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Sunday, June 12, 2011

खतरनाक खाद है या हमारी अधकचरी सोच?

वैसे तो खेती का इतिहास लगभग दस हजार साल पुराना है पर भारत में आधुनिक खेती का दौर 1960 में हरित क्रांति की शुरूआत के साथ आया। आज देश में कृषि उत्पादकता की रफ्तार इतनी धीमी पड़ चुकी है कि यह दो फीसदी की सालाना दर से बढ़ रही जनसंख्या की मांग को पूरा करने में भी असमर्थ है। इन हालात में भारत सरकार दूसरी हरित क्रांति पर विचार कर रही है। हम जानते हैं कि लगातार रासायनिक कीटनाशक और सिंथेटिक उर्वरकों के इस्तेमाल ने हमारे खेतों की मृदा को बर्बादी की ओर धकेल दिया है। उर्वरकों के असंतुलित और अत्यधिक प्रयोग से हमारा प्राकृतिक आधार लगभग नष्ट हो चुका है। हरित क्रांति के बाद से रासायनिक खाद की खपत बेतहाशा बढ़ी है। जहां देश में उर्वरकों की कुल खपत 1950-51 तक मात्र 7,0000 टन थी वो 2008-09 में बढ़कर 2.3 करोड़ टन हो गई है। इसमें भी कोई कोई संदेह नहीं है कि भारत में रासायनिक खादों की औसत खपत बहुत से एशियाई देशों के मुकाबले काफी कम है। चीन में जहां यह आंकडा़ 290 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर है वहीं भारत में यह खपत 113.२६ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ही है।
अज्ञान और अनुदान की सरकारी नीति के कारण नाइट्रोजन उर्वरक का उपयोग हमेशा ज्यादा रहा है। सरकार यूरिया पर सबसे ज्यादा छूट देती है और किसान भी यूरिया ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल करता है। यही कारण है कि देश में बिकनेवाली समस्त रासायनिक खाद में से आधी मात्रा सिर्फ यूरिया की है। जिसकी वजह से मिट्टी की पोषकता और पर्यावरण को लगातार नुकसान हो रहा है। उदाहरण के लिए, 50 किलो वजन वाले यूरिया के एक थैले में मात्र 23 किलो ही नाइट्रोजन होता है शेष 27 किलो तो राख या फिलर होता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइ.सी.ए.आर.) के अध्ययन के अनुसार यूरिया के अकेले और लगातार इस्तेमाल के कारण उत्पादकता घटी है। मिट्टी के क्षरण के चलते न केवल इसमें अम्लीयता एवं लवणता बढ़ी है बल्कि भौतिक गुण जैसे पानी सोखने की क्षमता और मिट्टी की संरचना को भी नुकसान हुआ है, इसलिए जैविक खाद का उपयोग बढ़ाने पर जोर दिया गया है। और दूसरी तरफ रासायनिक खाद पर अनुदान  सन 2001-2002 से अब तक 12,000 करोड़ रुपये से बढ़कर एक लाख करोड़ रुपये सालाना हो गया है। यह उर्वरक अनुदान किसानों को सस्ती खाद मुहैया कराने के मकसद से दिया जा रहा है लेकिन इसका अधिकतम लाभ किसान को नहीं खाद निर्माताओं को मिल रहा है।
ये आंकडे इस बात के द्योतक हैं कि हमारी कथनी और करनी में भारी अंतर है। एक तरफ हम रासायनिक खाद के अवगुण गिनवा रहे हैं तो दूसरी ओर उसके इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए अनुदान की राशि बढ़ा रहे हैं। देश बड़े भ्रम की स्थिति में है कि किस बात को सच माने। खबर आती है कि कृषि योग्य जमीन और उत्पादकता दोनों निरंतर घट रही है साथ ही ये समाचार भी मिलते हैं कि बम्पर पैदावार के कारण सरकार के पास उसे रखने की जगह तक नहीं है। यही वजह है कि कृषि विषेशज्ञों की इस चेतावनी को कि- यूरिया का असंतुलित प्रयोग खेती व स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है को कोई नहीं सुनता। देश के तीन चौथाई किसान छोटी जोत वाले हैं। ये किसान अपनी उपलब्ध जमीन से हर हाल में अधिकतम पैदावार लेना चाहेंगें, इस बात की परवाह किए बगैर कि उनके द्वारा प्रयोग की जा रही रासायनिक खाद और कीटनाशक जमीन या पर्यावरण पर कितना बुरा असर डालेंगें। सच्चाई तो यह है कि किसान की जमीन लगातार घटती जा रही है, और वह कम जमीन से अधिकतम पैदावार लेने के लिए आंख मूंदकर रासायनिक खादों का प्रयोग करेगा। ऐसे में हमें कुछ प्रश्नों पर विचार करना पड़ेगा कि (1) क्या खेत में रसायनों का प्रयोग खतरनाक है?  (2) यह भय कि हमारी जरूरत देसी परम्परागत बीजों और ढ़ेर सारे जानवरों के गोबर से बनी खाद से पूरी हो पाएगी? (3) यह चिन्ता कि क्या देसी बीज और तकनीक के भरोसे विशाल सवा अरब आबादी का पेट भरा जा सकता है? (4 )क्या यह संभव है कि नीम की खली और पत्तियों का इस्तेमाल कर फसलों को कीटों के प्रकोप से बचाया जा सकता है? (5)क्या इतनी संख्या में नीम के पेड़ हैं देश में? हकीकत यह है कि छोटी जोत के चलते गोबर खाद और अन्य कृषि कार्यों के लिए जानवर रखना वैसे ही असंभव हो चुका है। रासायनिक खाद के अंधाधुंधा इस्तेमाल को रोकना इसलिए भी संभव नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाऐं विकासशील देशों की सरकारों को कृषि पर अनुदान देने से मना कर सकती हैं। दरअसल उनका पहला लक्ष्य अपने देश की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों फायदा पहुंचाने का है न कि हमें सहयोग देने का।
इसलिए अब समय आ गया है कि हम पहले यह तय करें कि रासायनिक खाद ज्यादा खतरनाक है या हमारी अधकचरी नीतियां? हमें एक बार फिर अपनी कृषि योजनाओं को पुन: परिभाषित करना होगा क्योंकि इन हालातों में हम अपनी संतानों के लिए शायद ही हम कृषि योग्य जमीन छोड़े ही नहीं पाएंगे। जैसा कि स्पेनिश दार्शनिक होमे आर्तिगा ई गामेत कहते हैं कि- 'हमारी देशभक्ति भी अब दावं पर लगी हुई है, आज देशभक्ति का अर्थ अपने पुरखों की भूमि की रक्षा करना ही नहीं अपितु अपनी संतानों के लिए भूमि संरक्षण भी है।'

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