विगत दस-बारह वर्षों से दुनिया भर में पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन और खेती-बाड़ी के आधुनिक तौर-तरीकों को लेकर एक बहस चल रही है, कि खेती में जैसी तकनीकें पिछले तीस-चालीस वर्षों से अपनाई गई हैं क्या वे खेत और किसान दोनों को ही बर्बाद कर रही हैं? हरितक्रांति के नाम पर जो तकनीक साठ के दशक में हिन्दुस्तान लाई गईं उससे हुई बर्बादी को आज कमोबेश हम सभी भुगत रहे हैं। हमारे जल संसाधन हाफंने लगे हैं और ज़मीन ने ज़वाब दे दिया है। कृषि रसायनों का बेतहाशा प्रयोग, मशीनीकरण पर अन्धे विश्वास और पागलपन की हद तक फसल लेने के जूनून ने किसान को सिर्फ न सिर्फ कर्ज में डूबोया है, बल्कि उसे इतना बीमार और हताश कर दिया है कि वह कभी भी आत्महत्या कर सकता है और कर भी रहा है।
तथाकथित हरितक्रांति दरअसल तकनीक, बाजारवाद और अव्वल दर्जे के स्वार्थ का भयानक मिश्रण है जिसने किसान और जमीन के बीच सदियों से चले आ रहे मां-बेटे के सम्बन्ध को तहस-नहस कर दिया है। किसान अपनी जुबान से तो आज भी धरती को मां मानता है परन्तु व्यवहार में उससे हर तरह की दुश्मनी निकाल रहा है। आज का धरतीपुत्र नारों और तस्वीरों में रह गया है, हक़ीक़त में वह ऐसा कुपुत्र है जो अपने लालच में अन्धा हो कर गर्त तक चला गया है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस कुकर्म में राजनेता, वैज्ञानिक, तथाकथित गान्धीवादी संत और विचारक सब शामिल हैं। भारत माता की जय भी बोलने वाले इसी माँ को जहर खिला भी रहे हैं और जहर से नहला भी रहे हैं। विकास कभी अकेला नही आता वो अपने साथ कई तरह की बीमारियां और दुश्वारियां भी लाता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है पंजाब। देश का अन्न कटोरा कहे जाने वाले पंजाब की नस-नस में आज ये जहर कैंसर बनकर दौड़ रहा है। समूचा मालवा क्षेत्र देश भर में कैंसर पट्टी के नाम बदनाम हो गया है, वहां के किसान बीकानेर और चण्डीगढ़ के हस्पतालों में भरे पड़े हैं। विकास कैसे विनाश में बदलता है यह पंजाब में यह प्रत्येक्ष देखा जा सकता है। वहां की पांचो नदियों में पानी या तो खत्म हो रहा है या जहरीला हो चुका है। जिस राज्य का नाम ही पानी का पर्याय है वहां 80 प्रतिशत भूजल का दोहन हो चुका है। आज पंज-आब, बे-आब चुका है। मिट्टी की उर्वरता शक्ति समाप्त हो चुकी है और समूची भोजन शृंखला में ही जहर घुल चुका है। यह उस प्रांत की दुर्दशा का आलम है जो देश के ज्यादातर किसानों का आदर्श रहा है। वैसे तो पंजाब भारत के कुल क्षेत्रफल का मात्र 1.5 प्रतिशत ही है परन्तु देश में खपत होने वाले कुल जहरीले कीटनाशकों का 20 प्रतिशत अकेले इस राज्य में इस्तेमाल होता है।
इन तमाम निराशाजनक स्थितियों के बीच उम्मीद की कंदील महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के एक छोटे से गांव बेलोरा में नज़र आई है। जहर के इस सागर से अमृत बनकर निकले कृषिगुरू श्री सुभाष पोलेकर की ‘जीरो बजट कुदरती खेती’ के विचार को हजारों किसानों ने हिन्दुस्तान भर में अनपाया है। सुभाष पालेकर का चिंतन सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति करूणा, प्रेम और सहअस्तित्व पर आधारित है। चूकिं यह प्रकृति और धरती मां को मां मानने वाले वंशलों पर आधारित है। इसलिए इससे ऊपजी तमाम तकनीकें भी प्रकृति और धरती की सेवा करने वाली हैं। पालेकर ने