है कि जैसे-जैसे फसल बर्बाद होने की घटनाएं बढ़ रही हैं वैसे-वैसे कीटनाशकों पर होने वाला खर्च भी बढ़ता जा रहा है जिससे कपास उत्पादन की लागत कई गुना बढ़ गई है।
बीटी कपास को समृद्धि का प्रतीक बताने वाले दावों की कलई महाराष्ट्र के उदाहरण से खुल जाती है। उदाहरण के लिए यहां 2010-11 में 36.2 लाख हेक्टेअर जमीन में 74.7 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था जबकि 2011-12 में 39.2 लाख हेक्टेअर में कपास की खेती के बावजूद कुल उत्पादन घटकर 69 लाख गांठ रह गया। कुछ यही कहानी आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश में भी दोहराई जा रही है। गुजरात इसका अपवाद रहा है लेकिन इसका श्रेय बीटी कपास को न होकर गुजरात की लघु सिंचाई परियोजनाओं और नई कृषि भूमि में कपास की खेती को दिया जा रहा है।
भारत के गैर-सरकारी संगठन 'नवधान्य' के मुताबिक बीटी कपास के इस्तेमाल से कीटनाशकों के प्रयोग में 13 गुना की बढ़ोतरी हो चुकी है। 2008 में इंटरनेशन जरनल ऑफ बायोटेक्नॉलाजी में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि बीटी कपास से पैदावार में जो बढ़ोतरी होती है उसे कीटनाशकों व खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल से लागत में हुई बढ़ोतरी निगल जाती है। इस सच्चाई को कंपनियां खुद स्वीकार करती हैं कि उनके बीजों के विरुद्ध कीटों एवं खरपतवार ने प्रतिरोध विकसित कर लिया है। इन्हें सुपर खरपतवार की संज्ञा दी गई है। इनसे लडऩे के लिए कंपनियां नए बीजों के साथ-साथ महंगे व असरदार कीटनाशकों के इस्तेमाल को जरूरी बता रही हैं। जाहिर है हर हाल में किसान को लूटकर एग्रीबिजनेस कंपनियां अपनी तिजोरी भरेंगी।

