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Friday, November 16, 2012

क्या होंगे राजस्थान में किसान आयोग की कवायद के नतीजे

कृषि वैज्ञानिक डॉ. हनुमान प्रसाद, जैव कृषि विशेषज्ञ एन. एस. राठौड़, डेअरी विशेषज्ञ प्रो. (कर्नल) ए. के. गहलोत, डा. ओ.पी.पारीक, डा. गोपाललाल, बी.एम.दीक्षित,  प्रगतिशील कृषक सुंडाराम वर्मा एवं प्रगतिशील महिला कृषक श्रीमती सुचित्रा आर्य पर आधारित राजस्थान किसान आयोग के मनोनीत अध्यक्ष नारायण सिंह ने 26 नवंबर 2011 को अपना कार्यभार ग्रहण करते समय कहा था कि राज्य में किसानों की दशा, उनके ऋण और ऋण व्यवस्था, उपज का मूल्य निर्धारण, मण्डी व्यवस्था, कृषि उत्पाद निर्यात, कृषि आधारित उद्योग आदि विषयों पर सरकार के समक्ष सिफारिशें प्रस्तुत करेंगे इसमें कृषि अधिकारियों कृषि विशेषज्ञों और प्रगतिशील किसानों का पूरा सहयोग लिया जाएगा।
आयोग ने अपनी घोषणा के अनुसार विगत महीनों में बीकानेर, उदयपुर और भरतपुर में संभाग स्तर पर कृषक संवाद कार्यक्रम आयोजित किए, जिनमें किसानों से उनकी समस्याओं की जानकारी और सुझाव प्राप्त किए गए। प्राप्त समस्याओं पर कृषि एवं अन्य 15 संबंधित विभागों के विभागाध्यक्षों तथा अन्य उच्च अधिकारियों की बैठक में चर्चा के फलस्वरूप राज्य सरकार को एक अंतरिम रिपोर्ट भिजवाई गई जिसमें काश्तकारों की आर्थिक स्थिति में बदलाव लाने के रचनात्मक सुझाव दिए गए थे। इस रिर्पोट में शीत लहर (पाले) से होने वाले नुकसान को भी आपदा में शामिल करने की सिफारिश की गई, जिसे केन्द्र सरकार ने मान लिया। इसके अलावा किसानों की फसल को रोझडों (नील गाय)से होने वाले नुकसान से छुटकारा दिलाने के लिए महात्मा गांधी नरेगा योजना के तहत रोझों के विचरण स्थल के क्षेत्र में चार दीवारी बनाने की सिफारिश भी की गई है, जिससे रोझ भी सुरक्षित रहेंगे और किसानों की फसलें भी नुकसान से बचेंगी। इसके अतिरिक्त इस अंतरिम रिपोर्ट में कृषि विपणन, उर्वरकों एवं बीज से संबंधित कृषि आदान व्यवस्था, फसल बीमा एवं कृषक बीमा, पशुधन बीमा, कृषि ऋण, भू-संसाधन, जल संसाधन, जैविक कृषि, कृषि तकनीकी का त्वरित प्रसार एवं अनुसरण, पशुधन स्वास्थ्य, बागवानी विकास, जनजाति क्षेत्र के कृषकों की समस्याओं सहित 16 विषयों पर बिन्दुवार अनुशंसाएं की गई हैं।
इसी क्रम में आयोग के सदस्य कृषि संभाग गंगानगर-हनुमानगढ़ के दौरे पर भी आए। कार्यक्रम में दोनों जिलों के प्रगतिशील किसानों ने सिंचाई पानी, नहरों, बीज, कीटनाशकों, फसल मूल्य, भंडारण, विपणन सहित किसानों को दिए जा रहे ऋण में पारदर्शिता बरतने और कृषि विश्वविद्यालय खोलने की मांग भी रखी। राज्य के प्रत्येक जिले में नंदीशाला खोलने, नहरों में पंजाब से आ रहे केमिकलयुक्त पानी से कैंसर जैसे जानलेवा रोगों की रोकथाम के लिए जल प्रदूषण पर कठोर कार्रवाई करने तथा मनरेगा में मजदूरों को किसानों के खेतों में काम करने की रणनीति तैयार करने की मांग रखी। कुल मिलाकर दोनों जिलों के किसानों की सारी समस्याएं पानी और अनुदान के चारों तरफ घूमती रही। एक भी किसान ने कृषि आधारित उद्योग की मांग नहीं की और न ही सरकारी योजनाओं की बदअमली के विषय को छुआ। आयोग के सदस्यों सहित अध्यक्ष नारायणसिंह का ध्यान जब उन योजनाओं और समस्याओं की ओर दिलवाया वे सभी औचक रह गए और यकीन करने को तैयार नहीं हुए। घोर आश्चर्य तो तब हुआ जब आयोग अध्यक्ष के कहा कि वे न तो इन योजनाओं के बारे में जानते हैं और न ही इनके असफल होने के बारे में। जब उन्हें बताया गया कि राज्य के कृषि विभाग के पास उपज के सही आंकड़े तक नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों जिलों का किसान समीपवर्ती राज्यों पंजाब और हरियाणा में अपनी फसल भावों में भारी अंतर के कारण बेच आता है, इस वजह से यहां की उपज का$गजी तौर कम होने के कारण केन्द्र और राज्स सरकार की बहुत सारी योजनाओं का लाभ यहां के किसानों को नहीं मिल पाता।
प्रदेश में 28 लाख रुपए मूल्य वाली 12 वातानुकूलित चल प्रयोगशालाएं हैं जिन्हें पीपीपी आधार पर निजी संस्थानों को संचालन के लिए दे रखा है। इनमें से एक भी वैन अपने लिखित अनुबंध के अनुसार कार्य नहीं कर रही है। इन चल प्रयोगशालाओं की जिम्मेदारी हर जिले में सहायक निदेशक, कृषि विस्तार के पास है। हद यह कि मुख्यमंत्री के गृह जिले की वैन पहले दिन से ही गंगानगर जिले की सूरतगढ़ तहसील में चल रही है जिसकी खबर न तो जोधपुर और न ही गंगानगर जिले के अधिकारियों पास है। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष के जिले की वैन एक साल खड़ी रहने के बाद वहां के संचालक एनजीओ से वापिस लेकर पाली, जैतारण क्षेत्र में भेज दिया गया है। यानी गलती सरकार और एनजीओ की और सजा चूरू, सीकर झुंझनू के किसानों को। इसी तरह किसानों को मौसम की सटीक जानकारी के लिए 25 करोड की लागत वाले आयातित डॉप्लर रडार लगाने की योजना विगत दो साल से महज इसलिए अटकी हुई है कि जिस भवन की छत पर इसे लगाया जाना है वह पुराना है और छ: टन वजन झेलने योग्य नहीं है। इससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह कि करीब दो वर्ष पहले इंडिअन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) ने गावं स्तर पर मौसम की सटीक जानकारी देने के लिए 300 अटमेटिक वेदर रडार राज्य को नि:शुल्क दिए थे किन्तु राज्य सरकार उनमें से अब तक मात्र 51 ही लगवा सकी है। कारण जानने पर पता लगा कि सरकार को तहसील और ब्लॉक स्तर एक भी ऐसा कार्यालय या स्थान नही मिल रहा है जहां इन रडार्ज को लगाया जा सके।
इसी तरह नरमा-कपास उत्पादन करने वाले जिलों की मण्डी कार्यालयों में टीएमसी(टैक्रालॅजी मिशन इन कॉटन) के तीसरे चरण में लाखों रुपए मूल्य के कुछ उपकरण दिए गए थे। इन उपकरणों की मदद से किसान को अपनी उपज के बारे में सारी जानकारी जिससे भाव तय होते हैं मात्र 20 मिनट में मिल जाती है। ये उपकरण आजतक उन मंडी कार्यालयों में पड़े जंग खा रहे हैं उन्हें महज इस वजह से नही लगवाया जा क्योंकि ऐसे तकनीकी कर्मचारी नहीं हैं जो इन्हें चला सके। मण्डी में कपास आने के बाद अकसर आगजनी की घटनाएं हो जाती हैं, जिससे करोडों रुपए मूल्य का कपास जल कर नष्ट हो जाती है। टीएमसी के तहत इन कृषि उपज मंडियों में आग बुझाने के लिए पाइप लाइन (फायर हायडे्रन्ट सिस्टम)बिछाकर संभावित खतरों को टालने की व्यवस्था की गई थी। मात्र छह माह में इन पाइपों और इसके साथ के सभी उपकरण सहित पूरे सिस्टम को लोग उखाड़कर ले गए, जिन्हें आजतक दोबारा नहीं लगावाया जा सका। बात जब कृषि उपज मंडी की आ गई है तो जानलें कि यह विभाग राजस्थान राज्य मार्केटिंग बोर्ड के अन्र्तगत आता है, जिसका काम है किसान की उपज सही कीमत पर बिके। तआज्जुब यह है कि इस विभाग में एक भी आदमी ऐगरिकल्चर मार्केटिंग का नहीं है। दरअसल यह एक कन्सटै्रक्शन बोर्ड है, जो मंडी बनाने उसमें पिड और शेड बनाने के अलावा कुछ नहीं करता। जबकि हिमाचल और कर्नाटक जैस राज्यों के मार्केटिंग बोर्ड में ऐगरिकल्चर मार्केटिंग के लोग काम कर रहे हैं।
इस इलाके की सबसे बड़ी समस्या है सिंचाई का पानी। नहरबंदी हर साल उस समय ली जाती है जब नरमा-कपास की बिजाई का मौसम होता है। जबकि मरम्मत के बहुत सारे काम ऐसे हैं जिनके लिए नहरबंदी की जरुरत नहीं पड़ती, जैसे पटरी से पेड़-पौधे काटने हों या अतिक्रमण हटाना हो। नहर के साइड की पटरियों पर मिट्टी डालनी हो या पुलों की मरम्मत करनी हो। नहरी महकमें की काहिली का यह आलम है कि नहर बंदी के बाद काम की निविदाएं आमंत्रित की जाती हैं। गत वर्ष 40 दिन की बंदी ले ली गई पर मरम्मत के नाम एक ईन्ट तक नहीं लगाई गई। सरकार को चाहिए कि ऐसा करने वाले अधिकारियों को आर्थिक दण्ड देते हुए तुरंत नौकरी से निकाल दे ताकि भविष्य में ये गलतियां दोहराई न जाएं।
कृषि आदानों में बीज की अहमियत किसी से छुपी हुई नहीं है। एक समय था जब जयपुर से गंगानगर जिले की पाकिस्तान सीमा तक बाजरा मुख्य फसल थी। आज उसी प्रदेश में जहां देश के छ: में से तीन सबसे बड़े बीज उत्पादक फार्म हैं, संकर बाजरे के 100 ग्राम बीज पैदा नहीं किया जाता। जबकि हर साल हमारे सरकारी अधिकारी बाजरे के बीजों की खरीददारी के लिए गुजरात और आंध्रप्रदेश जाते हैं। विडम्बना देखिए कि तीन से छ: हजार हेक्टेअर, (एक हेक्टेअर लगभग 4 बीधा) यानी 500 से 1000 मुरब्बा के क्षेत्र में फैले लगभग सारे ही फार्म आज अपने कर्मचारियों का वेतन तक नहीं निकाल पा रहे हैं। सूरतगढ़, सरदारगढ़ और जैतसर के तीनों फार्मों में कुल 16,238 हेक्टेअर यानी लगभग 65 हजार बीधा यानी 2600 मुरब्बे जमीन है, और देश के सारे फार्म मिला कर सवा 4 हजार मुरब्बे के विशालतम खेत हैं। सवाल उठता है कि जब थोड़ी सी जमीन के मालिक और पूर्णतया किसानों पर निर्भर रहने वाले निजी व्यापारी कुल बीज उत्पादन का 70 प्रतिशत पैदा कर रहे हैं तो पर्याप्त जल और आधुनिक मशीनों से युक्त ये विशाल संस्थान मात्र 12-14 प्रतिशत पर ही क्यों सिमटे बैठे हैं?
क्षेत्र का कृषि अनुसंधान केंद्र वैज्ञानिकों की सेवानिवृति और स्थानातंरण के कारण खाली होता जा रहा है। हाल ही में जो नई नियुक्तियां हुई है उन्हें आरक्षित कोटे से भरा गया है और उनमें भी 11 में से 9 ने ही कार्यभार संभाला है। इन 9 में से भी 3 को प्रतिनियुक्ति (डेप्यूटेशन) पर अन्यंत्र भेज दिया गया।
इन केन्द्रों से मोटा वेतन लेने वाले वैज्ञानिक जरूरत के हिसाब से एक भी नया बीज तैयार नहीं कर रहे। अगर गंगानगर का ही उदाहरण ले तो यहां के अनुसंधान केंद्र ने विगत 12 साल से कपास का एक भी नया बीज नहीं दिया, जबकि यह इस क्षेत्र की मुख्य फसल है। देश में बीटी कॉटन आए दस वर्ष हो गए पर सरकार आज तक तय नहीं कर पाई है कि इस तकनीक को अपनाना है या नहीं। अगर जीएम तकनीक खतरनाक है तो इसे देशभर में प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए, अगर यह अच्छी है तो सरकारी स्तर पर इसके बीज तैयार किए जाने चाहिए? दस साल बाद भी बीटी कॉटन जिसकी बिजाई इस समय देशभर में सबसे ज्यादा हो रही है, सरकारी कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसंधान केन्द्रों में इस तकनीक से बीज तैयार नहीं किए जाते, ये बाजार पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले है।
बीज के बाद अगर बात करें खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित उद्योगों की तो राज्य भर भी सरकारी स्तर एक भी उद्योग नहीं है जो किसान की उपज को खपा सके या उसे बेहतर कीमत दिला सके। नए उद्योगों की तो छोडें बरसों के जमे-जमाए उद्योग लगातार बंद हो रहे हैं। राज्य का एकमात्र सरकारी चीनी कारखाना अरसे से बंद पड़ा है। कपास से सूत बनाने वाला कॉटन कॉम्पलेक्स बेचा जा चुका है और निजी क्षेत्र की कपड़ा मिल सरकारी लापरवाही की भेंट चढ़कर दम तोड़ चुकी है।
किसानों को अकसर यह शिकायत रहती है कि बैंक उन्हें जरूरत का पैसा पूरा और समय पर उपलब्ध नहीं करवाता। बैंक ऋण देते समय योजनाओं के बारे में किसानों को शिक्षित नहीं करते इससे उनमें और बैंको के बीच विवाद बढ़ रहे हैं। इस तरह के विवाद अदालतों में न जाएं और ग्रामीणों को सही व पूरी जानकारी मिल सके इसलिए रिजर्व बैंक ने हर जिले के लीड बैंक को वित्तिय साक्षरता और ऋण परामर्श केंद्र (एफ.एल.सी.सी.) खोलने के आदेश दिए। इसके तहत देश भर के 640 जिलों में से मात्र 210-15 जिलों में औपचारिक तौर पर यह केन्द्र स्थापित कर दिए गए। एक साल से ज्यादा अरसा होने के बाद भी इन केंद्रों पर किसान तो दूर, चिड़ी का बच्चा तक नहीं आया। कारण एक ही है इन्हें प्रचारित ही नहीं किया गया, किसानों की तो बात ही दूर जिले के अधिकारियों से लेकर राज्य सरकार के मंत्रियों तक को पता नहीं कि ऐसा कोई केंद्र भी है। यहां तक कि किसान आयोग के सदस्यों और अध्यक्ष महोदय के लिए यह जानकारी भूतों की कहानी थी।
राज्य का किसान आयोग किसानों की समस्याओं को उन्हीं के मुंह से सुनकर हल ढूंढ रहा है। जब किसान अपने लिए चल रही दर्जन भर ऐसी योजनाएं और संस्थाओं के बारे में जब जानता ही नहीं तो इनके बारे में आयोग के सामने बात भी कैसे करेगा? किसान आयोग को अगर वास्तव में किसानों की समस्याओं का हल करना है तो उसे अपनी जानकारी का दायरा बढ़ाना होगा, वरना उसकी यह सारी कवायद महज कागज़ों तक सिमट कर रह जाएगी।

