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Friday, September 14, 2012

अनाड़ी हाथों में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं

आजादी के 65 साल बाद भी देश ऐसे डॉक्टरों से भरा पड़ा जिन्हें बोलचाल की भाषा में आरएमपी या झोलाछाप कह कर बुलाते हैं। ये लोग सिर्फ गाँवों में ही नहीं देश और राज्यों की राजधानियों तक में अपनी दुकानें सजा कर बैठे हैं, और विभिन्न पैथियों से इलाज के नाम पर लोगों के जीवन से खेल रहे हैं। कभी-कभार इनके खिलाफ अभियान चलाया जाता है तो ये कुछ समय तक अपनी दुकान बंद कर देते हैं, और मौका मिलते ही फिर शुरू हो जाते हैं।
क्यों चलती है इनकी दुकान?
चूंकि देश में योग्य एवं प्रशिक्षित चिकित्सकों की कमी है, और जो हैं वे गांवों में जाना नहीं चाहते। इसका फायदा ये तथा-कथित डॉक्टर उठाते हैं। देश में इस तरह के डॉक्टरों को पैदा करने वाले संस्थानों की भी कमी नहीं है। देश के हर राज्य में इस तरह के संस्थान हैं, धडल्ले से डिग्री और प्रमाणपत्र जारी करने की अपनी दुकानदारी चलाते हैं। हालांकि न तो डिग्री प्रदान करने वाले इन संस्थानों की कोई अहमियत है और न इन डिग्रियों की, क्योंकि ये संस्थान कहीं से भी मान्यता प्राप्त नहीं हैं।
किन बीमारियों का इलाज करते हैं ये डॉक्टर?
इस व्यसाय में दो तरह के डॉक्टर हैं। पहले वे जो गावों में रहकर हर छोटी-बड़ी बीमारी का इलाज करते हैं और शहर के बड़े डॉक्टरों के कमीशन ऐजेन्ट हैं। दूसरे वे जिनके आपने अकसर ऐसे विज्ञापन देखे होंगे जिनमें कई सारी बीमारियों का सौ प्रतिशत गारण्टी से इलाज का दावा होता है। आपमें से कुछ लोग उन पर यकीन भी कर लेते हैं। आइए जानते हैं कि वो कौनसी बीमारियां हैं जिनका इलाज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास नहीं किसी हकीम, वैद्य बाबा या झोलाझाप डॉक्टर के पास है। इस तरह के लोग जिन बीमारियों को ठीक करने का दावा करते हैं, उन्हें सुविधा के लिए चार श्रेणियों में बांट लेते हैं। पहली श्रेणी में वह लाइलाज बीमारियां आती हैं जिनका अब तक विज्ञान से कोई पक्का इलाज नहीं ढंूढ़ा है जैसे- कैंसर, ऐडस, गंजापन, छोटा कद, कुछ तरह के सफेद दाग, स्थाई विकलांगता और कुछ तरह के मानसिक रोग हैं। दूसरी श्रेणी में वह बीमारियां हैं जिनका इलाज या तो मंहगा है या सिर्फ ऑपरेशन से ही ठीक हो सकती हैं जैसे- पित्ते की पथरी, घुटने और जोडों का दर्द, मोटाप या दूबलापन, बवासीर, बढ़ा हुआ गूदूद और कुछ तरह की गांठें आदि। तीसरी श्रेणी में वह बीमारियां है जो समय के साथ खुद व खुद ठीक हो जाती हैं जैसे पीलिया, कील, मुहासे, झाइयां और कुछ तरह का लकवा और चौथी तथा अंतिम श्रेणी में आने वाली बीमारियां मदार्ना कमजोरी या यौन रोगों से संबंधित होती हैं। विडंबना है कि जो लाइलाज बीमारी अच्छे-अच्छे डॉक्टरों के उपचार से ठीक नहीं हुई और जिन्हें डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, ऐसे लोग इन आकर्षक विज्ञापनों के जाल में फंस जाते हैं। यह इलाज करवाते समय हमारी सोच यह होती है कि जब हजारों रुपए खर्च करने पर भी बीमारी ठीक नहीं हुई तो कुछ रुपये और सही।
कैसी-कैसी डिग्रियाँ
पांचवी, सातवीं या दसवीं फेल ये डॉक्टर अपने नाम के आगे आरएमपी, बीएमपी, बीएएमएस, डीएचएमएस, डीएमयू, बीएससी, एसआइएमएस (सिम्स), एमआइएमएस (मिम्स) और यहां तक कि अपने नाम के आगे एफआरसीएस तक लिखने से गुरेज नहीं करते। ये झोलाछाप एमबीबीएस (एएम) यानी अन्तरनेटिव मेडिसीन में डिग्री अपने बोर्ड पर धड़ल्ले से लिखते हैं। कई चिकित्सक तो ऐसे हैं जो अपने नाम के आगे डीएम, एएससीएमई, एएपीएमई (फिजिशियन एण्ड सर्जन) लिखने के साथ ही धड़ल्ले से आपरेशन तक करते हैं। इन चिकित्सकों की कई पीढ़ियां इस पेशे में लगी है। यदि इन चिकित्सकों से इन भारी-भरकम डिग्रियों का अर्थ पूछ लिया जाए तो कई रोचक जवाब मिलते हैं और कुछ तो बगलें झांकने लगते हैं। जानकरी के लिए बतादें कि सिम्स व मिम्स पत्रिकाओं के नाम हैं जिसकी इन फर्जी डॉक्टरों ने वार्षिक सदस्यता ले कर अपनी डिग्री में शामिल कर लिया है। बीएएमएस को ये लोग बैचलर ऑफ मेडिसिन ऐंड बैचलर ऑफ सर्जरी बताते हैं जो एक आयुर्वेदिक डाक्टरों की डिग्री है। अपने नाम के आगे आरएमपी लिखने वाले डॉक्टर इस डिग्री की अलग-अलग व्याख्या करते हैं। कोई रुरल मेडिकल प्रैक्टिशनर, कोई रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर तो कई ने इसे रीयल मेडिकल प्रैक्टिशनर कहते हैं तो कुछ आरएलडी डिग्रीधारी भी हैं, जो खुद को रुरल एलोपैथ डाक्टर बताते हैं। एफ.आर.सी.एस. (फैलो ऑफ रायल कालेज ऑफ सर्जन्स)एक मानद उपाधि है जो सर्जरी के अलावा समाजसेवा आदि के क्षेत्र में इंगलैण्ड या आयरलैण्ड के रायल कालेज ऑफ सर्जन्स द्वारा दी जाती है। रायल कालेज 1994 में मदर टेरेसा, 1995 में नेल्सन मंडेला और अमेरीका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर को भी एफ.आर.सी.एस. की मानद उपाधि दे चुका है।