देसी गाय के गोबर और गौमूत्र से जीवामृत, बीजामृत, घनजीवामृत बनाने की विधियां विकसित की हैं। जिनका प्रयोग करके आज हजारों किसान कृषि रसायनो के जहरीले जाल से बाहर आए हैं। सुभाष पालेकर ने कृषि तकनीकों का ऐसा विचार किसान को दिया है जो मिट्टी को उपजाऊ बनाता है, पानी बचाता है, अन्य प्राणियों के प्रति प्रेमभाव जगाता है और किसान को एक सचेतन विज्ञानी किसान भी बनाता है। वह किसान को धरती मां और समाज के प्रति उसके कर्तव्यों को निभाने की सीख, समझ और संस्कार भी देता है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण जीरो बजट कुदरती खेती अमरावती से शुरू होकर आज पूरे भारत ही नहीं विश्व तक में प्रतिष्ठत हो रही है। 11 राज्यों के करीब 40 लाख किसान अपनी किस्मत इससे बदल चुके हैं, और बदल भी रहे हैं। श्री पालेकर के शब्दों में- ‘यह तकनीक पराबलम्बन से स्वाबलम्बन की ओर राक्षसतत्व से संतत्व की ओर, असत्य से सत्य की ओर, व्यष्टि और समष्टि से और आगे परमेष्टि की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, दुख से सुख की ओर एवं हिंसा से अहिंसा की ओर की यात्रा है। यही आध्यात्मिक कृषि का मोक्ष मार्ग है।’
इस जहरीली खेती के बाद यूरोपीय बाजारों नें हमारे हाथ में जैविक खेती का एक नया झुनझुना थमा दिया है। जैविक प्रमाणित वस्तुओं का बाजार मूल्य सामान्य वस्तुओं की तुलना में काफी अधिक होता है, लेकिन इसका लाभ किसान को नहीं मिलता। इसके फायदे का मोटा हिस्सा जैविक की मार्केटिंग करवाने वाली संस्थाएं और बिचौलिये ले जाते हैं। प्रमाणीकरण के सारे मापदंड यूरोप और अमेरिका में बने हुए या फिर उनके अनुसार बनाए गए हैं। इसके पीछे का तर्क यह दिया जाता है कि यदि जैविक उत्पाद का निर्यात करना है तो वहां के मापदंडों को स्वीकार करना ही होगा और यदि निर्यात की संभावना को छोड़ दें तो किसानों को जैविक खेती का कोई फायदा नहीं मिल पाएगा। कृषि विद्वान और गांधीवादी सुभाष पालेकर कहते हैं, ‘जैविक खेती की बातें केवल दिखावे की हैं। यह खेती का व्यवसायीकरण करने का एक षडयंत्र मात्र है। किसानों को जितना खतरा वैश्वीकरण से है, उतना ही जैविक खेती रूपी व्यवसायीकरण से भी है।’ गौर करें तो यह सारा मामला मार्केटिंग और पैसे से जुड़ा दिखता है। इसमें कहीं भी भूमि और किसानों व उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण की बात नहीं है। कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित इंडिया ओरगैनिक ट्रेड फेयर में ये सच्चाई भी खुलकर सामने आई कि जैविक प्रमाणित वस्तुओं का मूल्य किसान द्वारा बेचे गए मूल्य से बहुत ज्यादा होता है पर इसमें किसान का हिस्सा कहां है कुछ पता नहीं? किसी भी स्टाल पर किसानों के इस सवाल का जवाब नहीं था कि उन्हें जैविक खेती करने से क्या लाभ है? एक नामी प्रमाणीकरण संस्था के जांचकर्ता ने स्वीकार किया कि जैविक खेती के विदेशों में स्वीकृत मापदंड भारत की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं, इसलिए भारत का गरीब किसान अपनी खेती को जैविक प्रमाणित नहीं कर सकता। लगता है एक बार फिर खेती और किसान की भावनाएं दोनों ही बेची जा रही है। सुभाष पालेकर जैसे व्यक्तियों ने व्यावहारिक रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि गाय को जैविक खेती का आधार बनाने से खेती में किसान की लागत भी शून्य हो जाती है और उसे फसल भी अच्छी मिलती है। रही बात प्रमाणीकरण में आने वाले खर्च की तो जैविक खेती से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि प्रमाणीकरण मार्केटिंग के लिए जरूरी है, मिट्टी और खेती के संरक्षण के लिए नहीं। यदि किसान यह बात समझ ले तो जैविक खेती का लाभ वही कमाएगा कोई बिचौलिया या दलाल नहीं।
