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Sunday, December 29, 2013

भारत में जीएम फसलेंऔर विज्ञान की राजनीति

पिछले दिनों आनुवंशिक रूप से परिवर्तित यानी जीएम फसलों के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित तकनीकी समिति की रपट आने के बाद देश का वैज्ञानिक समुदाय जिस तरह आंदोलित हुआ उसे देख कर हैरानी होती है। कृषि अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिकों और जैव तकनीक, वन और पर्यावरण मंत्रालय के तकनीकशाहों ने रपट आने के बाद एक घोषणापत्र जारी करते हुए प्रधानमंत्री से गुहार लगाई कि सरकार को इस मसले पर और वक्त जाया नहीं करना चाहिए और जीएम फसलों के व्यावसायिक उत्पादन को तुरंत अनुमति दी जानी चाहिए। जबकि तकनीकी समिति ने अपनी रपट में कहा है कि जीएम फसलों के परीक्षणों पर दस सालों के लिए प्रतिबंध लगा देना चाहिए और इस अवधि में इस बात का आकलन-अध्ययन किया जाना चाहिए कि इन फसलों के चलन का लोगों के स्वास्थ्य और प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा। वैज्ञानिक समुदाय तकनीकी समिति की रपट पर यह सवाल भी उठा रहा है कि वह कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है। उनके अनुसार कृषि की शोध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री से यह बात साबित हो चुकी है कि जीएम फसलों से न केवल पैदावार में बढ़ोतरी हुई, बल्कि कीटनाशकों के उपयोग में भी कमी आई है।
इस विवाद की एक दिलचस्प बात यह है कि न्यायालय की तकनीकी समिति जिस बीटी कपास को किसानों की तबाही का कारण मानती है उसके बारे में इन वैज्ञानिकों ने कसीदे पढऩे में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वैज्ञानिकों का घोषणा-पत्र कहता है कि मिट्टी और पानी जैसे संसाधनों की सीमाओं को देखते हुए भविष्य का खाद्य संकट बीटी कपास जैसी तकनीक के सहारे ही हल किया जा सकता है। पक्ष-विपक्ष की इस लामबंदी में उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ के इस वक्तव्य से यह मुद्दा और जटिल हो गया है कि मसले से जुड़े हर पक्षकार की बात सुने बिना वह कोई फैसला नहीं करेगी। खंडपीठ की नजर में जिन्हें पक्षकार माना जा रहा है उनमें जीएम फसलों का शोध और व्यापार करने वाली कंपनियां भी शामिल हैं। इसलिए उसने सात नवंबर को कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाले संगठन को भी अपना पक्ष रखने का मौका दिया है। यह ठीक है कि कंपनियों को पक्षकार मानने का मतलब उनका पक्ष-पोषण करना नहीं है और इस मामले में हमें किसी भी पूर्वग्रह से बचना चाहिए, लेकिन उदारीकरण के दो दशकों का औसत अनुभव यह रहा है कि पूंजी और जनकल्याण के बीच जब भी कोई विवाद खड़ा हुआ है तो जीत पूंजी की ही हुई है।
बहरहाल, जीएम फसलों के पक्ष-विपक्ष में दिए जा रहे इन तर्कों के बाद कम से कम यह तो साफ हो गया है कि यह मसला विज्ञान और तकनीक का नहीं, बल्कि राजनीतिक है। कंपनियों की मार्फत पूंजी के हित-साधन में लगे पैरोकार जब यह कहते हैं कि जीएम फसलों पर रोक लगाने का आग्रह विज्ञान का अपमान है तो दरअसल वे भी राजनीति ही कर रहे हैं। विज्ञान की इस राजनीति का अगर कोई उल्लेखनीय पहलू है तो यही कि वैज्ञानिक सामाजिक कल्याण और सरोकारों की भाषा बोल रहे हैं। जबकि आमतौर पर समाज की चिंता करने वाले समूह जीएम फसलों की असामाजिकता, सीमित उपयोगिता और उसके दूरगामी नुकसान पर अपना नजरिया और आपत्ति काफी पहले स्पष्ट कर चुके हैं। याद करें कि इस संदर्भ में संसदीय समिति पहले ही अपनी आशंकाएं जाहिर कर चुकी है। समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने कुछ अरसा पहले तर्क दिया था कि भारत में बीटी-कपास का अनुभव किसानों की बेहतरी के लिहाज से कोई उम्मीद नहीं जगाता, क्योंकि बीटी कपास के वर्चस्व के चलते एक तरफ कपास की पारंपरिक किस्में चलन से बाहर होती जा रही हैं तो दूसरी ओर किसान कर्ज के अंतहीन जाल में फंसते गए हैं। बीटी-कपास के दशक भर लंबे अनुभव का सार यह है कि उसकी खेती के लिए किसानों को ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ती है।
हाल ही में हैदराबाद में आयोजित जैव-विविधता के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान जब कई विशेषज्ञ खुद जीएम तकनीक के प्रभाव का जायजा लेने आंध्रप्रदेश के एक गांव में पहुंचे तो उनकी खुशफहमी को थोड़ा-सा झटका जरूर लगा होगा। वहां पहुंचे वैज्ञानिक और बीज कंपनियों के प्रतिनिधि बहुत उत्साह के साथ बता रहे थे कि बीटी-कपास को अपनाने से न केवल पैदावार में इजाफा हुआ, बल्कि किसानों को कीटों से भी मुक्ति मिली है। इसके बाद जब खुद किसानों से पूछा गया कि कपास की इस किस्म को लेकर उनका अपना अनुभव क्या है तो सच्चाई उतनी इकहरी नहीं निकली। किसानों ने बताया कि कपास के कीड़ों और पैदावार की बात तो ठीक है, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति जस की तस है। किसानों का कहना था कि अब भी उनकी लागत कपास के मूल्य से ज्यादा बैठती है। पहले किसानों को एक लीटर कीटनाशक पर दो सौ रुपए खर्च करने पड़ते थे, जबकि अब यह खर्चा दो से तीन हजार रुपयों के बीच बैठता है। इसलिए यहां गौरतलब बात यह है कि जब जीएम तकनीक का गुणगान किया जाता और उसके फायदे गिनाए जाते हैं तो उसका यह पहलू भुला दिया जाता है कि इसके लिए किसानों को बढ़ी हुई कीमत देनी होती है। जैव तकनीकी का व्यवसाय करने वाली कंपनियां शोध पर खर्च होने वाली रकम किसानों से ही वसूल करती हैं।