खुद रहना होगा सावधान
कल्पना की जा सकती है कि जब इंसान की सेहत ऐसे नीम-हकीमों के हाथ में हो, तो उसका क्या हश्र होगा। ये झोलाछाप डॉक्टर अनाधिकृत रूप से और बिना किसी मान्य डिग्री के ग्रामीण अंचलों में अपनी डिस्पेंसरी या क्लिनिक चला रहे हैं जब कोई केस बिगड़ जाता है तो उसे शहर के किसी निजी अस्पताल में छोड़ आते हैं, जहां से इन्हें मोटा कमीशन मिलता है। देश के हर छोटे बड़े गांव में ऐसे फर्जी डॉक्टरों की भरमार है जो कि अनाधिकृत रूप से एलोपैथिक दवाएं लिखकर जनस्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दंत चिकित्सक के क्षेत्र में तो सड़कछाप डॉक्टरों की कमी नहीं है। वे सड़क पर तंबू लगाकर लोगों के दांत उखाड़ने से लेकर नकली बत्तीसी बनाने तक का काम करते हैं। पायरिया और अन्य दंत रोगों का शर्तिया इलाज करने वाले इन कारीगरों के पास न तो पर्याप्त उचित औजार ही होते हैं और न ही दक्षता। इनकी गिरफ्त में आए व्यक्ति संक्रमण के शिकार होकर उसकी पीड़ा भोगते हैं। ताकत और जवानी को बेचने वाले भी कम नहीं है। हस्तमैथुन, शीघ्रपतन, स्वप्नदोष आदि के बारे में फैली भ्रांतियों की वजह से इनकी दुकानदारी खूब चलती हैं। आप शायद ही जानते हों कि स्तंभन शक्ति बढ़ाने और कद लम्बा करने के लिए दी जाने वाली दवा सेहत को कितना नुकसान पहुंचाती है। जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है या कोई गंभीर शिकायत होती है, तो डॉक्टरों और उसकी डिग्री की खोज खबर की जाती है, जिससे पता चलता है कि न सिर्फ डॉक्टर नकली था उसकी डिग्री भी फर्जी थी। आजकल पंजाब राज्य में प्रशासन ने ऐसे डॉक्टरों की दुकानें बंद करवा रखी हैं तो वे विधानसभा के बाहर धरने पर बैंठे है। इनका तर्क है कि जब तक सरकार कोई उचित व्यवस्था नहीं करती तब तक हम जनता की सेवा करके उनकी मदद ही कर रहे हैं। यह इजाजत मांगना कुछ ऐस ही कि किसी गांव में अगर थाना नहीं है तो वहां कोई भी आदमी खाकी वर्दी पहन कर खुद को न सिर्फ हवलदार, थानेदार या एसपी कहने लगे, बल्कि किसी भी गांव वाले को उठाकर कमरे बंद करदे या मारपीट करे। कुछ वर्ष पहले तक अनुभवी कम्पाउंडरों का पंजीकरण करके रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर यानी आरएमपी बना दिया जाता था, लेकिन अब यह प्रणाली समाप्त कर दी गई है। भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद अधिनियम 1970 में अनुभव के आधार पर पंजीयन का अब कोई प्रावधान नहीं है। यदि कोई संस्था अनुभव के आधार पर पंजीयन करने का दावा करती है, तो वह सौ प्रतिशत अवैध है। सन 1998 में दिल्ली उच्च न्यायालय में कई प्रचलित वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता प्रदान करने के लिए एक याचिका दायर की गई थी। जिसके जवाब में न्यायालय ने स्वास्थ्य मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह इन चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता प्रदान करने की संभावनाएं तलाशें। इसके लिए चिकित्सा अनुसंधान परिषद निर्देशक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। हाल ही में प्रस्तुत इस समिति की रिपोर्ट को पूरी तरह स्वीकार करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जिन 10 वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को मान्यता देने से मना किया उनमें जल चिकित्सा, मूत्र चिकित्सा, रत्प चिकित्सा (RAPT), प्राणिक हिलिंग, मैगेटोथैरेपी, रैकी, इलेक्ट्रोथिरैपी, अरोमाथिरेपी, कलर थिरेपी और रिफलेक्सोलॉ शामिल है। इनके द्वारा इलाज करने वाले चिकित्सकों को अपने नाम के साथ डॉक्टर लगाने का भी अधिकार नहीं है। इस संबंध में मंत्रालय के निर्देशों में कहा गया है कि कोई भी संस्थान गैर मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति में स्नातक या स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम संचालित नही करेगा। समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार कई वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का कोई प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है और न ही चिकित्सा की यह कोई प्रमाणिक विधि है। यहां तक कि इन चिकित्सा पद्धतियों में प्रयुक्त दवाओं के निर्माण में भी कोई प्रामाणिक विधि नहीं है और न ही इनकी गुणवत्ता के स्पष्ट मापदंड हैं।