Tuesday, November 6, 2012

मनरेगा का नफा-नुकसान

डॉ. भरत झुनझुनवाला
यूपीए सरकार की महत्त्वकांक्षी योजना मनरेगा के सार्थक परिणाम सामने आ रहे हैं। श्रमिकों को रोज़गार अपने घर के पास उपलब्ध हो रहा है। परियोजना में 100 दिन के रोज़गार की व्यवस्था है जिसे अब बढ़ाकर 150 दिन किया जाना प्रस्तावित है। हालांकि 100 दिन के रोज़गार में भी योजना आयोग के अनुसार औसतन केवल 14 दिन का रोज़गार उपलब्ध हो पा रहा है। इस आंकड़े से उद्वेलित नहीं होना चाहिए। खबर है कि दक्षिण के कई राज्यों में श्रमिक 100 रुपए में मनरेगा में काम करने को राजी नहीं हैं क्योंकि क्षेत्र में सामान्य वेतन 200 रुपए है जबकि मनरेगा में 200 के स्थान पर 100 रुपए की ही कमायी होती है। तुलनात्मक रूप से पिछड़े राज्यों में मनरेगा का गहरा प्रभाव पड़ा है। मनरेगा का एक मात्र उजला और सार्थक पक्ष यह है कि बिहार, झारखण्ड और उड़ीसा के पिछड़े जिलों में जहां श्रमिकों की दिहाड़ी 50-60 रुपए थी, मनरेगा के कारण इसमें सहज ही वृद्धि हुई है। फलस्वरूप इन राज्यों से श्रमिक कम पलायन कर रहे हैं, और सम्पूर्ण देश में वेतन वृद्धि हो रही है।
किन्तु इस एकमात्र अच्छे और उजले पक्ष के साथ मनरेगा के तीन नकारात्मक बिन्दु भी सामने आए हैं। पहला यह है कि इसके अन्तर्गत गांवों में ही विकास कार्य कराए जाते हैं, जबकि गांव में उत्पादक कार्यों की संभावनाएं सीमित होती हैं। गांव में तालाब एक बार ही खोदा जा सकता है बार-बार खोदने का तो केवल स्वांग ही रचा जा सकता है। सड़क पर मिटटी डालने का काम भी ज्यादा हो जाए तो सड़क कमजोर हो जाती है। मतलब यह है कि मनरेगा में नदी के किनारे चेकडैम बनाने जैसे व्यर्थ के कार्य करवाए जाते हैं, जिससे हमारी अर्थशक्ति अनावश्यक कार्यों में क्षय हो रही है। मनरेगा में कमी का दूसरा बिन्दु यह है कि बिहार से मजदूरों के नहीं आने से उत्तरी राजस्थान और पंजाब जैसे क्षेत्रों में किसानों एवं उद्यमियों के लिए श्रमिकों की जबरदस्त कमी उत्पन्न हो रही है। एग्री-बिजनेस एण्ड मैनिजमेंट वेबसाइट पर बताया गया है कि मानव श्रमिकों की कमी के कारण किसानों द्वारा रासायनिक कीटनाशकों एवं मशीनों का उपयोग ज्यादा किया जाएगा। यानी किसान द्वारा निराई, गुड़ाई, कटाई, छंटाई के जो रोज़गार श्रम बाजार में सहज ही उत्पन्न किए जा रहे थे वे कार्य अब मशीनों द्वारा करवाए जाएंगे। दीर्घकाल में यह श्रमिकों के लिए हानिप्रद होगा क्योंकि उसकी श्रमशक्ति की मांग ही नहीं रह जाएगी। मनरेगा के अन्तर्गत काम करवाकर सरकार श्रमिक से अपने पैर पर कुल्हाड़ी चलवा रही है। निरीह श्रमिक 100 दिन काम करके आज प्रसन्न हैं परन्तु वे भूल रहे हैं कि आने वाले समय में उन्हे शेष 265 दिन बेकार बैठना पड़ेगा। मनरेगा की कृपा से वे गरीबी के कुएं से निकल कर मशीनीकरण की खाई में गिरने जा रहे हैं। श्रमिक की दिहाड़ी में तात्कालिक वृद्धि तो हो रही है परन्तु दीर्घकाल में उसके श्रम की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी।
तीसरी समस्या पलायन में रुकावट की है। तकनीकी बदलाव के साथ श्रम का पलायन होना अनिवार्य है। एक समय था जब सभी प्रमुख शहर जैसे दिल्ली, कानपुर, पटना एवं कोलकाता आदि नदियों और समुद्र के किनारे बसाए गए। क्योंकि यातायात प्रमुखत: जलमार्ग से होता था। आज रेल और वायुयान के विकास से हिसार, जयपुर और हैदराबाद जैसे शहर भी महानगर बने जा रहे हैं। आज यातायात और परिवहन साधनों पर जलमार्गों का एकाधिकार नहीं रह गया है, अत: नए शहरों की ओर श्रम का पलायन होना स्वाभाविक है। पटना, गया और भागलपुर की बढ़ती जनसंख्या को घर में रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है तथा नये कारखाने दूसरे स्थानों पर लग रहे हैं। इन शहरों के श्रमिकों के लिए कोलकाता, पंजाब, गुजरात और हरियाणा पलायन करना ही श्रेयस्कर है। जिस प्रकार मंडी से सेब और टमाटर उस शहर को भेजे जाते हैं जहां मांग अधिक होती है उसी प्रकार श्रम को भी उसी स्थान पर भेजा जाना चाहिए जहां उसकी मांग अधिक है। गयाना, फिजी, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भारत से बड़ी संख्या में श्रमिक इसी वजह से गए थे। नरेगा द्वारा इस पलायन को जबरन रोका जा रहा है अर्थात उत्पादक स्थान पर श्रम की कमी एवं अनुत्पादक स्थान पर श्रम की बर्बादी होने दी जा रही है।
मनरेगा के इस नकारात्मक पक्ष के प्रति सरकार की उदासीनता का कारण यही लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी का पहला उद्देश्य सत्ता पर बना रहना होता है। इसलिये सरकार मतदाता को उलझाए रखना चाहती है ताकि वह हमेशा सरकार के चारों ओर चक्कर लगाता रहे। दरअसल, सरकार की अंदरूनी मंशा गरीब को गरीबी से उबारने की नहीं है बल्कि उसे गरीब बनाये रखने की होती है। जैसे यदि सरकार लाभार्थी को सीधे 10,000 रुपये प्रति वर्ष दे दे तो लाभार्थी को सरपंच के चक्कर नहीं काटने होंगे बल्कि वह इस रकम से सरपंच की धांधली को उजागर करेगा। अत: सरकार ने युक्ति निकाली है कि नकद के स्थान पर रोज़गार दो ताकि लाभार्थी सरकारी तंत्र पर ही निर्भर रहे। दरअसल मनरेगा गरीब को परावलम्बी बनाने का एक नुस्खा है और सरकार इसमें कामयाब भी हो रही है।
इन समस्याओं के बावजूद मनरेगा की मूल सोच सही दिशा में है। श्रम को ऊंचा वेतन मिलना ही चाहिए परन्तु इस उद्देश्य को मनरेगा से सही मायने में हासिल नहीं किया जा रहा है। हमें ऐसे उपाय निकालने होंगे कि श्रम का मूल्य भी बढ़े और उसकी उत्पादकता भी बनी रहे। पहला उपाय है कि हर परिवार को मनरेगा के अन्तर्गत दी जाने वाली दस हज़ार रुपये की रकम सीधे वितरित कर दी जाए और इस रकम को प्राप्त करने के लिए दो-चार घंटे फर्जी काम करने का जो नाटक हो रहा है उसे भी समाप्त कर दिया जाए। इससे श्रमिक दूसरे उत्पादक कार्यों में लगे रहते हुए इस रकम को प्राप्त कर सकेंगे। इसे प्राप्त करने के लिए उसे निकम्मा नहीं बनना होगा। मनरेगा में तेजी से व्याप्त होती अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से भी देश को छुटकारा मिल जाएगा।
सुधार का दूसरा उपाय है कि सरकारी विभागों अथवा उनके ठेकेदारों द्वारा श्रमिक को दिया जा रहा भुगतान सरकार मनरेगा के बजट से दे दे। सार्वजनिक निर्माण विभाग को एक लम्बी-चौड़ी सड़क बनाने में जितने श्रमिकों का उपयोग करना हो उतनी रकम मनरेगा द्वारा सा.नि.वि. को उपलब्ध करा दी जाए। इससे सरकारी विभागों एवं ठेकेदारों के लिए कार्यों को मशीनों के स्थान पर श्रमिकों से कराना लाभप्रद हो जाएगा क्योंकि मशीनों का भुगतान उन्हें अपने बजट से करना होगा। इसी प्रकार निजी उद्योगों द्वारा उपयोग किये गये श्रम पर 50 रुपए प्रतिदिन का अनुदान दिया जा सकता है। ऐसा करने से बाज़ार में सहज ही रोज़गार उत्पन्न हो जाएंगे और मनरेगा की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। फिर भी यदि मनरेगा को जारी रखना ही हो तो इसमें निजी भूमि के सुधार की छूट दी जानी चाहिए। किसान अपने खेत पर मेड़बन्दी करे और वृक्ष लगाये तो मनरेगा उसे मजदूरी दे। इससे यह रकम उत्पादक हो जाएगी और उद्योगों को हो रहे नुकसान की आंशिक भरपायी भी हो जायेगी। सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए कि श्रमिक की दिहाड़ी में वृद्धि भी हो और उसके श्रम का सदुपयोग भी हो।
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और देश के कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए इस विषय पर लिखते हैं।)

Thursday, November 1, 2012

हिंदी भाषी राज्य और सहकारिता

देश में सहकारिता के कुछ जानकारों का मानना है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से चल रहा सहकारिता आंदोलन बिखरने के कगार पर है। हालांकि यह आज विराट रूप धारण कर चुका है और एक अनुमान के अनुसार इस समय देशभर में करीब 5 लाख से अधिक सहकारी समितियां सक्रिय हैं। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि वर्तमान मेंइस क्षेत्र में करोड़ों लोगों को रोज़गार भी मिल हुआ है। सहकारी समितियां समाज के अनेक क्षेत्रों में काम कर रही हैं, और बैंकिग, कृषि, उर्वरक और दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में इनकी भागीदारी सर्वाधिक है। वैसे तो आज देश का सहकारी आंदोलन राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बनकर अनेक विसंगतियों के जाल में फंसा दिया गया है। लेकिन हिंदी-भाषी राज्यों सहकारिता का प्रदर्शन अब तक बहुत खराब रहा है इन राज्यों में सहकारिता आंदोलन को असफल और लूट-खसोट का जरिया मान लिया गया है। 
निराशा के इस माहौल में हिंदी भाषी राज्यों के लिए एक अच्छी खबर भी है। हाल ही में उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ व हरियाणा ने अच्छे परिणाम दिए हैं। देश के 60 सर्वोत्तम जिला सहकारी बैंकों में यूपी के 4, बिहार के 5, उत्तराखंड के 8, पंजाब के 6, छत्तीसगढ़ के 4 और हरियाणा के 3 बैंकों ने अपना स्थान दर्ज कराया है। सहकारिता आंदोलन को गुजरात में जहां सबसे ज्यादा सफल माना जाता है वहां से सिर्फ 1 और महाराष्ट्र में 12 जिला सहकारी बैंक सर्वोत्तम प्रदर्शन करने वालों में शामिल हुए हैं। सहकारिता आंदोलन को जांचने के लिए देश की सबसे अच्छे 60 जिला सहकारी बैंक चयनित हुए जिनमें सबसे अच्छा महाराष्ट्र रहा जहां के 12 सहकारी बैंक तो प.बंगाल जिसकी केवल 1 जिला सहकारी समिति का चयन हो सका और राजस्थान सबसे फिसड्डी राज्य साबित हुआ जिसकी एक भी सहकारी संस्था इसमें शामिल नहीं है।
पहले स्थान पर ओडिशा की बालासोर, दूसरे स्थान पर तमिलनाडु की विलुपुरम्म और तीसरा स्थान महाराष्ट्र के मुम्बई को मिला। सर्वोच्च दस में उत्तरप्रदेश का भी नम्बर आया, यहां के इटावा जिला सहकारी बैंक की प्रति शाखा व्यवसाय 11.16 करोड़ रुपए रहा जबकि देश की सर्वोच्च शाखा ओडिशा की बालासोर रही जहां 29.98 करोड़ का व्यवसाय प्रति शाखा रहा। गुजरात की तरह प. बंगाल की एकमात्र शाखा इन परिणामों पर खरी उतरी है। बहरहाल, सहकारिता में उत्तर भारत भले ही पिछड़ा नजर आए फिर भी कर्ज बांटने के मामले में यहां 2006-07 में 23872 करोड़ रुपए कृषि क्षेत्र में दिए गए जो कि 51 प्रतिशत था जबकि 49 प्रतिशत यानी 47069 करोड़ रुपए का कर्ज गैर कृषि क्षेत्र को दिया गया। वर्ष 2008-09 में कृषि क्षेत्र में 53 प्रतिशत कर्ज बांटा गया तो 47 प्रतिशत धन गैर कृषि क्षेत्र को दिया गया। ग्रामीण क्षेत्र में हुए ताजा अध्य्यन में कहा गया है कि किसान को साहूकार के कर्ज पर निर्भर रहना पड़ता है जो 36 प्रतिशत से लेकर 120 प्रतिशत तक ब्याज वसूलते हैं। आंकड़ों के अनुसार 79 फीसदी किसान लघु श्रेणी के हैं जिनके 367 जिला सहकारी समितियों में 4401 करोड़ रुपए फंसे हैं जो कि बड़े लोगों के पास हैं। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि सहकारिता के तहत चलने वाले मिनी बैंकों के पास आज भी बहुत मौके हैं, जरूरत है तो सिर्फ ईमानदारी से काम करने की।

Tuesday, October 30, 2012

सहकारिता कल, आज और कल

कल्पना करें आज से पच्चीस हजार वर्ष पहले की, जब आदमी मुख्यतया शिकार पर ही जीवन यापन करता था जब जंगल में उससे कहीं अधिक सशक्त जानवरों का राज्य था, तब यह दुर्बल सा प्राणी बिना हथियारों के मात्र लाठी और पत्थर की सहायता से अपनी रक्षा कैसे पाया? और कैसे उन सशक्त जानवरों को अपने वश में किया? यदि शारीरिक रूप से दुर्बल मानव जाति इन भयंकर जीव-जंतुओं के रहते अपनी रक्षा मात्र लाठी तथा पत्थरों से कर सकी थी, तब इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि यह 'सहयोग' या सहकार से ही हुआ होगा। सहयोग के तत्काल प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती सिवाय इसके कि 'शुभ कामनाएं' मिलें। किन्तु उस काल के आखेट में सहयोग में भी कुछ स्पष्ट 'लेन-देन' की भावना या मान्यता रही होगी, जैसे कि शिकार का मांस सभी में बँटता होगा। वास्तव में वह सहयोग अलिखित सहकार ही था, लिखित अनुबन्ध तो उन दिनों होते नहीं थे।

यूरोप के नवजागरण काल यानी सोलहवीं शती में उद्योगपतियों या व्यवासाइयों के 'गिल्ड' हुआ करते थे जो उद्योग या व्यापार के नियम बनाते और उनका सभी घटकों में पालन होते भी देखते थे; किन्तु वह आधुनिक अर्थों में 'सहकारिता' नहीं थी। अधिकांश विद्वान यह कहते हैं कि सहकारिता तो ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति पर प्रतिक्रिया की बीसवीं सदी की उपज है। किन्तु यह सुखद तथ्य है कि सहकारिता के विषय में विश्व में सर्वप्रथम श्रमिकों के संगठन, उद्योगपतियों या व्यवसाइयों, तथा गिल्ड, और सहकारिता के नियमों की जानकारी चाणक्य (330 ईसा पूर्व) द्वारा रचित अर्थशास्त्र (आर्थिक शास्त्र नहीं, वरन शासन संहिता) में मिलती है और वह भी पर्याप्त विकसित रूप में। शासन निजी तथा शासकीय उद्योगों के कार्यों के सुचालन में उपयुक्त नियमों के बनाने तथा कार्यान्वयन में सक्रिय योगदान करता था।
सहयोग तथा सहकार
सहयोग तथा सहकार में मुख्य अंतर यह है कि, बिना सहयोग की भावना के सहकार नहीं हो सकता। दूसरा यह कि सहयोग अनौपचारिक है, और सहकार औपचारिक जिसमें लिखित नियम या अनुबन्ध भी होते हैं। तीसरा यह कि सहयोग में करने वाले को किसी अन्य लाभ की अपेक्षा नहीं होती, जबकि सहकार में लाभ या हानि बाँटी जाती है। चौथा अंतर है सहयोग करने वाले पक्षों के बीच घनिष्ठता तथा मैत्री होती है, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं, जबकि सहकार में मैत्री की भावना आवश्यक है। पांचवा यह कि सहकार में साझा व्यक्तियों के उद्देश्य तथा कार्य विधि में सहमति होना आवश्यक है जबकि सहयोग में सहमति का होना आवश्यक नहीं है।
सहकारिता आज
आजकल अनेक विशाल उद्योग, दूकानें, बैंक आदि सहकारिता के आधार पर चल रहे हैं, अधिकांशत:, इनके सदस्य उपभोक्ता होते हैं। विदेशों में यह बहुदा सफल हैं किन्तु एशिया में उतने कामयाब नहीं हैं। सहकारिता को इस देश में भी वांछनीय महत्त्व या सम्मान नहीं मिलता। सोचने की बात है कि सहकारिता की इस नगण्य प्रगति में हमारा चरित्र ही प्रमुख कारण है या रूसी सोच पर आधारित समाजवाद(यूनिअनिजम) या फिर अधकचरा पूँजीवाद? जब विश्व में इसके तहत खरबों डालर का कार्य सुचारु और व्यवस्थित रूप से चल रहा है, तब हम भी समस्याओं के हल निकाल सकते हैं, किन्तु वे मूलभूत विचार में कमी के कारण फिर भी सीमित रहेंगे। सहकारिता के कार्य में कार्मिकों में दक्षता के साथ उपरोक्त मूल्य, यथा, सच्चाई, सेवाभाव, कर्तव्यनिष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक हैं। यह चरित्र का विषय तो है ही, किन्तु साथ ही व्यक्ति की समग्र जीवन दृष्टि का भोगवादी न होकर 'त्यागमय-भोगवादी' होना भी आवश्यक है।
सहकारिता का भविष्य
सहाकारिता की मानवीय दृष्टि न तो आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती है। पूँजीवाद में पैसे की गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफिय़ा नागरिकों पर हावी रहता है और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही सच्चे अर्थों में मानववादी नहीं हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। अत: इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सन 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उसने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्त्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2012 को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।
सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की भावना सन्निहित है, किन्तु इसमें क्न्ज़्यूमैरिजम अर्थात उपभोक्तावाद का विरोध सीमित ही है- जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा आतुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की कामना करता है- सर्वे भवन्तु सुखिन: और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे का आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावास्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।