Sunday, August 25, 2013

और भी तरीके हैं कपास उपज बढ़ाने के

अब तक यह माना जा रहा था कि जीन प्रसंस्कृत बीटी हाइब्रिड कपास की खेती से ज्यादा उपज लेने का एकमात्र तरीका है। आज कृषि-विज्ञान में ऐसे कई साधन उपलब्ध हैं, जिनके इस्तेमाल से उन इलाकों में भी कपास का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, जो सिंचाई के लिए पूरी तरह बारिश पर निर्भर हैं। नागपुर स्थित केंद्रीय कपास शोध संस्थान (सीआइसीआर) ने एक असाधारण नई तकनीक 'हाई डेंसिटी कॉटन प्लांटिंग सिस्टम' का विकास किया है। इस तकनीक के अंर्तगत प्रति हेक्टेअर भूमि पर पहले से ज्यादा पौधे लगाए जाते हैं, जिनसे महारष्ट्र के विदर्भ जैसे इलाके में भी कपास का उत्पादन दोगुना करने में सफलता हासिल हुई है। पानी की कमी के कारण विदर्भ में अक्सर कपास की फसल खराब हो जाती है, जिससे व्यथित किसान आत्महत्या तक कर लेते हैं। 
आमतौर पर किसान प्रति हेक्टेअर 50,000 से 55,000 पौधे लगाते हैं। नई तकनीक के तहत बीजों को कम दूरी पर बोया जाता है, जिससे प्रति हेक्टेअर 2 लाख पौधों की बुआई की जाती है। ज्यादा संख्या में पौधों की बुआई करने से कपास का ज्यादा उत्पादन होता है। इस तरह के घने रोपण के लिए कपास की वे किस्में बिल्कुल मुफीद हैं, जो जल्दी पकने के साथ-साथ सूरज की रोशनी, पोषक तत्त्व हासिल करने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करती, तथा जिनके पौधे न तो ज्यादा लंबे होते हैं और न ही ज्यादा फैलते हैं। छोटी अवधि में पकने वाली किस्मों का जीवन-चक्र मॉनसून के बाद मिट्टी में मौजूद नमी के समाप्त होने से पहले ही पूरा हो जाता है। सी.आइ.सी.आर. ने वास्तविक परीक्षण के जरिये कपास की विभिन्न किस्मों की पहचान कर ली है, जो घने रोपण के लिए बिल्कुल उपयुक्त रहेंगी। इसमें पीकेवी 081 (जिसे अकोला कृषि विश्वविद्यालय ने 1987 में पेश किया था), एनएच 615 (हाल में परभणी विश्वविद्यालय द्वारा विकसित) और सूरज (2008 में सीआइसीआर द्वारा विकसित) कुछ ऐसी ही किस्में हैं।
बारिश का जल संरक्षित करने के तरीके अपनाने से भी इस अनोखी प्रक्रिया से कपास की खेती में बहुत मदद मिलती है। महारष्ट्र, मध्यप्रदेश आंध्रप्रदेश और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में बारिश पर निर्भर रहने वाली कपास की खेती को इससे काफी फायदा हो सकता है क्योंकि यहां बार-बार पानी की कमी के कारण उत्पादन को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है। सीआइसीआर के कपास वैज्ञानिकों का कहना है कि उन इलाकों में कपास की उत्पादकता बेहद कम होती है, जो पानी के लिए बारिश पर निर्भर होते हैं क्योंकि मॉनसून के बाद मिट्टी में नमी की कमी हो जाती है, खासतौर पर पौधों पर फूल निकलते समय, जब पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। 
आमतौर पर जून में शुरू होने वाली मॉनसून की बारिश सितंबर तक समाप्त हो जाती है जबकि फूल का बनना अक्टूबर में शुरू होता है और नवंबर में चरम पर होता है। इस वजह से कपास के फूल खासतौर पर ऐसी मिट्टी में पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते हैं जिसकी पानी सोखने की क्षमता कम होती है। नतीजतन फसल का उत्पादन कम होता है। लंबी अवधि में पकने वाली कपास की किस्मों का प्रदर्शन सबसे खराब होता है क्योंकि उन्हें फसल के विकास के अहम समय पर पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल पाता है।
पिछले खरीफ सीजन के दौरान किसानों की मदद से विदर्भ और आसपास के इलाकों में 155 जगहों पर इन किस्मों का परीक्षण किया गया और खराब मॉनसून व कपास के सबसे खराब कीट प्रकोप के बावजूद इसके नतीजे काफी शानदार रहे। कीड़े के प्रकोप पर काबू पाने के लिए कई इलाकों में कीटनाशकों का छिड़काव भी किया गया। इनमें से ज्यादातर जगहों पर कपास के उत्पादन में 35 से 40 प्रतिशत का इजाफा दर्ज किया गया। पूरे परीक्षण स्थल में कुल औसत प्रति हेक्टेअर 15 से 18 क्विंटल की रही, जो विदर्भ जिले में होने वाले सामान्य कपास उत्पादन का करीब दोगुनी है। सबसे ज्यादा उत्पादन चंद्रपुर, अमरावती और नागपुर के इलाकों में हुआ। इससे किसानों को प्रति हेक्टेअर 12,000 रुपये से 90,000 रुपये का फायदा हुआ जबकि इसकी खेती की लागत 20,000 रुपये से 25,000 रुपये प्रति हेक्टेअर आती है।
सीआइसीआर के निदेशक आर क्रांति के अनुसार इस तकनीक की सफलता ने कपास किसानों में उत्साह का संचार किया है। कुछ किसानों ने तो जैविक कपास उगाने के लिए उच्च घनत्व कपास खेती आजमाने का विकल्प चुना है। कपास वैज्ञानिकों के उत्साह और कपास किसानों की ओर से मिली प्रतिक्रिया को देखते हुए लगता है कि इस नई तकनीक में ऐसी ही एक और कपास क्रांति लाने की क्षमता है, जो पिछले दशक में बीटी कॉटन के आने के बाद आई थी।  सबसे अहम बात है कि इस तकनीक में जल सिंचाई के अभाव में फसल बरबाद होने से ग्रसित किसानों की इस समस्या का समाधान करने की संभावना है। जाहिर है कि राज्य कृषि विभागों को शोध संस्थानों के साथ मिलकर इस तकनीक के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना होगा।