Wednesday, September 12, 2012

जेनरिक दवाइयाँ क्या और कितनी सस्ती

हाल में आमिर खान के टीवी शो सत्यमेव जयते के एक कथांश से महंगी दवाइयों के विकल्प के रूप में उभरी जेनरिक दवाएं एक बार फिर चर्चा में आ गई हैं। इस विषय पर बात करें उससे पहले जानते हैं कि जेनरिक दवाएं क्या हैं, और इनकी कीमत कम क्यों होती है।
क्या होती है जेनरिक दवाइयां?
जेनरिक दवाइयों के सन्दर्भ में जिनरिक (फार्माकोपियल) शब्द का अर्थ दवा के मूल घटक से है। उस मूल घटक से ही प्रजाति विशेष जो दवाएं तैयार होती हैं उन्हें जेनरिक या प्रजातिगत दवा कहते हैं। उदाहरण के तौर पर बाजार में गेहूँ का जो आटा 15 रुपए किलो बिकता है, उसे हम जेनरिक दवा मान लेते हैं। अब अगर यही आटा कोई आदमी या कम्पनी अपने मार्के के साथ 40 रुपए किलो के हिसाब से बेचे तो उसे कहेंगे एथिकल दवा। कोई भी निर्माता एक उत्पाद को जेनरिक या ब्रान्ड नाम से बेच सकता है। चूकिं ब्रान्ड पर निर्माता का एकाधिकार होता है तथा वह अपने ब्राण्ड को प्रसिद्ध और प्रचार-प्रसार करने के लिए खूब सारा खर्चा करता है। वह बिचौलियों यानी दवा विक्रेताओं, अपने विक्रय प्रतिनिधियों और डॉक्टरों को कमिशन देता है। इस वजह से ब्रान्डिड दवाएं जेनरिक से बहुत मंहगी हो जाती है, हालांकि दोनों की गुणवत्ता समान ही होती है।
सरकार का आग्रह जेनरिक पर क्यों?
अधिकांश दवाइयों की निर्माण लागत बहुत कम होती है, लेकिन वे विभिन्न कारणों से रोगियों को कम दामों पर नहीं मिल पाती हैं, जैसे- चिकित्सक किसी दवा कम्पनी के ब्रान्ड नाम की दवा लिखते हैं, इससे प्रतिस्पर्धा हतोत्साहित होती है और बाजार में कृत्रिम एकाधिकार की स्थिति बनती है, जिसमें दवा कम्पनी द्वारा अधिकतम खुदरा मूल्य काफी ज्यादा रखा जाता है। एक बार फिर वही उदाहरण कि डॉक्टर आपसे कहे कि गेहूँ का आटा खाओ, तो आप कहीं से भी खरीदकर खा लेंगे, अब अगर वही डॉक्टर आपसे कहे कि नत्थू की चक्की से लेकर गेहूँ का आटा खाओ, तो आपकी मजबूरी है कि जिस भाव नत्थू आटा बेचे उसी भाव खरीदना पड़ेगा। यही वजह है कि सरकार का आग्रह है कि डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम लिखें। यानी  डॉक्टर गेहूँ का आटा ही लिखें, किसी विशेष चक्की का आटा न लिखें।
क्यों मंहगी हैं एथिकल दवा?
भारत में अधिकतर दवाइयां 'औषधि मूल्य नियंत्रण' से मुक्त होने के कारण निर्माता अपनी ब्रान्डिड दवाइयों पर अधिकतम खुदरा मूल्य बहुत ज्यादा  लिखते हैं। औषधि विक्रेता वही कीमत  मरीज से वसूल करता है। उपभोक्ताओं को यह बात मालूम ही नहीं है कि अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत बहुत कम होती है। इसके अलावा यदि चिकित्सक ने किसी ब्रांड विशेष की दवा लिख दी तो फिर मरीज के पास उसे खरीदने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता, भले ही बाजार में वही घटक दवा कम कीमत पर उपलब्ध हो। दूसरी वजह हमारी मानसिकता है। हम यह मान कर चलते हैं कि अगर दोनों प्रकार की दवाओं के मूल्य में इतना अंतर है तो मंहगी दवा में जरूर कोई न कोई विशेषता होगी। दवा निर्माता कम्पनियां इसी भ्रम का फायदा उठाती हैं। उदाहरण के लिए एलर्जी या जुकाम के लिए एक दवा है सिट्रिजिन। कुछ कम्पनियां एलडे या सिटेन के नाम उसकी एक गोली को 5 से 6 रुपए में बेचती हैं, जबकि यही गोली अपने मूल नाम से मात्र 18 से 20 पैसे में उपलब्ध है।
क्यों होती है ये दवाइयां सस्ती?
किसी भी ब्रान्डिड या मौलिक दवा को बनाने में होने वाले शोध पर विशेष ज्ञान, समय तथा पूंजी लगती है, तब जाकर किसी कंपनी को एक दवा का एकाधिकार (पेटेंट)मिलता है। इन सब खर्चों के बाद कंपनी का मुनाफा और उस दवा को बेचने के लिए डॉक्टरों पर होने वाला खर्च भी कीमतों को बढ़ाता है। दूसरी और जेनरिक दवाइयों पर केवल इनके निर्माण का ही खर्च होता है, इसलिए इनकी कीमत अपेक्षाकृत बहुत ही कम होती है।
कुछ अड़चनें भी आईं
सन 1990 में जब जेनरिक दवाओं को खुला बाजार मिला तो कई बड़ी ब्रान्डिड कंपनियों ने पेटेंट और कॉपीराइट जैसे मुद्दों को उठाया और इन दवाओं को रोकने के कई प्रयास किए। दूसरे, ब्रान्डिड दवाओं से कुछ डॉक्टरों के कमीशन और कंपनियों के हित सीधे जुड़े होते हैं इसलिए खुदरा विक्रेता के पास मौजूद होने के बावजूद भी डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम नहीं लिखते, इसलिए दवा विक्रेताओं ने इन्हें रखना कम कर दिया।
कितनी सस्ती कितनी मंहगी?