इस तरह देखें तो वैज्ञानिक समुदाय जब मौजूदा विवाद को विज्ञान बनाम राजनीति का रंग देना चाहता है तो यह पहली ही नजर में दिख जाता है कि असल में जीएम तकनीक के पक्ष में माहौल बनाने की राजनीति कौन कर रहा है। दो साल पहले बीटी बैंगन को आनन-फानन में मंजूरी देने के मामले में आनुवंशिक इंजीनियरिंग से जुड़ी आकलन समिति की भूमिका संदेहास्पद मानी गई थी। तब कई गैर-सरकारी पर्यवेक्षकों के साथ संसदीय समिति के सदस्यों ने भी यह माना था कि जीएम फसलों के प्रभाव, उनके स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी खतरों और उनकी लाभ-हानि के पहलुओं का आकलन करने वाली यह नियामक समिति न केवल कंपनियों के पक्ष में खड़ी हो गई थी, बल्कि एक प्रायोजक की तरह व्यवहार कर रही थी। उस समय कृषि शोध से संबंधित संसदीय समिति ने यह मांग उठाई थी कि 2009 में बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन को दी जानी वाली मंजूरी की जांच की जानी चाहिए। समिति का मानना था कि यह मंजूरी सांठगांठ से हासिल की गई थी। बाद में आनुवंशिक इंजीनियरिंग आकलन समिति के सह-अध्यक्ष ने भी यह बात स्वीकार की थी, उन पर कंपनी और मंत्रालय की तरफ से दबाव बनाया जा रहा था। गौरतलब है कि बैंगन की इस किस्म को भारतीय कंपनी महिको ने अमेरिकी कंपनी मोंसेंटो के साथ मिल कर विकसित किया था। बाद में इस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
इसलिए आज अगर सरकार के विभागों और संस्थाओं से जुड़े वैज्ञानिक फिर जीएम फसलों की गुणवत्ता और उनकी वृहत्तर सामाजिक उपयोगिता का मुद्दा उठा रहे हैं तो उससे एकाएक आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता, और अगर इसके जरिए वे अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं का मुजाहिरा कर रहे हैं तो उनकी सरोकार-प्रियता इसलिए उथली और अंतत: छद््म लगती है, क्योंकि उसमें खेती के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझ गायब है। जीएम तकनीक का समर्थन करते हुए वे इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे कि खेती का प्रबंधन, बीज पर होने वाला खर्च और उसकी उपलब्धता, खेती में निहित जोखिम, उसके संभावित लाभ और हानि, किसानों की लागत आदि जैसे तत्त्व वैज्ञानिक शोध से तय नहीं होते। इस तथ्य को आम आदमी भी समझता है कि ये सारे मसले बाजार और राजनीति से निर्धारित होते हैं, जिसमें किसानों की नहीं सुनी जाती। फैसले ऊपर से थोपे जाते हैं और उनका खमियाजा किसानों को उठाना पड़ता है।
एकबारगी अगर यह भी मान लिया जाए कि जीएम तकनीक से उत्पादन बढ़ेगा तो इस सवाल का उत्तर कौन देगा कि किसानों को पैदावार की बढ़त का लाभ स्वत: कैसे मिल जाएगा? क्या वैज्ञानिक समुदाय इस बात के लिए भी संगठित प्रयास करने का साहस दिखा पाएगा कि किसानों को उनकी फसलों का सही मोल मिले? क्या जीएम तकनीक का समर्थन कर रहे वैज्ञानिक इस प्रायोजित विडंबना का उत्तर दे सकते हैं कि पारंपरिक फसलों के बंपर उत्पादन के समय में भी किसान क्यों अपनी खड़ी फसलों में आग लगा देते हैं और अपने उत्पाद सड़क पर फेंक जाते हैं? जाहिर है कि मसला सिर्फ उत्पादन का नहीं हो सकता। असल में पूरी स्थिति का मर्म यह है कि किसान को उसकी मेहनत और लागत का फल कौन देगा। लिहाजा, अगर वैज्ञानिक यह कह रहे हैं कि जीएम फसलों से किसानों का भला होगा तो यह एक सतही और भ्रामक तर्क है। इसलिए पिछले दिनों जब उच्चतम न्यायालय की तकनीकी समिति की अनुशंसाओं के खिलाफ वैज्ञानिकों ने यह कहा कि समिति की राय से विज्ञान की भूमिका और हैसियत की अवमानना होती है तो इससे कोई भी आश्वस्त नहीं हो सका। लिहाजा, वैज्ञानिक जिसे सिर्फ नई तकनीक के प्रति लोगों की कूढ़मगजता मान रहे हैं वह वास्तव में इस बात का प्रतिरोध है कि खेती के बुनियादी आधारों को दुरुस्त किए बिना जीएम फसलों को खेती का तारणहार क्यों बताया जा रहा है। कहना न होगा कि जीएम फसलें अगर स्वास्थ्य और पर्यावरण के मानकों पर खरी भी उतरती हैं तो इसके बावजूद उनका औचित्य इस आधार पर तय किया जाना चाहिए कि चलन में आने के बाद उनका खेती और किसान पर दूरगामी प्रभाव क्या पड़ेगा। देश में बीटी कपास के चलन के बाद जिस तरह कपास की पारंपरिक किस्में व्यवहार से बाहर हो गई हैं उसे देखते हुए यह आशंका निराधार नहीं कही जा सकती कि जीएम तकनीक का प्रभुत्व कायम होने पर कहीं किसान अपने संचित ज्ञान से हाथ न धो बैठें और अंतत: बीज कंपनियों की घेरेबंदी के शिकार हो जाएं। आम लोगों के जेहन से यह आशंका इसलिए नहीं जा पाती, क्योंकि पिछले दो दशक के दौरान जिन योजनाओं और पहलकदमियों को जनकल्याण के नाम पर लागू किया गया है वे अंतत: बड़े किसानों और व्यापारियों, खेती के सहायक उपकरण बनाने वाली कंपनियों के हक में काम करने लगी हैं और औसत किसान उनके प्रस्तावित लाभों से वंचित रह गया है।
यहां यह याद रखना जरूरी है कि देश की मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक प्राथमिकताओं में किसान को सबसे नीचे रखा गया है और खेती के पक्षकारों का बहुस्तरीय जाल किसी भी लाभकारी नीति को उस तक पहुंचने से पहले ही हड़प लेता है। इसलिए मौजूदा विवाद में अगर वैज्ञानिकों के नजरिए को ही वरीयता दी जाती है तो यह विज्ञान की जीत नहीं, बल्कि व्यावसायिक स्वार्थ समूहों की जन-विरोधी राजनीति की जीत मानी जाएगी।

नरेश गोस्वामी,
नई दिल्ली.