सुरेन्द्र गोदारा
भू-मीत के दिसम्बर-जनवरी अंक से
तथाकथित हरितक्रांति दरअसल तकनीक, बाजारवाद और अव्वल दर्जे के स्वार्थ का भयानक मिश्रण है जिसने किसान और जमीन के बीच सदियों से चले आ रहे मां-बेटे के सम्बन्ध को तहस-नहस कर दिया है। किसान अपनी जुबान से तो आज भी धरती को मां मानता है परन्तु व्यवहार में उससे हर तरह की दुश्मनी निकाल रहा है। आज का धरतीपुत्र नारों और तस्वीरों में रह गया है, हक़ीक़त में वह ऐसा कुपुत्र है जो अपने लालच में अन्धा हो कर गर्त तक चला गया है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस कुकर्म में राजनेता, वैज्ञानिक, तथाकथित गान्धीवादी संत और विचारक सब शामिल हैं। भारत माता की जय भी बोलने वाले इसी माँ को जहर खिला भी रहे हैं और जहर से नहला भी रहे हैं। विकास कभी अकेला नही आता वो अपने साथ कई तरह की बीमारियां और दुश्वारियां भी लाता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है पंजाब। देश का अन्न कटोरा कहे जाने वाले पंजाब की नस-नस में आज ये जहर कैंसर बनकर दौड़ रहा है। समूचा मालवा क्षेत्र देश भर में कैंसर पट्टी के नाम बदनाम हो गया है, वहां के किसान बीकानेर और चण्डीगढ़ के हस्पतालों में भरे पड़े हैं। विकास कैसे विनाश में बदलता है यह पंजाब में यह प्रत्येक्ष देखा जा सकता है। वहां की पांचो नदियों में पानी या तो खत्म हो रहा है या जहरीला हो चुका है। जिस राज्य का नाम ही पानी का पर्याय है वहां 80 प्रतिशत भूजल का दोहन हो चुका है। आज पंज-आब, बे-आब चुका है। मिट्टी की उर्वरता शक्ति समाप्त हो चुकी है और समूची भोजन शृंखला में ही जहर घुल चुका है। यह उस प्रांत की दुर्दशा का आलम है जो देश के ज्यादातर किसानों का आदर्श रहा है। वैसे तो पंजाब भारत के कुल क्षेत्रफल का मात्र 1.5 प्रतिशत ही है परन्तु देश में खपत होने वाले कुल जहरीले कीटनाशकों का 20 प्रतिशत अकेले इस राज्य में इस्तेमाल होता है।
इन तमाम निराशाजनक स्थितियों के बीच उम्मीद की कंदील महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के एक छोटे से गांव बेलोरा में नज़र आई है। जहर के इस सागर से अमृत बनकर निकले कृषिगुरू श्री सुभाष पोलेकर की ‘जीरो बजट कुदरती खेती’ के विचार को हजारों किसानों ने हिन्दुस्तान भर में अनपाया है। सुभाष पालेकर का चिंतन सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति करूणा, प्रेम और सहअस्तित्व पर आधारित है। चूकिं यह प्रकृति और धरती मां को मां मानने वाले वंशलों पर आधारित है। इसलिए इससे ऊपजी तमाम तकनीकें भी प्रकृति और धरती की सेवा करने वाली हैं। पालेकर ने देसी गाय के गोबर और गौमूत्र से जीवामृत, बीजामृत, घनजीवामृत बनाने की विधियां विकसित की हैं। जिनका प्रयोग करके आज हजारों किसान कृषि रसायनो के जहरीले जाल से बाहर आए हैं। सुभाष पालेकर ने कृषि तकनीकों का ऐसा विचार किसान को दिया है जो मिट्टी को उपजाऊ बनाता है, पानी बचाता है, अन्य प्राणियों के प्रति प्रेमभाव जगाता है और किसान को एक सचेतन विज्ञानी किसान भी बनाता है। वह किसान को धरती मां और समाज के प्रति उसके कर्तव्यों को निभाने की सीख, समझ और संस्कार भी देता है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण जीरो बजट कुदरती खेती अमरावती से शुरू होकर आज पूरे भारत ही नहीं विश्व तक में प्रतिष्ठत हो रही है। 