अब जेनरिक दवाइयों की कीमतों में हो रहे बड़े घालमेल पर भी एक नजर डाल लेते हैं। हालांकि मौलिक और जेनरिक दवा की कीमतों में बहुत बड़ा अंतर होता है, पर जेनरिक दवा के थोक और खुदरा मूल्य के बीच का अंतर भी अविश्वनीय है। जेनरिक दवाइयां गुणवत्ता के सभी मापदण्डों में ब्रान्डिड दवाइयों के समान तथा उतनी ही असरकारक होती है। जेनरिक दवाइयों को बाजार में उतारने का लाइसेंस मिलने से पहले गुणवत्ता मानकों की सभी सख्त प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। दवा खरीदते समय यह ध्यान आपको रखना है कि जेनरिक दवा भी किसी नामी और अच्छी कम्पनी की हो, वरना बाजार नकली और घटिया दवाइयों से भरा पड़ा है। सलाह यह दी जाती है कि जेनरिक दवा हमेशा सरकारी दुकानों से ही खरीदें, बाजार में यह दवा आपको सस्ती नहीं मिलेगी। उदाहरण के लिए जेनरिक दवा सिट्रिजिन की 10 गोली का एक पत्ता सरकारी दुकान पर 2 से ढाई रुपए का मिलता है जबकि बाजार में यह 24 से 26 रुपए का मिलेगा।

Thursday, September 6, 2012

स्वास्थ्य-दशा सुधार अपेक्षित

हालांकि विगत कुछ वर्षों में भारतीय स्वास्थ्य की दशा में कुछ सुधार हुआ है। शिशु व मातृत्व मृत्यु दर में कमी आई है। कई गंभीर बीमारियों पर काबू पा लिया गया है और जीवन प्रत्याशा में भी वृद्धि हुई है। मगर इन उपलब्धियों के बाद भी देश का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर ग्रामीण भारत आज भी उचित स्वास्थ्य देखरेख से वंचित है। भौतिकवादी सुख सुविधाओं के प्रसार तथा आरामपरस्त जीवन शैली के कारण किसी जमाने की खालिस शहरी बीमारियां कैंसर, हृदय रोग और मधुमेह अब ग्रामीणों को अपने जाल में ले चुकी हैं।
गत वर्षों के दौरान भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन बढ़ती जनसंख्या पर काबू न रहने के कारण हम इस क्षेत्र में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66 प्रतिशत की। इस दौरान अस्पताल में बिस्तरों की संख्या एक हजार की जनसंख्या के पीछे मात्र 5.1 प्रतिशत ही बढ़ी है। देश के अस्पतालों में औसत  प्रति हजार जनसंख्या पर बिस्तर की उपलब्धता 0.86 है जो कि विश्व औसत का मात्र एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही रोगी-बिस्तर वर्ष भर खाली पड़े रह जाते हैं जिनकी वजह से वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
यह आंकड़े भी हमारी राष्ट्रीय औसत के हैं ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72 प्रतिशत आबादी है, उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वहां बिस्तरों की संख्या देश के अस्पतालों में उपलब्ध बिस्तरों का मात्र 19 प्रतिशत तथा चिकित्साकर्मियों का 14 प्रतिशत ही है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेन्द्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केन्द्रों में 62 प्रतिशत विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 प्रतिशत प्रयोगशाला सहायकों और 20 प्रतिशत फार्मासिस्टों की कमी है। इस भारी कमी के पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं और दूसरा, सीमित अवसरों और सुविधाओं के आभाव के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवक्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और उन्हें नीम-हकीमों या निजी क्षेत्र की शरण में जाने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इसके विपरीत राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार देश के 68 प्रतिशत लोग सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की तुलना में अत्यधिक महंगी निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं। वहीं दूसरी तरफ महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर क़र्ज़ लेता है। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41 प्रतिशत भर्ती होने वाले और 17 प्रतिशत वाह्य रोगी क़र्ज़ लेकर इलाज करवाते हैं।
ग्रामीणों को सस्ता और जवाबदेह इलाज उपलब्ध करवाने के लिए 12 अप्रैल 2005 से 18 राज्यों के लिए 2012 तक के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन शुरूआत की गई। मिशन से ऐसी स्वास्थ्य सुविधाओं की उम्मीद थी, जो सस्ती, पहुंच के भीतर और उत्तरदायी हो। एनआरएचएम का मकसद खराब स्वास्थ्य सुविधाओं वाले राज्यों में स्वास्थ्य के आधारभूत ढांचे की कमियों को दूर करने का था। डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा किया जाना था। स्वास्थ्य केंद्र खोलने के साथ-साथ दवाइयों और उपकरणों की बेहतर आपूर्ति पर भी काफी जोर था, लेकिन यह मिशन इन कसौटियों पर खरा नहीं उतर सका और बाकी सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया।

