कल्पना करें आज से पच्चीस हजार वर्ष पहले की, जब आदमी मुख्यतया शिकार पर ही जीवन यापन करता था जब जंगल में उससे कहीं अधिक सशक्त जानवरों का राज्य था, तब यह दुर्बल सा प्राणी बिना हथियारों के मात्र लाठी और पत्थर की सहायता से अपनी रक्षा कैसे पाया? और कैसे उन सशक्त जानवरों को अपने वश में किया? यदि शारीरिक रूप से दुर्बल मानव जाति इन भयंकर जीव-जंतुओं के रहते अपनी रक्षा मात्र लाठी तथा पत्थरों से कर सकी थी, तब इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि यह 'सहयोग' या सहकार से ही हुआ होगा। सहयोग के तत्काल प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती सिवाय इसके कि 'शुभ कामनाएं' मिलें। किन्तु उस काल के आखेट में सहयोग में भी कुछ स्पष्ट 'लेन-देन' की भावना या मान्यता रही होगी, जैसे कि शिकार का मांस सभी में बँटता होगा। वास्तव में वह सहयोग अलिखित सहकार ही था, लिखित अनुबन्ध तो उन दिनों होते नहीं थे।
यूरोप के नवजागरण काल यानी सोलहवीं शती में उद्योगपतियों या व्यवासाइयों के 'गिल्ड' हुआ करते थे जो उद्योग या व्यापार के नियम बनाते और उनका सभी घटकों में पालन होते भी देखते थे; किन्तु वह आधुनिक अर्थों में 'सहकारिता' नहीं थी। अधिकांश विद्वान यह कहते हैं कि सहकारिता तो ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति पर प्रतिक्रिया की बीसवीं सदी की उपज है। किन्तु यह सुखद तथ्य है कि सहकारिता के विषय में विश्व में सर्वप्रथम श्रमिकों के संगठन, उद्योगपतियों या व्यवसाइयों, तथा गिल्ड, और सहकारिता के नियमों की जानकारी चाणक्य (330 ईसा पूर्व) द्वारा रचित अर्थशास्त्र (आर्थिक शास्त्र नहीं, वरन शासन संहिता) में मिलती है और वह भी पर्याप्त विकसित रूप में। शासन निजी तथा शासकीय उद्योगों के कार्यों के सुचालन में उपयुक्त नियमों के बनाने तथा कार्यान्वयन में सक्रिय योगदान करता था।
सहयोग तथा सहकार
सहयोग तथा सहकार में मुख्य अंतर यह है कि, बिना सहयोग की भावना के सहकार नहीं हो सकता। दूसरा यह कि सहयोग अनौपचारिक है, और सहकार औपचारिक जिसमें लिखित नियम या अनुबन्ध भी होते हैं। तीसरा यह कि सहयोग में करने वाले को किसी अन्य लाभ की अपेक्षा नहीं होती, जबकि सहकार में लाभ या हानि बाँटी जाती है। चौथा अंतर है सहयोग करने वाले पक्षों के बीच घनिष्ठता तथा मैत्री होती है, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं, जबकि सहकार में मैत्री की भावना आवश्यक है। पांचवा यह कि सहकार में साझा व्यक्तियों के उद्देश्य तथा कार्य विधि में सहमति होना आवश्यक है जबकि सहयोग में सहमति का होना आवश्यक नहीं है।
सहकारिता आज
आजकल अनेक विशाल उद्योग, दूकानें, बैंक आदि सहकारिता के आधार पर चल रहे हैं, अधिकांशत:, इनके सदस्य उपभोक्ता होते हैं। विदेशों में यह बहुदा सफल हैं किन्तु एशिया में उतने कामयाब नहीं हैं। सहकारिता को इस देश में भी वांछनीय महत्त्व या सम्मान नहीं मिलता। सोचने की बात है कि सहकारिता की इस नगण्य प्रगति में हमारा चरित्र ही प्रमुख कारण है या रूसी सोच पर आधारित समाजवाद(यूनिअनिजम) या फिर अधकचरा पूँजीवाद? जब विश्व में इसके तहत खरबों डालर का कार्य सुचारु और व्यवस्थित रूप से चल रहा है, तब हम भी समस्याओं के हल निकाल सकते हैं, किन्तु वे मूलभूत विचार में कमी के कारण फिर भी सीमित रहेंगे। सहकारिता के कार्य में कार्मिकों में दक्षता के साथ उपरोक्त मूल्य, यथा, सच्चाई, सेवाभाव, कर्तव्यनिष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक हैं। यह चरित्र का विषय तो है ही, किन्तु साथ ही व्यक्ति की समग्र जीवन दृष्टि का भोगवादी न होकर 'त्यागमय-भोगवादी' होना भी आवश्यक है।
सहकारिता का भविष्य
सहाकारिता की मानवीय दृष्टि न तो आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती है। पूँजीवाद में पैसे की गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफिय़ा नागरिकों पर हावी रहता है और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही सच्चे अर्थों में मानववादी नहीं हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। अत: इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सन 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उसने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्त्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2012 को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।
सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की भावना सन्निहित है, किन्तु इसमें क्न्ज़्यूमैरिजम अर्थात उपभोक्तावाद का विरोध सीमित ही है- जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा आतुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की कामना करता है- सर्वे भवन्तु सुखिन: और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे का आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावास्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।
यूरोप के नवजागरण काल यानी सोलहवीं शती में उद्योगपतियों या व्यवासाइयों के 'गिल्ड' हुआ करते थे जो उद्योग या व्यापार के नियम बनाते और उनका सभी घटकों में पालन होते भी देखते थे; किन्तु वह आधुनिक अर्थों में 'सहकारिता' नहीं थी। अधिकांश विद्वान यह कहते हैं कि सहकारिता तो ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति पर प्रतिक्रिया की बीसवीं सदी की उपज है। किन्तु यह सुखद तथ्य है कि सहकारिता के विषय में विश्व में सर्वप्रथम श्रमिकों के संगठन, उद्योगपतियों या व्यवसाइयों, तथा गिल्ड, और सहकारिता के नियमों की जानकारी चाणक्य (330 ईसा पूर्व) द्वारा रचित अर्थशास्त्र (आर्थिक शास्त्र नहीं, वरन शासन संहिता) में मिलती है और वह भी पर्याप्त विकसित रूप में। शासन निजी तथा शासकीय उद्योगों के कार्यों के सुचालन में उपयुक्त नियमों के बनाने तथा कार्यान्वयन में सक्रिय योगदान करता था।
सहयोग तथा सहकार
सहयोग तथा सहकार में मुख्य अंतर यह है कि, बिना सहयोग की भावना के सहकार नहीं हो सकता। दूसरा यह कि सहयोग अनौपचारिक है, और सहकार औपचारिक जिसमें लिखित नियम या अनुबन्ध भी होते हैं। तीसरा यह कि सहयोग में करने वाले को किसी अन्य लाभ की अपेक्षा नहीं होती, जबकि सहकार में लाभ या हानि बाँटी जाती है। चौथा अंतर है सहयोग करने वाले पक्षों के बीच घनिष्ठता तथा मैत्री होती है, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं, जबकि सहकार में मैत्री की भावना आवश्यक है। पांचवा यह कि सहकार में साझा व्यक्तियों के उद्देश्य तथा कार्य विधि में सहमति होना आवश्यक है जबकि सहयोग में सहमति का होना आवश्यक नहीं है।
सहकारिता आज
आजकल अनेक विशाल उद्योग, दूकानें, बैंक आदि सहकारिता के आधार पर चल रहे हैं, अधिकांशत:, इनके सदस्य उपभोक्ता होते हैं। विदेशों में यह बहुदा सफल हैं किन्तु एशिया में उतने कामयाब नहीं हैं। सहकारिता को इस देश में भी वांछनीय महत्त्व या सम्मान नहीं मिलता। सोचने की बात है कि सहकारिता की इस नगण्य प्रगति में हमारा चरित्र ही प्रमुख कारण है या रूसी सोच पर आधारित समाजवाद(यूनिअनिजम) या फिर अधकचरा पूँजीवाद? जब विश्व में इसके तहत खरबों डालर का कार्य सुचारु और व्यवस्थित रूप से चल रहा है, तब हम भी समस्याओं के हल निकाल सकते हैं, किन्तु वे मूलभूत विचार में कमी के कारण फिर भी सीमित रहेंगे। सहकारिता के कार्य में कार्मिकों में दक्षता के साथ उपरोक्त मूल्य, यथा, सच्चाई, सेवाभाव, कर्तव्यनिष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक हैं। यह चरित्र का विषय तो है ही, किन्तु साथ ही व्यक्ति की समग्र जीवन दृष्टि का भोगवादी न होकर 'त्यागमय-भोगवादी' होना भी आवश्यक है।
सहकारिता का भविष्य
सहाकारिता की मानवीय दृष्टि न तो आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती है। पूँजीवाद में पैसे की गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफिय़ा नागरिकों पर हावी रहता है और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही सच्चे अर्थों में मानववादी नहीं हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। अत: इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सन 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उसने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्त्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2012 को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।
सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की भावना सन्निहित है, किन्तु इसमें क्न्ज़्यूमैरिजम अर्थात उपभोक्तावाद का विरोध सीमित ही है- जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा आतुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की कामना करता है- सर्वे भवन्तु सुखिन: और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे का आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावास्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।
विश्व मोहन तिवारी
सेवा-निवृत एअर वाइस मार्शल, नोएडा-201 301
सेवा-निवृत एअर वाइस मार्शल, नोएडा-201 301