जी.एम. फसलों का विरोध कितना जायज?

जीन संशोधित फसलों से जुड़े विवाद उतने ही पुराने हैं जितनी पुरानी ये फसलें हैं। एक बार फिर से जीन संशोधित फसलों के सुर्खियों में आने की वजह देश की शीर्ष अदालत की पहल है। एक जनहित याचिका जिसमें जी.एम. फसलों के खेत-परीक्षणों पर रोक लगाने की मांग की गई थी क्योंकि इससे पर्यावरण व जीव-जंतुओं पर नकारात्मक प्रभाव पडऩे की आशंका जताई गई थी। इस पर संज्ञान लेते हुए शीर्ष अदालत ने पड़ताल हेतु अपनी ओर से तकनीकी विशेषज्ञों की कमेटी गठित करने के आदेश भी दिये। इस विशेषज्ञ समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में जीन संशोधित फसलों के खेत-परीक्षण पर रोक लगाने की सिफारिश की है।
इससे पहले भी एक संयुक्त संसदीय समिति ने सरकार से आग्रह किया था कि जब तक जी.ए. फसलों का प्रयोग निरापद सिद्ध नहीं हो जाता है तब तक इसके प्रयोगों को स्थगित कर दिया जाएं। वास्तव में जी.एम. फसलों को लेकर बहुत से विवाद सामने आते रहे हैं जिनके चलते पर्यावरणविद् व स्वयंसेवी संगठन इसके क्रियान्वयन का मुखर विरोध भी करते रहे हैं। सामान्य तौर पर जीन संशोधित फसलों का विरोध मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभावों की आशंका के चलते किया जाता रहा है। इसी तरह पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीø टीø बैंगन के मुद्दे पर वर्ष 2010 में देशव्यापी बहस को जन्म दिया था तब कई स्वयंसेवी संगठनों ने खासा विरोध जताया था। यहां मजेदार बात यह है कि देश के अटार्नी जनरल जीø ईø वाहनवती सुप्रीम कोर्ट में जीøएमø फसलों के पक्ष में वकालत कर रहे थे जो कि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की मुहिम के विपरीत था।
ब्रिटेन में हुए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि जीन संशोधित फसलों से वन्य जीवों को कई तरह के नुकसान उठाने पड़ते हैं। तीन साल तक चले एक अध्ययन के अनुसार जीन संशोधित चुकंदर व रेपसीड की फसलों से ज़मीन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे खेतों के आसपास मक्खियों व तितलियों आदि की संख्या में अप्रत्याशित कमी आई है। यही वजह है कि एक हालिया सर्वेक्षण में ब्रिटेन के अधिकांश लोग व्यावसायिक स्तर पर जीन संशोधित फसलें उगाये जाने के खिलाफ हो रहे हैं।
जीन संशोधित फसलों के समर्थकों की भी कमी नहीं है जिनके पास इसके समर्थन में मजबूत तर्क हैं। उनकी दलील है कि संयुक्त राज्य अमेरिका जहां मानवीय स्वास्थ्य की रक्षा हेतु उच्च मानक निर्धारित हैं, वहां जीन संशोधित फसलों का बखूबी उपयोग किया जाता है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां फसलों की पैदावार में गिरावट दर्ज की जा रही है जो तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्यान्न आपूर्ति में सक्षम नहीं हो सकती। इसके अलावा हमने हरित-क्रांति के लक्ष्यों को हासिल करने के बाद भी अपनी तेजी से बढ़ती जनसंख्या का पेट नहीं भर पा रहे हैं। ऐसे में जीन संशोधित फसलों के जरिये खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है जिससे न केवल उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि किसानों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। वे पंजाब में बी.टी. कॉटन को सफल उदाहरण मानते हैं। भारत में जी.एम. फसलों का विरोध कुछ ऐसी संस्थाएं भी करती हैं जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ब्लैकमेल करने के लिए बदनाम हैं। देश में ऐसे भी कुछ लोग हैं जो हर तरक्की के पैदायशी विरोधी हैं, उनके पास किसी समस्या का समाधान भी नहीं होता।
भारत सरकार ने विषय-विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी का गठन किया है, जिसका काम जी.एम. फसलों के प्रायोगिक इस्तेमाल करना है ताकि आम किसानों के लिए जीन संशोधित फसलों का उपयोग निरापद बनाया जा सके। वहीं दूसरी ओर इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च और कृषि विश्वविद्यालय अपने स्तर पर जी.एम. फसलों पर शोध कर रहे हैं। वास्तव में इनके उपयोग का फैसला हमें वैज्ञानिकों पर छोड़ देना चाहिए।