अगर आ जाए जमीन कुर्की का नोटिस

ज्यादातर भारतीय किसान उस कबूतर जैसी समझ रखते हैं जो बिल्ली को देखकर आखें बंद कर लेता है और सोचता है कि वह अब बिल्ली को मैं नज़र नहीं आ रहा। बैंक का क़र्ज़ नहीं चुका पाने की सूरत में वह बैंक के आगे से निकलना बंद कर देता है। घर आए बैंक के कर्मचारियों से मिलता नहीं है, उनके किसी पत्र का जवाब नहीं देता और अंतिम नोटिस तक छुपाकर बैठा रहता है। आखिरकार वह दिन भी आ जाता है जब सरकारी अधिकारी खड़ी फसल को जब्त कर लेते हैं और जमीन की कुर्की करने खेत पर आ खड़े होते हैं। जब कुर्की का नोटिस आ जाए तो क्या करना चाहिए, जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि लगभग हर राज्य में कृषि ऋण वसूलने के लिए कानून बने हुए हैं, जिनके तहत बैंक राज्य सरकार को ऋण वसूली का कार्य सौंप देते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में 1956 का कृषि ऋण अधिनियम जब कमजोर होता दिखा तो 21 सितंबर 1974 को राजस्थान कृषि ऋण संक्रिया (कठिनाइयाँ एवं निवारण) अधिनियम-1974 लागू किया गया और उसे भी 10 मार्च 1976 को सुधार करके और प्रभावी बनाया गया। इस कानून को हम अंग्रेजी के संक्षिप्त नाम राको-रोडा या रोडा एक्ट के नाम से ज्यादा जानते हैं।
क्या है वसूली कानून?
इस कानून के अंतर्गत बैंक ग्राहकों दो साधारण डाक और एक रजिस्टर्ड डाक द्वारा मांग-पत्र भेजता है। इस अंतिम नोटिस के एक माह बाद बैंक उस क्षेत्र के कलक्टर/ अतिरिक्त कलक्टर/उपखण्ड अधिकारी या तहसीलदार को ऋण करार की प्रमाणित प्रतिलिपि, खाते का प्रमाणित विवरण, मूल और ब्याज मिलाकर कुल रकम का विवरण, सम्बन्धित साक्ष्य के साथ बन्धक दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपि, बैंक में रहन रखी सम्पति के मूल्यांकन का ब्यौरा और वसूली हेतु बैंक द्वारा किए गए प्रयासों का विवरण प्रस्तुत कर निवेदन करता है कि चूककर्ता से राशि दिलवाई जाए। इसके बाद यह सक्षम अधिकारी चूककर्ता को किसी कर्मचारी के हाथ नोटिस भिजवा कर पैसे जमा करवाने या अपना पक्ष रखने के लिए कहता है। इसके बाद किसान थोड़ा सा हरकत में आता है और अब भी पैसे जमा करवाने की बजाए किसी वकील को ढूंढता है। यहां यह जान लेना जरूरी है कि अगर आपके खाते में जोड़-बाकी का कोई अंतर है और उसे बैंक अधिकारी मान नहीं रहा हो तो यह सरकारी अधिकारी आपका पक्ष जरूर सुनेगा और बैंक को इस गलती को सुधारने के लिए बाध्य भी करेगा। ज्ञात रहे इसके लिए आपको किसी वकील की जरूरत नहीं है, खातेदार स्वयं अपना पक्ष अधिकारी के सामने रख सकता है।
क्या करना चाहिए?
किसान को बैंक से दो तरह का क़र्ज़ मिलता है। पहला किसान क्रेडिट कार्ड पर अधिकतम 3 लाख तक। इस ऋण का ब्याज फसल आने पर और मूल साल में एक बार एक या दो दिन के लिए जमा करवाना होता है। आजकल सरकार ने इस पर ब्याज दर मात्र 4 प्रतिशत ही लगाने के आदेश दे रखे हैं। चूक होने पर यह ब्याज दर 14 से 16 प्रतिशत हो जाती है। इस ऋण के बारे में सलाह यह दी जाती है कि बैंक का पैसा समय पर लौटाया जाए और अगर किसी वजह से पैसा नहीं है तो कहीं से भी दो-चार दिन के लिए ब्याज पर पकड़कर भी खाता खराब होने से बचा लें।
दूसरी तरह का ऋण किसी वस्तु विशेष के लिए तय किस्तों के साथ दिया जाता है। इस ऋण में सभी किस्तें समय पर भरवानी चाहिएं और अगर किसी वजह से किस्त की राशि पूरी नहीं बन रही है तो जितनी भी रकम हाथ में हो उतनी ही जमा करवा दें और जब स्थितियां अनुकूल हों तो बाकी रकम भी जमा करवा दें। अपने खाते की नकल समय-समय पर ले कर जांचते रहें कि कोई अंतर तो नहीं है।
खाता बिगडऩे पर
बैंक का पहला संदेश या नोटिस आते ही बैंक जाकर अधिकारी या प्रबंधक से मिलकर अपनी समस्या हो सके तो लिखित में बताएं। साथ ही उन्हें आश्वत करें कि बकाया राशि (ओवरड्यू) कब तक भरवा देंगे। इसके लिए कुछ राशि नकद या चेक देकर भी कानूनी कार्रवाही को टाला जा सकता है।
मंहगा है यह तरीका
अगर आपने सरकारी नोटिस के बाद पैसे जमा करवाए तो कुल राशि पर 2 प्रतिशत वसूली प्रभार और देना पड़ेगा तथा सरकार ने आपकी बैंक के पास रहन रखी भूमि कुर्क करके वसूली है तो 5 प्रतिशत वसूली के प्रभार देना होगा। मतलब यह कि अगर बैंक 5 लाख मांगता है तो इस नोटिस के बाद यह राशि 5 लाख 10 हजार और नीलामी के बाद 5 लाख 25 हजार हो जाती है। सार यह कि जब तक मामला बैंक के हाथ में है, तब तक ब्याज व जुर्माने आदि में छूट की गुंजाइश है, अगर सरकार द्वारा कुर्की नोटिस जारी हो गया तो 2 से 5 प्रतिशत का खर्चा पक्का है। इस बात को हमेशा याद रखें कि आपकी जमीन की कीमत आपके क़र्ज़ की राशि से कई गुणा ज्यादा होती है। अकसर यही होता है कि जमीन बेचकर बैंक की राशि बैंक को तथा अपना प्रभार काटकर शेष राशि खातेदार को दे दी जाती है। इस विषय में सर्वोच्च न्यायालय भी आदेश दे चुका है कि सार्वजनिक वसूली के लिए किसी संपत्ति की नीलामी से बकाया रकम से ज्यादा पैसा मिलता है तो शेष धनराशि संपत्ति के मालिक को लौटा दी जानी चाहिए।

