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Tuesday, October 30, 2012

सहकारिता कल, आज और कल

कल्पना करें आज से पच्चीस हजार वर्ष पहले की, जब आदमी मुख्यतया शिकार पर ही जीवन यापन करता था जब जंगल में उससे कहीं अधिक सशक्त जानवरों का राज्य था, तब यह दुर्बल सा प्राणी बिना हथियारों के मात्र लाठी और पत्थर की सहायता से अपनी रक्षा कैसे पाया? और कैसे उन सशक्त जानवरों को अपने वश में किया? यदि शारीरिक रूप से दुर्बल मानव जाति इन भयंकर जीव-जंतुओं के रहते अपनी रक्षा मात्र लाठी तथा पत्थरों से कर सकी थी, तब इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि यह 'सहयोग' या सहकार से ही हुआ होगा। सहयोग के तत्काल प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती सिवाय इसके कि 'शुभ कामनाएं' मिलें। किन्तु उस काल के आखेट में सहयोग में भी कुछ स्पष्ट 'लेन-देन' की भावना या मान्यता रही होगी, जैसे कि शिकार का मांस सभी में बँटता होगा। वास्तव में वह सहयोग अलिखित सहकार ही था, लिखित अनुबन्ध तो उन दिनों होते नहीं थे।

यूरोप के नवजागरण काल यानी सोलहवीं शती में उद्योगपतियों या व्यवासाइयों के 'गिल्ड' हुआ करते थे जो उद्योग या व्यापार के नियम बनाते और उनका सभी घटकों में पालन होते भी देखते थे; किन्तु वह आधुनिक अर्थों में 'सहकारिता' नहीं थी। अधिकांश विद्वान यह कहते हैं कि सहकारिता तो ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति पर प्रतिक्रिया की बीसवीं सदी की उपज है। किन्तु यह सुखद तथ्य है कि सहकारिता के विषय में विश्व में सर्वप्रथम श्रमिकों के संगठन, उद्योगपतियों या व्यवसाइयों, तथा गिल्ड, और सहकारिता के नियमों की जानकारी चाणक्य (330 ईसा पूर्व) द्वारा रचित अर्थशास्त्र (आर्थिक शास्त्र नहीं, वरन शासन संहिता) में मिलती है और वह भी पर्याप्त विकसित रूप में। शासन निजी तथा शासकीय उद्योगों के कार्यों के सुचालन में उपयुक्त नियमों के बनाने तथा कार्यान्वयन में सक्रिय योगदान करता था।
सहयोग तथा सहकार
सहयोग तथा सहकार में मुख्य अंतर यह है कि, बिना सहयोग की भावना के सहकार नहीं हो सकता। दूसरा यह कि सहयोग अनौपचारिक है, और सहकार औपचारिक जिसमें लिखित नियम या अनुबन्ध भी होते हैं। तीसरा यह कि सहयोग में करने वाले को किसी अन्य लाभ की अपेक्षा नहीं होती, जबकि सहकार में लाभ या हानि बाँटी जाती है। चौथा अंतर है सहयोग करने वाले पक्षों के बीच घनिष्ठता तथा मैत्री होती है, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं, जबकि सहकार में मैत्री की भावना आवश्यक है। पांचवा यह कि सहकार में साझा व्यक्तियों के उद्देश्य तथा कार्य विधि में सहमति होना आवश्यक है जबकि सहयोग में सहमति का होना आवश्यक नहीं है।
सहकारिता आज
आजकल अनेक विशाल उद्योग, दूकानें, बैंक आदि सहकारिता के आधार पर चल रहे हैं, अधिकांशत:, इनके सदस्य उपभोक्ता होते हैं। विदेशों में यह बहुदा सफल हैं किन्तु एशिया में उतने कामयाब नहीं हैं। सहकारिता को इस देश में भी वांछनीय महत्त्व या सम्मान नहीं मिलता। सोचने की बात है कि सहकारिता की इस नगण्य प्रगति में हमारा चरित्र ही प्रमुख कारण है या रूसी सोच पर आधारित समाजवाद(यूनिअनिजम) या फिर अधकचरा पूँजीवाद? जब विश्व में इसके तहत खरबों डालर का कार्य सुचारु और व्यवस्थित रूप से चल रहा है, तब हम भी समस्याओं के हल निकाल सकते हैं, किन्तु वे मूलभूत विचार में कमी के कारण फिर भी सीमित रहेंगे। सहकारिता के कार्य में कार्मिकों में दक्षता के साथ उपरोक्त मूल्य, यथा, सच्चाई, सेवाभाव, कर्तव्यनिष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक हैं। यह चरित्र का विषय तो है ही, किन्तु साथ ही व्यक्ति की समग्र जीवन दृष्टि का भोगवादी न होकर 'त्यागमय-भोगवादी' होना भी आवश्यक है।
सहकारिता का भविष्य
सहाकारिता की मानवीय दृष्टि न तो आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती है। पूँजीवाद में पैसे की गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफिय़ा नागरिकों पर हावी रहता है और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही सच्चे अर्थों में मानववादी नहीं हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। अत: इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सन 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उसने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्त्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2012 को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।
सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की भावना सन्निहित है, किन्तु इसमें क्न्ज़्यूमैरिजम अर्थात उपभोक्तावाद का विरोध सीमित ही है- जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा आतुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की कामना करता है- सर्वे भवन्तु सुखिन: और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे का आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावास्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।