Friday, September 6, 2013

बीटी की मरोड़ निकाली मरोडिय़े ने

हाल ही में कृषि अनुसंधान केन्द्र श्रीगंगानगर में कृषि अनुसंधान एवं प्रसार परामर्शदात्री समिति (जर्क)की खरीफ फसलों पर हुई बैठक में अन्य मुद्दों के साथ जो मुख्य बात उभर कर आई वह चौंकाने वाली थी। विगत दस वर्षों से हिन्दुस्तान में कपास उत्पादन का इतिहास बदलने वाली बीटी कपास को  पैकेज ऑफ प्रेक्टिसेज में शामिल करने के लिए विभिन्न कम्पनियों के 17 बीजों को उगाकर देखा गया। मकसद था क्षेत्र में बेहतर उपज देने वाले बीज के बारे में किसानों को बताना। इस प्रयोग का परिणाम उन बीटी बीज बनाने वाली कम्पनियों के लिए झटका देने वाला था। इन 17 बीजों में से एक भी बीज लीफ कर्ल वायरस से 100 प्रतिशत प्रतिरोधी नहीं है। इनमें से मात्र दो ही बीज ऐसे थे जिनमे लीफ कर्ल वायरस से मामूली प्रतिरोधक क्षमता (मॉडरिट्लि रिजिस्टॅन्ट) मिली, शेष में 9 अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल),  4 संवेदनशील (सॅसेप्टिबल) और 2 आंशिक संवेदनशील (मॉडरिट्लि सॅसेप्टिबल) किस्में थी।
कहां से आया लीफ कर्ल वायरस?
लीफ कर्ल वायरस इस क्षेत्र में हमेशा से नहीं था। 1990 में गंगानगर की साथ लगते पाकिस्तान के जिला बहावलनगर में नवाब-72 और नवाब-78 दो ऐसी किस्मों बिजाई होती थी जो शानदार उपज देती थी। इन किस्मों की सबसे बड़ी समस्या थी लीफ कर्ल वायरस। ज्यादा से ज्यादा उपज के लालच ने इन किस्मों के बीज नाजायज तरीके से चोरी-छिपे इस जिले में लाए गए। समय गवाह है कि वर्तमान में पंजाब के फाजिल्का से लेकर बार्डर के साथ-साथ लगते बीकानेर जिले तक इस बीमारी से अपना स्थाई घर बना लिया है। सेवा-निवृत वरिष्ट कपास प्रजनक वैज्ञानिक डॉ. आरपी भारद्वाज तो यहां तक कहते हैं कि-यह तो संयोग है कि नागौर, जैसलमेर और बाड़मेर में कपास नहीं उगाया जाता वर्ना ये बीमारी कन्याकुमारी तक पहुंच जाती। हालांकि पाकिस्तान ने लीफकर्ल वायरस से ग्रसित उपज बेचने पर सख्ती से पाबंदी लगा दी जिस वजह से आज वहां यह बीमारी न के बाराबर है, जबकि हमारे यहां इस रोग के संक्रमित बीजों को बेचने तक पर पाबंदी नहीं है।
क्या है लीफ कर्ल वायरस?
इसे हिन्दी में पर्ण संकुचन और आम बोलचाल में पत्ता- मरोड़ या मरोडिय़ा भी कहते हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि लीफकर्ल (पत्ता मरोड़ रोग) सफेद मक्खी से फैलता है। इसके वायरस से पत्ते मुड़ जाते हैं ओर पौधे की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है। इससे पौधे की बढ़वार रूक जाती है और टिंडो का विकास नहीं हो पाता। इसके बचाव के लिए सफेद मक्खी पर नियंत्रण करना जरूरी है। बारिश होने पर यह रोग लगने का खतरा ज्यादा रहता है इससे पूरी फसल ही खराब हो जाती है। केंद्र के वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंतित हैं कि लाख प्रयासों के बावजूद अभी तक कपास में मरोडिया रोग पर काबू नहीं हो सका।
कैसे बिकता है लीफ कर्ल वायरस संवेदी बीज?
लीफ कर्ल की समस्या इस क्षेत्र में विगत 20 साल से है, इसका पता कृषि अधिकारियों के साथ-साथ बीज बनाने वाली कम्पनियों को भी है। बीज बेचने वाली कम्पनियां जब इस क्षेत्र में बीज बेचने की अनुमति लेती हैं तो गंगानगर जिले को छोड़कर कहीं भी बीज का ट्रयाल की हुई रिर्पोट दिखा कर ले लेती हैं। इस बारे में जब संयुक्त निदेशक कृषि  वीएस नैण से पूछा गया तो उनका कहना था कि राज्य में बीज बेचने की अनुमति राज्य सरकार ही देती है इसमें स्थानीय अधिकारियों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। किसान शिकायत करता है तो हम आवश्यक कार्रवाही जरूर करते हैं। गंगानगर जिले में नहर बंदी की वजह से गत वर्ष कॉटन की बुवाई एक लाख 10 हजार 406 हेक्टेअर क्षेत्र में ही हुई थी। लीफकर्ल का प्रकोप गंगनहर व भाखड़ा नहर परियोजना क्षेत्र में ही ज्यादा है। इंदिरा गांधी नहर परियोजना क्षेत्र में लीफकर्ल का प्रकोप हनुमानगढ़ क्षेत्र में लालगढ़ से आगे कम ही है। हनुमानगढ़ में इस वर्ष एक लाख 73 हजार 450 हेक्टेअर क्षेत्र में कपास बुवाई हुई है।

        बीज निर्माता                                बीज किस्म                                  प्रतिरोधी क्षमता
01. डीएसएल श्रीराम सीड्ज                       बायो-6588                            मध्यम प्रतिरोधी (मॉडरिट्लि रिजिस्टॅन्ट)
02. डीएसएल श्रीराम सीड्ज                       बंटी                                     मध्यम प्रतिरोधी (मॉडरिट्लि रिजिस्टॅन्ट)
03. राशि सीड्ज                                     आर सी एच 650                      आंशिक संवेदनशील (मॉडरिट्लि सॅसेप्टिबल)
04. राशि सीड्ज                                     आर सी एच 653                      आंशिक संवेदनशील (मॉडरिट्लि सॅसेप्टिबल)
05. डीएसएल श्रीराम सीड्ज                      बायो- 6488 बीटी                      संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
06. नूजिवीडू सीड्ज                                राघव एन सी एस 855                संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
07. जेके एग्री जेनेटिक्स लि.                     जेके सी एच 0109                     संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
08. प्रभात एग्री बायोटैक                          पी सी एच 877 बीटी-2                संवेदनशील (सॅसेप्टिबल)
09. जेके एग्री जेनेटिक्स लि.                     जेके सी एच 1050 बीटी              अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
10. विभा सीड्ज                                    ग्रेस बीजी                               अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
11. नूसुन                                            मिस्ट बीजी-2                          अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
12. मॉनसेंटों                                        मैक्सकॉट एसओ 7 एच 878        अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
13. बायर बायोसांइस                              एसपी 7007                            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
14. कृषिधन                                         पंचम केडीसीएचएच 541            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
15. अंकुर सीड्ज प्रा.लि.                           अंकुर 3028                            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
16. महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्ज                        एमआरसी 7361                     अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)
17. महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्ज                        निक्की एमआरसी 7017            अति संवेदनशील (हाइली सॅसेप्टिबल)