खारे पानी में लहलहाती फसलें

राजस्थान, गुजरात के साथ-साथ पंजाब व हरियाणा के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र खारे पानी और लवणीय भूमि की समस्या से लगातार जूझते रहे हैं। इन क्षेत्रों के लिए एक अच्छी खबर यह है कि हरियाणा के  करनाल स्थित केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान (सीएसएसआरआइ) के वैज्ञानिकों ने लवणग्रस्त भूमि और खारे पानी वाले क्षेत्र में फसल और फल उत्पादन में सफलता हासिल कर ली है।
संस्थान के सिरसा स्थित फार्म पर चार वर्ष पूर्व इस परियोजना पर कार्य शुरू किया गया था। अब ऐसी जमीनों पर आंवला, करौंदा व बेल-पत्र के अलावा बाजरा, सरसों, ग्वार और जौ का फसल चक्र अपनाकर अच्छा उत्पादन लिया है। चौथे वर्ष में आंवला, करौंदा व बेल के पेड़ों से फल मिलने शुरू हो गए हैं। अच्छी बात यह है कि लवणीय जल से सिंचित बाजरा, सरसों, ग्वार व जौ की फसल का उत्पादन भी बेहद संतोषजनक रहा और फलदार पौधों की बढ़वार भी ठीक रही।
संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. आरके यादव के अनुसार लवणीय भूजल वाले अर्धशुष्क क्षेत्रों में कृषि वानिकी एक लाभदायक फसल पद्धति है। अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहां भूजल लवणीय होने के कारण फसल उत्पादन संभव नहीं होता था वहां इस जल से पौधरोपण कर उनके साथ लवण सहनशील व कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों का उत्पादन लाभदायक रहा है। अब किसान ऐसी जमीनों से फल, ईधन, चारा व फसल आसानी से ले सकेंगे। उन्होंने इस प्रयोग के बारे में बताया कि सबसे पहले ट्रैक्टर से 60 सेंटीमीटर चौड़ी व 25 सेंटीमीटर गहरी नालियां बनाई जाती हैं। इन नालियों में ट्रैक्टर चलित बर्मे से उचित दूरी पर गड्ढे बनाए जाते हैं और यदि कंकर हों तो जिप्सम, गोबर की खाद व मिट्टी से गड्ढे को भरकर लवण सहनशील पेड़ लगाए जाते हैं और खारे पानी से सिंचाई की जाती है।
सीएसएसआरआइ के निदेशक डा. डीके शर्मा ने बताया कि केंद्रीय योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक हमें खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए 910 अरब घन मीटर जल की सिंचाई के लिए आवश्यकता होगी। इसके लिए निम्न गुणवत्ता जल जैसे लवणीय भूजल क्षेत्रों में लवणीय जल का उपयोग करना होगा। क्योंकि देश भर में करीब 860 लाख हेक्टेअर भूमि क्षार व लवणों की अधिकता के कारण खराब पड़ी है। देश के उत्तर-पश्चिमी राज्यों में 40 से 80 प्रतिशत भूजल की प्रकृति लवणीय है। ऐसे जल का लंबे समय तक अवैज्ञानिक तरीके से प्रयोग, मृदा व फसल उत्पादन के लिए हानिकारक हो सकता है। इस प्रकार के जल का समुचित वैज्ञानिक तरीकों से न्यूनतम मात्रा में उपयोग उन फसल पद्धतियों में करना चाहिए, जो इन परिस्थितियों में अधिकतम पैदावार दे सकें। अभी मार्च माह में हमारे वैज्ञानिकों नें दो गेहूं की नई किस्म केआरएल-210 व केआरएल-213 इजाद कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है।
इस विषय पर विस्तार से जानकारी देते हुए कृषि विज्ञानिक डॉ. नीरज कुलश्रेष्ठ ने बताया कि केआरएल-210 का दाना सामान्य है। पौधे की लंबाई 99 सेंटीमीटर होने के कारण गिरने की सम्भावना कम रहती है। सामान्य भूमि पर उगाने पर 25 क्विंटल प्रति हेक्टेअर व लवणीय भूमि में करीब 15 क्विंटल पैदावार ली जा सकती है। इसी तरह केआरएल-213 का दाना भी सामान्य ही है और पौधे की लंबाई 97 सेंटीमीटर है। सामान्य भूमि में 20 क्विंटल व लवणीय भूमि में करीब 13 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक पैदावार ली जा सकती है। दोनों किस्मों के गेहूं की रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। संस्थान की ओर से लवणीय व क्षारीय भूमि में बेहतर पैदावार की कई और गेहूं की किस्मों पर भी कार्य चल रहा है।

आई बरसात तो...