विश्व मोहन तिवारी
सेवा-निवृत एअर वाइस मार्शल, नोएडा-201 301

Monday, October 29, 2012

सत्ता का सोपान बनी सहकारिता

माना जाता है कि सहकारिता देश में सदियों से चली आ रही संयुक्त परिवार प्रणाली के सिद्धातों पर आधारित है। चाहे वर्तमान में सहकारिता की नींव रहे संयुक्त परिवार न रहे हों पर सहकारिता अभी जिन्दा है। यह अलग बात है कि आज सहकारिता के अर्थ और संदर्भ दोनों बदल चुके हैं।  आजादी के बाद से ही देश में सहकारिता का स्थान व्यक्तिवादिता लेने लगी। जिसका परिणाम यह हुआ कि सहयोग का स्थान प्रतिस्पर्धा ले लिया, जिसका असर किसानों एवं गरीब लोगों की स्थिति पर भी साफ नजर आने लगा।
हो सकता है 19 वीं सदी के आरंभ में जब सहकारिता की नींव रखी गई तब शायद व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक क्षेत्रों की आर्थिक प्रणालियों में पाए जाने वाले दोषों का निवारण करने का उपाय इसमें शामिल रहे हों। दरअसल सहकारिता इन दोनों के बीच की स्थिति है। 1915 में गठित मैकलगेन समिति के अनुसार, सहकारिता का सिद्धांत यह है कि- एक अकेला साधनहीन व्यक्ति भी अपने स्तर के व्यक्तियों का संगठन बनाकर, एक दूसरे के सहयोग, नैतिक विकास व पारस्परिक समर्थन से अपनी कार्यक्षमता के अनुसार, धनवान, शक्तिशाली व साधन संपन्न व्यक्तियों को उपलब्ध सभी भौतिक लाभ समान स्तर पर प्राप्त कर सकता है। लेकिन, सहकारिता के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए कहा जा सकता है कि इसके मूल स्वरूप के सिद्धांत में नैतिक विकास और परस्पर सहयोग की भावना सिरे से गायब हैं। 
अकसर ऐसे समाचार मिल जाते हैं कि अमुक सहकारी बैंक या सहकारी मिल बंदरबांट या घोटाले की वजह से बंद हो रही है। सहकारी समितियों के कामकाज, उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और राजनीतिक घुसपैठ के कारण सहकारिता के मूल स्वरूप पर मंडराते खतरे पर निरंतर उठते सवालों से जाहिर होता है कि किस तरह से प्रभावशाली लोगों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इन जनसंस्थाओं पर तानाशाहीपूर्वक कब्जा कर जनता को उनके अधिकारों से बेदखल कर रखा है। महाराष्ट्र में शरद पवार और गोपीनाथ मुंडे जैसे राजनीतिज्ञ चीनी सहकारी मिलों के जरिए अपनी राजनीति चमकाने में सफल हुए हैं।
एक समय था सहकारिता के कारण गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के किसानों को एक नई दिशा मिली और उनके लिए तरक्की की राह प्रशस्त हो सकी। किन्तु धीरे-धीरे महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के कारण बड़ी जोत वाले किसानों का दबदबा सहकारी मिलों पर बढ़ता चला गया और उनके नियंत्रात्मक ढांचों में बदलाव आने लगे। अब शुगर फैक्ट्रियों के संचालक मंडल के चुनावों में धन महत्त्वपूर्ण कारक बनता जा रहा है। धनाढय़ एवं शक्तिशाली किसान अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष जैसे पदों को हथियाने लगे हैं और अधिसंख्यक आम सदस्य किसानों के अधिकार नाममात्र के रह गए हैं। अगर कोई इनके सामने खड़ा होने की जुरअत कर भी ले तो उन्हें प्रबंधकों के गुस्से का शिकार बनना पड़ता है। ऐसे किसानों को सबक सिखाने के लिए उनके खेतों से गन्ना नहीं खरीदा जाता, पानी एवं बिजली के कनेक्शन कटवा दिये जाते हैं, उधार पर रोक लगा दी जाती है। सवाल उठता है कि इन हालात में सहकारी संस्थानों की क्या प्रासंगिकता रह जाती है? आधिकारिक जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र में कोई भी ऐसा सहकारी संस्थान नहीं है, जिस पर राजनीतिज्ञों का नियंत्रण न हो। वहां की 5 प्रतिशत चीनी मिलों पर भारतीय जनता पार्टी, 35 प्रतिशत पर कांग्रेस और शेष 60 प्रतिशत पर राष्ट्रवादी कांग्रेस का कब्जा है। 
कुल मिला कर देश के सभी राज्यों में सहकारी संस्थान राजनेताओं की सत्ता की सीढ़ी बने हुए हैं। यह अलग बात है कि उत्तर भारत में ये संस्थाएं तीसरे-चौथे दर्जे के नेताओं की शरण-स्थली बनी हुई हैं। भारत सरकार के पूर्व गृह सचिव माधव गोडबोले और अर्थशास्त्री डा. प्रदीप आपटे जैसे लोग इस तरह के सहकारी संस्थानों की दशा में सुधार हेतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि आम लोग सहकारी संस्थाओं के सदस्य तो हैं, लेकिन सिवाय मताधिकार के उनके पास कोई और अधिकार नहीं है। व्यावसायिक तथ्यों की यहां हमेशा अवहेलना हुई है। बैकुण्ठ मेहता नैशनल कोऑपरेटिव इंस्टीट्यूट, पुणे से सम्बद्ध एस.पी. भोंसले कहते हैं कि सहकारी संस्थानों में होने वाले चुनाव कामकाज में बाधा पहुंचाते हैं और उन पर जमकर दलगत राजनीति (पार्टी पॉलीटिक्स) बुरी तरह हावी रहती है। वे कहते हैं कि महाराष्ट्र विधानसभा में 80 प्रतिशत लोग ऐसे मंत्री हैं, जो किसी न किसी रूप में सहकारी समितियों से जुड़े हुए हैं। जबकि गोआ विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति डा. पद्माकर दुभाषी कहते हैं कि- सहकारी संस्थाओं में लोकतंत्र की जगह परिवारतंत्र का दौर है।

Sunday, October 28, 2012

सहकारिता का भविष्य

गुजरात और कुछ हद तक महाराष्ट्र को छोड़कर समूचे उत्तर भारत में सहकारिता आन्दोलन पर नजर डालें तो सहकारिता का अर्थ कुछ और ही दिखता है। बिहार और मध्यप्रदेश से लेकर हरियाणा, राजस्थान और पंजाब तक फैली आखिरी सांस लेती चीनी, रूई और तेल मिलें, लगातार बंद होते सहकारी बाजार और करोड़ों का घाटा देते सहकारी बैंक ऐसे लगते हैं जैसे वर्षों पहले मर चुकी सहकारिता के मजार हों। इन सबके बावजूद दिल्ली के सबसे मंहगे इलाके सीरी फोर्ट में एन.सी.डी.सी., एन.सी.यू.आई. जैसे दो दर्जन कार्यालय पूरी शानो-शौकत से पता नहीं किस वजह से खड़े हैं। सहकारिता की ये ऊंची-ऊंची इमारतें शायद इस बात की गवाह हैं कि नेता और अफसर न होते तो सरकारी मदद पर जिन्दा रहने वाली सहकारिता कभी भी इतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच जाती।
उत्तर भारत की सहकारिता को अगर नेताओं और अधिकारियों की सहकारिता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। किसी जिले के छोटे से सहकारी बैंक में भी अगर निदेशक का पद मिल गया तो उनकी सात पीढिय़ों के तक के वारे-न्यारे हो जाते हैं। घाटा होता है तो राहत पैकेज देने के लिए सरकार तैयार बैठी है। यही वजह है कि हमारे सभी नेताओं को सहकारिता में टांग फसाना बहुत ज्यादा पसंद है। एक बार कोई पद मिल जाए तो उसके बाद किसी भी चुनाव में हार-जीत की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहता। दफ्तर मिला हुआ है, ए.सी. लगा हुआ है, गाडिय़ां दौड़ रही हैं और भत्ते पक रह हैं। यही वजह है कि सहकारिता भ्रष्ट नेताओं की नर्सरी बनी हुई है। भले ही इसमें लिज्जत उद्योग जैसी ईमानदारी और कार्यकुशलता हो न हो, उसके पापड़ जैसा स्वाद जरूर है।
इस बात की ताइद तो इफको के प्रबंध निदेशक उदयशंकर अवस्थी भी करते हैं, उनका कहना है कि- सहकारिता में अभी भी 19 वीं सदी के व्यापार मॉडल का पालन हो रहा है, जिसे कचरा-पेटी में डालने की जरूरत है। आज के युग में रुपए की अस्थिरता, बैंक ऋण नीति, अस्थिर कमोडिटी कीमतें, किसानों के लिए नवीन उत्पाद खरीदना आदि अनेक चुनौतियों के होते केवल सामरिक खरीदी और अत्याधुनिक योजना से ही कोई सहकारी संस्थान लाभ के अनुपात को बनाए रखने में सफल हो सकता है।

Friday, September 14, 2012

अनाड़ी हाथों में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं

आजादी के 65 साल बाद भी देश ऐसे डॉक्टरों से भरा पड़ा जिन्हें बोलचाल की भाषा में आरएमपी या झोलाछाप कह कर बुलाते हैं। ये लोग सिर्फ गाँवों में ही नहीं देश और राज्यों की राजधानियों तक में अपनी दुकानें सजा कर बैठे हैं, और विभिन्न पैथियों से इलाज के नाम पर लोगों के जीवन से खेल रहे हैं। कभी-कभार इनके खिलाफ अभियान चलाया जाता है तो ये कुछ समय तक अपनी दुकान बंद कर देते हैं, और मौका मिलते ही फिर शुरू हो जाते हैं।
क्यों चलती है इनकी दुकान?
चूंकि देश में योग्य एवं प्रशिक्षित चिकित्सकों की कमी है, और जो हैं वे गांवों में जाना नहीं चाहते। इसका फायदा ये तथा-कथित डॉक्टर उठाते हैं। देश में इस तरह के डॉक्टरों को पैदा करने वाले संस्थानों की भी कमी नहीं है। देश के हर राज्य में इस तरह के संस्थान हैं, धडल्ले से डिग्री और प्रमाणपत्र जारी करने की अपनी दुकानदारी चलाते हैं। हालांकि न तो डिग्री प्रदान करने वाले इन संस्थानों की कोई अहमियत है और न इन डिग्रियों की, क्योंकि ये संस्थान कहीं से भी मान्यता प्राप्त नहीं हैं।
किन बीमारियों का इलाज करते हैं ये डॉक्टर?
इस व्यसाय में दो तरह के डॉक्टर हैं। पहले वे जो गावों में रहकर हर छोटी-बड़ी बीमारी का इलाज करते हैं और शहर के बड़े डॉक्टरों के कमीशन ऐजेन्ट हैं। दूसरे वे जिनके आपने अकसर ऐसे विज्ञापन देखे होंगे जिनमें कई सारी बीमारियों का सौ प्रतिशत गारण्टी से इलाज का दावा होता है। आपमें से कुछ लोग उन पर यकीन भी कर लेते हैं। आइए जानते हैं कि वो कौनसी बीमारियां हैं जिनका इलाज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास नहीं किसी हकीम, वैद्य बाबा या झोलाझाप डॉक्टर के पास है। इस तरह के लोग जिन बीमारियों को ठीक करने का दावा करते हैं, उन्हें सुविधा के लिए चार श्रेणियों में बांट लेते हैं। पहली श्रेणी में वह लाइलाज बीमारियां आती हैं जिनका अब तक विज्ञान से कोई पक्का इलाज नहीं ढंूढ़ा है जैसे- कैंसर, ऐडस, गंजापन, छोटा कद, कुछ तरह के सफेद दाग, स्थाई विकलांगता और कुछ तरह के मानसिक रोग हैं। दूसरी श्रेणी में वह बीमारियां हैं जिनका इलाज या तो मंहगा है या सिर्फ ऑपरेशन से ही ठीक हो सकती हैं जैसे- पित्ते की पथरी, घुटने और जोडों का दर्द, मोटाप या दूबलापन, बवासीर, बढ़ा हुआ गूदूद और कुछ तरह की गांठें आदि। तीसरी श्रेणी में वह बीमारियां है जो समय के साथ खुद व खुद ठीक हो जाती हैं जैसे पीलिया, कील, मुहासे, झाइयां और कुछ तरह का लकवा और चौथी तथा अंतिम श्रेणी में आने वाली बीमारियां मदार्ना कमजोरी या यौन रोगों से संबंधित होती हैं। विडंबना है कि जो लाइलाज बीमारी अच्छे-अच्छे डॉक्टरों के उपचार से ठीक नहीं हुई और जिन्हें डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, ऐसे लोग इन आकर्षक विज्ञापनों के जाल में फंस जाते हैं। यह इलाज करवाते समय हमारी सोच यह होती है कि जब हजारों रुपए खर्च करने पर भी बीमारी ठीक नहीं हुई तो कुछ रुपये और सही।
कैसी-कैसी डिग्रियाँ
पांचवी, सातवीं या दसवीं फेल ये डॉक्टर अपने नाम के आगे आरएमपी, बीएमपी, बीएएमएस, डीएचएमएस, डीएमयू, बीएससी, एसआइएमएस (सिम्स), एमआइएमएस (मिम्स) और यहां तक कि अपने नाम के आगे एफआरसीएस तक लिखने से गुरेज नहीं करते। ये झोलाछाप एमबीबीएस (एएम) यानी अन्तरनेटिव मेडिसीन में डिग्री अपने बोर्ड पर धड़ल्ले से लिखते हैं। कई चिकित्सक तो ऐसे हैं जो अपने नाम के आगे डीएम, एएससीएमई, एएपीएमई (फिजिशियन एण्ड सर्जन) लिखने के साथ ही धड़ल्ले से आपरेशन तक करते हैं। इन चिकित्सकों की कई पीढ़ियां इस पेशे में लगी है। यदि इन चिकित्सकों से इन भारी-भरकम डिग्रियों का अर्थ पूछ लिया जाए तो कई रोचक जवाब मिलते हैं और कुछ तो बगलें झांकने लगते हैं। जानकरी के लिए बतादें कि सिम्स व मिम्स पत्रिकाओं के नाम हैं जिसकी इन फर्जी डॉक्टरों ने वार्षिक सदस्यता ले कर अपनी डिग्री में शामिल कर लिया है। बीएएमएस को ये लोग बैचलर ऑफ मेडिसिन ऐंड बैचलर ऑफ सर्जरी बताते हैं जो एक आयुर्वेदिक डाक्टरों की डिग्री है। अपने नाम के आगे आरएमपी लिखने वाले डॉक्टर इस डिग्री की अलग-अलग व्याख्या करते हैं। कोई रुरल मेडिकल प्रैक्टिशनर, कोई रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर तो कई ने इसे रीयल मेडिकल प्रैक्टिशनर कहते हैं तो कुछ आरएलडी डिग्रीधारी भी हैं, जो खुद को रुरल एलोपैथ डाक्टर बताते हैं। एफ.आर.सी.एस. (फैलो ऑफ रायल कालेज ऑफ सर्जन्स)एक मानद उपाधि है जो सर्जरी के अलावा समाजसेवा आदि के क्षेत्र में इंगलैण्ड या आयरलैण्ड के रायल कालेज ऑफ सर्जन्स द्वारा दी जाती है। रायल कालेज 1994 में मदर टेरेसा, 1995 में नेल्सन मंडेला और अमेरीका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर को भी एफ.आर.सी.एस. की मानद उपाधि दे चुका है।
खुद रहना होगा सावधान
कल्पना की जा सकती है कि जब इंसान की सेहत ऐसे नीम-हकीमों के हाथ में हो, तो उसका क्या हश्र होगा। ये झोलाछाप डॉक्टर अनाधिकृत रूप से और बिना किसी मान्य डिग्री के ग्रामीण अंचलों में अपनी डिस्पेंसरी या क्लिनिक चला रहे हैं जब कोई केस बिगड़ जाता है तो उसे शहर के किसी निजी अस्पताल में छोड़ आते हैं, जहां से इन्हें मोटा कमीशन मिलता है। देश के हर छोटे बड़े गांव में ऐसे फर्जी डॉक्टरों की भरमार है जो कि अनाधिकृत रूप से एलोपैथिक दवाएं लिखकर जनस्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दंत चिकित्सक के क्षेत्र में तो सड़कछाप डॉक्टरों की कमी नहीं है। वे सड़क पर तंबू लगाकर लोगों के दांत उखाड़ने से लेकर नकली बत्तीसी बनाने तक का काम करते हैं। पायरिया और अन्य दंत रोगों का शर्तिया इलाज करने वाले इन कारीगरों के पास न तो पर्याप्त उचित औजार ही होते हैं और न ही दक्षता। इनकी गिरफ्त में आए व्यक्ति संक्रमण के शिकार होकर उसकी पीड़ा भोगते हैं। ताकत और जवानी को बेचने वाले भी कम नहीं है। हस्तमैथुन, शीघ्रपतन, स्वप्नदोष आदि के बारे में फैली भ्रांतियों की वजह से इनकी दुकानदारी खूब चलती हैं। आप शायद ही जानते हों कि स्तंभन शक्ति बढ़ाने और कद लम्बा करने के लिए दी जाने वाली दवा सेहत को कितना नुकसान पहुंचाती है। जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है या कोई गंभीर शिकायत होती है, तो डॉक्टरों और उसकी डिग्री की खोज खबर की जाती है, जिससे पता चलता है कि न सिर्फ डॉक्टर नकली था उसकी डिग्री भी फर्जी थी। आजकल पंजाब राज्य में प्रशासन ने ऐसे डॉक्टरों की दुकानें बंद करवा रखी हैं तो वे विधानसभा के बाहर धरने पर बैंठे है। इनका तर्क है कि जब तक सरकार कोई उचित व्यवस्था नहीं करती तब तक हम जनता की सेवा करके उनकी मदद ही कर रहे हैं। यह इजाजत मांगना कुछ ऐस ही कि किसी गांव में अगर थाना नहीं है तो वहां कोई भी आदमी खाकी वर्दी पहन कर खुद को न सिर्फ हवलदार, थानेदार या एसपी कहने लगे, बल्कि किसी भी गांव वाले को उठाकर कमरे बंद करदे या मारपीट करे। कुछ वर्ष पहले तक अनुभवी कम्पाउंडरों का पंजीकरण करके रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर यानी आरएमपी बना दिया जाता था, लेकिन अब यह प्रणाली समाप्त कर दी गई है। भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद अधिनियम 1970 में अनुभव के आधार पर पंजीयन का अब कोई प्रावधान नहीं है। यदि कोई संस्था अनुभव के आधार पर पंजीयन करने का दावा करती है, तो वह सौ प्रतिशत अवैध है। सन 1998 में दिल्ली उच्च न्यायालय में कई प्रचलित वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता प्रदान करने के लिए एक याचिका दायर की गई थी। जिसके जवाब में न्यायालय ने स्वास्थ्य मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह इन चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता प्रदान करने की संभावनाएं तलाशें। इसके लिए चिकित्सा अनुसंधान परिषद निर्देशक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। हाल ही में प्रस्तुत इस समिति की रिपोर्ट को पूरी तरह स्वीकार करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जिन 10 वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता देने से मना किया उनमें जल चिकित्सा, मूत्र चिकित्सा, रत्प चिकित्सा (RAPT), प्राणिक हिलिंग, मैगेटोथैरेपी, रैकी, इलेक्ट्रोथिरैपी, अरोमाथिरेपी, कलर थिरेपी और रिफलेक्सोलॉ शामिल है। इनके द्वारा इलाज करने वाले चिकित्सकों को अपने नाम के साथ डॉक्टर लगाने का भी अधिकार नहीं है। इस संबंध में मंत्रालय के निर्देशों में कहा गया है कि कोई भी संस्थान गैर मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति में स्नातक या स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम संचालित नही करेगा। समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार कई वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का कोई प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है और न ही चिकित्सा की यह कोई प्रमाणिक विधि है। यहां तक कि इन चिकित्सा पद्धतियों में प्रयुक्त दवाओं के निर्माण में भी कोई प्रामाणिक विधि नहीं है और न ही इनकी गुणवत्ता के स्पष्ट मापदंड हैं।