Wednesday, August 28, 2013

बीटी ने बचाया मोरों को

बीटी कपास को लेकर पर्यावरणविद् कई तरह की शंकाएं व्यक्त करते रहे है लेकिन अबोहर वन्य जीव अभयारण्य पर इसका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। पिछले एक दशक से अभयारण्य से गायब हो चुके मोर बीटी कपास की खेती शुरू होने के बाद लौटने लगे हैं।
पंजाब राज्य में राजस्थान और हरियाणा सीमा पर स्थित अबोहर उपमंडल के तेरह गांवों को अग्रेंजों के जमाने से अभयारण्य का दर्जा मिला हुआ है। इन गांवों में वन्य जीवों को अपनी जान से ज्यादा प्यार करने वाले बिश्रोई समाज के लोग बहुसंख्या में है। अपने गुरू जम्भेश्वर की शिक्षाओं के अनुरूप बिश्रोई समाज वृक्षों और वन्य जीवों के संरक्षण को सदैव तत्पर रहता है। बिश्रोई समाज की भावनाओं की कद्र करते हुए अंग्रेज सरकार ने इन गांवों को अभयारण्य का दर्जा देकर किसी भी तरह के पशु या पक्षी के शिकार पर रोक लगा दी थी। आजादी के बाद स्वत्रंत भारत की सरकारों ने भी इन गांवों का अभयारण्य का दर्जा कायम रखते हुए पर्यावरण के प्रति अपने सरोकार की पुष्टि की।
अबोहर वन्य जीव अभयारण्य में शामिल तेरह गांवों का कुल रकबा 46,513 एकड़ है जिसमें रायपुरा, राजावाली, दुतारावाली, सरदारपुरा, खैरपुरा, सुखचैन, मेहराणा, सीतो गुन्नो, बिशनपुुरा, रामपुरा, नारायणपुरा, बजीतपुर भोमा और हिम्मतपुरा शामिल है। यह एशिया का अपनी तरह का अकेला ऐसा अभयारण्य है जिसकी कोई चारदीवारी या तारबंदी नहीं हुई है। किसानों की निजी भूमि में वन्य जीव निर्भय होकर विचरण करते हैं। अबोहर वन्य जीव अभयारण्य काले हिरण और मोर की बहुतायत के लिए जाना जाता था लेकिन बीस वर्षों में इस अभयारण्य से मोर पूरी तरह से लुप्त हो गए थे।
पुराने दिनों को याद करते हुए एक बजूर्ग बनवारीलाल बताते हैं कि अभयारण्य में हजारों की गिनती  में मोर हुआ करते थे। सुबह-शाम मोर की कूक से पूरे इलाक ा गूंज उठता था। घरों की छतों और आंगन में मोर नृत्य करते दिखाई देते थे। उन्होंने बताया कि सिर्फ दुतारावाली के शमशान घाट में ही दो सौ से ज्यादा मोर थे। धीरे-धीरे अभयारण्य से मोर गायब होने शुरू हुए। एक समय ऐसा भी आया कि अभयारण्य में मोर के दर्शन भी दुर्लभ हो गए।
भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर असिंचित रेतली भूमि में रहना पसंद करता है। अपने भारी पंखों के कारण यह ऊंची उड़ान नहीं भर पाता। यही कारण है कि अबोहर अभयारण्य से मोर के लुप्त होने को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जाने लगी। कुछ जानकारों का कहना था कि जलवायु परिवर्तन के कारण मोर पलायन कर गए है और कुछ इसके लिए अभयारण्य क्षेत्र में बढ़ते खुंखार कुत्तों को जिम्मेदार ठहराते। लेकिन मोर के लुप्त होने के पीछे कीटनाशक दवाओं के बढ़ते उपयोग को दोषी ठहराने वालों की संख्या सबसे ज्यादा थी। अबोहर पंजाब की कपास पट्टी के अंतिम सिरे पर स्थित है। अबोहर के किसानों की आर्थिक समृद्धि इस नकदी फसल पर टिकी है। अमेरिकन सुंडी के हमले ने न सिर्फ कपास उत्पादकों को आर्थिक नुकसान पहुंचाया बल्कि इलाके के पर्यावरण संतुलन को भी बुरी तरह बिगाड़ कर रख दिया। कपास का कोई विकल्प ने होने के कारण किसान फसल को बचाने के लिए तेज और महंगी कीटनाशक दवाओं का अंधा उपयोग करने के लिए मजबूर थे। बीटी कपास ने किसानों को आर्थिक संबल प्रदान करने के साथ पर्यावरण को भी सहारा दिया है। यही वजह है कि अभयारण्य में एक बार फिर राष्ट्रीय पक्षी की कूक सुनाई देने लगी है।
अबोहर के उप वन्य रेंज अधिकारी महेन्द्रसिंह मीत ने अभयारण्य में मोर की जनसंख्या में वृद्धि की पुष्टि करते हुए बताया कि राजावाली, हिम्मतपुरा, मेहराणा, सरदारपुरा और बिशनपुरा में मोर दिखाई देने लगे है। सरदारपुरा में मोर का एक बड़ा समुह अकसर दिखाई देता है। इसी तरह राजावाली में राजेन्द्र बिश्रोई के बाग में भी बड़ी संख्या में मोर देखे जा सकते है। उन्होंने बताया कि इस समय अभयारण्य में सौ से भी ज्यादा मोर हैं और आने वाले दिनों में इनके और बढऩे की उम्मीद की जा रही है।
अबोहर के सहायक पौध संरक्षण अधिकारी डॉ. आर. एस. यादव मानते है कि बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद कीटनाशक दवाओं के उपयोग में भारी गिरावट आई है। कपास की परंपरागत किस्मों की बिजाई के समय कपास पर अठारह से बीस बार कीटनाशक दवाओं का उपयोग किया जाता था। बीटी कपास पर चार बार कीटनाशक दवाएं छिड़कने से ही काम चल जाता था। इसके अलावा बीटी कपास की हाइब्रिड किस्में तैयार होने में भी कम समय लेती है। डॉø यादव के अनुसार कपास की परंपरागत किस्मों की बीजाई मई में होती थी और चुगाई का काम जनवरी तक चलता था। बीटी कपास के लोकप्रिय होने के बाद चुगाई का काम नवंबर तक निपट जाता है। वे अबोहर के किसानों के बागवानी के प्रति बढ़ते रूझान को भी पर्यावरण के हित में मानते है। फल उत्पादन से होने वाली आय ने इलाके के किसानों की कपास पर निर्भरता को कम किया है।
भारतीय किसान यूनियन के जिला उप प्रधान अक्षय बिश्रोई इस संबंध में केन्द्र और राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करते है। उनके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी के गायब होने की सरकारें मूक दर्शक की तरह देखती रही। मोर सिर्फ हमारा राष्ट्रीय गौरव ही नहीं किसान का सबसे बड़ा मित्र पक्षी भी है। वे चाहते  है कि सरकार मोर के संरक्षण और संर्वद्धन के लिए जरूरी कदम उठाए ताकि अभयारण्य की पुरानी गरिमा बहाल हो सके।

अमित यायावर

क्या बीत गए दिन बीटी के?