विश्व मोहन तिवारी
सेवा-निवृत एअर वाइस मार्शल, नोएडा-201 301

Monday, October 29, 2012

सत्ता का सोपान बनी सहकारिता

माना जाता है कि सहकारिता देश में सदियों से चली आ रही संयुक्त परिवार प्रणाली के सिद्धातों पर आधारित है। चाहे वर्तमान में सहकारिता की नींव रहे संयुक्त परिवार न रहे हों पर सहकारिता अभी जिन्दा है। यह अलग बात है कि आज सहकारिता के अर्थ और संदर्भ दोनों बदल चुके हैं।  आजादी के बाद से ही देश में सहकारिता का स्थान व्यक्तिवादिता लेने लगी। जिसका परिणाम यह हुआ कि सहयोग का स्थान प्रतिस्पर्धा ले लिया, जिसका असर किसानों एवं गरीब लोगों की स्थिति पर भी साफ नजर आने लगा।
हो सकता है 19 वीं सदी के आरंभ में जब सहकारिता की नींव रखी गई तब शायद व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक क्षेत्रों की आर्थिक प्रणालियों में पाए जाने वाले दोषों का निवारण करने का उपाय इसमें शामिल रहे हों। दरअसल सहकारिता इन दोनों के बीच की स्थिति है। 1915 में गठित मैकलगेन समिति के अनुसार, सहकारिता का सिद्धांत यह है कि- एक अकेला साधनहीन व्यक्ति भी अपने स्तर के व्यक्तियों का संगठन बनाकर, एक दूसरे के सहयोग, नैतिक विकास व पारस्परिक समर्थन से अपनी कार्यक्षमता के अनुसार, धनवान, शक्तिशाली व साधन संपन्न व्यक्तियों को उपलब्ध सभी भौतिक लाभ समान स्तर पर प्राप्त कर सकता है। लेकिन, सहकारिता के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए कहा जा सकता है कि इसके मूल स्वरूप के सिद्धांत में नैतिक विकास और परस्पर सहयोग की भावना सिरे से गायब हैं। 
अकसर ऐसे समाचार मिल जाते हैं कि अमुक सहकारी बैंक या सहकारी मिल बंदरबांट या घोटाले की वजह से बंद हो रही है। सहकारी समितियों के कामकाज, उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और राजनीतिक घुसपैठ के कारण सहकारिता के मूल स्वरूप पर मंडराते खतरे पर निरंतर उठते सवालों से जाहिर होता है कि किस तरह से प्रभावशाली लोगों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इन जनसंस्थाओं पर तानाशाहीपूर्वक कब्जा कर जनता को उनके अधिकारों से बेदखल कर रखा है। महाराष्ट्र में शरद पवार और गोपीनाथ मुंडे जैसे राजनीतिज्ञ चीनी सहकारी मिलों के जरिए अपनी राजनीति चमकाने में सफल हुए हैं।
एक समय था सहकारिता के कारण गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के किसानों को एक नई दिशा मिली और उनके लिए तरक्की की राह प्रशस्त हो सकी। किन्तु धीरे-धीरे महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के कारण बड़ी जोत वाले किसानों का दबदबा सहकारी मिलों पर बढ़ता चला गया और उनके नियंत्रात्मक ढांचों में बदलाव आने लगे। अब शुगर फैक्ट्रियों के संचालक मंडल के चुनावों में धन महत्त्वपूर्ण कारक बनता जा रहा है। धनाढय़ एवं शक्तिशाली किसान अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष जैसे पदों को हथियाने लगे हैं और अधिसंख्यक आम सदस्य किसानों के अधिकार नाममात्र के रह गए हैं। अगर कोई इनके सामने खड़ा होने की जुरअत कर भी ले तो उन्हें प्रबंधकों के गुस्से का शिकार बनना पड़ता है। ऐसे किसानों को सबक सिखाने के लिए उनके खेतों से गन्ना नहीं खरीदा जाता, पानी एवं बिजली के कनेक्शन कटवा दिये जाते हैं, उधार पर रोक लगा दी जाती है। सवाल उठता है कि इन हालात में सहकारी संस्थानों की क्या प्रासंगिकता रह जाती है? आधिकारिक जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र में कोई भी ऐसा सहकारी संस्थान नहीं है, जिस पर राजनीतिज्ञों का नियंत्रण न हो। वहां की 5 प्रतिशत चीनी मिलों पर भारतीय जनता पार्टी, 35 प्रतिशत पर कांग्रेस और शेष 60 प्रतिशत पर राष्ट्रवादी कांग्रेस का कब्जा है। 
कुल मिला कर देश के सभी राज्यों में सहकारी संस्थान राजनेताओं की सत्ता की सीढ़ी बने हुए हैं। यह अलग बात है कि उत्तर भारत में ये संस्थाएं तीसरे-चौथे दर्जे के नेताओं की शरण-स्थली बनी हुई हैं। भारत सरकार के पूर्व गृह सचिव माधव गोडबोले और अर्थशास्त्री डा. प्रदीप आपटे जैसे लोग इस तरह के सहकारी संस्थानों की दशा में सुधार हेतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि आम लोग सहकारी संस्थाओं के सदस्य तो हैं, लेकिन सिवाय मताधिकार के उनके पास कोई और अधिकार नहीं है। व्यावसायिक तथ्यों की यहां हमेशा अवहेलना हुई है। बैकुण्ठ मेहता नैशनल कोऑपरेटिव इंस्टीट्यूट, पुणे से सम्बद्ध एस.पी. भोंसले कहते हैं कि सहकारी संस्थानों में होने वाले चुनाव कामकाज में बाधा पहुंचाते हैं और उन पर जमकर दलगत राजनीति (पार्टी पॉलीटिक्स) बुरी तरह हावी रहती है। वे कहते हैं कि महाराष्ट्र विधानसभा में 80 प्रतिशत लोग ऐसे मंत्री हैं, जो किसी न किसी रूप में सहकारी समितियों से जुड़े हुए हैं। जबकि गोआ विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति डा. पद्माकर दुभाषी कहते हैं कि- सहकारी संस्थाओं में लोकतंत्र की जगह परिवारतंत्र का दौर है।