Wednesday, September 12, 2012

जेनरिक दवाइयाँ क्या और कितनी सस्ती

हाल में आमिर खान के टीवी शो सत्यमेव जयते के एक कथांश से महंगी दवाइयों के विकल्प के रूप में उभरी जेनरिक दवाएं एक बार फिर चर्चा में आ गई हैं। इस विषय पर बात करें उससे पहले जानते हैं कि जेनरिक दवाएं क्या हैं, और इनकी कीमत कम क्यों होती है।
क्या होती है जेनरिक दवाइयां?
जेनरिक दवाइयों के सन्दर्भ में जिनरिक (फार्माकोपियल) शब्द का अर्थ दवा के मूल घटक से है। उस मूल घटक से ही प्रजाति विशेष जो दवाएं तैयार होती हैं उन्हें जेनरिक या प्रजातिगत दवा कहते हैं। उदाहरण के तौर पर बाजार में गेहूँ का जो आटा 15 रुपए किलो बिकता है, उसे हम जेनरिक दवा मान लेते हैं। अब अगर यही आटा कोई आदमी या कम्पनी अपने मार्के के साथ 40 रुपए किलो के हिसाब से बेचे तो उसे कहेंगे एथिकल दवा। कोई भी निर्माता एक उत्पाद को जेनरिक या ब्रान्ड नाम से बेच सकता है। चूकिं ब्रान्ड पर निर्माता का एकाधिकार होता है तथा वह अपने ब्राण्ड को प्रसिद्ध और प्रचार-प्रसार करने के लिए खूब सारा खर्चा करता है। वह बिचौलियों यानी दवा विक्रेताओं, अपने विक्रय प्रतिनिधियों और डॉक्टरों को कमिशन देता है। इस वजह से ब्रान्डिड दवाएं जेनरिक से बहुत मंहगी हो जाती है, हालांकि दोनों की गुणवत्ता समान ही होती है।
सरकार का आग्रह जेनरिक पर क्यों?
अधिकांश दवाइयों की निर्माण लागत बहुत कम होती है, लेकिन वे विभिन्न कारणों से रोगियों को कम दामों पर नहीं मिल पाती हैं, जैसे- चिकित्सक किसी दवा कम्पनी के ब्रान्ड नाम की दवा लिखते हैं, इससे प्रतिस्पर्धा हतोत्साहित होती है और बाजार में कृत्रिम एकाधिकार की स्थिति बनती है, जिसमें दवा कम्पनी द्वारा अधिकतम खुदरा मूल्य काफी ज्यादा रखा जाता है। एक बार फिर वही उदाहरण कि डॉक्टर आपसे कहे कि गेहूँ का आटा खाओ, तो आप कहीं से भी खरीदकर खा लेंगे, अब अगर वही डॉक्टर आपसे कहे कि नत्थू की चक्की से लेकर गेहूँ का आटा खाओ, तो आपकी मजबूरी है कि जिस भाव नत्थू आटा बेचे उसी भाव खरीदना पड़ेगा। यही वजह है कि सरकार का आग्रह है कि डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम लिखें। यानी  डॉक्टर गेहूँ का आटा ही लिखें, किसी विशेष चक्की का आटा न लिखें।
क्यों मंहगी हैं एथिकल दवा?
भारत में अधिकतर दवाइयां 'औषधि मूल्य नियंत्रण' से मुक्त होने के कारण निर्माता अपनी ब्रान्डिड दवाइयों पर अधिकतम खुदरा मूल्य बहुत ज्यादा  लिखते हैं। औषधि विक्रेता वही कीमत  मरीज से वसूल करता है। उपभोक्ताओं को यह बात मालूम ही नहीं है कि अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत बहुत कम होती है। इसके अलावा यदि चिकित्सक ने किसी ब्रांड विशेष की दवा लिख दी तो फिर मरीज के पास उसे खरीदने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता, भले ही बाजार में वही घटक दवा कम कीमत पर उपलब्ध हो। दूसरी वजह हमारी मानसिकता है। हम यह मान कर चलते हैं कि अगर दोनों प्रकार की दवाओं के मूल्य में इतना अंतर है तो मंहगी दवा में जरूर कोई न कोई विशेषता होगी। दवा निर्माता कम्पनियां इसी भ्रम का फायदा उठाती हैं। उदाहरण के लिए एलर्जी या जुकाम के लिए एक दवा है सिट्रिजिन। कुछ कम्पनियां एलडे या सिटेन के नाम उसकी एक गोली को 5 से 6 रुपए में बेचती हैं, जबकि यही गोली अपने मूल नाम से मात्र 18 से 20 पैसे में उपलब्ध है।
क्यों होती है ये दवाइयां सस्ती?
किसी भी ब्रान्डिड या मौलिक दवा को बनाने में होने वाले शोध पर विशेष ज्ञान, समय तथा पूंजी लगती है, तब जाकर किसी कंपनी को एक दवा का एकाधिकार (पेटेंट)मिलता है। इन सब खर्चों के बाद कंपनी का मुनाफा और उस दवा को बेचने के लिए डॉक्टरों पर होने वाला खर्च भी कीमतों को बढ़ाता है। दूसरी और जेनरिक दवाइयों पर केवल इनके निर्माण का ही खर्च होता है, इसलिए इनकी कीमत अपेक्षाकृत बहुत ही कम होती है।
कुछ अड़चनें भी आईं
सन 1990 में जब जेनरिक दवाओं को खुला बाजार मिला तो कई बड़ी ब्रान्डिड कंपनियों ने पेटेंट और कॉपीराइट जैसे मुद्दों को उठाया और इन दवाओं को रोकने के कई प्रयास किए। दूसरे, ब्रान्डिड दवाओं से कुछ डॉक्टरों के कमीशन और कंपनियों के हित सीधे जुड़े होते हैं इसलिए खुदरा विक्रेता के पास मौजूद होने के बावजूद भी डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम नहीं लिखते, इसलिए दवा विक्रेताओं ने इन्हें रखना कम कर दिया।
कितनी सस्ती कितनी मंहगी?

अब जेनरिक दवाइयों की कीमतों में हो रहे बड़े घालमेल पर भी एक नजर डाल लेते हैं। हालांकि मौलिक और जेनरिक दवा की कीमतों में बहुत बड़ा अंतर होता है, पर जेनरिक दवा के थोक और खुदरा मूल्य के बीच का अंतर भी अविश्वनीय है। जेनरिक दवाइयां गुणवत्ता के सभी मापदण्डों में ब्रान्डिड दवाइयों के समान तथा उतनी ही असरकारक होती है। जेनरिक दवाइयों को बाजार में उतारने का लाइसेंस मिलने से पहले गुणवत्ता मानकों की सभी सख्त प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। दवा खरीदते समय यह ध्यान आपको रखना है कि जेनरिक दवा भी किसी नामी और अच्छी कम्पनी की हो, वरना बाजार नकली और घटिया दवाइयों से भरा पड़ा है। सलाह यह दी जाती है कि जेनरिक दवा हमेशा सरकारी दुकानों से ही खरीदें, बाजार में यह दवा आपको सस्ती नहीं मिलेगी। उदाहरण के लिए जेनरिक दवा सिट्रिजिन की 10 गोली का एक पत्ता सरकारी दुकान पर 2 से ढाई रुपए का मिलता है जबकि बाजार में यह 24 से 26 रुपए का मिलेगा।

Thursday, September 6, 2012

स्वास्थ्य-दशा सुधार अपेक्षित

हालांकि विगत कुछ वर्षों में भारतीय स्वास्थ्य की दशा में कुछ सुधार हुआ है। शिशु व मातृत्व मृत्यु दर में कमी आई है। कई गंभीर बीमारियों पर काबू पा लिया गया है और जीवन प्रत्याशा में भी वृद्धि हुई है। मगर इन उपलब्धियों के बाद भी देश का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर ग्रामीण भारत आज भी उचित स्वास्थ्य देखरेख से वंचित है। भौतिकवादी सुख सुविधाओं के प्रसार तथा आरामपरस्त जीवन शैली के कारण किसी जमाने की खालिस शहरी बीमारियां कैंसर, हृदय रोग और मधुमेह अब ग्रामीणों को अपने जाल में ले चुकी हैं।
गत वर्षों के दौरान भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन बढ़ती जनसंख्या पर काबू न रहने के कारण हम इस क्षेत्र में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66 प्रतिशत की। इस दौरान अस्पताल में बिस्तरों की संख्या एक हजार की जनसंख्या के पीछे मात्र 5.1 प्रतिशत ही बढ़ी है। देश के अस्पतालों में औसत  प्रति हजार जनसंख्या पर बिस्तर की उपलब्धता 0.86 है जो कि विश्व औसत का मात्र एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही रोगी-बिस्तर वर्ष भर खाली पड़े रह जाते हैं जिनकी वजह से वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
यह आंकड़े भी हमारी राष्ट्रीय औसत के हैं ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72 प्रतिशत आबादी है, उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वहां बिस्तरों की संख्या देश के अस्पतालों में उपलब्ध बिस्तरों का मात्र 19 प्रतिशत तथा चिकित्साकर्मियों का 14 प्रतिशत ही है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेन्द्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केन्द्रों में 62 प्रतिशत विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 प्रतिशत प्रयोगशाला सहायकों और 20 प्रतिशत फार्मासिस्टों की कमी है। इस भारी कमी के पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं और दूसरा, सीमित अवसरों और सुविधाओं के आभाव के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवक्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और उन्हें नीम-हकीमों या निजी क्षेत्र की शरण में जाने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इसके विपरीत राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार देश के 68 प्रतिशत लोग सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की तुलना में अत्यधिक महंगी निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं। वहीं दूसरी तरफ महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर क़र्ज़ लेता है। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41 प्रतिशत भर्ती होने वाले और 17 प्रतिशत वाह्य रोगी क़र्ज़ लेकर इलाज करवाते हैं।
ग्रामीणों को सस्ता और जवाबदेह इलाज उपलब्ध करवाने के लिए 12 अप्रैल 2005 से 18 राज्यों के लिए 2012 तक के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन शुरूआत की गई। मिशन से ऐसी स्वास्थ्य सुविधाओं की उम्मीद थी, जो सस्ती, पहुंच के भीतर और उत्तरदायी हो। एनआरएचएम का मकसद खराब स्वास्थ्य सुविधाओं वाले राज्यों में स्वास्थ्य के आधारभूत ढांचे की कमियों को दूर करने का था। डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा किया जाना था। स्वास्थ्य केंद्र खोलने के साथ-साथ दवाइयों और उपकरणों की बेहतर आपूर्ति पर भी काफी जोर था, लेकिन यह मिशन इन कसौटियों पर खरा नहीं उतर सका और बाकी सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया।

अगर आ जाए जमीन कुर्की का नोटिस

ज्यादातर भारतीय किसान उस कबूतर जैसी समझ रखते हैं जो बिल्ली को देखकर आखें बंद कर लेता है और सोचता है कि वह अब बिल्ली को मैं नज़र नहीं आ रहा। बैंक का क़र्ज़ नहीं चुका पाने की सूरत में वह बैंक के आगे से निकलना बंद कर देता है। घर आए बैंक के कर्मचारियों से मिलता नहीं है, उनके किसी पत्र का जवाब नहीं देता और अंतिम नोटिस तक छुपाकर बैठा रहता है। आखिरकार वह दिन भी आ जाता है जब सरकारी अधिकारी खड़ी फसल को जब्त कर लेते हैं और जमीन की कुर्की करने खेत पर आ खड़े होते हैं। जब कुर्की का नोटिस आ जाए तो क्या करना चाहिए, जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि लगभग हर राज्य में कृषि ऋण वसूलने के लिए कानून बने हुए हैं, जिनके तहत बैंक राज्य सरकार को ऋण वसूली का कार्य सौंप देते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में 1956 का कृषि ऋण अधिनियम जब कमजोर होता दिखा तो 21 सितंबर 1974 को राजस्थान कृषि ऋण संक्रिया (कठिनाइयाँ एवं निवारण) अधिनियम-1974 लागू किया गया और उसे भी 10 मार्च 1976 को सुधार करके और प्रभावी बनाया गया। इस कानून को हम अंग्रेजी के संक्षिप्त नाम राको-रोडा या रोडा एक्ट के नाम से ज्यादा जानते हैं।
क्या है वसूली कानून?
इस कानून के अंतर्गत बैंक ग्राहकों दो साधारण डाक और एक रजिस्टर्ड डाक द्वारा मांग-पत्र भेजता है। इस अंतिम नोटिस के एक माह बाद बैंक उस क्षेत्र के कलक्टर/ अतिरिक्त कलक्टर/उपखण्ड अधिकारी या तहसीलदार को ऋण करार की प्रमाणित प्रतिलिपि, खाते का प्रमाणित विवरण, मूल और ब्याज मिलाकर कुल रकम का विवरण, सम्बन्धित साक्ष्य के साथ बन्धक दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपि, बैंक में रहन रखी सम्पति के मूल्यांकन का ब्यौरा और वसूली हेतु बैंक द्वारा किए गए प्रयासों का विवरण प्रस्तुत कर निवेदन करता है कि चूककर्ता से राशि दिलवाई जाए। इसके बाद यह सक्षम अधिकारी चूककर्ता को किसी कर्मचारी के हाथ नोटिस भिजवा कर पैसे जमा करवाने या अपना पक्ष रखने के लिए कहता है। इसके बाद किसान थोड़ा सा हरकत में आता है और अब भी पैसे जमा करवाने की बजाए किसी वकील को ढूंढता है। यहां यह जान लेना जरूरी है कि अगर आपके खाते में जोड़-बाकी का कोई अंतर है और उसे बैंक अधिकारी मान नहीं रहा हो तो यह सरकारी अधिकारी आपका पक्ष जरूर सुनेगा और बैंक को इस गलती को सुधारने के लिए बाध्य भी करेगा। ज्ञात रहे इसके लिए आपको किसी वकील की जरूरत नहीं है, खातेदार स्वयं अपना पक्ष अधिकारी के सामने रख सकता है।
क्या करना चाहिए?
किसान को बैंक से दो तरह का क़र्ज़ मिलता है। पहला किसान क्रेडिट कार्ड पर अधिकतम 3 लाख तक। इस ऋण का ब्याज फसल आने पर और मूल साल में एक बार एक या दो दिन के लिए जमा करवाना होता है। आजकल सरकार ने इस पर ब्याज दर मात्र 4 प्रतिशत ही लगाने के आदेश दे रखे हैं। चूक होने पर यह ब्याज दर 14 से 16 प्रतिशत हो जाती है। इस ऋण के बारे में सलाह यह दी जाती है कि बैंक का पैसा समय पर लौटाया जाए और अगर किसी वजह से पैसा नहीं है तो कहीं से भी दो-चार दिन के लिए ब्याज पर पकड़कर भी खाता खराब होने से बचा लें।
दूसरी तरह का ऋण किसी वस्तु विशेष के लिए तय किस्तों के साथ दिया जाता है। इस ऋण में सभी किस्तें समय पर भरवानी चाहिएं और अगर किसी वजह से किस्त की राशि पूरी नहीं बन रही है तो जितनी भी रकम हाथ में हो उतनी ही जमा करवा दें और जब स्थितियां अनुकूल हों तो बाकी रकम भी जमा करवा दें। अपने खाते की नकल समय-समय पर ले कर जांचते रहें कि कोई अंतर तो नहीं है।
खाता बिगडऩे पर
बैंक का पहला संदेश या नोटिस आते ही बैंक जाकर अधिकारी या प्रबंधक से मिलकर अपनी समस्या हो सके तो लिखित में बताएं। साथ ही उन्हें आश्वत करें कि बकाया राशि (ओवरड्यू) कब तक भरवा देंगे। इसके लिए कुछ राशि नकद या चेक देकर भी कानूनी कार्रवाही को टाला जा सकता है।
मंहगा है यह तरीका
अगर आपने सरकारी नोटिस के बाद पैसे जमा करवाए तो कुल राशि पर 2 प्रतिशत वसूली प्रभार और देना पड़ेगा तथा सरकार ने आपकी बैंक के पास रहन रखी भूमि कुर्क करके वसूली है तो 5 प्रतिशत वसूली के प्रभार देना होगा। मतलब यह कि अगर बैंक 5 लाख मांगता है तो इस नोटिस के बाद यह राशि 5 लाख 10 हजार और नीलामी के बाद 5 लाख 25 हजार हो जाती है। सार यह कि जब तक मामला बैंक के हाथ में है, तब तक ब्याज व जुर्माने आदि में छूट की गुंजाइश है, अगर सरकार द्वारा कुर्की नोटिस जारी हो गया तो 2 से 5 प्रतिशत का खर्चा पक्का है। इस बात को हमेशा याद रखें कि आपकी जमीन की कीमत आपके क़र्ज़ की राशि से कई गुणा ज्यादा होती है। अकसर यही होता है कि जमीन बेचकर बैंक की राशि बैंक को तथा अपना प्रभार काटकर शेष राशि खातेदार को दे दी जाती है। इस विषय में सर्वोच्च न्यायालय भी आदेश दे चुका है कि सार्वजनिक वसूली के लिए किसी संपत्ति की नीलामी से बकाया रकम से ज्यादा पैसा मिलता है तो शेष धनराशि संपत्ति के मालिक को लौटा दी जानी चाहिए।

खारे पानी में लहलहाती फसलें

राजस्थान, गुजरात के साथ-साथ पंजाब व हरियाणा के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र खारे पानी और लवणीय भूमि की समस्या से लगातार जूझते रहे हैं। इन क्षेत्रों के लिए एक अच्छी खबर यह है कि हरियाणा के  करनाल स्थित केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान (सीएसएसआरआइ) के वैज्ञानिकों ने लवणग्रस्त भूमि और खारे पानी वाले क्षेत्र में फसल और फल उत्पादन में सफलता हासिल कर ली है।
संस्थान के सिरसा स्थित फार्म पर चार वर्ष पूर्व इस परियोजना पर कार्य शुरू किया गया था। अब ऐसी जमीनों पर आंवला, करौंदा व बेल-पत्र के अलावा बाजरा, सरसों, ग्वार और जौ का फसल चक्र अपनाकर अच्छा उत्पादन लिया है। चौथे वर्ष में आंवला, करौंदा व बेल के पेड़ों से फल मिलने शुरू हो गए हैं। अच्छी बात यह है कि लवणीय जल से सिंचित बाजरा, सरसों, ग्वार व जौ की फसल का उत्पादन भी बेहद संतोषजनक रहा और फलदार पौधों की बढ़वार भी ठीक रही।
संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. आरके यादव के अनुसार लवणीय भूजल वाले अर्धशुष्क क्षेत्रों में कृषि वानिकी एक लाभदायक फसल पद्धति है। अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहां भूजल लवणीय होने के कारण फसल उत्पादन संभव नहीं होता था वहां इस जल से पौधरोपण कर उनके साथ लवण सहनशील व कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों का उत्पादन लाभदायक रहा है। अब किसान ऐसी जमीनों से फल, ईधन, चारा व फसल आसानी से ले सकेंगे। उन्होंने इस प्रयोग के बारे में बताया कि सबसे पहले ट्रैक्टर से 60 सेंटीमीटर चौड़ी व 25 सेंटीमीटर गहरी नालियां बनाई जाती हैं। इन नालियों में ट्रैक्टर चलित बर्मे से उचित दूरी पर गड्ढे बनाए जाते हैं और यदि कंकर हों तो जिप्सम, गोबर की खाद व मिट्टी से गड्ढे को भरकर लवण सहनशील पेड़ लगाए जाते हैं और खारे पानी से सिंचाई की जाती है।
सीएसएसआरआइ के निदेशक डा. डीके शर्मा ने बताया कि केंद्रीय योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक हमें खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए 910 अरब घन मीटर जल की सिंचाई के लिए आवश्यकता होगी। इसके लिए निम्न गुणवत्ता जल जैसे लवणीय भूजल क्षेत्रों में लवणीय जल का उपयोग करना होगा। क्योंकि देश भर में करीब 860 लाख हेक्टेअर भूमि क्षार व लवणों की अधिकता के कारण खराब पड़ी है। देश के उत्तर-पश्चिमी राज्यों में 40 से 80 प्रतिशत भूजल की प्रकृति लवणीय है। ऐसे जल का लंबे समय तक अवैज्ञानिक तरीके से प्रयोग, मृदा व फसल उत्पादन के लिए हानिकारक हो सकता है। इस प्रकार के जल का समुचित वैज्ञानिक तरीकों से न्यूनतम मात्रा में उपयोग उन फसल पद्धतियों में करना चाहिए, जो इन परिस्थितियों में अधिकतम पैदावार दे सकें। अभी मार्च माह में हमारे वैज्ञानिकों नें दो गेहूं की नई किस्म केआरएल-210 व केआरएल-213 इजाद कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है।
इस विषय पर विस्तार से जानकारी देते हुए कृषि विज्ञानिक डॉ. नीरज कुलश्रेष्ठ ने बताया कि केआरएल-210 का दाना सामान्य है। पौधे की लंबाई 99 सेंटीमीटर होने के कारण गिरने की सम्भावना कम रहती है। सामान्य भूमि पर उगाने पर 25 क्विंटल प्रति हेक्टेअर व लवणीय भूमि में करीब 15 क्विंटल पैदावार ली जा सकती है। इसी तरह केआरएल-213 का दाना भी सामान्य ही है और पौधे की लंबाई 97 सेंटीमीटर है। सामान्य भूमि में 20 क्विंटल व लवणीय भूमि में करीब 13 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक पैदावार ली जा सकती है। दोनों किस्मों के गेहूं की रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। संस्थान की ओर से लवणीय व क्षारीय भूमि में बेहतर पैदावार की कई और गेहूं की किस्मों पर भी कार्य चल रहा है।

आई बरसात तो...