एक दशक पहले जिस बीटी कपास ने भारत में बड़ी चकाचौंध के साथ प्रवेश किया था अब उसकी चमक फीकी पडने लगी है। पिछले दिनों बीटी कपास को लेकर दो विरोधाभासी घटनाएं एक साथ देखने को मिलीं। एक ओर कृषिमंत्री शरद पवार ने लोकसभा में बीटी कपास पर गैर-सरकारी संगठनों, सिविल सोसायटी और संसद की स्थायी समिति की आपत्तियों को काल्पनिक व भ्रामक करार दिया तो दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार ने पहली बार आधिकारिक रूप से स्वीकार किया कि राज्य में बीटी कपास की पैदावार में 40 प्रतिशत तक की गिरावट आ चुकी है। हालांकि केंद्र को भेजी अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार ने किसानों को सीधे 6000 करोड़ रुपये का नुकसान होने की बात कही है। लेकिन यदि बीज, उर्वरक, कीटनाशक, रसायन, मजदूरी आदि की लागत को देखें तो यह नुकसान 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक का होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि पहले जहां विदर्भ व मराठवाड़ा से ही कपास फसल के बर्बाद होने की खबरें आती थीं वहीं अब उत्तर महाराष्ट्र के खानदेश जैसे सिंचित क्षेत्र से भी आने लगी हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार इस साल महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याओं के 5000 का आंकड़ा छू लेने की उम्मीद है जबकि पिछले साल 3500 किसानों ने आत्महत्या की थी। यह लगातार तीसरा साल है जब महाराष्ट्र में कपास की फसल बर्बाद हुई है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 42 लाख हेक्टेअर जमीन में कपास की खेती की जाती है जो देश में सर्वाधिक है। लेकिन प्रति हेक्टेअर पैदावार में आ रही गिरावट के कारण जहां एक ओर कुल उत्पादन कम होता जा रहा है वहीं दूसरी ओर लागत बढ़ती जा रही जिससे किसान तेजी से कर्ज के चंगुल में फंसते जा रहे हैं।
कपास किसानों की बढ़ती बदहाली और पैदावार में लगातार आ रही गिरावट के बावजूद कंपनियां बीटी कपास को चमत्कारी फसल बता रही हैं। उनके मुताबिक 2002 में 77 लाख हेक्टेअर कपास की खेती होती थी जो कि 2011-12 में 121 लाख हेक्टेअर हो गई। इस दौरान कपास का कुल उत्पादन 1.3 करोड़ गांठ से बढ़कर 3.45 करोड़ गांठ हो गया जिससे भारत कपास का निर्यातक बन गया। कंपनियां इसका श्रेय बीटी कपास को देती हैं। भारत में बीटी कपास लाने वाली महिको-मोंसेटो बायोटेक कंपनी दावा करती है कि बीटी कपास अपनाने के बाद भारतीय कपास किसानों को 31500 करोड़ रुपये का मुनाफा हो चुका है। लेकिन यदि कंपनी के दावों का विश्लेषण किया जाए तो कहानी कुछ और ही सामने आती है। यह सच है कि बीटी कपास अपनाने के बाद पैदावार तेजी से बढ़ी। उदाहरण के लिए 2004-05 में कपास की उत्पादकता 470 किग्रा प्रति हेक्टेअर थी जो 2007-08 में बढ़कर 554 किग्रा हो गई। लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट का दौर शुरू हुआ। आज यह 480 किग्रा रह गई है। स्पष्ट है कपास उत्पादन में जो बढ़ोतरी हुई उसमें एक बड़ा योगदान कपास के अधीन बढ़े हुए रकबे का है। सबसे बड़ी बात यह है कि मोनसेंटो के बीटी कपास के प्रवेश के बाद से कपास की स्थानीय किस्में लुप्त हो गईं। इससे किसान महंगे हाइब्रिड बीजों पर निर्भर हो गए जिन्हें खरीदने के लिए उन्हें हर साल मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है। ज्ञात रहे बीटी के आने के बाद कपास बीज की कीमतें 800 गुना तक बढ़ चुकी हैं। दूसरी तरफ किसान भी कम नहीं है वह एक ही खेत में लगातार कपास की फसल लेता है और बीटी के चारों तरफ नॉन बीटी किस्मों की (रिफ्यूजिया)भी नहीं बीजता, जिससे न सिर्फ मिट्टी के पोषक तत्वों में कमी आ रही है बल्कि कीटों की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ रही है। इसी का नतीजा है कि जैसे-जैसे फसल बर्बाद होने की घटनाएं बढ़ रही हैं वैसे-वैसे कीटनाशकों पर होने वाला खर्च भी बढ़ता जा रहा है जिससे कपास उत्पादन की लागत कई गुना बढ़ गई है।
बीटी कपास को समृद्धि का प्रतीक बताने वाले दावों की कलई महाराष्ट्र के उदाहरण से खुल जाती है। उदाहरण के लिए यहां 2010-11 में 36.2 लाख हेक्टेअर जमीन में 74.7 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था जबकि 2011-12 में 39.2 लाख हेक्टेअर में कपास की खेती के बावजूद कुल उत्पादन घटकर 69 लाख गांठ रह गया। कुछ यही कहानी आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश में भी दोहराई जा रही है। गुजरात इसका अपवाद रहा है लेकिन इसका श्रेय बीटी कपास को न होकर गुजरात की लघु सिंचाई परियोजनाओं और नई कृषि भूमि में कपास की खेती को दिया जा रहा है।
भारत के गैर-सरकारी संगठन 'नवधान्य' के मुताबिक बीटी कपास के इस्तेमाल से कीटनाशकों के प्रयोग में 13 गुना की बढ़ोतरी हो चुकी है। 2008 में इंटरनेशन जरनल ऑफ बायोटेक्नॉलाजी में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि बीटी कपास से पैदावार में जो बढ़ोतरी होती है उसे कीटनाशकों व खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल से लागत में हुई बढ़ोतरी निगल जाती है। इस सच्चाई को कंपनियां खुद स्वीकार करती हैं कि उनके बीजों के विरुद्ध कीटों एवं खरपतवार ने प्रतिरोध विकसित कर लिया है। इन्हें सुपर खरपतवार की संज्ञा दी गई है। इनसे लडऩे के लिए कंपनियां नए बीजों के साथ-साथ महंगे व असरदार कीटनाशकों के इस्तेमाल को जरूरी बता रही हैं। जाहिर है हर हाल में किसान को लूटकर एग्रीबिजनेस कंपनियां अपनी तिजोरी भरेंगी।