हालांकि भारतीय मौसम विभाग ने सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है और उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सच ही होगी और लगातार तीसरे साल भी देश में जबरदस्त पैदावार होगी। लेकिन मानसून के सामान्य रहने के बावजूद देश के कौन से हिस्से में कितनी बरसात होगी, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। इस बार अप्रैल माह अपेक्षाकृत ठंडा रहा और मई में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी इसकी वजह बीच-बीच में पश्चिमी विक्षोभ का सक्रिय होना रहा। मैदानी क्षेत्रों में बारिश नहीं हुई, जबकि अप्रैल में पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी हुई थी जिससे हवाओं का दिशा क्रम बदला और उत्तर-पश्चिमी सर्द हवाएं मैदानी इलाकों में सक्रिय रहीं। मई में बारिश अनुमान से कम हुई, इसलिए गर्मी बढ़ी। 
शुरूआती धीमी गति के बाद दक्षिण पश्चिम मॉनसून विगत कुछ ही दिनों में अपने मामूल पर आता लग रहा है। हालांकि 1 जून से 12 जून के बीच बारिश सामान्य से करीब 42 फीसदी कम हुई है। इस कमी को देखते हुए कई तरह के अनुमान लगाए जा रहा है, साथ ही अलनीनो उभरने का भी खतरा सामने है जो बरसात का सारा गणित बिगाड़ सकता है। भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक एल एस राठौर मॉनसून के प्रदर्शन को लेकर फिलहाल आश्वत हैं। वे कहते हैं कि चार महीने लंबे मॉनसून को पहले दो हफ्ते में हुई कम बारिश के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए। तटीय इलाकों में अच्छी बरसात हुई है, मूंगफली उत्पादक इलाके रॉयलसीमा में 15 जुलाई से बुआई शुरू होती है और कर्नाटक के भीतरी क्षेत्र जहां मक्का और ज्वार की बुआई जून के आखिर में शुरू होती है वहां कम बरसात से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए काफी वक्त है। राठौर के अनुसार बरसात के कम या ज्यादा होने वाले कई कारणों में अलनीनो एक कारणतो है लेकिन इकलौता नहीं। भारतीय बरसात और अलनीनो के बीच कोई सीधा संबंध भी नहीं है। प्रशांत महासागर के तापमान में अगस्त तक .5 से .7 डिग्री की बढ़ोतरी की संभावना है, लेकिन सिर्फ इतने से अलनीनो नहीं बन जाते। यदि यह एक डिग्री से ज्यादा बढ़ता है तो अलनीनो बनेंगे। लेकिन यह अगस्त के बाद होगा तब तक मानसून के तीन महीने बीत चुके होंगे। अगस्त में बनने वाले अलनीनो का मॉनसून पर प्रभाव पडऩे में भी 15 से 30 दिन लगते हैं तब तक मॉनसून देश से विदा हो चुका होगा। इन सबके बावजूद भारतीय कृषि विभाग ने प्रतिकूल मौसम से निपटने के लिए अपनी क्षमताएं विकसित कर ली हैं। 
वर्ष 2009 में बरसात में 23 प्रतिशत कमी के बावजूद खाद्यान्न का उत्पादन करीब 21.8 करोड़ टन रहा था, जो 2008 के मुकाबले मात्र 7 प्रतिशत कम था। ज्ञात रहे वर्ष 2009 में जून माह में सामान्य से 47.2 प्रतिशत, जुलाई में 4.3 अगस्त में 26.5 और सितंबर में सामान्य से करीब 20.2 प्रतिशत कम बारिश हुई थी। इसके विपरीत अगर बरसात उम्मीद से ज्यादा हो गई तो खेती का क्या होगा? के जवाब में वरिष्ठ कपास विशेषज्ञ डॉ. आर पी भारद्वाज कहते हैं कि- इस तरह की परिस्थितियों में इस क्षेत्र के हालात बिगड़ जाएंगे क्योंकि यहां इस वर्ष मुख्यत: दो ही फसलें है बीटी कॉटन और ग्वार। बीटी के जमीन से छूते हुए टिण्डों को फफूंद लगने से 20 से 25 प्रतिशत तक नुकसान होगा और ग्वार का पौधा बढ़ जाएगा 5 फुट तक ऊँचा, पर फली एक भी नहीं लगेगी। कृषि अनुसंधान केंद्र, गंगागनर के निदेशक और जल प्रबंधन विज्ञानी डॉ. बी एस यादव कहते हैं कि नुकसान और फायदा बरसात के समय पर निर्भर करता है, अगर बरसात ज्यादा और सितम्बर के अंत तक होती है तो कपास और ग्वार के लिए नुकसानदायक रहेगी। विशेषकर फसल कटाई के समय तक अगर बरसात रही तो बीटी कपास, ग्वार और मूंग तीनों को ही नुकसान हो सकता है, लेकिन गन्ने, धान तथा अगामी रबी फसलों के लिए यह फायदेमंद रहेगी।
भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र के प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन उप महानिदेशक डॉ. ऐके सिंह के अनुसार बरसात ज्यादा आने की संभावना नहीं है लेकिन दो बरसातों के बीच का अंतरात बढ़ जाएगा, तथा बरसात के दिन कम हो जाएंगे। बरसात के दिन कम होने से वर्षा का वेग अपेक्षाकृत तेज रहेगा और दो बरसातों के बीच अंतराल बढऩे से सूखा पडऩे की संभावना बढ़ जाएंगी। ऐसे मौसम के लिए हम नए बीज तैयार कर रहे हैं जो नई तकनीक से मात्र तीन से चार साल में तैयार हो जाएंगे।