हालांकि भारतीय मौसम विभाग ने सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है और उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सच ही होगी और लगातार तीसरे साल भी देश में जबरदस्त पैदावार होगी। लेकिन मानसून के सामान्य रहने के बावजूद देश के कौन से हिस्से में कितनी बरसात होगी, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। इस बार अप्रैल माह अपेक्षाकृत ठंडा रहा और मई में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी इसकी वजह बीच-बीच में पश्चिमी विक्षोभ का सक्रिय होना रहा। मैदानी क्षेत्रों में बारिश नहीं हुई, जबकि अप्रैल में पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी हुई थी जिससे हवाओं का दिशा क्रम बदला और उत्तर-पश्चिमी सर्द हवाएं मैदानी इलाकों में सक्रिय रहीं। मई में बारिश अनुमान से कम हुई, इसलिए गर्मी बढ़ी। 
शुरूआती धीमी गति के बाद दक्षिण पश्चिम मॉनसून विगत कुछ ही दिनों में अपने मामूल पर आता लग रहा है। हालांकि 1 जून से 12 जून के बीच बारिश सामान्य से करीब 42 फीसदी कम हुई है। इस कमी को देखते हुए कई तरह के अनुमान लगाए जा रहा है, साथ ही अलनीनो उभरने का भी खतरा सामने है जो बरसात का सारा गणित बिगाड़ सकता है। भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक एल एस राठौर मॉनसून के प्रदर्शन को लेकर फिलहाल आश्वत हैं। वे कहते हैं कि चार महीने लंबे मॉनसून को पहले दो हफ्ते में हुई कम बारिश के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए। तटीय इलाकों में अच्छी बरसात हुई है, मूंगफली उत्पादक इलाके रॉयलसीमा में 15 जुलाई से बुआई शुरू होती है और कर्नाटक के भीतरी क्षेत्र जहां मक्का और ज्वार की बुआई जून के आखिर में शुरू होती है वहां कम बरसात से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए काफी वक्त है। राठौर के अनुसार बरसात के कम या ज्यादा होने वाले कई कारणों में अलनीनो एक कारणतो है लेकिन इकलौता नहीं। भारतीय बरसात और अलनीनो के बीच कोई सीधा संबंध भी नहीं है। प्रशांत महासागर के तापमान में अगस्त तक .5 से .7 डिग्री की बढ़ोतरी की संभावना है, लेकिन सिर्फ इतने से अलनीनो नहीं बन जाते। यदि यह एक डिग्री से ज्यादा बढ़ता है तो अलनीनो बनेंगे। लेकिन यह अगस्त के बाद होगा तब तक मानसून के तीन महीने बीत चुके होंगे। अगस्त में बनने वाले अलनीनो का मॉनसून पर प्रभाव पडऩे में भी 15 से 30 दिन लगते हैं तब तक मॉनसून देश से विदा हो चुका होगा। इन सबके बावजूद भारतीय कृषि विभाग ने प्रतिकूल मौसम से निपटने के लिए अपनी क्षमताएं विकसित कर ली हैं। 
वर्ष 2009 में बरसात में 23 प्रतिशत कमी के बावजूद खाद्यान्न का उत्पादन करीब 21.8 करोड़ टन रहा था, जो 2008 के मुकाबले मात्र 7 प्रतिशत कम था। ज्ञात रहे वर्ष 2009 में जून माह में सामान्य से 47.2 प्रतिशत, जुलाई में 4.3 अगस्त में 26.5 और सितंबर में सामान्य से करीब 20.2 प्रतिशत कम बारिश हुई थी। इसके विपरीत अगर बरसात उम्मीद से ज्यादा हो गई तो खेती का क्या होगा? के जवाब में वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आर पी भारद्वाज कहते हैं कि- इस तरह की परिस्थितियों में इस क्षेत्र के हालात बिगड़ जाएंगे क्योंकि यहां इस वर्ष मुख्यत: दो ही फसलें है बीटी कॉटन और ग्वार। बीटी के जमीन से छूते हुए टिण्डों को फफूंद लगने से 20 से 25 प्रतिशत तक नुकसान होगा और ग्वार का पौधा बढ़ जाएगा 5 फुट तक ऊँचा, पर फली एक भी नहीं लगेगी। कृषि अनुसंधान केंद्र, गंगागनर के निदेशक और जल प्रबंधन विज्ञानी डॉ. बी एस यादव कहते हैं कि नुकसान और फायदा बरसात के समय पर निर्भर करता है, अगर बरसात ज्यादा और सितम्बर के अंत तक होती है तो कपास और ग्वार के लिए नुकसानदायक रहेगी। विशेषकर फसल कटाई के समय तक अगर बरसात रही तो बीटी कपास, ग्वार और मूंग तीनों को ही नुकसान हो सकता है, लेकिन गन्ने, धान तथा अगामी रबी फसलों के लिए यह फायदेमंद रहेगी।
भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र के प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन उप महानिदेशक डॉ. ऐके सिंह के अनुसार बरसात ज्यादा आने की संभावना नहीं है लेकिन दो बरसातों के बीच का अंतरात बढ़ जाएगा, तथा बरसात के दिन कम हो जाएंगे। बरसात के दिन कम होने से वर्षा का वेग अपेक्षाकृत तेज रहेगा और दो बरसातों के बीच अंतराल बढऩे से सूखा पडऩे की संभावना बढ़ जाएंगी। ऐसे मौसम के लिए हम नए बीज तैयार कर रहे हैं जो नई तकनीक से मात्र तीन से चार साल में तैयार हो जाएंगे।

अब बढ़ेगी उपज परमाणु खेती से

परमाणु ऊर्जा का नाम आते ही हमारे दिमाग में परमाणु बम और परमाणु युद्ध के अलावा जो दूसरा नाम आता है वह है, बिजली उत्पादन। लेकिन अब वैज्ञानिकों ने रेडियो ऐक्टिव तरंगो का प्रयोग कर पैदावार बढ़ाने वाले बीज और ऐसी तकनीकें विकसित की हैं, जो अधिक उत्पादन के साथ-साथ फसलों को बीमारियों व कीटों से भी बचाएंगी। फसलों के उत्परिवर्तन (म्यूटेशन और रीकॉम्बिनेशन ब्रीडिंग) के जरिए अनाज, दलहन और तिलहन आदि की बेहतरीन पैदावार की जा रही है। इस तकनीकी से पैदा किए गए बीज उच्च-उत्पादकता व गुणवत्ता वाले होने के साथ-साथ कीट व रोग प्रतिरोधी भी हैं।

भाभा अटॉमिक रिसर्च सेंटर में बायोमेडिकल ग्रूप के सहायक निदेशक और न्यूक्लियर ऐग्रिकल्चर ऐंड बॉयोटेक्नॉलजी संभाग के मुखिया डॉ. स्टॅनिसलास एफ. डिसूज़ा बताते हैं कि मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, सरसों, मूंग, अरहर, उड़द, चावल, जूट आदि फसलों की सभी किस्मों के बीज वायरस रोगों के लिए प्रतिरोधी, फफूंद नाशक, उच्च पैदावार व गुणवत्ता वाले हैं। ये सभी किस्में देश भर में भी बेहतर फसलें देने में सक्षम हैं। वैज्ञानिकों ने बीजों की इन किस्मों को टीएलजी 45, टीएजी 24, टीएएमएस 98-21, टीएएस 82, टीएटी 10 आदि नाम दिए हैं।
 
खेत को अधिक उपजाऊ बनाएगा रेडियो ट्रेसर 
वैज्ञानिकों के अनुसार मृदा-पादप तंत्र में पोषक तत्वों के स्थानांतरण के लिए रेडियो ट्रेसर का उपयोग किया गया है। मृदा विज्ञान के क्षेत्र में 32 पी, 35 एस, 59 एफई, 65 जेडयू, 54 एमयू आदि रेडियो ऐक्टिव तरंगे इस्तेमाल होती हैं। विकिरण एवं आइसॉटोप प्रौद्योगिकी बोर्ड, मुबई (बीआरआइटी-बोर्ड ऑफ रेडिएशन ऐण्ड आइसोटॉप टैक्रालॅजी) 14 सी, 35 एस, 3एच और 32 पी लेबल्ड कृषि रसायनों एवं उर्वरकों का निर्माण कर रहा है, जो मृदा और उर्वरक के क्षेत्र के लिए काफी फायदेमंद हैं।
 
विकीरण तकनीक से कीट नियंत्रण 
विकीरण का उपयोग करके बंध्य कीट तकनीक (एसआइटी) का प्रयोग कीटों पर नियंत्रण के लिए किया जाता है। इस तकनीक में कीड़ों को प्रयोगशाला में पाला जाता है, फिर उन्हें (विशेष तौर पर नर कीटों को) विकीरण की मदद से बंध्य (स्टेराइल) बनाते हैं, ताकि वे प्रजनन में असमर्थ हो जाएं। इसके बाद उन्हें वातावरण में छोड़ देते हैं इससे इनकी संख्या नहीं बढ़ती तथा कीटनाशक का प्रयोग किए बगैर कीटों पर नियंत्रण हो जाता है और वे फसलों को नुकसान नहीं पहुंचा पाते। बीएआरसी के वैज्ञानिकों ने इस तकनीक के जरिए रेड पाम वीविल, पॅटैटो टॉटेर मोथ, स्पॉटेड बॉलवॉर्म ऑफ कॉटन (विभिन्न कीटों की प्रजातियां) पर काबू पाया है।
 
सुरक्षित भंडारण के लिए प्रौद्योगिकी 
खाद्य विकिरणीकरण प्रोद्योगिकी द्वारा खाद्य नुकसान को भी रोका जा सकता है। इसके तहत गामा किरणों, एक्स-किरणों और तीव्रगामी इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा का नियंत्रित प्रयोग कर खाद्य एवं कृषि उत्पादों का संरक्षण करते हैं। निश्चित विकिरण द्वारा आलू और प्याज के भंडारण के दौरान होने वाले अंकुरण को रोका जा सकता है। इसके अलावा विकीरण द्वारा दालों व अनाजों में लगने वाले कीड़े व बीमारियों पर भी नियंत्रण संभव है। इस तकनीकी द्वारा कटाई के बाद फसलों के नुकसान को रोका जा सकता है, साथ ही कृषि उत्पादों का लंबे समय तक भंडारण भी किया जा सकता है। इनसे खाद्य जनित बीमारी फैलाने वाले सूक्ष्म जीवों पर भी नियंत्रण संभव है।

Monday, August 13, 2012

पंचायतों को मिले बजट का 7 प्रतिशत -के. एन. गोविंदाचार्य

पंचायती राज अधिनीयम में सन 1993 में 73वां संशोधन कर देश में पंचायती राज की पुन: स्थापना की गई। इससे ग्राम पंचायतों का ढांचा खड़ा हुआ और उन्हें विकास कार्यों के अधिकार भी मिले। पर्याप्त आर्थिक संसाधनों की व्यवस्था न होने से पंचायती राज का सपना आज भी अधूरा है। हालांकि इस संसोधन को हुए 20 साल होने आ गए पर अभी भी केन्द्र सरकार ग्राम पंचायतों को धन मुहैया कराने पर विचार ही कर रही है। केन्द्र सरकार के अलग-अलग मंत्रालयों में विचारों के आदान-प्रदान हो रहे हैं। राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संस्थापक-संरक्षक तथा सुप्रसिद्ध विचारक के. एन. गोविंदाचार्य द्वारा सरकार के सामने रखी एक मांग के अनुसार गांवों में देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी रहती है इसलिए केन्द्रीय बजट का कम से कम 7 प्रतिशत धन सीधे ग्राम पंचायतों को दे दिया जाए। सन 2011-12 में केन्द्रीय बजट 12 लाख करोड़ रुपये से अधिक था और देश में 2.5 लाख ग्राम पंचायतें हैं। उनके हिसाब से प्रत्येक ग्राम पंचायत को औसत 30 लाख रुपए दिये जाने चाहिए जो बजट राशि के साथ प्रतिवर्ष बढ़ते जाएंगे। प्रस्तुत हैं गत दिनों श्री के. एन. गोविंदाचार्य से उनकी इस मांग के बारे में विस्तार से हुई बात-चीत के सम्पादित अंश-