Sunday, August 25, 2013

और भी तरीके हैं कपास उपज बढ़ाने के

अब तक यह माना जा रहा था कि जीन प्रसंस्कृत बीटी हाइब्रिड कपास की खेती से ज्यादा उपज लेने का एकमात्र तरीका है। आज कृषि-विज्ञान में ऐसे कई साधन उपलब्ध हैं, जिनके इस्तेमाल से उन इलाकों में भी कपास का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, जो सिंचाई के लिए पूरी तरह बारिश पर निर्भर हैं। नागपुर स्थित केंद्रीय कपास शोध संस्थान (सीआइसीआर) ने एक असाधारण नई तकनीक 'हाई डेंसिटी कॉटन प्लांटिंग सिस्टम' का विकास किया है। इस तकनीक के अंर्तगत प्रति हेक्टेअर भूमि पर पहले से ज्यादा पौधे लगाए जाते हैं, जिनसे महारष्ट्र के विदर्भ जैसे इलाके में भी कपास का उत्पादन दोगुना करने में सफलता हासिल हुई है। पानी की कमी के कारण विदर्भ में अक्सर कपास की फसल खराब हो जाती है, जिससे व्यथित किसान आत्महत्या तक कर लेते हैं। 
आमतौर पर किसान प्रति हेक्टेअर 50,000 से 55,000 पौधे लगाते हैं। नई तकनीक के तहत बीजों को कम दूरी पर बोया जाता है, जिससे प्रति हेक्टेअर 2 लाख पौधों की बुआई की जाती है। ज्यादा संख्या में पौधों की बुआई करने से कपास का ज्यादा उत्पादन होता है। इस तरह के घने रोपण के लिए कपास की वे किस्में बिल्कुल मुफीद हैं, जो जल्दी पकने के साथ-साथ सूरज की रोशनी, पोषक तत्त्व हासिल करने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करती, तथा जिनके पौधे न तो ज्यादा लंबे होते हैं और न ही ज्यादा फैलते हैं। छोटी अवधि में पकने वाली किस्मों का जीवन-चक्र मॉनसून के बाद मिट्टी में मौजूद नमी के समाप्त होने से पहले ही पूरा हो जाता है। सी.आइ.सी.आर. ने वास्तविक परीक्षण के जरिये कपास की विभिन्न किस्मों की पहचान कर ली है, जो घने रोपण के लिए बिल्कुल उपयुक्त रहेंगी। इसमें पीकेवी 081 (जिसे अकोला कृषि विश्वविद्यालय ने 1987 में पेश किया था), एनएच 615 (हाल में परभणी विश्वविद्यालय द्वारा विकसित) और सूरज (2008 में सीआइसीआर द्वारा विकसित) कुछ ऐसी ही किस्में हैं।
बारिश का जल संरक्षित करने के तरीके अपनाने से भी इस अनोखी प्रक्रिया से कपास की खेती में बहुत मदद मिलती है। महारष्ट्र, मध्यप्रदेश आंध्रप्रदेश और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में बारिश पर निर्भर रहने वाली कपास की खेती को इससे काफी फायदा हो सकता है क्योंकि यहां बार-बार पानी की कमी के कारण उत्पादन को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है। सीआइसीआर के कपास वैज्ञानिकों का कहना है कि उन इलाकों में कपास की उत्पादकता बेहद कम होती है, जो पानी के लिए बारिश पर निर्भर होते हैं क्योंकि मॉनसून के बाद मिट्टी में नमी की कमी हो जाती है, खासतौर पर पौधों पर फूल निकलते समय, जब पानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। 
आमतौर पर जून में शुरू होने वाली मॉनसून की बारिश सितंबर तक समाप्त हो जाती है जबकि फूल का बनना अक्टूबर में शुरू होता है और नवंबर में चरम पर होता है। इस वजह से कपास के फूल खासतौर पर ऐसी मिट्टी में पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते हैं जिसकी पानी सोखने की क्षमता कम होती है। नतीजतन फसल का उत्पादन कम होता है। लंबी अवधि में पकने वाली कपास की किस्मों का प्रदर्शन सबसे खराब होता है क्योंकि उन्हें फसल के विकास के अहम समय पर पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल पाता है।
पिछले खरीफ सीजन के दौरान किसानों की मदद से विदर्भ और आसपास के इलाकों में 155 जगहों पर इन किस्मों का परीक्षण किया गया और खराब मॉनसून व कपास के सबसे खराब कीट प्रकोप के बावजूद इसके नतीजे काफी शानदार रहे। कीड़े के प्रकोप पर काबू पाने के लिए कई इलाकों में कीटनाशकों का छिड़काव भी किया गया। इनमें से ज्यादातर जगहों पर कपास के उत्पादन में 35 से 40 प्रतिशत का इजाफा दर्ज किया गया। पूरे परीक्षण स्थल में कुल औसत प्रति हेक्टेअर 15 से 18 क्विंटल की रही, जो विदर्भ जिले में होने वाले सामान्य कपास उत्पादन का करीब दोगुनी है। सबसे ज्यादा उत्पादन चंद्रपुर, अमरावती और नागपुर के इलाकों में हुआ। इससे किसानों को प्रति हेक्टेअर 12,000 रुपये से 90,000 रुपये का फायदा हुआ जबकि इसकी खेती की लागत 20,000 रुपये से 25,000 रुपये प्रति हेक्टेअर आती है।
सीआइसीआर के निदेशक आर क्रांति के अनुसार इस तकनीक की सफलता ने कपास किसानों में उत्साह का संचार किया है। कुछ किसानों ने तो जैविक कपास उगाने के लिए उच्च घनत्व कपास खेती आजमाने का विकल्प चुना है। कपास वैज्ञानिकों के उत्साह और कपास किसानों की ओर से मिली प्रतिक्रिया को देखते हुए लगता है कि इस नई तकनीक में ऐसी ही एक और कपास क्रांति लाने की क्षमता है, जो पिछले दशक में बीटी कॉटन के आने के बाद आई थी।  सबसे अहम बात है कि इस तकनीक में जल सिंचाई के अभाव में फसल बरबाद होने से ग्रसित किसानों की इस समस्या का समाधान करने की संभावना है। जाहिर है कि राज्य कृषि विभागों को शोध संस्थानों के साथ मिलकर इस तकनीक के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना होगा।