11 राज्यों के करीब 40 लाख किसान अपनी किस्मत इससे बदल चुके हैं, और बदल भी रहे हैं। श्री पालेकर के शब्दों में- ‘यह तकनीक पराबलम्बन से स्वाबलम्बन की ओर राक्षसतत्व से संतत्व की ओर, असत्य से सत्य की ओर, व्यष्टि और समष्टि से और आगे परमेष्टि की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, दुख से सुख की ओर एवं हिंसा से अहिंसा की ओर की यात्रा है। यही आध्यात्मिक कृषि का मोक्ष मार्ग है।’
इस जहरीली खेती के बाद यूरोपीय बाजारों नें हमारे हाथ में जैविक खेती का एक नया झुनझुना थमा दिया है। जैविक प्रमाणित वस्तुओं का बाजार मूल्य सामान्य वस्तुओं की तुलना में काफी अधिक होता है, लेकिन इसका लाभ किसान को नहीं मिलता। इसके फायदे का मोटा हिस्सा जैविक की मार्केटिंग करवाने वाली संस्थाएं और बिचौलिये ले जाते हैं। प्रमाणीकरण के सारे मापदंड यूरोप और अमेरिका में बने हुए या फिर उनके अनुसार बनाए गए हैं। इसके पीछे का तर्क यह दिया जाता है कि यदि जैविक उत्पाद का निर्यात करना है तो वहां के मापदंडों को स्वीकार करना ही होगा और यदि निर्यात की संभावना को छोड़ दें तो किसानों को जैविक खेती का कोई फायदा नहीं मिल पाएगा। कृषि विद्वान और गांधीवादी सुभाष पालेकर कहते हैं, ‘जैविक खेती की बातें केवल दिखावे की हैं। यह खेती का व्यवसायीकरण करने का एक षडयंत्र मात्र है। किसानों को जितना खतरा वैश्वीकरण से है, उतना ही जैविक खेती रूपी व्यवसायीकरण से भी है।’ गौर करें तो यह सारा मामला मार्केटिंग और पैसे से जुड़ा दिखता है। इसमें कहीं भी भूमि और किसानों व उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण की बात नहीं है। कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित इंडिया ओरगैनिक ट्रेड फेयर में ये सच्चाई भी खुलकर सामने आई कि जैविक प्रमाणित वस्तुओं का मूल्य किसान द्वारा बेचे गए मूल्य से बहुत ज्यादा होता है पर इसमें किसान का हिस्सा कहां है कुछ पता नहीं? किसी भी स्टाल पर किसानों के इस सवाल का जवाब नहीं था कि उन्हें जैविक खेती करने से क्या लाभ है? एक नामी प्रमाणीकरण संस्था के जांचकर्ता ने स्वीकार किया कि जैविक खेती के विदेशों में स्वीकृत मापदंड भारत की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं, इसलिए भारत का गरीब किसान अपनी खेती को जैविक प्रमाणित नहीं कर सकता। लगता है एक बार फिर खेती और किसान की भावनाएं दोनों ही बेची जा रही है। सुभाष पालेकर जैसे व्यक्तियों ने व्यावहारिक रूप से यह सिद्ध कर दिया है कि गाय को जैविक खेती का आधार बनाने से खेती में किसान की लागत भी शून्य हो जाती है और उसे फसल भी अच्छी मिलती है। रही बात प्रमाणीकरण में आने वाले खर्च की तो जैविक खेती से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि प्रमाणीकरण मार्केटिंग के लिए जरूरी है, मिट्टी और खेती के संरक्षण के लिए नहीं। यदि किसान यह बात समझ ले तो जैविक खेती का लाभ वही कमाएगा कोई बिचौलिया या दलाल नहीं।
सुरेन्द्र गोदारा
भू-मीत के दिसम्बर-जनवरी अंक से