आपने कहा कि कुल बजट का 7 प्रतिशत सीधा पंचायतों को दिया जाना चाहिए। क्या हमारी ग्राम पंचायतें इतनी सक्षम हैं? जिन लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप सबसे ज्यादा लगते हैं, उन्हीं के हाथ में सीधा धन दे दिया जाए तो क्या इससे भ्रष्टाचार और नहीं बढ़ेगा?
जब हम विधानसभा और लोकसभा को खत्म नहीं करते हुए भ्रष्टाचार का निदान करने का प्रयास कर रहे हैं तो वही बात ग्राम-पंचायतों पर भी लागू होती है। आजकल चुने हुए प्रतिनिधियों की तो कोई जिम्मेदारी ही नहीं है, यह अधिकार सरकारी कर्मचारियों को दे दिया गया है जिन्हें ग्राम-सेवक कहते हैं। एक ग्राम-सेवक की अनुशंषा पर जिला कलेक्टर पंचायत को भंग कर देता है। इसलिए हमारा पहला लक्ष्य है 6 लाख गावों की 2.5 लाख पंचायतों को शक्तिशाली बनाना और ग्राम सभाओं को जीवित करना। दूसरी बात यह है कि विधानसभा और लोकसभा की तरह जिन विकृतियों का शिकार आज पंचायत चुनाव हो चुके हैं, उनमें सुधार लाना। इसके लिए मेरा सुझाव है कि पंच-सरपंच सर्वसम्मति या आम सहमति से चुने जाएं, और हिसाब-किताब जांचने के लिए लोकाधिकारी और ग्राम सभा भी होने चाहिएं।
एक ऐसा ही प्रयास नहरी क्षेत्र में किया गया है, जहां नहरों का रख-रखाव, पानी का बटवारा तथा आबियाना वसूली तक के सारे अधिकार किसानों को दे दिए गए हैं। जहां-जहां भी यह किसान समितियां बनी हैं वहां भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। किसान नहर के किनारों की मिट्टी खोदकर अपने घर बनवा रहे हैं।
जब भी बदलाव होता है इस तरह की परेशानियां आती ही हैं। जब चलेंगे तो दुर्घटनाएं भी होंगी ही, तो क्या इन दुर्घटनाओं से डरकर हम चलना ही बंद करदें? लोकतंत्र को इसी तरह अपाहिज रहने दें? यह एक प्रयोग है जिसमें परेशानियां आएंगी तो उनके हल भी खोज लिए जाएंगे।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के मंच से आप प्राय: परिवर्तन की बात करते हैं। क्या यह सत्ता परिर्वत की बात है या आम लोगों के व्यवहार परिवर्तन की बात है?
 यह सत्ता परिवर्तन नहीं व्यवस्था परिवर्तन का मुद्दा है जिसमें सामाजिक, प्रशासनिक, शैक्षिक तथा न्यायिक सुधार शामिल हैं। हमारा जन-शिक्षण, जनमत और जन-दबाव के साथ इस दिशा में बढऩा है। 
क्या यह हमारे देश में संभव है जहां के लोग मूलत: आलसी, लालची और आत्मघात की हद तक अज्ञानी हैं और अपने छोटे से फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं?  
हमारा मकसद है सामान्य आदमी का नैतिक स्तर इतना बढ़े कि वह किसी प्रलोभन न आए, इसे कहेंगे मानस परिवर्तन। व्यवस्था में यह गुंजाइश बनी रहे कि आम आदमी सीधे रास्ते पर चल सके। धर्म-सत्ता और समाज-सत्ता की भूमिका यह है कि व्यक्ति की नैतिकता बनी रहे और राज-सत्ता और अर्थ-सत्ता का कार्य यह है कि व्यवस्था निरापद बनी रहे। हम इन दोनों स्थितियों पर काम करेंगे।
इसके लिए कोई ठोस रणनीति है आपके पास?
इसके लिए हमारा प्रयास है कि जिला स्तर पर ऐसे लोगों को जोड़ा जाए जो इन विषयों पर आपस में सहमत हों। इसे मैंने हमारा गांव हमारा देश, हमारा जिला हमारी दुनिया नाम दिया है, और लक्ष्य रखा है सबको भोजन सबको काम। अब ऐसे लोग ही मिल कर कोई रास्ता निकाल सकते हैं क्योंकि राज-सत्ता और तंत्र के माध्यम से तो यह रास्ता निकलने से रहा। भारतीय समाज कुछ ऐसा है जिसमें धर्म-सत्ता, समाज-सत्ता, राज-सत्ता और अर्थ-सत्ता चारों मिल कर काम करें तो ही कार्य हो सकता है और हम इस दिशा में ही कार्य कर रहे हैं। साधु-संत अपने जिले में विश्वनीयता बनाए रखकर यह माहोल तैयार करें कि न सत्ता का न सम्पत्ति बल्कि सही का सम्मान हो।
क्या यह योजना बहुत लम्बी नहीं है? इसके माध्यम से लक्ष्य हासिल करने में पांच-सात सौ साल लग जाएंगे। जिस देश के एक छोटे से शहर की नगर पालिका के 20-30 ईमानदार लोगों का मिलना कठिन हैं वहां 2.5 लाख पंचायतों के लिए 10 लाख ईमानदार लोग कहां से आएंगे?
 आज निराशा के इस समय में समस्या है किसी भी कार्य को शुरू करने की, अगर हम शुरू ही नहीं करेंगे तो लोग इस स्थिति से निकलेंगे कैसे? जब आम आदमी को सीधे रास्ते से धन मिलेगा तो वह ईमानदार भी रह सकेगा।
अब से पहले कहा जाता था कि सरकारी कर्मचारियों की वेतन इतना कम है कि वह अपने गुजारे के लिए रिश्वत लेता है, पर पांचवे वेतन आयोग के लागू होने के बाद वह स्थिति नहीं रही। आज के कर्मचारी को इतना वेतन मिलता है कि वह आराम से गुजारा कर सके, इसके बावजूद भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी बढ़ी है।
भ्रष्टाचार मूलत: आर्थिक मुद्दा न हो कर नैतिक मुद्दा है, अत: इसे वर्तमान राजनैतिक माहौल में नहीं सुधारा जा सकता। इसी लिए हमें राजनैतिक और चुनाव सुधारों की बुनियादी तौर बहुत जरूरत है। इस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है, इसमें एक प्रयास यह हुआ है कि जो जहां है वहीं कार्य करे जिससे यह लड़ाई विकेंद्रित और स्थानिक हो जाए।
आप इसकी क्या वजह मानते हैं?
 भारतीय समाज में अच्छाई बहुतायत में है, पर हम उसे अवसर नहीं देते। समाज सुधार के लिए काम करने वाले लोगों और संस्थाओं ने अपने मानक खुद निर्धारित कर रखें हैं और उन्हें आम लोगों पर लादने का प्रयास कर रहे हैं जो शायद त्रुटिपूर्ण हैं।
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोग व्यवस्था के खिलाफ लड़ते-लड़ते सत्ता के खिलाफ लडऩे लगते हैं, वे अपनी सारी ताकत सत्ता के विरोध में झोंक देते हैं, क्या आप इसे सही मानते हैं?
 यह निभर्र करता है आंदोलन चलाने वालों पर। आप जेपी का उदाहरण लें। जब इंदिराजी ने कहा कि अगर आप लोकतंत्रवादी हैं तो एक वर्ष बाद चुनाव आ ही रहे हैं, फैसला जनता को करने दें। जेपी ने इसे स्वीकार किया और देश की जनता ने साबित किया। यह तो बदकिस्मती थी कि बाद में वे बीमार पड़ गए वरना मोराजी, चरणसिंह, लालू आदि को स्वस्थ नहीं रहने देते।
कहने का भाव यह कि पहले से होमवर्क जरूरी है केवल टकराकर सत्ता परिवर्तन पर रुक जाएं यह सही नहीं होगा। सत्ता परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन और मानस परिवर्तन तीनों में सत्ता परिवर्तन तो हो जाएगा लेकिन मूल उद्देश्य तो व्यवस्था और मानस परिवर्तन है।
आजकल भ्रष्टाचार की मुखालिफत करना एक फैशन बन गया है। देश भर में हाशिए पर पड़े नेता इसे भुनाने की जुगत में हैं, जबकि आम भारतीय अज्ञानता के कारण भ्रष्टाचार का अहम हिस्सा बना हुआ है। आप क्या कहेंगे?
 यह सामाजिक बदलाव के संकेत हैं, पुन:निर्माण की प्रक्रिया है। नए तकाजे हैं, नई जरूरतें है, तभी तो इसकी आवश्यकता है, वर्ना अन्ना हजारे पहले क्यों नहीं आए? स्थितियां ऐसी बन गई हैं तब यह दौर आया है। रही बात मौकापरस्त लोगों के साथ जुडऩे की, तो यह आप भी जानते ही हैं कि जब फसल उगती है और बरसात अच्छी हो तथा खाद भी भरपूर मिल रही हो तो खरपतवार साथ उग ही जाती है। अब यह काम तो किसानरूपी जनता का है कि वो मुख्य फसल बचाने के लिए कितनी निराई-गुड़ाई करती है।
आप पर एक आरोप यह है कि आप वैश्वीकरण के सख्त खिलाफ है, जबकि इसकी वजह से लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया है।
इस बारे में हमें यह देखना होगा कि आज हमारी जरूरतें क्या है न कि यह कि विश्व बाजार हमारे यहां बेचना क्या चाहता है? इसे आप एक बात से समझ जाएंगे कि जब हमारी बहन बहुत छोटी थी तब किसी ने उनके कान के सोने के कुण्डल ले कर उन्हें लॉलीपॉप दे दिया। हमारी बहन तो बहुत खुश थी कि उन्हें अपनी पसंद की वस्तु एक बेकार चीज के बदले मिल गई। कुछ ऐसा ही हमारे देश के साथ हो रहा है। हमें देखना होगा कि वैश्विक तकनीक के बदले हम कीमत क्या चुका रहे हैं?
अगर देखा जाए तो यह बैंलेस-शीट कुल मिलाकर घाटे की ही बनेगी। सरकार को देखना चाहिए कि समाज को सेक्टर वाइज क्या मिला है, 2005 में विश्व व्यापार समझौता लागू हुए 10 साल हो गए, इन 10 वर्षों में स्थिति क्या रही है? हमें एक नेता मिले जो कहते हैं कि वैश्वीकरण की वजह से हमें जर्मनी की स्ट्राबेरी खाने को मिली, वरना हम महाबलेश्वर की स्ट्रबेरी को ही अच्छा मानते रहते। मेरा मानना है कि वैश्वीकरण से ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी नहीं घटी, शहरी क्षेत्र में थोड़ा अंतर आया है पर उसके साथ अपराध बढ़े और सामाजिक ढांचा चरमराया है।
यह आप किस आधार पर कह सकते हैं?
 भारत दरअसल संबंधों पर (रिलेशन बेस्ड) आधारित समाज है जिसे पश्चिमी तकनीक की मदद से सम्पर्क आधारित (कांटेक्ट बेस्ड) बनाने का प्रयास हो रहा है। दूसरे उस तकनीक से पर्यावरण के प्रति हमारी संवेदनाए कम हुई हैं, स्त्रियों के प्रति हमारा नजरिया बदला है। लाभोन्माद, कामोन्माद बढ़े हैं और नैतिकता क्षत-विक्षत हुई है, उससे समाज के बंधन कमजोर हुए हैं। संबंध आधारित समाज में पारस्परिक देखभाल ही हमारी ताकत थी उसकी जगह अगर हम सम्पर्क आधारित समाज बनाएंगे तो आर्थिक रूप से भी कमजोर ही होंगे।
मीडिआ ने आपको बहुत सारी उपाधियां दे रखी हैं जैसे-चिंतक, विचारक, राजनेता, आन्दोलनकारी, चिर-असन्तुष्ट। आप इन से सहमत हैं? या  खुद को कहां सहज महसूस करते हैं?
 मैं ऐसा कुछ नहीं मानता। मैं अपने को सीधा-सादा, सद्उद्देश्य से प्रेरित इंसान भर मानता हूं, बाकी सब नाम भावनावश दिए गए अतिशियोक्ति पूर्ण तमगे हैं।

'मल्हार' गाने से नहीं होती बारिश

यह बात वैसे तो कोई भी कह सकता है कि यह एक किवदन्ती मात्र है, पर इसी बात को जब पीढिय़ों से संगीत की साधना करने वाले घराने का एक स्थापित कलाकार कहे तो उसकी प्रमाणिकता पर एक मुहर लग जाती है। यह स्परूट मान्यता है सलिल भट्ट की, जिन्हें विश्व आज सात्त्विक वीणा के अविष्कत्र्ता के रूप में जानता है। उनके परिचय का एक पहलू यह भी है कि वे विश्व में संगीत के सबसे अधिक प्रचारित पुरस्कार ग्रेमी से सम्मानित होने वाले संगीतज्ञ पद्मश्री विश्वमोहन भट्ट के सबसे बड़े पुत्र, प्रथम शिष्य और सात्त्विक वीणा तथा मोहन वीणा के सबसे कुशल वादक है। करीब सत्रह साल पहले पं. विश्वमोहन भट्ट ने अपनी रचना 'ए मीटिंग बाइ द रिवर' के लिए ग्रेमी अवार्ड जीतकर हिंदुस्तानी संगीत का परचम विश्व संगीत के आकाश पर फहराया था। अब सलिल ने अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए अपनी संगीत रचना 'स्लाइड टू फ्रीडम' की प्रस्तुति से विश्व के दूसरे ग्रेमी कहे जाने वाले कैनेडियन जूनो अवार्ड की श्रेष्ठ पांच नामांकित रचनाओं में जगह बना ली है। वे पहले और इकलौते भारतीय संगीतकार हैं जो इस पुरस्कार के लिए नामित किए गए हैं।
बीते दिनों उनसे प्रकृति, पर्यावरण और संगीत विषय पर कुछ बातें हुई। वे कहते हैं कि प्रकृति और संगीत कभी अलग हो ही नहीं सकते, दरअसल संगीत प्रकृतिक ध्वनियों का वैज्ञानिक रूपांतरण ही है। सलिल तो यहां तक कहते हैं कि सबसे पहला और सबसे बड़ा विज्ञान संगीत ही है, दुनिया की पहली खोज भी संगीत को ही माना जाता है।
क्या मेघ मल्हार गाने से बरसात हो सकती है? के जवाब में उनका कहना है कि- इसे बहुत गलत तरीके से समझा गया है। भारतीय संगीत की रचना बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से की गई है इसमें हर घंटे और समय के हिसाब से अलग-अलग राग हैं। तानसेन से जुड़ी एक जनश्रुति है कि एकबार तानसेन से दोपहर का राग दीपक धोखे गवाया गया। दरअसल इस राग की तासीर इतनी गर्म है कि सच्चा कलाकार अंदर तक झुलस जाता है। ऐसा नहीं है कि मैंने अभी राग दीपक गाया और मेरे सामने पलक झपकते ही आग लग जाएगी। यह तो मात्र एक अहसास है, कोई जादू नहीं हैं। बाद में तानसेन की पुत्री ने राग मेघ मल्हार गाया ताकि राग दीपक गाने से जो ऊर्जा उत्पन्न हुई थी, उसके प्रभाव को थोड़ा कम किया जा सके। मेघ मल्हार गाने से ऐसा आभास होता है मानो दूर तक बरसात हुई हो।
तो क्या राग का कोई असर नहीं होता? पूछने पर कहते हैं कि राजस्थान में एक कहावत है कि राग, पाग और साग कभी-कभी ही जमते हैं। आपने देखा किया होगा कि साग (सब्जी) हमारे घरों में बारह महीने और दिन में चार बनता है पर कभी-कभी किसी सब्जी का स्वाद लाजवाब होता है। इसी तरह रोज बांधी जाने वाली पगड़ी भी किसी दिन अलग ही नजर आती है। राग पर तो यह बात सोलह आने लागू होती है। वो कोई संयोग विशेष ही होता है जब गायक, वादक, साज और संगतकार एक ही वेवलेंग्थ पर, एक ही मानसिकता पर आ जाते हैं, ऐसा सुयोग बनने पर ही राग मल्हार बरसने का और राग दीपक सुलगने का आभास देती है।
अगर सचमुच में ऐसा होता तो हम सिद्ध गायक लोग जब चाहे मेघ मल्हार गा कर बारिश करवा लेते और राजस्थान बन जाता सर्वाधिक बारिश वाला इलाका चेरापूंजी। बरसात की कुदरती प्रक्रिया मानसून के सक्रिय होने से शुरू होती है। अगर ज्यादा पेड़ होंगे तो वातावरण में नमी बढ़ेगी, जो धूप से वाष्पित हो कर अथवा मॉनसूनी बादलों की भाप को बून्दों में बदलकर बरसात में तब्दील करती है। राजस्थान में इन दिनों बादल आ रहे हैं और बिना बरसे ही निकल जाते हैं, क्योंकि राजस्थान बंजर है, वीरान है। बरसात मल्हार गाने से नहीं, ज्यादा से ज्यादा मात्रा में पेड़ लगाने से होगी। अत: हम लोगों को पर्यावरण का महत्त्व समझना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने चाहिएं।
संगीत कोई चमत्कार या जादू नहीं है कि राग गाने और बजाने भर से ही सब कुछ हो जाएगा। अगर ऐसा होता तो हमें कनाडा से बुलावा आ जाता, जहां तापमान शून्य से 40 डिग्री तक नीचे चला जाता है। वहां हम राग दीपक गाते और सारी बर्फ पिछल जाती। दरअसल आज का इंसान कुदरत से अनावश्यक और लालच भरी छेड़-छाड़ कर रहा है। इसलिए बर्फ पिघल रही है, ग्लेशियर लगातार टूट रहे हैं। यही हाल रहा तो थोड़े समय में बर्फ  बनना भी बंद हो जाएगी। हम लोगों ने पर्यावरण का तो सत्या नाश कर रखा है, ऊपर से राग मल्हार की बातें कर रहे हैं। मैंने संगीत के जरिए पर्यावरणवादी सोच विकसित करने की कोशिश की है। मेघ मल्हार और मियां की मल्हार बहुत अच्छी राग हैं, लेकिन इनके भरोसे बैठने से बात नहीं बनेगी, बात बनेगी तो सिर्फ पर्यावरण सुधारने से, उसे बचाने से।

Tuesday, July 31, 2012

भण्डारण में बंटाधार

हरित क्रान्ति के बाद भले ही हमें भुखमरी से निजात मिल गई है, पर उस क्रान्ति के परिणामस्वरूप उत्पादित अन्न को आज तक सहेजना नहीं सीखा। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र की तीन बड़ी एजेंसियां भारतीय खाद्य निगम (एफ सी आई), केंद्रीय भण्डारण निगम (सी.डब्ल्यू.सी.) और राज्यों के भण्डारण निगम (एस डब्ल्यू सी एस)देश में व्यापक पैमाने पर भण्डार एवं भण्डारण क्षमताओं को निर्मित करने में व्यस्त हैं। इसके अलावा सरकार ने निजी क्षेत्र को भी गोदाम बनाने के लिए प्रोत्साहित किया, फिर भी नतीजे हमारे सामने हैं और हर साल लाखों टन अनाज खुले में पड़ा खराब हो जाता है।
भारतीय खाद्य निगम के पास सबसे बड़ी कृषि गोदाम प्रणाली है जिसकी सम्पूर्ण भारत में स्थित लगभग 1450 से अधिक गोदामों में 2.5 करोड़ टन से अधिक भण्डारण क्षमता है, जिसमें निजी एवं किराए के गोदाम शामिल हैं। सी.डब्ल्यू.सी. इस समय यह पूरे देश में 514 गोदाम चलाता है जिनकी भण्डारण क्षमता सवा करोड़ टन है। भारतीय खाद्य निगम अपने भण्डारों का इस्तेमाल मुख्य रूप से खाद्यान्नों के लिए ही करता है, लेकिन सी.डब्ल्यू.सी. और एस.डब्ल्यू.सी. की भण्डारण क्षमताओं का इस्तेमाल खाद्यान्नों के अलावा खाद और अन्य वस्तुओं के लिए भी किया जाता है। इसके अलावा भारत सरकार ने एक अप्रेल 2001 से 'ग्रामीण भंडारण योजनाÓ की शुरुआत की थी जो 31 मार्च 2012 तक जारी रही। इस योजना में  नगर निगम, फेडरेशन, कृषि उत्पाद मार्केटिंग समिति, मार्केटिंग बोर्ड तथा ऐग्रो प्रॉसेसिंग कॉरपोरेशन के अलावा कोई भी व्यक्ति, किसान, उत्पादकों के समूह, पार्टनरशिप व एकल स्वामित्व वाले संगठन, एनजीओ, स्वयं सहायता समूह, कंपनियां, कॉरपोरेशन, सहकारी निकाय, स्थानीय निकाय कोई भी गोदाम बना सकता था। इस योजना के तहत देश भर में सैंकड़ों गोदम बने और बन भी रहे हैं।
इन प्रयासों को देखते हुए नहीं लगता कि भण्डारण जैसे जरूरी और संवेदनशील मुद्दे पर सरकार कोई कोताही बरत रही है। इतना होने के बावजूद भी अगर हर साल खाद्यान्न खुले में पड़ा खराब हो रहा है तो वजह क्या है? एक कारण तो यह समझ आता है कि हर साल अनाज की पैदावार इतनी बढ़ रही है जिसके अनुपात में गोदाम कम पड़ जाते हैं। अगर गत पांच वर्षों के मात्र गेहूँ उत्पान के आंकड़े पर नजर डालें तो पता लगता है कि 2007 में 9.32 प्रतिशत की अप्रत्याशित वृद्धि हुई थी उसके चार साल बाद 2011 में 7.5 प्रतिशत वृद्धि देखने को मिली। हालांकि शेष वर्षों में केवल 2010 को छोड़ कर गेहूँ उत्पान वृद्धि प्रतिशत हमारी आबादी बढऩे के 1.41 प्रतिशत से हमेशा दोगुना ही रहा है।
अच्छे उत्पादन और सरकारी एजेंसियों की तरफ से भारी खरीद के चलते भारतीय खाद्य निगम के प्रशासनिक नियंत्रण में खाद्यान्न का भंडार 25.64 प्रतिशत बढ़कर अब तक के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है। एफसीआई के आंकड़ों से पता चलता है कि 1 जून 2012 को केंद्रीय भंडार में अनाज की मात्रा बढ़कर 824.1 लाख टन पर पहुंच गई जबकि एक साल पहले इसी अवधि में कुल 656 लाख टन अनाज का भंडार था। कुल अनाज में मात्र 1 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले मोटे अनाज को छोड़ भी दें तो अनाज भंडारण जबरदस्त बढ़ा है। हालांकि मोटे अनाज का भंडार 23 प्रतिशत घटकर 0.9 लाख टन पर आ गया है जबकि गत वर्ष 1 जून 2011 को यह 1.2 लाख टन था।
एफसीआई हर दिन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करीब 34 लाख टन गेहूं की खरीद कर रहा है और 1 जून तक 342.7 लाख टन गेहूं की खरीद हो चुकी है, जो पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 80 लाख टन ज्यादा है। नियमों के मुताबिक 1 जुलाई 2012 तक एफसीआई को बफर स्टॉक के तौर पर 98 लाख टन और रणनीतिक रिजर्व के लिए 20 लाख टन चावल होने चाहिएं, तथा इसी आधार पर 171 लाख टन व 30 लाख टन गेहूं भी होना चाहिए, मगर इन दोनों वस्तुओं का उपलब्ध स्टाक करीब 250 प्रतिशत ज्यादा है। हालांकि सरकार ने दो साल की गारंटी योजना के तहत निजी गोदामों के किराए पर लेने में उदारता बरती है क्योंकि सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन और स्टेट वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन बहुत ज्यादा जगह उपलब्ध नहीं करवा रहे है। सीडब्ल्यूसी के पास जहां 1 करोड़ टन से कम अनाज के भंडारण के लिए जगह है, वहीं राज्यों में एसडब्ल्यूसी के पास इतनी जगह नहीं है कि खरीदे गए और खरीदे जाने वाले अनाज का भंडारण कर सकंे। गोदामों की किल्लत से जूझ रहे एफसीआई ने अपने क्षेत्रीय प्रबंधकों को दो साल के लिए निजी गोदाम अधिकतम 4.16 रुपये प्रति क्विंटल प्रति माह के हिसाब या मजबूरी में 5.21 रुपये प्रति क्विंटल प्रति माह तक किराए पर लेने के लिए अधिकृत किया है।