Wednesday, July 10, 2013

क्या इतिहास हो जाएगी देसी कपास

नरमे के मुकाबले देशी कपास की कीमत कम मिलने की वजह से देश के किसानों का देसी कपास की खेती से मोह पूरी तरह भंग होता जा रहा है। इतना ही नहीं, घरों में सूत की कताई कर कपड़े बुनने का रुझान भी कम होने की वजह से किसानों ने देसी कपास से दूरी बना ली है। हालात ये हैं कि मंडियों में कपास की आवक के ग्राफ में आश्चर्यजनक गिरावट दर्ज की जा रही है जो कि देसी कपास के प्रति किसानों के उदासीन रवैये का स्पष्ट संकेत है। 
गौरतलब है कि इस बार पंजाब में करीब छह लाख हेक्टेअर क्षेत्रफल में नरमा की बिजाई की गई थी, लेकिन इसमें देसी कपास की बिजाई मात्र 60 हजार हेक्टेअर के करीब रही। घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल होने वाली इस देसी फसल से किसानों के किनारा करने के एक नहीं कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण नरमे के मुकाबले इसकी प्रति एकड़ उपज का कम होना माना जा रहा है। देसी कपास के विकल्प के रूप में पहले नरमा और अब ज्यादा उत्पादन देने वाली बीटी किस्मों के आ जाने से किसानों की इसकी खेती में रुचि और भी कम हो गई। एक एकड़ में बीटी नरमा से जहां 12 क्विंटल के आसपास झाड़ मिलता है, वहीं देसी कपास से मात्र 7-8 क्विंटल ही झाड़ मिल पाता है। इसके अलावा इसके भाव में भी काफी अंतर है। इन्हीं सब कारणों से किसानों का देसी कपास से मोहभंग होता जा रहा है। यही कारण है कि किसान ज्यादा उपज और मूल्य देने वाली नरमे की फसल को तरजीह देने लगा है। इसके अलावा हवा के झोके से इसकी रुई नीचे गिरने से इसकी बार-बार चुगाई की समस्या भी किसानों को परेशान करती है। इसके कारण वे इस फसल से दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझते हैं।
वर्ष 1996-97 में उत्तर भारत में जहां 16.25 लाख गाँठे (एक गाँठ 170 किलो) पैदा होती थी वहीं समस्त भारत में यह 169 लाख गाँठ पैदा होती जो कुल कपास उत्पादन का 9.6 प्रतिशत था। वर्ष 2011-12 में यह उत्पादन घटकर  उत्तर भारत में मात्र 1.75 लाख गाँठ और समस्त भारत यह घटकर कुल कपास उत्पादन का मात्र 0.50 प्रतिशत रह गया। इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि देसी कपास का उत्पादन क्षेत्र उत्तरी क्षेत्र में जबरदस्त घटा है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य गुणवत्ता और जरूरत के आधार पर नहीं रेशे की लम्बाई के आधार पर तय होता है। जाहिर है देसी कपास का रेशा अमेरिकन और बीटी कपास के रेशे से छोटा होता है, इसलिए इसकी कीमत भी कम मिलती है। आंकडों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्ष 2011-12, में देसी कापस के एमएसपी 2500 प्रति क्विंटल था, जो वर्ष 2012-13 में यह 2800 है। भारत सरकार द्वारा घोषित कापस के न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल काल्पनिक मूल्य है क्योंकि एमएसपी निरपवाद रूप से प्रचलित बाजार मूल्य से नीचे हैं। देसी कापस के वर्तमान प्रचलित बाजार मूल्य रुपये है. 4000 प्रति क्वि. जो सरकारी घोषित मूल्य से 38 प्रतिशत अधिक है।
बीटी कपास उच्च गुणवत्ता वाला मध्यम और लम्बे रेशे की वजह से उद्योगों की पहली पसंद बन गया। वहीं दूसरी तरफ देशी कपास की कमी की वजह से छोटे पैमाने पर कताई करने वाले,  हथकरघा क्षेत्र में, रजाई-चद्दर निर्माताओं और सर्जिकल कॉटन विनिर्माण आदि क्षेत्रों में लगभग 25 लाख श्रमिकों के रोजगार और सूती कपड़े के उत्पादन 25 प्रतिशत तक प्रभावित हो रहा है। ज्ञात रहे हथकरघा उद्योग पूरी तरह से मोटे सूत जो देशी कपास से निर्मित होता है पर निर्भर करता है। इतनी सारे बुरे समाचारों के बीच एक अच्छा समाचार यह है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आइसीएआर) के अधीन काम करने वाला केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआइसीआर) सर्जिकल में देशी कपास की खपत बढ़ाने के लिए निजी कंपनियों से गठजोड़ कर रहा है। याद रहे देश में सालाना अकेले सर्जिकल में ही करीब 20 लाख गांठ (एक गांठ 170 किलो) देशी कपास की खपत होती है।
सीआइसीआर के निदेशक डॉ. के. आर. क्रांति के अनुसार वे कई रुई निर्माता कंपनियों से इस बारे में बातचीत कर रहे हैं। ये कंपनियां किसानों को 4,000 रुपये प्रति क्विंटल का भाव देने को तैयार हैं। उन्होंने बताया कि संस्थान ने राठी केमिकल से करार भी कर लिया है। कई अन्य कंपनियों के साथ भी बातचीत चल रही है। संस्थान विदर्भ और मध्यप्रदेश के किसानों को देशी किस्म की जैविक कपास का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा हैं ताकि किसानों को फसल का उचित मूल्य मिल सके। सीआइसीआर के अंतर्गत काम करने वाले मुंबई स्थित केंद्रीय कपास टेक्नोलॉजी अनुसंधान संस्थान (सीआइआरसीओटी) का भी इसमें सहयोग भी लिया जा रहा है।
सीआइआरसीओटी कच्ची कपास को तैयार माल का रूप देने में सहयोग करेगा। उन्होंने बताया कि इस समय सर्जिकल उद्योग में पूर्वोत्तर और राजस्थान में पैदा होने वाली देशी किस्म की बंगाल कपास का उपयोग किया जा रहा है लेकिन इस किस्म की कपास को उपयोग से पहले रसायनिक उपचारित करने की जरूरत होती है लेकिन देशी कपास की जैविक खेती करने पर इसमें रसायनिक उपचार की जरूरत नहीं पड़ेगी। सीआइसीआर की आगामी सीजन में 500 हेक्टेअर में देशी किस्म की कपास की खेती करवाने की योजना है। उन्होंने बताया कि संस्थान के पास देशी कपास के बीजों का अच्छा भंडार है। देशी किस्मों में लोहित, एलडी-133, आरजी-8, एलडी-327, डीएस-21, एलडी-491 हैं इनके रेशे और अन्य खूबियां सर्जिकल कपास के लिए एकदम उपयुक्त है।