अब बढ़ेगी उपज परमाणु खेती से

परमाणु ऊर्जा का नाम आते ही हमारे दिमाग में परमाणु बम और परमाणु युद्ध के अलावा जो दूसरा नाम आता है वह है, बिजली उत्पादन। लेकिन अब वैज्ञानिकों ने रेडियो ऐक्टिव तरंगो का प्रयोग कर पैदावार बढ़ाने वाले बीज और ऐसी तकनीकें विकसित की हैं, जो अधिक उत्पादन के साथ-साथ फसलों को बीमारियों व कीटों से भी बचाएंगी। फसलों के उत्परिवर्तन (म्यूटेशन और रीकॉम्बिनेशन ब्रीडिंग) के जरिए अनाज, दलहन और तिलहन आदि की बेहतरीन पैदावार की जा रही है। इस तकनीकी से पैदा किए गए बीज उच्च-उत्पादकता व गुणवत्ता वाले होने के साथ-साथ कीट व रोग प्रतिरोधी भी हैं।

भाभा अटॉमिक रिसर्च सेंटर में बायोमेडिकल ग्रूप के सहायक निदेशक और न्यूक्लियर ऐग्रिकल्चर ऐंड बॉयोटेक्नॉलजी संभाग के मुखिया डॉ. स्टॅनिसलास एफ. डिसूज़ा बताते हैं कि मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, सरसों, मूंग, अरहर, उड़द, चावल, जूट आदि फसलों की सभी किस्मों के बीज वायरस रोगों के लिए प्रतिरोधी, फफूंद नाशक, उच्च पैदावार व गुणवत्ता वाले हैं। ये सभी किस्में देश भर में भी बेहतर फसलें देने में सक्षम हैं। वैज्ञानिकों ने बीजों की इन किस्मों को टीएलजी 45, टीएजी 24, टीएएमएस 98-21, टीएएस 82, टीएटी 10 आदि नाम दिए हैं।
 
खेत को अधिक उपजाऊ बनाएगा रेडियो ट्रेसर 
वैज्ञानिकों के अनुसार मृदा-पादप तंत्र में पोषक तत्वों के स्थानांतरण के लिए रेडियो ट्रेसर का उपयोग किया गया है। मृदा विज्ञान के क्षेत्र में 32 पी, 35 एस, 59 एफई, 65 जेडयू, 54 एमयू आदि रेडियो ऐक्टिव तरंगे इस्तेमाल होती हैं। विकिरण एवं आइसॉटोप प्रौद्योगिकी बोर्ड, मुबई (बीआरआइटी-बोर्ड ऑफ रेडिएशन ऐण्ड आइसोटॉप टैक्रालॅजी) 14 सी, 35 एस, 3एच और 32 पी लेबल्ड कृषि रसायनों एवं उर्वरकों का निर्माण कर रहा है, जो मृदा और उर्वरक के क्षेत्र के लिए काफी फायदेमंद हैं।
 
विकीरण तकनीक से कीट नियंत्रण 
विकीरण का उपयोग करके बंध्य कीट तकनीक (एसआइटी) का प्रयोग कीटों पर नियंत्रण के लिए किया जाता है। इस तकनीक में कीड़ों को प्रयोगशाला में पाला जाता है, फिर उन्हें (विशेष तौर पर नर कीटों को) विकीरण की मदद से बंध्य (स्टेराइल) बनाते हैं, ताकि वे प्रजनन में असमर्थ हो जाएं। इसके बाद उन्हें वातावरण में छोड़ देते हैं इससे इनकी संख्या नहीं बढ़ती तथा कीटनाशक का प्रयोग किए बगैर कीटों पर नियंत्रण हो जाता है और वे फसलों को नुकसान नहीं पहुंचा पाते। बीएआरसी के वैज्ञानिकों ने इस तकनीक के जरिए रेड पाम वीविल, पॅटैटो टॉटेर मोथ, स्पॉटेड बॉलवॉर्म ऑफ कॉटन (विभिन्न कीटों की प्रजातियां) पर काबू पाया है।
 
सुरक्षित भंडारण के लिए प्रौद्योगिकी 
खाद्य विकिरणीकरण प्रोद्योगिकी द्वारा खाद्य नुकसान को भी रोका जा सकता है। इसके तहत गामा किरणों, एक्स-किरणों और तीव्रगामी इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा का नियंत्रित प्रयोग कर खाद्य एवं कृषि उत्पादों का संरक्षण करते हैं। निश्चित विकिरण द्वारा आलू और प्याज के भंडारण के दौरान होने वाले अंकुरण को रोका जा सकता है। इसके अलावा विकीरण द्वारा दालों व अनाजों में लगने वाले कीड़े व बीमारियों पर भी नियंत्रण संभव है। इस तकनीकी द्वारा कटाई के बाद फसलों के नुकसान को रोका जा सकता है, साथ ही कृषि उत्पादों का लंबे समय तक भंडारण भी किया जा सकता है। इनसे खाद्य जनित बीमारी फैलाने वाले सूक्ष्म जीवों पर भी नियंत्रण संभव है।