Friday, July 27, 2012

भंडारण में सरकार को सुझाव

हरित क्रांति और कृषि क्षेत्र में लगातार अनुसंधान से हमने पैदावार तो बढ़ाली लेकिन अनाज भंडारण की समस्या आज भी बनी हुई है। हर नयी फसल आते ही इस समस्या की गंभीरता की ओर ध्यान भी जाता है। किन्तु ढाक के तीन पात की तरह स्थिति जस की तस बनी रहती है। देश में अनाज भंडारण की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण प्रतिवर्ष 58000 करोड़ रुपए मूल्य से अधिक का अनाज नष्ट हो जाता है। गत वर्ष इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए ऐसे अनाज को गरीबों में मुफ्त बाँट देने का निर्देश दिया था। हालांकि केन्द्र सरकार द्वारा पिछले दो वर्षों से भंडारण क्षमता बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं जिसमें निजी क्षेत्र में गोदाम निर्माण को बढ़ावा देने के लिए कुछ योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। लेकिन इसके बावजूद अभी तक कोई उल्लेखनीय प्रगति हो नहीं पायी है।
 देश में केंद्र स्तर पर केन्द्रीय भंडारण निगम और भारतीय खाद्य निगम अनाज भंडारण की दो सरकारी एजेन्सियाँ हैं और इनकी (अपनी तथा किराये पर ली गई) कुल भंडारण क्षमता क्रमश: 10.09 तथा 33.60 मिलियन टन है लेकिन व्यवहार में इनकी इस पूरी क्षमता का उपयोग हो नहीं पाता और समझा जाता है कि 80 प्रतिशत के करीब ही वास्तविक भंडारण क्षमता मिल पाती है। इससे भी बुरा हाल शीत भंडारण गृहों का है जिनकी अत्यन्त अपर्याप्त संख्या एवं क्षमता के कारण सब्जी और फल पैदा करने वाले किसान कभी भी अपनी उपज का पूरा मूल्य नहीं ले पाते।
इस पसमंजर में संसद की खाद्य एवं आपदा प्रबंधन सम्बन्धी स्थायी समिति ने भंडारण की समस्या को हल करने के लिए सरकार को कुछ सुझाव दिए हैं। पहला यह है कि भंडारण का निजीकरण व विकेन्द्रीकरण कर दिया जाए। दूसरा सुझाव था कि अनाज वितरण व्यवस्था में सुधार किया जाए।  समिति का मानना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (साविप्र)की प्रक्रिया में थोड़ा सा बदलाव लाकर इस दिक्कत से निजात पायी जा सकती है। समिति के अनुसार साविप्र के तहत अभी कार्डधारकों को जहाँ हर माह खाद्यान्न दिया जाता है उसकी जगह अगर छ: माह का राशन इकट्ठा दे दिया जाए तो इससे न सिर्फ गोदामों में एकमुश्त जगह खाली हो जाएगी बल्कि उसके रख-रखाव पर आने वाले खर्च में भी कमी आएगी। समिति का अनुमान है कि सरकारी गोदामों में एक किलो अनाज साल भर रखने पर 4 रु. 40 पैसे का खर्च आता है। इस अनाज को अगर छ: माह पहले ही वितरित कर दिया जाए तो 2 रु. 20 पैसे प्रति किलो की बचत होगी, जिसे कार्डधारकों को अनाज सस्ती दर पर दिया जा सकता है। देश के सभी कार्डधारकों को दिए जाने वाला छ: माह का राशन अनुमानत: 216 लाख टन बनाता है। यह जगह गोदामों में नया अनाज रखने हेतु खाली हो जाएगी और इस मद में सरकार द्वारा निजी गोदामों को दिया जा रहा किराया भी बचेगा।
एक अन्य सुझाव यह है कि सरकार जो अनाज किसानों से खरीदती है, आपसी अनुबंध के जरिए उसकी आधी कीमत पेशगी के तौर पर किसान को देदी जाए और अनाज किसान के ही पास रहने दिया जाए। निश्चित समय सीमा के बाद सरकार अनाज रखने वाले किसान को प्रति किलो 4रु.40 पैसे का सालाना के अनुसार भुगतान भी कर सकती है। यह एक उपयोगी सुझाव है जिससे दोहरा मंतव्य पूरा हो सकता है लेकिन इसे व्यवहार में लाने में कई कठिनाइयाँ आ सकती हैं। जैसे, किसान अनाज की कितनी हिफाजत रख सकेगा, पेशगी लेकर अगर वह बाद में अनाज सरकार न दे तो?
इस कार्य में सरकारी स्टॉफ व परिवहन बहुत जरूरत पड़ेगी आदि-आदि। लेकिन यदि ऐसा हो जाए तो बिना किसी अतिरिक्त खर्च के सरकार किसानों को उनकी उपज का उचित दाम दे सकती है और भण्डारण के झमेले से भी बच सकती है। इसका एक दूसरा पेच यह भी है कि अनाज की खरीद से लेकर परिवहन व भंडारण तक के कार्य में निजी क्षेत्र का भारी दखल है और यह लॉबी बहुत प्रभावशाली भी है। इसलिए ऐसे किसी भी परिवर्तन का वह हर हाल में विरोध ही करेगी।
केन्द्र सरकार ने भंडारण क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से ग्रामीण भंडारण योजना चलाई हुई है जिसके तहत निजी क्षेत्र गोदाम बनाकर सरकार को किराये पर देता है और सरकार उसे अनुदान के साथ-साथ एक निश्चित समयावधि (पहले सात साल थी जिसे अब दस साल कर दिया गया है) के लिए किराये का अनुबंध भी करती है। गत वर्ष अप्रेल में केन्द्रीय खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री के.वी. थॉमस ने ऐसे पंजीकृत गोदामों में रखे गए किसानों की उपज की रसीद को हुंडी की मान्यता प्रदान करते हुए घोषणा भी की थी कि किसान इन रसीदों के आधार पर न सिर्फ बैंकों से कर्ज प्राप्त कर सकेंगे बल्कि जरुरत पडऩे पर रसीद को उसके अंकित मूल्य पर बेच भी सकेंगे। किसानों के हित में यह एक क्रांतिकारी कदम था लेकिन यह योजना मार्च 2012 में समाप्त भी हो गई और निजी क्षेत्र में वांछित गोदाम निर्माण भी नहीं हुए। गोदाम बनवाना तो वैसे भी सरकार की जिम्मेदारी है लेकिन प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक अगर कानून की शक्ल लेता है तो अनाज भंडारण सरकार की बड़ी मजबूरी बन जाएगी। ऐसे में भंडारण को केंद्रीयकृत करने के बजाय ग्रामीण क्षेत्रों तक ले जाना ही पड़ेगा।

Thursday, July 26, 2012

ऊगाना ही नहीं, बचाना भी आना चाहिए

कहा जाता है कि भारत में खेती का इतिहास करीब 10 हजार साल पुराना है। कुछ इतिहासकार तो यहां तक दावा करते हैं कि दुनिया को खेती करना सिखाया ही भारत ने है। पता नहीं इन दावों में कितनी सच्चाई है, पर यह बात सवा-सोलह आने सच है कि अतीत की गौरव-गाथा हारे हुए लोग ही गाते हैं। वर्तमान भारत उपज के मामले में बड़े देशों से तो छोडि़ए पाकिस्तान, बंग्लादेश और बर्मा तक से पीछे है। इन देशों में मौजूद संसाधन और राजनैतिक हाताल को देखते हुए कई बार आश्चर्य भी होता है कि ये भी हम से आगे हैं? साथ ही भण्डारण की स्थिति देखते हुए लगता है कि चलो अच्छा है, कम पैदा होता है इसलिए कम ही खराब होता है।
अन्न ऊपजाना और उसे सहेज कर रखना दोनों बिलकुल अलग ही विज्ञान हैं। हम दुनिया भर से उपज बढ़ाने की तकनीक तो ले आए, पर उपजाए अन्न को सहेजने की जरूरत ही नहीं समझी। जिस समय हम विदेशों से अन्न उत्पादन तकनीक ला रहे थे, उस समय खाने के लाले पड़े हुए थे, अन्न सहेजना तो हमारे ख्वाब में ही नहीं था। आश्चर्य तो जब होता है जब 40 साल बाद भी हम उसी वहम में जिन्दां हैं। माना हमारे देश की कृषि मानसून और कई अन्य कारणों से अनिश्चित रहती है, अन्न की उपज पर्याप्त न होने पर हमें विदेशी मुद्रा खर्च कर विदेशों से अन्न मांगने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
हमारी कई दोषपूर्ण नीतियों की वजह से हम विश्व के 20-22 देशों के ही उपर हैं। कृषि क्षेत्र में पर्याप्त धन व्यय करने के पश्चात हमारी फसल उत्पादन तो बढ़ा है, और गत कुछ वर्षों में उत्पादन आशातीत भी रहा है परन्तु अभी दो साल पहले तक टनों अन्न वर्षा में भीग कर सड़ गया था और कमोबेश यही स्थिति आज भी है। तब सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए फटकार लगाई कि यदि गेहूं को रखने के साधन आपके पास नहीं तो गरीबों में बाँट दो। विडम्बाना ही है कि जितना अन्न हमारे यहाँ व्यर्थ हो जाता है उतनी तो कनाडा जैसे देश की कुल उपज है। अपनी इस राष्ट्रीय समस्याओं के लिए एक सीमा तक तो हम खुद ही जिम्मेदार हैं। विगत 6-7 सालों से यह गलती हम बार-बार दोहरा रहे हैं तभी तो कहा गया कि एक या दो बार हो जाए तो गलती कहलाती है, परन्तु यदि बार बार ऐसा हो तो वह अक्षम्य अपराध है।

Wednesday, June 13, 2012

उपज को कितना समर्थन देता है, समर्थन मूल्य?

किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए झा कमेटी की सिफारिश के आधार पर वर्ष 1965 में कृषि मूल्य व लागत आयोग का गठन किया गया था। मण्डी में किसानों की फसल को बिचौलिये कम कीमत पर खरीद लेते हैं, इसे ध्यान में रखते हुए ही सरकार आयोग की सिफारिश पर रबी और खरीफ की करीब 21 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है। एफसीआई और सीसीआई जैसी सरकारी एजेंसियां उन समर्थन मूल्यों पर खरीद भी करती हैं। पिछले सात साल से करीब सभी अनाजों का समर्थन मूल्य दोगुना हो गया है। धान का समर्थन मूल्य 2004-05 की तुलना में 560-590 रुपए से बढ़कर 1,250 रुपए और गेहूं का समर्थन मूल्य 640 रुपए से बढ़कर 1,285 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया। इस दौरान गन्ने का मूल्य भी 74.5 रुपए से बढ़कर 139. 12 क्विंटल प्रति टन पर पहुंच गया। सरकार ने दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए इस साल चने और मसूर का समर्थन मूल्य 2,800 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया है।
पहली नजर में यह नीति किसानों के लिए लाभदायक लगती है, किन्तु हकीकत बिल्कुल उलट है। बाजरा, ज्वार, मक्का, जौ जैसे मोटे अनाजों में आजतक कुल उपज का 1 प्रतिशत भी कभी खरीदा नहीं गया। इसी तरह चना, मूंग, उड़द आदि दलहनी फसलों के लिए भी समर्थन मूल्य घोषित तो किए जाते हैं, किन्तु उनकी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। आश्चर्य तो तब होता है जब यही दालें विदेशों से आयात करली जाती हैं और किसान को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाता है। आयातित अनाज आयोग के क्षेत्राधिकार में नहीं है, इसलिए आयोग इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करता। कमोबेश यही स्थिति बाकी फसलों की भी है, कपास की खरीद भी तब होती है जब विदेशों से खरीद के आदेश मिले होते हैं, अन्यथा सीसीआई हाथ पर हाथ रखे बैठी रहती है। इसका ताजा उदाहरण है इस वर्ष सीसीआई द्वारा राजस्थान से साढ़े 23 हजार, पंजाब से 65 हजार क्विंटल कपास की खरीद की जबकि हरियाणा में खरीद ही नहीं हुई। इसकी तुलना में गत वर्ष राजस्थान से 3 लाख, पंजाब से 5 लाख और हरियाणा से करीब 4 लाख क्विंटल कपास खरीदी गई थी।
दरअसल अभी तक केन्द्रीय कृषि आयोग के आधे-अधूरे ढांचे में सिर्फ प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक लोग ही शामिल हैं। इसमें कृषि विशेषज्ञों, किसानों तथा प्रदेशों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है। कहने को इसमें एकाध किसान प्रतिनिधि भी होते हैं लेकिन वे या तो फार्म-संस्कृति वाले होते हैं या राजनेताओं के चहेते। आयोग की समितियों पर दूसरा गम्भीर आरोप यह है कि ये कभी भी मुख्यालयों से 150-200 किलोमीटर दूर जाकर सीमांत किसानों से उनका दु:ख-दर्द और कृषि लागत पूछने की जहमत नहीं उठाती। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अगर किसान को उसकी जोत पर न्यूनतम आमदनी की गारंटी नहीं दे सकती तो उसे चाहिए कि कम से कम 10 साल पहले के किसी भी कालखंड मूल्य को मानक मान ले और जिस अनुपात में आवश्यक वस्तुओं के बाजार भाव बढ़े हैं, उसी के अनुरूप किसानों के उत्पाद के भी दाम तय किए जाएं।
किसान अपनी दैनिक जरूरत की कुछ ही चीजें तो पैदा कर पाता है बाकी तो उसे भी बाजार से ही खरीदनी पड़ती है। प्रसंगवश यह जानकरी चौंकाने वाली होगी कि वर्ष 1967 में एक क्विंटल गेंहू के बदले 121 लीटर डीजल आ जाता था लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ 24 से 28 लीटर ही मिल पाता है। उस वक्त ढाई क्विंटल गेंहू में एक तोला सोना खरीदा जा सकता था लेकिन आज देश का 95 प्रतिशत किसान अपना सारा गेंहू बेचकर भी एक तोला सोना खरीदने के बारे में नहीं सोच सकता। यह हाल तब है जब शुरु से ही उपज का दाम लगाने की जिम्मेदारी सरकार ने ले रखी है। आयोग की सिफारिशों के आधार भी परस्पर विरोधी हैं।
आयोग समर्थन मूल्य की घोषणा जिन आधारों पर करता है वे कुछ इस तरह हैं- (क) उत्पादन की लागत, (ख) उत्पादन के आदान मूल्यों में परिवर्तन, (ग) बाजार में मूल्यों की स्थिति, (घ) उपज की मांग व आपूर्ति, (ड) उद्योगों पर होने वाले नकारात्मक/सकारात्मक प्रभाव, (च) सामान्य मूल्य स्थिति पर प्रभाव, (छ) किसान द्वारा चुकाए गए और प्राप्त किए गए मूल्यों का अनुपात, (ज) अंतरराष्ट्रीय मूल्य स्थिति, (झ) आम लोगों के जीवनयापन पर मूल्यों पर प्रभाव।  सिफारिश के ये आधार परस्पर विरोधी, बिखरे हुए एवं अस्पष्ट हैं। आयोग इनमें से किन्हीं भी बिन्दुओं को अधिक महत्त्व देकर अपनी सिफारिश कर सकता है। इन कृषि मूल्यों को निश्चित करने के लिए कृषि उत्पादन हेतु किए जाने वाले श्रम के पारिश्रमिक, प्रयुक्त उपकरणों व उनकी घिसावट पर किए जाने वाले खर्च, कृषि में लगने वाली पूंजी तथा भू-पूंजी और इन दोनों के ब्याज की ओर ध्यान नहीं दिया गया। आयोग तब तक कृषि उपजों का सही आकलन कर ही नहीं सकता, जब तक प्राकृतिक प्रकोप जैसे सूखा, बाढ़, ओले, बीमारियां, बेमौसमी बरसात आदि जोखिमों के सम्बंध में विचार कर लागत का लेखा तैयार नहीं किया जाता। वास्तविकता तो यह है कि आयोग इन आपातकालिक आपदाओं को महत्त्व ही नहीं देता। ऊपर से उत्पादन लागत के आंकड़े भी दो वर्ष पुराने होते हैं, इस बीच लागत काफी बढ़ चुकी होती है।
समर्थन मूल्य की सिफारिश करते समय किसान को लागत पर कितना प्रतिशत लाभ दिया जाए, इसके लिए भी कोई ठोस दिशा-निर्देश आयोग के पास नहीं है। उदाहरण के लिए देखें कि आयोग ने 1967-68 में गेहूं की लागत 50.02 रुपए प्रति क्विंटल मानकर 76.00 रुपए प्रति क्विंटल का मूल्य तय किया जिसमें किसान को करीब 52 प्रतिशत लाभ था। जो बाद के वर्षों में घटकर 1975-76 में 5.68 प्रतिशत, 1977-78 में 3 प्रतिशत, 1980-81 में 4.25 प्रतिशत तथा 1983-84 में 10 प्रतिशत रह गया। गत वर्ष 2010-11 के लिए गेहूं का समर्थन मूल्य 1100 रुपए से बढ़ाकर 1120 रुपए किया गया था, जिसमें किसान को लाभ मात्र 1.81 प्रतिशत ही है, जबकि इस वर्ष कृषि में प्रयुक्त होने वाली सामग्री के मूल्य में वृद्धि 10 प्रतिशत से अधिक हो चुकी थी। आयोग द्वारा सिफारिश के आधार पर घोषित समर्थन मूल्य सामान्यतया बाजार भाव से नीचे ही रहते हैं। गजब तब होता है जब समर्थन मूल्य से दो गुने या उससे भी अधिक मूल्यों पर अनाजों का विदेशों से आयात किया जाता है।
इस ढांचे में सुधार के लिए हर प्रदेश के गैर-सरकारी कृषि विशेषज्ञों को, जिनकी संख्या कुल संख्या की एक तिहाई हो तथा पंजीकृत किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की संख्या भी कुल संख्या की एक तिहाई तथा शेष सरकार द्वारा नामांकित व्यक्तियों को मिलाकर मूल्य आयोग के गठन किए जाने पर लागत मूल्य का निर्धारण वास्तविकता के निकट होने की संभावना बनेगी। सरकार किसी भी एक वर्ष को आधार वर्ष मानकर सभी प्रकार की उपजों का लागत मूल्य सभी प्रभावित पक्षों को सुनवाई का अवसर देकर तय करे, फिर उस लागत को मूल्य सूचकांक के साथ जोड़ दे, जिससे प्रतिवर्ष न्याय-संगत समर्थन मूल्य घोषित करने की कारगर पहल हो सके।