Sunday, October 28, 2012

सहकारिता का भविष्य

गुजरात और कुछ हद तक महाराष्ट्र को छोड़कर समूचे उत्तर भारत में सहकारिता आन्दोलन पर नजर डालें तो सहकारिता का अर्थ कुछ और ही दिखता है। बिहार और मध्यप्रदेश से लेकर हरियाणा, राजस्थान और पंजाब तक फैली आखिरी सांस लेती चीनी, रूई और तेल मिलें, लगातार बंद होते सहकारी बाजार और करोड़ों का घाटा देते सहकारी बैंक ऐसे लगते हैं जैसे वर्षों पहले मर चुकी सहकारिता के मजार हों। इन सबके बावजूद दिल्ली के सबसे मंहगे इलाके सीरी फोर्ट में एन.सी.डी.सी., एन.सी.यू.आई. जैसे दो दर्जन कार्यालय पूरी शानो-शौकत से पता नहीं किस वजह से खड़े हैं। सहकारिता की ये ऊंची-ऊंची इमारतें शायद इस बात की गवाह हैं कि नेता और अफसर न होते तो सरकारी मदद पर जिन्दा रहने वाली सहकारिता कभी भी इतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच जाती।
उत्तर भारत की सहकारिता को अगर नेताओं और अधिकारियों की सहकारिता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। किसी जिले के छोटे से सहकारी बैंक में भी अगर निदेशक का पद मिल गया तो उनकी सात पीढिय़ों के तक के वारे-न्यारे हो जाते हैं। घाटा होता है तो राहत पैकेज देने के लिए सरकार तैयार बैठी है। यही वजह है कि हमारे सभी नेताओं को सहकारिता में टांग फसाना बहुत ज्यादा पसंद है। एक बार कोई पद मिल जाए तो उसके बाद किसी भी चुनाव में हार-जीत की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहता। दफ्तर मिला हुआ है, ए.सी. लगा हुआ है, गाडिय़ां दौड़ रही हैं और भत्ते पक रह हैं। यही वजह है कि सहकारिता भ्रष्ट नेताओं की नर्सरी बनी हुई है। भले ही इसमें लिज्जत उद्योग जैसी ईमानदारी और कार्यकुशलता हो न हो, उसके पापड़ जैसा स्वाद जरूर है।
इस बात की ताइद तो इफको के प्रबंध निदेशक उदयशंकर अवस्थी भी करते हैं, उनका कहना है कि- सहकारिता में अभी भी 19 वीं सदी के व्यापार मॉडल का पालन हो रहा है, जिसे कचरा-पेटी में डालने की जरूरत है। आज के युग में रुपए की अस्थिरता, बैंक ऋण नीति, अस्थिर कमोडिटी कीमतें, किसानों के लिए नवीन उत्पाद खरीदना आदि अनेक चुनौतियों के होते केवल सामरिक खरीदी और अत्याधुनिक योजना से ही कोई सहकारी संस्थान लाभ के अनुपात को बनाए रखने में सफल हो सकता है।