Monday, June 11, 2012

कृषि आदानों पर गुण-नियत्रंण का गोरखधंधा

कृषि उत्पादन में आदानों की गुणवत्ता का महत्त्व किसी से छुपा नहीं है। कृषि विभाग भी मानता है कि कृषि आदानों की कीमतों में वृद्धि के कारण विक्रेताओं द्वारा अमानक और नकली कृषि आदान बेचने की सोच पैदा हो जाती है। बीज, उर्वरक एंव कीटनाशी रसायनों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने हेतु भारत सरकार द्वारा समय-समय पर अधिनियम/नियम/ आदेश पारित किए जाते हैं। गुणवत्ता युक्त बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए बीज अधिनियम 1966, बीज नियम 1968, बीज नियंत्रण आदेश 1983, उर्वरकों के लिए उर्वरक नियंत्रण आदेश 1985 तथा कीटनाशी रसायनों के लिए कीटनाशी अधिनियम 1968, कीटनाशी नियम 1971 बने हुए हैं।
इन कानूनों के तहत सभी राज्यों में कृषि आदानों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए कृषि अधिकारियों को निरीक्षक की शक्तियां मिली हुई हैं। समस्त निरीक्षक राज्य के विभिन्न उपजिलों/जिलों में पदस्थापित है एवं इनके द्वारा अपने क्षेत्र में बिक रहे कृषि आदानों की उपलब्धता एवं गुणवत्ता सुनिश्चित करने की पूर्ण जिम्मेदारी होती है। ये निरीक्षक अपने अधिकारिता क्षेत्र में कार्यरत समस्त विक्रय प्रतिष्ठानों का निरीक्षण कर कृषि आदान के नमूने ले सकते हैं। सम्बन्धित विक्रेताओं को बिलबुक रखना, स्टाक रजिस्टर भरना, बोर्ड पर मूल्य सूची और स्टॉक प्रदर्शित करना, उनके द्वारा क्रय किए गए आदान के स्रोत भण्डारण आदि कार्य इस व्यवसाय में सुनिश्चित करने होते हैं। इनमें अनियमितता पाए जाने पर कानून के तहत सम्बन्धित निर्माताओं और विक्रेताओं के विरूद्ध न्यायिक कार्यवाही की जाती है। निरीक्षण के दौरान सम्बन्धित निर्माता और विक्रेताओं के प्रतिष्ठान पर उपलब्ध कृषि आदानों के नमूने लेकर राजकीय परीक्षण प्रयोगशालाओं को भिजवाए जाते हैं। बीज, खाद और कीटनाशकों के नमूने अमानक पाए जाने पर सम्बधित कानूनों के तहत व्यवसाय करने वालों के विरूद्ध नियमानुसार कार्यवाही भी की जाती है। यहां तक की स्थिति बहुत ही आदर्शवादी नजर आती है। घटिया खाद, बीज और कीटनाशी बेचने और बनाने पर सजा। यानी किसान के हितों का पूरा ख्याल। इसे समझने के लिए एक उदाहरण की जरूरत होगी, उसके लिए देश भर के सभी जिलों के कृषि आदानों के आंकड़े नहीं चाहिए। इसके लिए हम देश का एक जिले गंगानगर को लेगें और विशेषतय: बीज की बात करेंगे, क्योंकि सारे राजस्थान में जितने बीज उत्पादक हैं उससे दोगुने अकेले इस क्षेत्र में हैं। सारे देश की तरह यहां भी कृषि अधिकारी बीजों का नमूना दुकान-दुकान जाकर भरते हैं। बीज का एक नमूना तीन किलो का भरा जाता है, जिसे एक-एक किलो के तीन हिस्सों में बांट कर एक बीज विक्रेता के यहां, दूसरा जांच के लिए सरकारी प्रयोगशाला में और तीसरा विवाद की सूरत में दूबारा जांच के लिए संयुक्त निदेशक कृषि के कार्यालय में जमा करवाया जाता है। प्रयोगशाला 60 दिन में बता देती है कि यह नमूना मानक है या अमानक।
किसान हितों का ध्यान रखने के लिए बनाया गया कानून यहां आकर दम तोड़ देता है। इन 60 दिनों में बीज विक्रेता अपना सारा बीज बेच लेता है। अब अगर जांच रिर्पोट अमानक आ भी जाए तो फूटे किसान के। व्यापारी कानून से मिले हुए अपने हक के तहत दूबारा जांच के लिए दूसरी प्रयोगशाला में चला जाता जहां से रिर्पोट आती है 90 दिन में। जांच के इन पांच महिनों में किसान इस बीज से उपजी फसल बाजार में बेचकर फारिग भी हो चुका होता है। अब अगर दूसरी रिर्पोट भी अमानक आ जाए तो कृषि विभाग कानून के अनुसार मामले को अदालत के हवाले कर देता है, जहां वर्षों बाद व्यापारी को पहली गलती पर 500 रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। दूसरी बार यह गुनाह साबित होने पर 1 हजार तक का जुर्माना और 6 माह तक की कैद या दोनों भी हो सकते हैं। बीज नियंत्रण आदेश 1983 में सजा कम से कम 1 वर्ष है। (यह दीगर बात है कि आज तक किसी भी बीज बनाने और बेचने वाले को एक दिन की भी सजा नहीं हुई है।)
कानून किसके हक में? जब इस पूरी प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बता कर राजस्थान सरकार के कृषि विभाग में संयुक्त निदेशक गुणवत्ता नियंत्रण, जगपाल सिंह से जब पूछा गया कि इस सारी कवायद का मतलब ही क्या है जब किसान को कोई फायदा ही नहीं है? तो उन्होंने जवाब के बदले सवाल किया कि जो अधिकार हमें कानून से मिले हैं, उससे ज्यादा हम कर भी क्या सकते हैं? नाम नहीं छापने की शर्त पर कृषि आदान के कुछ विक्रेता कहते हैं कि यह कानून कृषि विभाग की कमाई का बड़ा साधन है। इस बात की पुष्टि कृषि विभाग से मिले ये आंकड़े भी करते हैं। गंगानगर जिले में करीब 650 से ज्यादा बीज विक्रेता हैं और एक बीज विक्रेता की दूकान पर 50 किस्मों और उत्पादकों के बीज होते हैं। अगर उनके यहां से साल में एक वस्तु का एक नमूना भी भरा जाए तो पांच साल में 3250 नमूने भरे जाने चाहिए थे लेकिन विभाग द्वारा विगत पांच वर्षों में बीज के मात्र 680 नमूने ही भरे गए। जिनमें सिर्फ 48 अमानक पाए गए और 37 नमूनों की आज तक प्रयोगशाला से रिर्पोट ही नहीं आई।
विभाग इसके पीछे स्टाफ की कमी को कारण बताता है और व्यापारी कहते हैं कि इसके लिए विभाग के अधिकारियों की बाकायदा सेवा की जाती है। इसके बाद खानापूर्ति के लिए कुछ नमूने लिए जाते हैं, वह भी व्यापारी की इच्छा और पसंद के अनुसार। यहां ध्यान रखा जाता है कि घटिया कृषि आदान बनाने वाले संस्थानों के उत्पादों के नमूने नहीं भरे जाते, और जो नमूने लिए भी जाते हैं उन्हें एक साधारण कपड़े की थैली में डालकर संयुक्त निदेशक के कार्यालय में ऐसे ही पटक दिया जाते हैं, जो कुछ समय में ही फंगस लगकर खराब हो जाते हैं। नमूने किस प्रयोगशाला में भेजे जाएगें और उस नमूने का गुप्त नम्बर क्या है? यह भी आसानी से जाना जा सकता है और परिणाम को इच्छानुसार बदलवाया भी जा सकता है। भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत कहते हैं कि इस कानून से विभाग और व्यापारी दोनों राजी हैं, बात तो किसान के हितों की है, उसके नाम पर होने वाली इस लूट में हमेशा किसान ही खरबूजा साबित हुआ है। बीज अमानक निकल जाए तो किसान उपभोक्ता अदालत में जाकर भले ही कुछ राहत पा सकता है बीज कानून तो केवल भ्रष्ट अधिकारियों की जेब भरने का साधन मात्र है।

Friday, June 8, 2012

बजट के बहाने से

पिछले महीन केंद्र और राज्य सरकारों ने अगले साल के लिए योजनाए बनाई और बजट पेश किया। बजट में चाहे कुछ भी आंकड़े भरे हों हमारा ध्यान सिर्फ इस पर है कि खेत किसान के लिए क्या है। कारण बहुत साफ है कि तमाम बड़े-बड़े उद्योग-धंधों और कम्प्यूटर क्रांति के बाद भी अब तक देश की 60 प्रतिशत आबादी खेती-किसानी पर ही निर्भर है। विडम्बना यह है कि साठ फीसदी लोगों को रोज़गार देने वाले इस क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में योगदान लगातार घटता जा रहा है। आजादी के समय कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 50 प्रतिशत था, जो नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2011-12 में गिरकर 13.9 प्रतिशत रह गया है।
हरित क्रान्ति से लेकर आज तक अरबों-खरबों रुपए कृषि के नाम पर खर्च करने के बावजूद हम अन्न उत्पादन के क्षेत्र में कहां खड़े हैं, जानने के लिए एक नजर अपने पड़ौसी देशों के खाद्यान्न उत्पादन के इन आंकड़ो पर भी डाल लें। हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसलों का उत्पादन पड़ौसी देश चीन की तुलना में लगभग आधा है। चीन जैसे बड़े देश से तुलना न भी करें तो भी यह जानकारी और भी चौंकाने वाली हो सकती है कि हमारे यहां मक्का और दलहन जैसी फसलें भी पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार से भी कम पैदा होती है। कृषि मंत्री शरद पवार से संसद में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर से यह आंकड़ें सामने आए हैं कि भारत में चावल की उत्पादकता 3,264 किलो प्रति हेक्टेअर है, जबकि चीन में यह 6,548 किलो है और बांग्लादेश में 4,182 किलो, म्यांमार में 4,123 किलो प्रति हेक्टेअर है। गेहूं की उपज के मामले में भी चीन में उपज करीब 4,748 किलो प्रति हेक्टेअर है जबकि हमारे देश में यह 3,264 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। मक्का उपज में बांग्लादेश शीर्ष पर है, जहां इसकी उत्पादकता 5,837 किलो प्रति हेक्टेअर है, 5,459 किलो के साथ चीन दूसरे तथा 3,636 किलो के साथ म्यांमार तीसरे पर और 3,558 किलो प्रति हेक्टेअर के साथ पाकिस्तान चौथे स्थान पर है जबकि भारत में यह आंकड़ा मात्र 1,958 किलो प्रति हेक्टेअर ही है। हमारा लगभग यही हाल दलहनी फसलों के मामले में भी है।
इसके बाद बात करते हैं खेती लागत और बाजार भावों की। रासायनिक कीटनाशकों और खाद के अंधाधुंध और अवैज्ञानिक उपयोग से जहां किसान एक ओर क़र्ज़ में डूब रहा है वहीं दूसरी ओर बाजार भाव अकसर उसे धोखा दे जाते हैं। 300 रूपए किलो बिकने वाला लहसुन कब 5रूपए पर आ जाए कहा नहीं जा सकता। गत वर्ष कपास 7 हजार रूपए प्रति क्विंटल तक बिकी वह इस साल 4 हजार रूपए प्रति क्विंटल के आसपास बनी रही। इन हालात को देखते हुए ही शायद यह मांग जोर पकड़ रही है कि रेल बजट की तरह कृषि बजट भी अलग से बनाया जाए। सन 1970 से हरितक्रंाति जो सफर शुरू हुआ था वह आजतक जारी है, मगर शर्म की बात है कि हरित क्रान्ति के इन 42 सालों में हम बंग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान से अन्न उत्पादन में पीछे हैं। ये हाल तब है जब कि इन देशों का कुल बजट भी हमारे कृषि बजट के बराबर नहीं हैं। 
यहां सारा दोष सरकार को भी नहीं दिया जा सकता, इस मामले में हमारा किसान भी कम नहीं है। अगर एक साल कपास की कीमत अच्छी मिल गई तो अगले साल सारे के सारे किसान कपास बीज कर बैठ जाएंगे। खाद, बीज और कीटनाशको की कमी होगी तो काले बाजार से दोगुने-चार गुने दामों पर खरीद कर भी यह बीजाई कपास की ही करेंगे। अगले साल फसल ज्यादा होने से वह भाव नहीं मिलेगा तो सरकार को कोसेंगे। ऐसे में सरकार चाहे लाख कृषि बजट बनाले, जब तक किसान अपने खेत का बजट नहीं बनाएगा तब तक वह जान ही नहीं पाएगा कि खेती करे या छोड़ दे। यही वजह है कि कल तक खेती को सम्मान का काम समझा जाता था, पर वर्तमान में अन्नदाता किसान दूसरे दर्जे के बाबुओं और अफसरों के रहमो-करम पर जिन्दा है।

Monday, April 23, 2012

बरसात की भविष्यवाणी

आज भी हमारे देश में साठ प्रतिशत खेती मानसून पर निर्भर है। ऐसे में किसानों के लिए बरसात के बारे में सटीक भविष्यवाणी का महत्त्व असंदिग्ध है। इसी के मद्देनजर मौसम विभाग वर्ष भर प्रयास रत रहता है कि मानसून के बारे में समय पूर्व जानकरी संबंधित पक्षों को मिलती रहे। हालांकि ये भविष्यवाणियां कितनी सटीक और सही होती हैं यह एक अलग बहस का विषय है। इनके बारे में कहा तो यह भी जाता है कि अगर मौसम विभाग बरसात होने की जानकारी दे तो समझलें कि सूखा पडऩे वाला है। इन लतीफों को अलग रखकर फिलहाल बात करते हैं कि मानसून के बारे ये भविष्यवाणियां किस आधार पर की जाती हैं।
भारत में मानसून अवधि 1 जून से 30 सितंबर तक करीब चार महीने की होती है। इससे संबंधित भविष्यवाणी 16 अप्रैल से 25 मई के बीच कर दी जाती है। तापमान, हवा, दबाव और बर्फबारी आदि कुल 16 तथ्यों के अध्ययन और विशलेषण को चार भागों में बांट कर बरसात के पूर्वानुमान किए  जाते हैं। समूचे भारत के तापमान का क्षेत्रानुसार अध्ययन किया जाता है। मार्च में उत्तर भारत का न्यूनतम तापमान और पूर्वी समुद्री तट का न्यूनतम तापमान, मई में मध्य भारत का न्यूनतम तापमान और जनवरी से अप्रेल तक उत्तरी गोलार्ध की सतह के तापमान को आधार बनाया जाता है। तापमान के अलावा वातावरण में अलग-अलग महीनों में 6 से 20 किलोमीटर ऊपर बहने वाली हवाओं के रुख और गति का भी लेखा-जोखा रखा जाता है। चूंकि वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है, वसंत ऋ तु में दक्षिणी भाग का दबाव और समुद्री सतह का दबाव जबकि जनवरी से मई तक हिंद महासागर के विषुवतीय क्षेत्रों के दबाव को मापा जाता है। जनवरी से मार्च तक हिमालय के खास भागों में बर्फ का स्तर, क्षेत्र और दिसंबर में यूरेशियन भाग में बर्फबारी का अध्ययन किया जाता है जो मानसून की भविष्यवाणी में अहम किरदार निभाती हैं। इस अध्ययन के लिए आंकड़े उपग्रह द्वारा एकत्र किए जाते हैं। इन सारे तथ्यों की जांच पड़ताल में थोड़ी सी असावधानी या मौसम में किन्हीं अप्रत्याशित कारणों से बदलाव का असर मानसून की भविष्यवाणी पर पड़ता है। इसका एक उदाहरण है, 2004 में प्रशांत महासागर के मध्य विषुवतीय क्षेत्र में समुद्री तापमान का जून महीने के अंत में बढ़ जाने के कारण मानसून की भविष्यवाणी का पूरी तरह सही न होना।
अल-नीनो भी तय करता है बरसात
मानसून का समय तो पूर्वानुमान द्वारा जाना जा सकता है लेकिन मानसून कितना अच्छा होगा और सही-सही कब आएगा, यह हम नहीं जान सकते। अल नीनो और इसकी गतिविधियों को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक कुछ हद तक पता लगा सकते हैं। सच्चाई तो यह है कि गहरे समुद्र में घटने वाली एक हलचल यानी अल नीनों ही किसी मानसून का भविष्य तय करती है। अल-नीनो कहीं प्रकृति का उपहार बनकर आती है तो कहीं यह विनाश का कारण भी बनती है।
क्या है अल-नीनो?
अल-नीनो स्पैनिश भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है- छोटा बालक। इसे यह नाम पेरू के मछुआरों ने बाल ईसा के नाम पर दिया बताते हैं। क्योंकि इसका प्रभाव सामान्यत: क्रिसमस के आस-पास अनुभव किया जाता है। मौसम विज्ञान की भाषा में इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत के भूमध्यीय क्षेत्र के समुद्र के तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए बदलाव के लिए उत्तरदायी समुद्री घटना को अल-नीनो कहा जाता है। यह दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित ईक्वाडोर और पेरु देशों के तटीय समुद्री जल में कुछ सालों के अंतराल पर घटित होता है जिसके परिणाम स्वरूप समुद्र के सतही जल का तापमान सामान्य से अधिक हो जाता है। सामान्यत: व्यापारिक हवा समुद्र के गर्म सतही जल को दक्षिण अमेरिकी तट से दूर ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस की ओर धकेलते हुए प्रशांत महासागर के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर बहती है। पेरू का तटीय जल ठंडा तथा पोषक-तत्वों से समृद्ध है जो प्राथमिक उत्पादकों, विविध समुद्री पारिस्थिक तंत्रों एवं प्रमुख मछलियों को जीवन देता है। अल-नीनो के दौरान, व्यापारिक हवाएं मध्य एवं पश्चिमी प्रशांत महासागर में शांत होती है। इससे गर्म जल को सतह पर जमा होने में मदद मिलती है जिसके कारण ठंडे जल के जमाव के कारण पैदा हुए पोषक तत्वों को नीचे खिसकना पड़ता है और जलीय जीव मरने लगते हैं जिससे समुद्री पक्षियों को भोजन की कमी हो जाती है। यही अल-नीनो प्रभाव विश्वव्यापी मौसम पद्धतियों के विनाशकारी व्यवधानों के लिए जिम्मेदार है।
एक बार शुरू होने पर यह प्रक्रिया कई सप्ताह या महीनों चलती है। सामान्यत: अल-नीनो प्रभाव दस साल में दो बार और कभी-कभी तीन बार भी नजर आता है। अल-नीनो हवाओं के दिशा बदलने, कमजोर पडऩे तथा समुद्र के सतही जल के ताप में बढ़ोतरी की विशेष भूमिका निभाती है। चूंकि अल-नीनो से वर्षा के प्रमुख क्षेत्र बदल जाते हैं, परिणामस्वरूप विश्व के ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा वर्षा होने लगती है और कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है।